‘आज हमें जिहाद की जरूरत है- इस धर्म के ढोंग के खिलाफ, इस धार्मिक तुनकमिजाजी के खिलाफ। जातिगत झगड़े बढ़ रहे हैं। खून की प्यास लग रही है। एक-दूसरे को फूटी आँखों भी हम देखना नहीं चाहते। अविश्वास, भयातुरता और धर्माडम्बर के कीचड़ में फँसे हुये हम नारकीय जीव, यह समझ रहे हैं कि हमारी सिर फुटौव्वल से धर्म की रक्षा हो रही है। हमें आज शंख उठाना है इस धर्म के विरुद्ध जो तर्क, बुद्धि और अनुभव की कसौटी पर ठीक नहीं उतर सकता। भारतवासियो, एक बात सदा ध्यान में रखो! धार्मिक कट्टरता का युग चला गया। आज से 500 वर्ष पूर्व यूरोप जिस अंधविश्वास, दम्भ और धार्मिक बर्बरता के युग में था, उस युग में भारतवर्ष को घसीटकर मत ले जाओ। जो मूर्खतायें अब तक हमारे व्यक्तिगत जीवन का नाश कर रही थीं, वे अब राष्ट्रीय प्रांगण में फैलकर हमारे बचे-खुचे मानव-भावों का लोप कर रही हैं। जिनके कारण हमारा व्यक्त्तित्व पतित होता गया, अब उन्हीं के कारण हमारा देश तबाह हो रहा है। हिन्दू-मुसलमानों के झगड़ों और हमारी कमजोरियों को दूर करने का केवल एक यही तरीका है कि समाज के कुछ सत्यनिष्ठ और सीधे दृढ़-विश्वासी पुरुष धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध जिहाद कर दें। जब तक यह मूर्खता नष्ट न होगी तब तक देश का कल्याण न होगा। समझौते कर लेने, नौकरियों का बँटवारा कर लेने और अस्थायी सुलहनामों को लिखकर हाथ काले करने से देश को स्वतन्त्रता न मिलेगी। हाथ में खड्ग लेकर तर्क और ज्ञान की प्रखर करताल लेकर आगे बढ़ने की जरूरत है। पाप के गड्ढे राष्ट्र के राजमार्ग पर न खोदना चाहिये, क्योंकि भारत की राष्ट्रीयता का रथ उस पर होकर गुजर रहा है। हम चाहते हैं कि कुछ आदमी ऐसे निकल आयें- जिनमें हिन्दू भी हों और मुसलमान भी- जोकि इन सब मूर्खताओं की, जिनके हिन्दू और मुसलमान दोनों शिकार हो रहे हैं- तीव्र निन्दा करें। यह निश्चय है कि पहले-पहल इनकी कोई न सुनेगा। इन पर पत्थर फेंके जायेंगे। ये प्रताड़ित और निन्दा-भाजन होंगे। पर अपने सिर पर सारी निंदा और सारी कटुता को लेकर जो आगे आना चाहते हैं, उन्हीं को राष्ट्र यह निमंत्रण दे रहा है। सीस उतारे भुईं धरै, ता पर राखे पाँव, ऐसे जो हों, वे ही आवें।'
Saturday, 29 November 2014
'मीडिया हूं मैं' से उद्धृत माखनलाल चतुर्वेदी
'मैंने तो जर्नलिज्म में साहित्य को स्थान दिया था। बुद्धि के ऐरावत पर म्यूनिसिपल का कूड़ा ढोने का जो अभ्यास किया जा रहा है अथवा ऐसे प्रयोग से जो सफलता प्राप्त की जा रही है उसे मैं पत्रकारिता नहीं मानता। मुफ्त में पढ़ने की पद्धति हिंदी से अधिक किसी भाषा में नहीं। रोटी, कपड़ा, शराब का मूल्य तो वह देता है पर ज्ञान और ज्ञान प्रसाधन का मूल्य चुकाने को वह तैयार नहीं। हिंदी का सबसे बड़ा शत्रु यही है। हिंदी भाषा का मासिक साहित्य एक बेढंगे और गए बीते जमाने की चाल चल रहा है। यहां बरसाती कीड़ों की तरह पत्र पैदा होते हैं। फिर यह आश्चर्य नहीं कि वे शीघ्र ही क्यों मर जाते हैं। यूरोप में हर एक पत्र अपनी एक निश्चित नीति रखता है। हिंदी वालों को इस मार्ग में नीति की गंध नहीं लगी। यहां वाले जी में आते ही, हमारे समान चार पन्ने निकाल बैठने वाले हुआ करते हैं। उनका न कोई आदर्श और उद्देश्य होता है, न दायित्व। किसी भी देश या समाज की दशा का वर्तमान इतिहास जानना हो तो वहां के किसी सामयिक पत्र को उठाकर पढ़ लीजिए, वह आपसे स्पष्ट कर देगा। राष्ट्र के संगठन में पत्र जो कार्य करते हैं वह अन्य किसी उपकरण से होना कठिन है। समाचारपत्रों की घटती लोकप्रियता के लिए दोषी वे लोग ही नहीं हैं जो पत्र खरीदकर नहीं पढ़ते। अधिक अंशों में वे लोग भी हैं जो पत्र संपादित और प्रकाशित करते हैं। उनमें अपने लोकमत की आत्मा में पहुंचने का सामर्थ्य नहीं। वे अपनी परिस्थिति को इतनी गंदी और निकम्मी बनाए रखते हैं, जिससे उनके आदर करने वालों का समूह नहीं बढ़ता है।'
'मीडिया हूं मैं' से उद्धृत योगेंद्र यादव की टिप्पणी
अधिकांश अख़बार और टीवी चैनल पूंजीपति या कंपनी की मिलकीयत में हैं और मालिक मीडिया का इस्तेमाल अपने व्यावसायिक हितों के लिए करना चाहता है। अनेक मीडिया घरानों के मालिक या तो रियल एस्टेट का धंधा चलाते हैं, या फिर रियल एस्टेट में अनाप-शनाप पैसा कमाने वाले टीवी चैनेल खोल लेते हैं। जो अपने अख़बार या चैनल का प्रसार कर उससे पैसा कमाना चाहे, उसे तो धर्मात्मा मानना चाहिए। असली दिक़्कत यह है कि मीडिया का इस्तेमाल दलाली और ब्लैकमेल के लिए भी होता है। मीडिया और पूँजी के इस नापाक रिश्ते पर कुछ बंदिशें लगनी जरूरी हैं। हर अख़बार या चैनल के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि वह अपने मालिक के हर अन्य व्यावसायिक हितों की घोषणा करे। मालिक के स्वार्थ से जुड़ी हर ख़बर में इस संबंध का ज़िक्र करना ज़रूरी हो। ख़बरों की ख़रीद फ़रोख्त पर पाबंदी लगे। मीडिया और राजनीति का रिश्ता परोक्ष से प्रत्यक्ष तक पूरी इबारत से बंधा है। देश के कई इलाक़ों में राजनेता या उनके परिवार मीडिया के मालिक हैं और उसका इस्तेमाल खुल्लमखुल्ला अपनी राजनीति के लिए करते हैं। एक मायने में यह प्रत्यक्ष नियंत्रण कम ख़तरनाक़ है क्योंकि हर कोई इसे जानता है। इससे ज़्यादा ख़तरनाक़ है 'स्वतंत्र' मीडिया पर पिछले दरवाज़े से कब्ज़ा। तमाम राज्य सरकारें अख़बारों पर न्यूज़प्रिंट, विज्ञापन और प्रलोभन के ज़रिए दबाव बनाती हैं। मीडियाकर्मियों की सामाजिक पृष्ठभूमि के आंकड़े सार्वजनिक करने की ज़रूरत है। सीएसडीएस के एक शोध ने देश के शीर्ष हिंदी और अंग्रेज़ी अख़बारों की खबरों के विश्लेषण की एक ख़ौफ़नाक तस्वीर पेश की है। इस विश्लेषण के मुताबिक शीर्ष छह अख़बारों में कुल छपी खबरों में महज़ दो फ़ीसद गांव-देहात के बारे में होती हैं। हरियाणा में चौटाला सरकार जैसी सरकार के कार्यकाल के दौरान इन हथकंडों में दादागिरी भी जुड़ जाती है, लेकिन नीतीश कुमार जैसे नफ़ीस और लोकप्रिय मुख्यमंत्री भी मीडिया को "मैनेज" करने के हथकंडे अपनाते पाए जाते हैं। कश्मीर और पूर्वोत्तर में सुरक्षाबल भी कई बार मीडिया पर बंदिश लगाते हैं। मीडिया को इस दबाव से मुक्त करने के लिए चुनाव आयोग को मीडिया और राजनीति के रिश्तों की शिनाख़्त करने का अधिकार मिलाना चाहिए। ----------Adhikānśa aḵẖabāra aura ṭīvī cainala pūn̄jīpati yā kampanī kī milakīyata mēṁ haiṁ aura mālika mīḍiyā kā istēmāla apanē vyāvasāyika hitōṁ kē li'ē karanā cāhatā hai. Anēka mīḍiyā gharānōṁ kē mālika yā tō riyala ēsṭēṭa kā dhandhā calātē haiṁ, yā phira riyala ēsṭēṭa mēṁ anāpa - śanāpa paisā kamānē vālē ṭīvī cainēla khōla lētē haiṁ. Jō apanē aḵẖabāra yā cainala kā prasāra kara usasē paisā kamānā cāhē, usē tō dharmātmā mānanā cāhi'ē. Asalī diqkata yaha hai ki mīḍiyā kā istēmāla dalālī aura blaikamēla kē li'ē bhī hōtā hai. Mīḍiyā aura pūm̐jī kē isa nāpāka riśtē para kucha bandiśēṁ laganī jarūrī haiṁ. Hara aḵẖabāra yā cainala kē li'ē yaha anivārya hōnā cāhi'ē ki vaha apanē mālika kē hara an'ya vyāvasāyika hitōṁ kī ghōṣaṇā karē. Mālika kē svārtha sē juṛī hara ḵẖabara mēṁ isa sambandha kā zikra karanā zarūrī hō. Ḵẖabarōṁ kī ḵẖarīda farōkhta para pābandī lagē. Mīḍiyā aura rājanīti kā riśtā parōkṣa sē pratyakṣa taka pūrī ibārata sē bandhā hai. Dēśa kē ka'ī ilāqōṁ mēṁ rājanētā yā unakē parivāra mīḍiyā kē mālika haiṁ aura usakā istēmāla khullamakhullā apanī rājanīti kē li'ē karatē haiṁ. Ēka māyanē mēṁ yaha pratyakṣa niyantraṇa kyōṅki hara kō'ī isē jānatā hai kama ḵẖataranāqa hai. Isasē zyādā ḵẖataranāqa hai' svatantra' mīḍiyā para pichalē daravāzē sē kabzā. Tamāma rājya sarakārēṁ aḵẖabārōṁ para n'yūzapriṇṭa, vijñāpana aura pralōbhana kē zari'ē dabāva banātī haiṁ. Mīḍiyākarmiyōṁ kī sāmājika pr̥ṣṭhabhūmi kē āṅkaṛē sārvajanika karanē kī zarūrata hai. Sī'ēsaḍī'ēsa kē ēka śōdha nē dēśa kē śīrṣa hindī aura aṅgrēzī aḵẖabārōṁ kī khabarōṁ kē viślēṣaṇa kī ēka ḵẖaufanāka tasvīra pēśa kī hai. Isa viślēṣaṇa kē mutābika śīrṣa chaha aḵẖabārōṁ mēṁ kula chapī khabarōṁ mēṁ mahaza dō fīsada gānva - dēhāta kē bārē mēṁ hōtī haiṁ. Hariyāṇā mēṁ cauṭālā sarakāra jaisī sarakāra kē kāryakāla kē daurāna ina hathakaṇḍōṁ mēṁ dādāgirī bhī juṛa jātī hai, lēkina nītīśa kumāra jaisē nafīsa aura lōkapriya mukhyamantrī bhī mīḍiyā kō" mainēja" karanē kē hathakaṇḍē apanātē pā'ē jātē haiṁ. Kaśmīra aura pūrvōttara mēṁ surakṣābala bhī ka'ī bāra mīḍiyā para bandiśa lagātē haiṁ. Mīḍiyā kō isa dabāva sē mukta karanē kē li'ē cunāva āyōga kō mīḍiyā aura rājanīti kē riśtōṁ kī śināḵẖta karanē kā adhikāra milānā cāhi'ē.
जीवन जगत
आदमी के आंसुओं में हंसी के भी रस्ते हैं,
रोओ किसी एक पर हजार लोग हंसते हैं।
कभी फुटपाथ, कभी पटरी के आसपास,
दिन भर उजड़ते हैं, रात भर बसते हैं।
रोओ किसी एक पर हजार लोग हंसते हैं।
कभी फुटपाथ, कभी पटरी के आसपास,
दिन भर उजड़ते हैं, रात भर बसते हैं।
Ādamī kē ānsu'ōṁ mēṁ hansī kē bhī rastē haiṁ,
rō'ō kisī ēka para hajāra lōga hansatē haiṁ.
Kabhī phuṭapātha, kabhī paṭarī kē āsapāsa,
dina bhara ujaṛatē haiṁ, rāta bhara basatē haiṁ.
rō'ō kisī ēka para hajāra lōga hansatē haiṁ.
Kabhī phuṭapātha, kabhī paṭarī kē āsapāsa,
dina bhara ujaṛatē haiṁ, rāta bhara basatē haiṁ.
विज्ञान लेखन / ओमप्रकाश कश्यप
सर्वप्रथम यह जान लेना उचित होगा कि आखिर विज्ञान लेखन है क्या? वह कौन-सा गुण है जो कथित विज्ञान साहित्य को सामान्य साहित्य से अलग कर, उसे विशिष्ट पहचान देता है? और यह भी कि किसी साहित्य को विज्ञान साहित्य की कोटि में रखने की कसौटी क्या हो? क्या केवल वैज्ञानिक खोजों, उपकरणों, नियम, सिद्धांत,परिकल्पना, तकनीक, आविष्कारों आदि को केंद्र में रखकर कथानक गढ़ लेना ही विज्ञान साहित्य है? यदि हां, तो क्या किसी भी निराधार परिकल्पना या आविष्कार को विज्ञान साहित्य का प्रस्थान बिंदु बनाया जा सकता है? क्या वैज्ञानिक तथ्य से परे भी विज्ञान साहित्य अथवा विज्ञान फंतासी की रचना संभव है? कुछ अन्य प्रश्न भी इसमें सम्मिलित हो सकते हैं। जैसे, विज्ञान साहित्य की धारा को कितना और क्यों महत्व दिया जाए? जीवन में विज्ञान जितना जरूरी है, उतना तो बच्चे अपने पाठ्यक्रम के हिस्से के रूप में पढ़ते ही हैं। फिर अलग से विज्ञान साहित्य की जरूरत क्या है? यदि जरूरत है तो पाठ्य पुस्तकों में छपी विज्ञानपरक सामग्री तथा विज्ञान साहित्य के मध्य विभाजन रेखा क्या हो? एक-दूसरे से अलग दिखनेवाले ये प्रश्न परस्पर संबद्ध हैं। यदि हम साहित्य के वैज्ञानिक पक्ष को जान लेते हैं तो इनकी आसंगता स्वयं दस्तक देने लगती है।
विज्ञान वस्तुतः एक खास दृष्टिबोध, विशिष्ट अध्ययन पद्धति है। वह व्यक्ति की प्रश्नाकुलता का समाधान करती और उसे क्रमशः आगे बढ़ाती है। आसपास घट रही घटनाओं के मूल में जो कारण हैं, उनका क्रमबद्ध, विश्लेषणात्मक एवं तर्कसंगत बोध, जिसे प्रयोगों की कसौटी पर जांचा-परखा जा सके, विज्ञान है। इन्हीं प्रयोगों, क्रमबद्ध ज्ञान की विभिन्न शैलियों, व्यक्ति की प्रश्नाकुलता और ज्ञानार्जन की ललक, उनके प्रभावों तथा निष्कर्षों की तार्किक, कल्पनात्मक एवं मनोरंजक प्रस्तुति विज्ञान साहित्य का उद्देश्य है। संक्षेप में विज्ञान साहित्य का लक्ष्य बच्चों के मनस् में विज्ञान-बोध का विस्तार करना है, ताकि वे अपनी निकटवर्ती घटनाओं का अवलोकन वैज्ञानिक प्रबोधन के साथ कर सकें। लेकिन वैज्ञानिक खोजों, आविष्कारों का यथातथ्य विवरण विज्ञान साहित्य नहीं है। वह विज्ञान पत्रकारिता का विषय तो हो सकता है,विज्ञान साहित्य का नहीं। कोई रचना साहित्य की गरिमा तभी प्राप्त कर पाती है, जब उसमें समाज के बहुसंख्यक वर्ग के कल्याण की भावना जुड़ी हो। कहने का आशय यह है कि कोई भी नया शोध अथवा विचार, वैज्ञानिक कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरने के बावजूद, लोकोपकारी हुए बगैर विज्ञान साहित्य का हिस्सा नहीं बन सकता। यही क्षीण मगर सुस्पष्ट रेखा है जो विज्ञानपरक सामग्री एवं विज्ञान साहित्य को विभाजित करती है।
विज्ञान कथा को अंग्रेजी में 'साइंस फेंटेसी' अथवा 'साइंस फिक्शन' कहा जाता है। एक जैसा दिखने के बावजूद इन दोनों रूपों में पर्याप्त अंतर है। अंग्रेजी शब्द Fiction लैटिन मूल के शब्द Fictus से व्युत्पन्न है, जिसका अभिप्राय है - गढ़ना अथवा रूप देना। इस प्रकार कि पुराना रूप सिमटकर नए कलेवर में ढल जाए। फिक्शन को 'किस्सा' या 'कहानी' के पर्याय के रूप में भी देख सकते हैं। 'विज्ञान कथा' को 'साइंस फिक्शन' के हिंदी पर्याय के रूप में लेने का चलन है। इस तरह 'विज्ञान कथा' या 'साइंस फिक्शन' आम तौर पर ऐसे किस्से अथवा कहानी को कहा जाता है जो समाज पर विज्ञान के वास्तविक अथवा काल्पनिक प्रभाव से बने प्रसंग को कहन की शैली में व्यक्त करे तथा उसके पीछे अनिवार्यतः कोई न कोई वैज्ञानिक सिद्धांत हो। 'साइंस फेंटेसी' के हिंदी पर्याय के रूप में 'विज्ञान गल्प' शब्द प्रचलित है। Fantasy शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन मूल के शब्द Phantasia से हुई है। इसका शाब्दिक अर्थ है - 'कपोल कल्पना' अथवा 'कोरी कल्पना'। जब इसका उपयोग किसी दूरागत वैज्ञानिक परिकल्पना के रूप में किया जाता है, तब उसे 'विज्ञान गल्प' कहा जाता है। महान मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने कल्पना को 'प्राथमिक कल्पना' और 'द्वितीयक कल्पना' के रूप में वर्गीकृत किया है। उसके अनुसार प्राथमिक कल्पनाएं अवचेतन से स्वतः जन्म लेती हैं। जैसे किसी शिशु का नींद में मुस्कराना, पसंदीदा खिलौने को देखकर किलकारी मारना। खिलौने को देखते ही बालक की कल्पना-शक्ति अचानक विस्तार लेने लगती है। वह उसकी आंतरिक संरचना जानने को उत्सुक हो उठता है। यहां तक कि उसके साथ तोड़-फोड़ भी करता है। द्वितीयक कल्पनाएं चाहे स्वयं-स्फूर्त हों अथवा सायास, चैतन्य मन की अभिरचना होती हैं। ये प्रायः वयस्क व्यक्ति द्वारा रचनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में विस्तार पाती हैं। साहित्यिक रचना तथा दूसरी कला प्रस्तुतियां द्वितीयक कल्पना की देन कही जा सकती हैं। प्रख्यात डेनिश कथाकार हैंस एंडरसन ने बच्चों के लिए परीकथाएं लिखते समय अद्भुत कल्पनाओं की सृष्टि की थी। एच.जी. वेल्स की विज्ञान फंतासी 'टाइम मशीन' भी रचनात्मक कल्पना की देन है। तदनुसार 'विज्ञान गल्प' ऐसी काल्पनिक कहानी को कहा जा सकता है, जिसका यथार्थ से दूर का रिश्ता हो, मगर उसकी नींव किसी ज्ञात अथवा काल्पनिक वैज्ञानिक सिद्धांत या आविष्कार पर रखी जाए।
'विज्ञान गल्प' में लेखक घटनाओं, सिद्धांतों, नियमों अथवा अन्यान्य स्थितियों की मनचाही कल्पना करने को स्वतंत्र होता है, बशर्ते उन वैज्ञानिक नियमों, आविष्कारों की नींव किसी ज्ञात वैज्ञानिक नियम, सिद्धांत अथवा आविष्कार पर टिकी हो। फिर भले ही निकट भविष्य में उस परिकल्पना के सत्य होने की कोई संभावना न हो। यहां तक आते-आते 'विज्ञान कथा' और 'विज्ञान गल्प' का अंतर स्पष्ट होने लगता है। 'विज्ञान कथा' में आम तौर पर ज्ञात वैज्ञानिक तथ्य या आविष्कार तथा उसके काल्पनिक विस्तार का उपयोग किया जाता है, जब कि 'विज्ञान फेंटेसी' अथवा 'विज्ञान गल्प' में वैज्ञानिक सिद्धांत अथवा आविष्कार भी परिकल्पित अथवा अतिकल्पित हो सकता है। हालांकि विज्ञानसम्मत बने रहने के लिए आवश्यक है कि उसके मूल में कोई ज्ञात वैज्ञानिक खोज अथवा आविष्कार हो। 'विज्ञान कथा' की अपेक्षा 'विज्ञान गल्प' में लेखकीय उड़ान के लिए कहीं बड़ा अंतरिक्ष होता है। इससे विज्ञान गल्प की अपेक्षा ज्यादा मनोरंजक होने की संभावना होती है। इस कारण बाल एवं किशोर साहित्य, यानी जहां सघन कल्पनाशीलता अपेक्षित हो, उसका अधिक प्रयोग होता है। उपन्यास जैसी अपेक्षाकृत लंबी रचना में मनोरंजन के अनुपात को बनाए रखना चुनौतीपूर्ण होता है। अतः दक्ष विज्ञान कथाकार उपन्यास लेखन के लिए गल्प-प्रधान किस्सागोई शैली को अपनाता है। इससे साहित्य और विज्ञान दोनों का उद्देश्य सध जाता है। विश्व के चर्चित विज्ञान उपन्यासों में अधिकांश 'विज्ञान गल्प' की श्रेणी में आते हैं।
विज्ञान लेखन की कसौटी उसका मजबूत सैद्धांतिक आधार है। चाहे वह विज्ञान कथा हो या गल्प, उसके मूल में किसी वैज्ञानिक सिद्धांत अथवा ऐसी परिकल्पना को होना चाहिए जिसका आधार जांचा-परखा वैज्ञानिक सत्य हो। वैज्ञानिक तथ्यों को समझे बिना 'विज्ञान कथा' अथवा 'विज्ञान गल्प' का कोई औचित्य नहीं बन सकता। अक्सर यह देखा गया है कि विज्ञान के किसी आधुनिकतम उपकरण अथवा नई खोज को आधार बनाकर अति-उत्साही लेखक रचना गढ़ देते हैं। लेकिन विज्ञान साहित्य का दर्जा दिलाने के लिए जो स्थितियां गढ़ी जाती हैं, उनका वैज्ञानिक सिद्धांत अथवा परिकल्पना से कोई वास्ता नहीं होता। न ही लेखक अपनी रचना के माध्यम से ब्रह्मांड के किसी रहस्य के पीछे मौजूद वैज्ञानिक तथ्य का उद्घाटन करना चाहता है। वह उसकी कल्पना से उद्भूत तथा वहीं तक सीमित होता है। ऐसी अवस्था में पाठक को चमत्कार के अलावा और कुछ मिल ही नहीं पाता। यह चामत्कारिता परीकथाओं या जादू-टोने के आधार पर रची गई रचनाओं जैसी ही अविवेकी एवं निरावलंब होती है। ऐसी विज्ञान फंतासी उतना ही भ्रम फैलाती है, जितना कि गैर-वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर रची गई तंत्र-मंत्र और जादू-टोने की कहानियां। बल्कि कई बार तो उससे भी ज्यादा। इसलिए कि सामान्य परीकथाओं में संवेदनतत्व का प्राचुर्य होता है, जब कि तर्काधारित विज्ञान-कथाएं किसी न किसी रूप में व्यक्ति के हाथों में विज्ञान की ताकत के आने का भरोसा जताती हैं। अयाचित ताकत की अनुभूति व्यक्ति की संवेदनशीलता एवं सामाजिकता को आहत करती है। 'विज्ञान कथा' अथवा 'विज्ञान गल्प' की रचना हेतु लेखक के लिए विज्ञान के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पक्ष का ज्ञान अनिवार्य है। कोई रचना 'विज्ञान कथा' है अथवा 'विज्ञान गल्प', कई बार यह भेद कर पाना भी कठिन हो जाता है। असल में यह अंतर इतना बारीक है कि जब तक वैज्ञानिक नियमों, आविष्कारों तथा शोध-क्षेत्रों का पर्याप्त ज्ञान न हो, अच्छे से अच्छे लेखक-समीक्षक के धोखा खाने की पूरी संभावना होती है।
पश्चिमी देशों में विज्ञान लेखन की नींव उन्नीसवीं शताब्दी में रखी जा चुकी थी। विज्ञान के पितामह कहे जाने फ्रांसिस बेकन ने सोलहवीं शताब्दी में 'ज्ञान ही शक्ति है' कहकर उसका स्वागत किया था। बहुत जल्दी 'ज्ञान' का आशय, विशेष रूप से उत्पादन के क्षेत्र में, विज्ञान से लिया जाने लगा। सरलीकरण के इस खतरे को वाल्तेयर ने तुरंत भांप लिया था। बेकन की आलोचना करते हुए उसने कहा था कि विज्ञान का अतिरेकी प्रयोग मनुष्यता के नए संकटों को जन्म देगा। वाल्तेयर के बाद इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार करनेवाला रूसो था। अप्रगतिशील और प्रकृतिवादी कहे जाने का खतरा उठाकर भी अपने बहुचर्चित निबंध Discourse on the Arts and Sciences में उसने सबकुछ विज्ञान भरोसे छोड़ देने के रवैये की तीखी आलोचना की थी। इसके बावजूद हुआ वही जैसा वाल्तेयर तथा रूसो ने सोचा था। बीसवीं शताब्दी में आइंस्टाइन के ऊर्जा सिद्धांत के आधार पर निर्मित परमाणु बम से तो खतरा पूरी तरह सामने आ गया। आइंस्टाइन ने ही सिद्ध किया था कि भारी परमाणु के नाभिक को न्यूट्रॉन कणों की बौछार द्वारा विखंडित किया जा सकता है। इससे असीमित ऊर्जा की प्राप्ति होती है। इस असाधारण खोज ने परमाणु बम को जन्म दिया। उसके पीछे था मरने-मारने का सामंती संस्कार। एक बम अकेले दुनिया की एक-तिहाई आबादी को एक झटके में खत्म कर सकता है। माया कैलेंडर की भांति यह डर भी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए पर्याप्त सिद्ध हुआ। भय के मनोविज्ञान ने उसे व्यापक लोकप्रसिद्धि प्रदान की। प्रकारांतर से उसने दार्शनिकों, वैज्ञानिकों समेत पूरे बुद्धिजीवी समाज को इतनी गहराई से प्रभावित किया कि विज्ञान बुद्धिजीवी वर्ग का नया धर्म बन गया। लोग उसके विरोध में कुछ भी कहने-सुनने को तैयार न थे, जबकि मनुष्यता के हित में उससे अधिक लोकोपकारी आविष्कार पेनिसिलिन का था, जिसका आविष्कारक फ्लेमिंग था। एडवर्ड जेनर द्वारा की गई वैक्सीन की खोज भी उतनी ही महत्वपूर्ण और कल्याणकारी थी। फिर भी आइंस्टाइन को इन दोनों से कहीं अधिक ख्याति मिली। खूबसूरत-रोमांचक परीकथा - जितनी लोकप्रियता पा चुके आपेक्षिकता के सिद्धांत के आगे विज्ञान के सारे आविष्कार आभाहीन होकर रह गए। मनुष्यता के लिए कल्याणकारी आविष्कारक और भी कई हुए, परंतु उनमें से एक भी आइंस्टाइन की ख्याति के आसपास न पहुंच सका।
अपनी बौद्धिकता और कल्पना की बहुआयामी उड़ान के बावजूद आपेक्षिकता का सिद्धांत इतना गूढ़ है कि उसे बाल साहित्य में सीधे ढालना आसान नहीं है। मगर आइंस्टाइन के शोध से उपजी एक विचित्र-सी कल्पना ने बाल साहित्य की समृद्धि का मानो दरवाजा ही खोल दिया। आइंस्टाइन ने सिद्ध किया था कि समय भी यात्रा का आनंद लेता है। उसका वेग भी अच्छा-खासा यानी प्रकाश के वेग के बराबर होता है। अभी तक यह माना जा रहा था कि गुजरा हुआ वक्त कभी वापस नहीं आता। आइंस्टाइन ने गणितीय आधार पर सिद्ध किया था कि समय को वापस भी दौड़ाया जा सकता है। यह प्रयोग-सिद्ध परिकल्पना थी, जो सुनने-सुनाने में परीकथाओं जितना आनंद देती थी। शायद उससे भी अधिक, क्योंकि समय को यात्रा करते देखने या समय में यात्रा करने का रोमांच घिसी-पिटी परीकथाओं से कहीं बढ़कर था। इस परिकल्पना का एक और रोमांचक पहलू था, समय के सिकुड़ने का विचार। आइंस्टाइन के पूर्ववर्ती मानते थे कि समय स्थिर वेग से आगे बढ़ता है। सूक्ष्म गणनाओं के आधार पर वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि अति उच्च वेगों का असर समय पर भी पड़ता है। विशिष्ट परिस्थितियों में समय को भी लगाम लग जाती है। समय में यात्रा जैसी अविश्वसनीय परिकल्पना ने मनुष्य के लिए अंतरिक्ष के दरवाजे खोल दिए। गणित की विश्वसनीयता के साथ प्रस्तुत इस परिकल्पना और तत्संबंधी प्रयोगों ने अनेक विश्वप्रसिद्ध विज्ञान कथाओं को मसाला दिया, जिसे राइट बंधुओं द्वारा आविष्कृत वायुयान से मजबूत आधार मिला। अंतरिक्ष में, जो अभी तक महज कल्पना की वस्तु था, जहां उड़ान भरते पक्षियों को देख इंसान की आंखों में मुक्ताकाश में तैरने के सपने कौंधने लगते थे, अब वह स्वयं आ-जा सकता था। अंतरिक्ष-यात्रा को लेकर उपन्यास-लेखन का सिलसिला तो आइंस्टाइन और राइट बंधुओं से पहले ही आरंभ हो चुका था। अब इन विषयों पर अधिक यथार्थवादी कौशल से लिख पाना संभव था।
सवाल है कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक विज्ञान साहित्य ने जो दिशा पकड़ी, क्या वह साहित्यिक दृष्टि से भी समीचीन थी? इसमें कोई दो राय नहीं कि बीसवीं शताब्दी के आरंभ में विज्ञान लेखन में तेजी आई। बाल साहित्य को अनेक सुंदर और मौलिक कृतियां इस कालखंड में प्राप्त हुईं। वह दौर उन्नत सामाजिक चेतना का था, मनुष्यता दो विश्वयुद्धों के घाव खा चुकी थी, अतः साहित्यकारों के लिए यह संभव ही नहीं था कि उसकी उपेक्षा कर सकें। इसलिए उस दौर के साहित्यकार जहां एक ओर बाल साहित्य को कल्पनाधारित मौलिक, मनोरंजक एवं ज्ञानवर्धक कृतियां उपलब्ध कर रहे थे, दूसरी ओर वाल्तेयर और रूसो की चेतावनी भी उन्हें याद थी। अपनी कृतियों के माध्यम से वे समाज को सावधान भी कर रहे थे। कह सकते हैं कि सावधानी और सजगता विज्ञान साहित्य के आरंभिक दौर से ही उसके साथ जुड़ चुकी थी। विज्ञान साहित्य की शुरुआत के श्रेय की पात्र मेरी शैली से लेकर इसाक अमीसोव (रोबोट, 1950), आर्थर सी. क्लार्क (ए स्पेस आडिसी, 1968), राबर्ट हीलीन (राकेट शिप गैलीलिया, 1947), डबल स्टार (1956) तथा स्ट्रेंजर इन ए स्ट्रेंज लैंड (1961) - सभी ने विज्ञान के दुरुपयोग की संभावनाओं को ध्यान में रखा। मेरी शैली ने अपनी औपन्यासिक कृति 'फ्रेंकिस्टीन' (1818) में दो मृत शरीरों की हड्डियों से बने एक प्राणी की कल्पना की थी। वह जीव प्रारंभ में भोला-भाला था। धीरे-धीरे उसमें नकारात्मक चरित्र उभरा और उसने अपने जन्मदाता वैज्ञानिक को ही खा लिया। उपन्यास विज्ञान के दुरुपयोग की संभावना से जन्मे डर को सामने लाता था।
हिंदी में आरंभिक 'विज्ञान कथा' का लेखन अंग्रेजी से प्रभावित था। औपनिवेशिक भारत में यह स्वाभाविक भी था। हिंदी की पहली विज्ञान कथा अंबिकादत्त व्यास की 'आश्चर्य वृतांत' मानी जाती है, जो उन्हीं के समाचारपत्र 'पीयूष प्रवाह' में धारावाहिक रूप में 1884 से 1888 के बीच प्रकाशित हुई थी। उसके बाद बाबू केशवप्रसाद सिंह की विज्ञान कथा 'चंद्रलोक की यात्रा' सरस्वती के भाग 1, संख्या 6, सन 1900 में प्रकाशित हुई। संयोग है कि वे दोनों ही कहानियां जूल बर्न के उपन्यासों पर आधारित थीं। अंबिकादत्त व्यास ने अपनी कहानी के लिए मूल कथानक 'ए जर्नी टू सेंटर ऑफ दि अर्थ' से लिया था। केशवप्रसाद सिंह की कहानी भी बर्न के उपन्यास 'फाइव वीक्स इन बैलून' से प्रभावित थी। इन कहानियों ने हिंदी के पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। उनमें विज्ञान कथा पढ़ने की ललक बढ़ी। आरंभिक दौर में विज्ञान कथा श्रेणी में हिंदी में प्रकाशित ये कहानियां पाठकों द्वारा खूब सराही गईं। इन्होंने हिंदी पाठकों का परिचय नए साहित्यिक आस्वाद से कराया, जो कालांतर में हिंदी विज्ञान साहित्य के विकास का आधार बना। इसके बावजूद इन्हें हिंदी की मौलिक विज्ञान कथा नहीं कहा जा सकता। इन रचनाओं में मौलिकता का अभाव था। यह स्थिति देर तक बनी रही। हिंदी में विज्ञान साहित्य के अभाव का महत्वपूर्ण कारण बाल साहित्य के प्रति बड़े साहित्यकारों में अनपेक्षित उदासीनता भी थी। अधिकांश प्रतिष्ठित लेखक बाल साहित्य को दोयम दर्जे का मानते थे। यहां तक कि बाल साहित्यकार कहलाने से भी वे बचते थे। एक अन्य कारण था लेखकों और पाठकों में वैज्ञानिक चेतना की कमी तथा जानकारी का अभाव। जो विद्वान विज्ञान में पारंगत थे, वे लेखकीय कौशल के कमी के चलते इस अभाव की पूर्ति करने में अक्षम थे।
हिंदी की प्रथम मौलिक विज्ञान कथा का श्रेय सत्यदेव परिव्राजक की विज्ञान कथा 'आश्चर्यजनक घंटी' को प्राप्त है। बाद के विज्ञान कथाकारों में दुर्गाप्रसाद खत्री, राहुल सांकृत्यायन, डॉ. संपूर्णानंद, आचार्य चतुरसेन, कृश्न चंदर, डॉ. ब्रजमोहन गुप्त, लाला श्रीनिवास दास, राजेश्वर प्रसाद सिंह आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इस तरह हिंदी विज्ञान साहित्य का इतिहास कहानी साहित्य जितना ही पुराना है, हालांकि यह मानना पड़ेगा कि एक शताब्दी से ऊपर की इस विकास-यात्रा में हिंदी विज्ञान साहित्य का जितना विस्तार अपेक्षित था, उतना नहीं हो पाया। इसका एक कारण संभवतः यह भी हो सकता है कि हिंदी के अधिकांश साहित्यकार गैर-वैज्ञानिक शैक्षिक पृष्ठभूमि से आए थे। फिर उनके सामने चुनौतियां भी अनेक थीं। सबसे पहली चुनौती थी, विज्ञान कथा की स्पष्ट अवधारणा का अभाव। उस समय तक शिक्षा और साहित्य का प्रथम उद्देश्य था - बच्चों को भारतीय संस्कृति से परचाना। उन्हें धार्मिक और नैतिक शिक्षा देना। नैतिक शिक्षा को भी सीमित अर्थों में लिया जाता था। धार्मिक ग्रंथों, महापुरुषों के वक्तव्यों तथा उनके जीवन चरित्र को नैतिक शिक्षा का प्रमुख स्रोत माना जाता है। धर्म के बगैर भी नैतिक शिक्षा दी जा सकती है, यह मानने के लिए कोई तैयार न था। बालकों के मौलिक सोच, तर्कशीलता, मौलिक ज्ञान एवं प्रश्नाकुलता को सिरे चढ़ाने वाले साहित्य का पूरी तरह अभाव था। विज्ञान के बारे में बालक पाठशाला में जो कुछ पढ़ता था, वह केवल उसके शिक्षा-सदन तक ही सीमित रहता था। घर-समाज में विज्ञान के उपयोग, परिवेश में उसकी व्याप्ति के बारे में समझानेवाला कोई न था। परिवार में बालक की हैसियत परावलंबी प्राणी के रूप में थी। घर पहुंचकर अपनों के बीच यदि वह वैज्ञानिक प्रयोगों को दोहराना चाहता तो प्रोत्साहन की संभावना बहुत कम थी। संक्षेप में कहें तो विज्ञान और उसके साथ विज्ञान लेखन की स्थिति पूरी तरह डांवाडोल थी। भारतीय समाज में वैज्ञानिक बोध के प्रति यह उदासीनता तब थी जब प्रथम वैज्ञानिक क्रांति को हुए चार शताब्दियां गुजर चुकी थीं। आजादी के बाद हिंदी विज्ञान साहित्य की स्थिति में सुधार आया है, तथापि मौलिक सोच और स्तरीय रचनाओं की आज भी कमी है।
एक प्रश्न रह-रह दिमाग में कौंधता है। आखिर वह कौन-सा गुण है, जो किसी रचना को विज्ञान कथा या वैज्ञानिक साहित्य का रूप देता है? विज्ञान गल्प के नाम पर हिंदी में बच्चों के लिए जो रचनाएं लिखी जाती हैं, वे कितनी वैज्ञानिक हैं? क्या सिर्फ उपग्रह, स्पेस शटल, अंतरिक्ष यात्रा या ऐसे ही किसी काल्पनिक अथवा वास्तविक ग्रह, उपग्रह के यात्रा-रोमांच को लेकर बुने गए कथानक को विज्ञान साहित्य माना जा सकता है? क्या अच्छे और बुरे का द्वंद्व विज्ञान साहित्य में भी अपरिहार्य है? कई बार लगता है कि हिंदी के विज्ञान साहित्य लेखक विज्ञान और वैज्ञानिकता में अंतर नहीं कर पाते। विज्ञान साहित्य-लेखन के लिए गहरे विज्ञान-बोध की आवश्यकता होती है। उन्नत विज्ञानबोध के साथ विज्ञान का कामचलाऊ ज्ञान हो तो भी निभ सकता है। वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न लेखक अपने परिवेश से ही ऐसे अनेक विषय खोज सकता है जो विज्ञान के प्रति बालक की रुचि तथा प्रश्नाकुलता को बढ़ाने में सहायक हों। तदनुसार विज्ञान साहित्य ऐसा साहित्य है जिससे किसी वैज्ञानिक सिद्धांत की पुष्टि होती हो अथवा जो किसी वैज्ञानिक आविष्कार को लेकर तार्किक दृष्टिकोण से लिखा गया हो। उसमें या तो ज्ञात वैज्ञानिक सिद्धांत की विवेचना, उसके अनुप्रयोग की प्रामाणिक जानकारी हो अथवा तत्संबंधी आविष्कारों की परिकल्पना हो। विज्ञान गल्प को सार्थक बनाने लिए आवश्यक है कि उसके लेखक को वैज्ञानिक शोधों तथा प्रविधियों की भरपूर जानकारी हो। उसकी कल्पनाशक्ति प्रखर हो, ताकि वह वैज्ञानिक सिद्धांत, जिसके आधार पर वह अपनी रचना को गढ़ना चाहता है, के विकास की संभावनाओं की कल्पना कर सके। यदि ऐसा नहीं है तो विज्ञान कथा कोरी फंतासी बनकर रह जाएगी। ऐसी फंतासी किसी मायावी परीकथा जितनी ही हानिकर सिद्ध हो सकती है। एक रचनाकार का यह भी दायित्व है कि वह प्रचलित वैज्ञानिक नियमों के पक्ष-विपक्ष को भली-भांति परखे। उनकी ओर संकेत करे।
निर्विवाद सत्य है कि समाज को रूढ़ियों, जादू-टोने, भूत-प्रेत आदि के मकड़जाल से बाहर रखने में पिछली कुछ शताब्दियों से विज्ञान की बहुत बड़ी भूमिका रही है। विज्ञान के कारण ही देश अनेक आपदाओं तथा जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न खाद्यान्न समस्याओं का सामना करने में सफल रहा है। अनेक महामारियों से समाज को बचाने का श्रेय भी विज्ञान को ही जाता है। 'श्वेत क्रांति', 'हरित क्रांति' जैसी अनेक उत्पादन क्रांतियां विज्ञान के दम पर ही संभव हो सकी हैं। मगर बीते वर्षों में संचार माध्यमों और बाजार ने विज्ञान को 'आधुनिकता का धर्म' की भांति समाज में प्रसारित किया है। लोगों को बताया जाता रहा है कि विज्ञान के विकास की यह दिशा स्वाभाविक है। जिन क्षेत्रों में उसका विस्तार हुआ है, वही होना भी चाहिए था। जब कि ऐसा है नहीं। बाजार के दम पर फलने-फूलने वाले समाचारपत्र-पत्रिकाएं निहित स्वार्थ के लिए मानव समाज को उपभोक्ता समाज में ढालने की कोशिश करते रहते हैं। वे व्यक्ति के सोच को भी अपने स्वार्थानुरूप अनकूलित करते रहते हैं। पढ़े-लिखे युवाओं से लेकर साहित्यकार, बुद्धिजीवी तक उनकी बातों में आ जाते हैं। इससे विज्ञान पर अंकुश रखने, लोककल्याण के लक्ष्य के साथ उसके शोध क्षेत्रों के नियमन की बात कभी ध्यान में ही नहीं आ पाती। उदाहरण के लिए बीसवीं शताब्दी के विज्ञान की तह में जाकर देख लीजिए। उसका विकास उन क्षेत्रों में कई गुना हुआ, जहाँ पूंजीपतियों को लाभ कमाने का अवसर मिलता हो, उनका एकाधिकार पुष्ट होता हो। गांव में बोझा ढोने वाली मशीन हो या शहरी सड़कों पर दिखने वाला रिक्शा, उनमें प्रयुक्त तकनीक में पिछले पचास वर्षां में कोई बदलाव नहीं आया है, जब कि कार, फ्रिज, मोटर साइकिल, टेलीविजन, कंप्यूटर, मोबाइल जैसी उपभोक्ता वस्तुओं के हर साल दर्जनों नए माडल बाजार में उतार दिए जाते हैं। हालांकि यह कहना ज्यादती होगी कि ऐसा केवल विज्ञान के प्रति साहित्यकारों के अतिरेकी आग्रह अथवा उसके अनुप्रयोग की ओर से आंखें मूंद लेने के कारण हुआ है। मगर यह भी कटु सत्य है कि समाज-विज्ञानियों और साहित्यकर्मियों द्वारा विज्ञान के मनमाने व्यावसायिक अनुप्रयोग का जैसा रचनात्मक विरोध होना चाहिए था, वैसा नहीं हो पाया है। फ्रांसिसी बेकन का मानना था कि विज्ञान मनुष्य को जानलेवा कष्ट से मुक्ति दिलाएगा। आरंभिक आविष्कार इसकी पुष्टि भी करते थे। जेम्स वाट ने भाप का इंजन बनाया तो सबसे पहले उसका उपयोग कोयला खानों से पानी निकालने के लिए किया गया, जिससे हर साल सैकड़ों मजदूरों की जान जाती थी। विज्ञान साहित्य का अभीष्ट भी यही था कि वह विज्ञान के कल्याणकारी अनुप्रयोगों की ओर बुद्धिजीवियों-वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित करे तथा उनके समर्थन में खड़ा नजर आए। लेकिन विज्ञान लेखन को फैशन की तरह लेने वाले लेखकों से इस मामले में चूक हुई। श्रद्धातिरेक में उन्होंने विज्ञान-लेखन को भी धर्म बना लिया। प्रौद्योगिकी प्रदत्त सुविधाओं के जोश में वे भूल गए कि विज्ञान को मर्यादित करने की आवश्यकता आज पहले से कहीं अधिक है। अपने लेखन को संपूर्ण मनुष्यता के लिए कल्याणकारी मानने वाले साहित्यकारों का क्या यह दायित्व नहीं कि वे ऐसा सपना देखें जिसमें विज्ञान और तकनीक के जरिये देश के उपेक्षित वर्गों के कल्याण के बारे में सोचा गया हो! लोगों को बताएं कि मात्र प्रयोगशाला में जांचा-परखा गया सत्य ही सत्य नहीं होता। 'अहिंसा परमो धर्मः' परमकल्याणक सत्य का प्रतीक है। समाज में शांति-व्यवस्था बनाने रखने के लिए उसका अनुसरण अपरिहार्य है, हालांकि अन्य नैतिक सत्यों की भांति इसे भी किसी तर्क अथवा प्रयोगशाला द्वारा प्रमाणित नहीं किया जा सकता। विज्ञान ऐसे विषयों पर भले विचार न कर पाए, मगर साहित्य अनुभूत सत्य को भी प्रयोगशाला में खरे उतरे विज्ञान जितनी अहमियत देता है। विज्ञान तथा उसके अनुप्रयोग को लेकर नैतिक दृष्टि साहित्य में होगी, तभी तो विज्ञान में आएगी। कोरी वैज्ञानिक दृष्टि आइंस्टाइन के सापेक्षिकता के सिद्धांत से परमाणु बम ही बनवा सकती है।
मुझे दुख होता है जब देखता हूं कि विज्ञान-सम्मत लिखने के फेर में कुछ साहित्यकार साहित्य के मर्म को ही भुला देते हैं। ऐसे में यदि उनका विज्ञान-बोध भी आधा-अधूरा हो तो विज्ञान कथा या गल्प की श्रेणी में लिखी गई रचना भी तंत्र-मंत्र और जादू-मंतर जैसी बे-सिर-पैर की कल्पना बन जाती है। कुछ कथित विज्ञान कथाओं में दिखाया जाता है कि नायक या प्रतिनायक के हाथों में ऐसा टार्च है जिससे नीली रोशनी निकलती है। वह रोशनी धातु की मोटी पर्त को भी पिघला देती है। 'नीली रोशनी' संबोधन 'पराबैंगनी तरंगों' की तर्ज पर गढ़ा गया है। वे अतिलघु तरंगदैर्घ्य की अदृश्य किरणें होती हैं, जिन्हें स्पेक्ट्रम पैमाने पर नीले अथवा बैंगनी रंग से निचली ओर दर्शाया जाता है। दृश्य बैंगनी प्रकाश की किरणों के तरंगदैर्घ्य से भी अतिलघु होने के उन्हें 'अल्ट्रावायलेट' कहा जाता है। इस तथ्य से अनजान हमारे विज्ञान लेखक धड़ल्ले से नीली रोशनी का शब्द का प्रयोग भेदक किरणों के लिए करते हैं। मेरी दृष्टि में नीली किरणें फेंकने वाली टार्च और जादू के बटुए या जादुई छड़ी में उस समय तक कोई अंतर नहीं है, जब तक विज्ञान लेखक अपनी रचना में वर्णित वैज्ञानिक सत्य की ओर स्पष्ट संकेत नहीं करता। आप कहेंगे कि इससे रचना बोझिल हो जाएगी, पठनीयता बाधित होगी, तो मैं कहना चाहूंगा कि पठनीयता और विज्ञान की कसौटी दोनों का निर्वाह करना ही विज्ञान लेखक की सबसे बड़ी चुनौती होती है। इसलिए वैज्ञानिक कथाकार पूरी दुनिया में कम हुए हैं। साहित्यकार का काम वैज्ञानिक तथ्यों का सामान्यीकरण कर उनके और बाल मन के बीच तालमेल बैठाना है। वह बालक को अपने आसपास की घटनाओं से जोड़ने की जिम्मेदारी निभाता है, ताकि उसकी जिज्ञासा बलवती हो। उसमें कुछ सीखने की ललक पैदा हो। विज्ञान को ताकत का पर्याय न मान पाए इसलिए वह बार-बार इस तथ्य को समाज के बीच लाता है कि मनुष्यत्व की रक्षा संवेदना की सुरक्षा में है। संवेदन-रहित फंतासी हमें निःसंवेद रोबोटों की दुनिया में ले जाएगी। सार रूप में कहूं तो साहित्य का काम विज्ञान को दिशा देना है, न कि उसको अपनी दृष्टि बनाकर उसके अनुशासन में स्वयं को ढाल लेना। साहित्य अपने आपमें संपूर्ण शब्द है। तर्कसम्मत होना उसका गुण है। किसी रचना में साहित्यत्व की मौजूदगी ही प्रमाण है कि उसमें पर्याप्त विज्ञानबोध है।
विज्ञान वस्तुतः एक खास दृष्टिबोध, विशिष्ट अध्ययन पद्धति है। वह व्यक्ति की प्रश्नाकुलता का समाधान करती और उसे क्रमशः आगे बढ़ाती है। आसपास घट रही घटनाओं के मूल में जो कारण हैं, उनका क्रमबद्ध, विश्लेषणात्मक एवं तर्कसंगत बोध, जिसे प्रयोगों की कसौटी पर जांचा-परखा जा सके, विज्ञान है। इन्हीं प्रयोगों, क्रमबद्ध ज्ञान की विभिन्न शैलियों, व्यक्ति की प्रश्नाकुलता और ज्ञानार्जन की ललक, उनके प्रभावों तथा निष्कर्षों की तार्किक, कल्पनात्मक एवं मनोरंजक प्रस्तुति विज्ञान साहित्य का उद्देश्य है। संक्षेप में विज्ञान साहित्य का लक्ष्य बच्चों के मनस् में विज्ञान-बोध का विस्तार करना है, ताकि वे अपनी निकटवर्ती घटनाओं का अवलोकन वैज्ञानिक प्रबोधन के साथ कर सकें। लेकिन वैज्ञानिक खोजों, आविष्कारों का यथातथ्य विवरण विज्ञान साहित्य नहीं है। वह विज्ञान पत्रकारिता का विषय तो हो सकता है,विज्ञान साहित्य का नहीं। कोई रचना साहित्य की गरिमा तभी प्राप्त कर पाती है, जब उसमें समाज के बहुसंख्यक वर्ग के कल्याण की भावना जुड़ी हो। कहने का आशय यह है कि कोई भी नया शोध अथवा विचार, वैज्ञानिक कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरने के बावजूद, लोकोपकारी हुए बगैर विज्ञान साहित्य का हिस्सा नहीं बन सकता। यही क्षीण मगर सुस्पष्ट रेखा है जो विज्ञानपरक सामग्री एवं विज्ञान साहित्य को विभाजित करती है।
विज्ञान कथा को अंग्रेजी में 'साइंस फेंटेसी' अथवा 'साइंस फिक्शन' कहा जाता है। एक जैसा दिखने के बावजूद इन दोनों रूपों में पर्याप्त अंतर है। अंग्रेजी शब्द Fiction लैटिन मूल के शब्द Fictus से व्युत्पन्न है, जिसका अभिप्राय है - गढ़ना अथवा रूप देना। इस प्रकार कि पुराना रूप सिमटकर नए कलेवर में ढल जाए। फिक्शन को 'किस्सा' या 'कहानी' के पर्याय के रूप में भी देख सकते हैं। 'विज्ञान कथा' को 'साइंस फिक्शन' के हिंदी पर्याय के रूप में लेने का चलन है। इस तरह 'विज्ञान कथा' या 'साइंस फिक्शन' आम तौर पर ऐसे किस्से अथवा कहानी को कहा जाता है जो समाज पर विज्ञान के वास्तविक अथवा काल्पनिक प्रभाव से बने प्रसंग को कहन की शैली में व्यक्त करे तथा उसके पीछे अनिवार्यतः कोई न कोई वैज्ञानिक सिद्धांत हो। 'साइंस फेंटेसी' के हिंदी पर्याय के रूप में 'विज्ञान गल्प' शब्द प्रचलित है। Fantasy शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन मूल के शब्द Phantasia से हुई है। इसका शाब्दिक अर्थ है - 'कपोल कल्पना' अथवा 'कोरी कल्पना'। जब इसका उपयोग किसी दूरागत वैज्ञानिक परिकल्पना के रूप में किया जाता है, तब उसे 'विज्ञान गल्प' कहा जाता है। महान मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने कल्पना को 'प्राथमिक कल्पना' और 'द्वितीयक कल्पना' के रूप में वर्गीकृत किया है। उसके अनुसार प्राथमिक कल्पनाएं अवचेतन से स्वतः जन्म लेती हैं। जैसे किसी शिशु का नींद में मुस्कराना, पसंदीदा खिलौने को देखकर किलकारी मारना। खिलौने को देखते ही बालक की कल्पना-शक्ति अचानक विस्तार लेने लगती है। वह उसकी आंतरिक संरचना जानने को उत्सुक हो उठता है। यहां तक कि उसके साथ तोड़-फोड़ भी करता है। द्वितीयक कल्पनाएं चाहे स्वयं-स्फूर्त हों अथवा सायास, चैतन्य मन की अभिरचना होती हैं। ये प्रायः वयस्क व्यक्ति द्वारा रचनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में विस्तार पाती हैं। साहित्यिक रचना तथा दूसरी कला प्रस्तुतियां द्वितीयक कल्पना की देन कही जा सकती हैं। प्रख्यात डेनिश कथाकार हैंस एंडरसन ने बच्चों के लिए परीकथाएं लिखते समय अद्भुत कल्पनाओं की सृष्टि की थी। एच.जी. वेल्स की विज्ञान फंतासी 'टाइम मशीन' भी रचनात्मक कल्पना की देन है। तदनुसार 'विज्ञान गल्प' ऐसी काल्पनिक कहानी को कहा जा सकता है, जिसका यथार्थ से दूर का रिश्ता हो, मगर उसकी नींव किसी ज्ञात अथवा काल्पनिक वैज्ञानिक सिद्धांत या आविष्कार पर रखी जाए।
'विज्ञान गल्प' में लेखक घटनाओं, सिद्धांतों, नियमों अथवा अन्यान्य स्थितियों की मनचाही कल्पना करने को स्वतंत्र होता है, बशर्ते उन वैज्ञानिक नियमों, आविष्कारों की नींव किसी ज्ञात वैज्ञानिक नियम, सिद्धांत अथवा आविष्कार पर टिकी हो। फिर भले ही निकट भविष्य में उस परिकल्पना के सत्य होने की कोई संभावना न हो। यहां तक आते-आते 'विज्ञान कथा' और 'विज्ञान गल्प' का अंतर स्पष्ट होने लगता है। 'विज्ञान कथा' में आम तौर पर ज्ञात वैज्ञानिक तथ्य या आविष्कार तथा उसके काल्पनिक विस्तार का उपयोग किया जाता है, जब कि 'विज्ञान फेंटेसी' अथवा 'विज्ञान गल्प' में वैज्ञानिक सिद्धांत अथवा आविष्कार भी परिकल्पित अथवा अतिकल्पित हो सकता है। हालांकि विज्ञानसम्मत बने रहने के लिए आवश्यक है कि उसके मूल में कोई ज्ञात वैज्ञानिक खोज अथवा आविष्कार हो। 'विज्ञान कथा' की अपेक्षा 'विज्ञान गल्प' में लेखकीय उड़ान के लिए कहीं बड़ा अंतरिक्ष होता है। इससे विज्ञान गल्प की अपेक्षा ज्यादा मनोरंजक होने की संभावना होती है। इस कारण बाल एवं किशोर साहित्य, यानी जहां सघन कल्पनाशीलता अपेक्षित हो, उसका अधिक प्रयोग होता है। उपन्यास जैसी अपेक्षाकृत लंबी रचना में मनोरंजन के अनुपात को बनाए रखना चुनौतीपूर्ण होता है। अतः दक्ष विज्ञान कथाकार उपन्यास लेखन के लिए गल्प-प्रधान किस्सागोई शैली को अपनाता है। इससे साहित्य और विज्ञान दोनों का उद्देश्य सध जाता है। विश्व के चर्चित विज्ञान उपन्यासों में अधिकांश 'विज्ञान गल्प' की श्रेणी में आते हैं।
विज्ञान लेखन की कसौटी उसका मजबूत सैद्धांतिक आधार है। चाहे वह विज्ञान कथा हो या गल्प, उसके मूल में किसी वैज्ञानिक सिद्धांत अथवा ऐसी परिकल्पना को होना चाहिए जिसका आधार जांचा-परखा वैज्ञानिक सत्य हो। वैज्ञानिक तथ्यों को समझे बिना 'विज्ञान कथा' अथवा 'विज्ञान गल्प' का कोई औचित्य नहीं बन सकता। अक्सर यह देखा गया है कि विज्ञान के किसी आधुनिकतम उपकरण अथवा नई खोज को आधार बनाकर अति-उत्साही लेखक रचना गढ़ देते हैं। लेकिन विज्ञान साहित्य का दर्जा दिलाने के लिए जो स्थितियां गढ़ी जाती हैं, उनका वैज्ञानिक सिद्धांत अथवा परिकल्पना से कोई वास्ता नहीं होता। न ही लेखक अपनी रचना के माध्यम से ब्रह्मांड के किसी रहस्य के पीछे मौजूद वैज्ञानिक तथ्य का उद्घाटन करना चाहता है। वह उसकी कल्पना से उद्भूत तथा वहीं तक सीमित होता है। ऐसी अवस्था में पाठक को चमत्कार के अलावा और कुछ मिल ही नहीं पाता। यह चामत्कारिता परीकथाओं या जादू-टोने के आधार पर रची गई रचनाओं जैसी ही अविवेकी एवं निरावलंब होती है। ऐसी विज्ञान फंतासी उतना ही भ्रम फैलाती है, जितना कि गैर-वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर रची गई तंत्र-मंत्र और जादू-टोने की कहानियां। बल्कि कई बार तो उससे भी ज्यादा। इसलिए कि सामान्य परीकथाओं में संवेदनतत्व का प्राचुर्य होता है, जब कि तर्काधारित विज्ञान-कथाएं किसी न किसी रूप में व्यक्ति के हाथों में विज्ञान की ताकत के आने का भरोसा जताती हैं। अयाचित ताकत की अनुभूति व्यक्ति की संवेदनशीलता एवं सामाजिकता को आहत करती है। 'विज्ञान कथा' अथवा 'विज्ञान गल्प' की रचना हेतु लेखक के लिए विज्ञान के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पक्ष का ज्ञान अनिवार्य है। कोई रचना 'विज्ञान कथा' है अथवा 'विज्ञान गल्प', कई बार यह भेद कर पाना भी कठिन हो जाता है। असल में यह अंतर इतना बारीक है कि जब तक वैज्ञानिक नियमों, आविष्कारों तथा शोध-क्षेत्रों का पर्याप्त ज्ञान न हो, अच्छे से अच्छे लेखक-समीक्षक के धोखा खाने की पूरी संभावना होती है।
पश्चिमी देशों में विज्ञान लेखन की नींव उन्नीसवीं शताब्दी में रखी जा चुकी थी। विज्ञान के पितामह कहे जाने फ्रांसिस बेकन ने सोलहवीं शताब्दी में 'ज्ञान ही शक्ति है' कहकर उसका स्वागत किया था। बहुत जल्दी 'ज्ञान' का आशय, विशेष रूप से उत्पादन के क्षेत्र में, विज्ञान से लिया जाने लगा। सरलीकरण के इस खतरे को वाल्तेयर ने तुरंत भांप लिया था। बेकन की आलोचना करते हुए उसने कहा था कि विज्ञान का अतिरेकी प्रयोग मनुष्यता के नए संकटों को जन्म देगा। वाल्तेयर के बाद इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार करनेवाला रूसो था। अप्रगतिशील और प्रकृतिवादी कहे जाने का खतरा उठाकर भी अपने बहुचर्चित निबंध Discourse on the Arts and Sciences में उसने सबकुछ विज्ञान भरोसे छोड़ देने के रवैये की तीखी आलोचना की थी। इसके बावजूद हुआ वही जैसा वाल्तेयर तथा रूसो ने सोचा था। बीसवीं शताब्दी में आइंस्टाइन के ऊर्जा सिद्धांत के आधार पर निर्मित परमाणु बम से तो खतरा पूरी तरह सामने आ गया। आइंस्टाइन ने ही सिद्ध किया था कि भारी परमाणु के नाभिक को न्यूट्रॉन कणों की बौछार द्वारा विखंडित किया जा सकता है। इससे असीमित ऊर्जा की प्राप्ति होती है। इस असाधारण खोज ने परमाणु बम को जन्म दिया। उसके पीछे था मरने-मारने का सामंती संस्कार। एक बम अकेले दुनिया की एक-तिहाई आबादी को एक झटके में खत्म कर सकता है। माया कैलेंडर की भांति यह डर भी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए पर्याप्त सिद्ध हुआ। भय के मनोविज्ञान ने उसे व्यापक लोकप्रसिद्धि प्रदान की। प्रकारांतर से उसने दार्शनिकों, वैज्ञानिकों समेत पूरे बुद्धिजीवी समाज को इतनी गहराई से प्रभावित किया कि विज्ञान बुद्धिजीवी वर्ग का नया धर्म बन गया। लोग उसके विरोध में कुछ भी कहने-सुनने को तैयार न थे, जबकि मनुष्यता के हित में उससे अधिक लोकोपकारी आविष्कार पेनिसिलिन का था, जिसका आविष्कारक फ्लेमिंग था। एडवर्ड जेनर द्वारा की गई वैक्सीन की खोज भी उतनी ही महत्वपूर्ण और कल्याणकारी थी। फिर भी आइंस्टाइन को इन दोनों से कहीं अधिक ख्याति मिली। खूबसूरत-रोमांचक परीकथा - जितनी लोकप्रियता पा चुके आपेक्षिकता के सिद्धांत के आगे विज्ञान के सारे आविष्कार आभाहीन होकर रह गए। मनुष्यता के लिए कल्याणकारी आविष्कारक और भी कई हुए, परंतु उनमें से एक भी आइंस्टाइन की ख्याति के आसपास न पहुंच सका।
अपनी बौद्धिकता और कल्पना की बहुआयामी उड़ान के बावजूद आपेक्षिकता का सिद्धांत इतना गूढ़ है कि उसे बाल साहित्य में सीधे ढालना आसान नहीं है। मगर आइंस्टाइन के शोध से उपजी एक विचित्र-सी कल्पना ने बाल साहित्य की समृद्धि का मानो दरवाजा ही खोल दिया। आइंस्टाइन ने सिद्ध किया था कि समय भी यात्रा का आनंद लेता है। उसका वेग भी अच्छा-खासा यानी प्रकाश के वेग के बराबर होता है। अभी तक यह माना जा रहा था कि गुजरा हुआ वक्त कभी वापस नहीं आता। आइंस्टाइन ने गणितीय आधार पर सिद्ध किया था कि समय को वापस भी दौड़ाया जा सकता है। यह प्रयोग-सिद्ध परिकल्पना थी, जो सुनने-सुनाने में परीकथाओं जितना आनंद देती थी। शायद उससे भी अधिक, क्योंकि समय को यात्रा करते देखने या समय में यात्रा करने का रोमांच घिसी-पिटी परीकथाओं से कहीं बढ़कर था। इस परिकल्पना का एक और रोमांचक पहलू था, समय के सिकुड़ने का विचार। आइंस्टाइन के पूर्ववर्ती मानते थे कि समय स्थिर वेग से आगे बढ़ता है। सूक्ष्म गणनाओं के आधार पर वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि अति उच्च वेगों का असर समय पर भी पड़ता है। विशिष्ट परिस्थितियों में समय को भी लगाम लग जाती है। समय में यात्रा जैसी अविश्वसनीय परिकल्पना ने मनुष्य के लिए अंतरिक्ष के दरवाजे खोल दिए। गणित की विश्वसनीयता के साथ प्रस्तुत इस परिकल्पना और तत्संबंधी प्रयोगों ने अनेक विश्वप्रसिद्ध विज्ञान कथाओं को मसाला दिया, जिसे राइट बंधुओं द्वारा आविष्कृत वायुयान से मजबूत आधार मिला। अंतरिक्ष में, जो अभी तक महज कल्पना की वस्तु था, जहां उड़ान भरते पक्षियों को देख इंसान की आंखों में मुक्ताकाश में तैरने के सपने कौंधने लगते थे, अब वह स्वयं आ-जा सकता था। अंतरिक्ष-यात्रा को लेकर उपन्यास-लेखन का सिलसिला तो आइंस्टाइन और राइट बंधुओं से पहले ही आरंभ हो चुका था। अब इन विषयों पर अधिक यथार्थवादी कौशल से लिख पाना संभव था।
सवाल है कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक विज्ञान साहित्य ने जो दिशा पकड़ी, क्या वह साहित्यिक दृष्टि से भी समीचीन थी? इसमें कोई दो राय नहीं कि बीसवीं शताब्दी के आरंभ में विज्ञान लेखन में तेजी आई। बाल साहित्य को अनेक सुंदर और मौलिक कृतियां इस कालखंड में प्राप्त हुईं। वह दौर उन्नत सामाजिक चेतना का था, मनुष्यता दो विश्वयुद्धों के घाव खा चुकी थी, अतः साहित्यकारों के लिए यह संभव ही नहीं था कि उसकी उपेक्षा कर सकें। इसलिए उस दौर के साहित्यकार जहां एक ओर बाल साहित्य को कल्पनाधारित मौलिक, मनोरंजक एवं ज्ञानवर्धक कृतियां उपलब्ध कर रहे थे, दूसरी ओर वाल्तेयर और रूसो की चेतावनी भी उन्हें याद थी। अपनी कृतियों के माध्यम से वे समाज को सावधान भी कर रहे थे। कह सकते हैं कि सावधानी और सजगता विज्ञान साहित्य के आरंभिक दौर से ही उसके साथ जुड़ चुकी थी। विज्ञान साहित्य की शुरुआत के श्रेय की पात्र मेरी शैली से लेकर इसाक अमीसोव (रोबोट, 1950), आर्थर सी. क्लार्क (ए स्पेस आडिसी, 1968), राबर्ट हीलीन (राकेट शिप गैलीलिया, 1947), डबल स्टार (1956) तथा स्ट्रेंजर इन ए स्ट्रेंज लैंड (1961) - सभी ने विज्ञान के दुरुपयोग की संभावनाओं को ध्यान में रखा। मेरी शैली ने अपनी औपन्यासिक कृति 'फ्रेंकिस्टीन' (1818) में दो मृत शरीरों की हड्डियों से बने एक प्राणी की कल्पना की थी। वह जीव प्रारंभ में भोला-भाला था। धीरे-धीरे उसमें नकारात्मक चरित्र उभरा और उसने अपने जन्मदाता वैज्ञानिक को ही खा लिया। उपन्यास विज्ञान के दुरुपयोग की संभावना से जन्मे डर को सामने लाता था।
हिंदी में आरंभिक 'विज्ञान कथा' का लेखन अंग्रेजी से प्रभावित था। औपनिवेशिक भारत में यह स्वाभाविक भी था। हिंदी की पहली विज्ञान कथा अंबिकादत्त व्यास की 'आश्चर्य वृतांत' मानी जाती है, जो उन्हीं के समाचारपत्र 'पीयूष प्रवाह' में धारावाहिक रूप में 1884 से 1888 के बीच प्रकाशित हुई थी। उसके बाद बाबू केशवप्रसाद सिंह की विज्ञान कथा 'चंद्रलोक की यात्रा' सरस्वती के भाग 1, संख्या 6, सन 1900 में प्रकाशित हुई। संयोग है कि वे दोनों ही कहानियां जूल बर्न के उपन्यासों पर आधारित थीं। अंबिकादत्त व्यास ने अपनी कहानी के लिए मूल कथानक 'ए जर्नी टू सेंटर ऑफ दि अर्थ' से लिया था। केशवप्रसाद सिंह की कहानी भी बर्न के उपन्यास 'फाइव वीक्स इन बैलून' से प्रभावित थी। इन कहानियों ने हिंदी के पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। उनमें विज्ञान कथा पढ़ने की ललक बढ़ी। आरंभिक दौर में विज्ञान कथा श्रेणी में हिंदी में प्रकाशित ये कहानियां पाठकों द्वारा खूब सराही गईं। इन्होंने हिंदी पाठकों का परिचय नए साहित्यिक आस्वाद से कराया, जो कालांतर में हिंदी विज्ञान साहित्य के विकास का आधार बना। इसके बावजूद इन्हें हिंदी की मौलिक विज्ञान कथा नहीं कहा जा सकता। इन रचनाओं में मौलिकता का अभाव था। यह स्थिति देर तक बनी रही। हिंदी में विज्ञान साहित्य के अभाव का महत्वपूर्ण कारण बाल साहित्य के प्रति बड़े साहित्यकारों में अनपेक्षित उदासीनता भी थी। अधिकांश प्रतिष्ठित लेखक बाल साहित्य को दोयम दर्जे का मानते थे। यहां तक कि बाल साहित्यकार कहलाने से भी वे बचते थे। एक अन्य कारण था लेखकों और पाठकों में वैज्ञानिक चेतना की कमी तथा जानकारी का अभाव। जो विद्वान विज्ञान में पारंगत थे, वे लेखकीय कौशल के कमी के चलते इस अभाव की पूर्ति करने में अक्षम थे।
हिंदी की प्रथम मौलिक विज्ञान कथा का श्रेय सत्यदेव परिव्राजक की विज्ञान कथा 'आश्चर्यजनक घंटी' को प्राप्त है। बाद के विज्ञान कथाकारों में दुर्गाप्रसाद खत्री, राहुल सांकृत्यायन, डॉ. संपूर्णानंद, आचार्य चतुरसेन, कृश्न चंदर, डॉ. ब्रजमोहन गुप्त, लाला श्रीनिवास दास, राजेश्वर प्रसाद सिंह आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इस तरह हिंदी विज्ञान साहित्य का इतिहास कहानी साहित्य जितना ही पुराना है, हालांकि यह मानना पड़ेगा कि एक शताब्दी से ऊपर की इस विकास-यात्रा में हिंदी विज्ञान साहित्य का जितना विस्तार अपेक्षित था, उतना नहीं हो पाया। इसका एक कारण संभवतः यह भी हो सकता है कि हिंदी के अधिकांश साहित्यकार गैर-वैज्ञानिक शैक्षिक पृष्ठभूमि से आए थे। फिर उनके सामने चुनौतियां भी अनेक थीं। सबसे पहली चुनौती थी, विज्ञान कथा की स्पष्ट अवधारणा का अभाव। उस समय तक शिक्षा और साहित्य का प्रथम उद्देश्य था - बच्चों को भारतीय संस्कृति से परचाना। उन्हें धार्मिक और नैतिक शिक्षा देना। नैतिक शिक्षा को भी सीमित अर्थों में लिया जाता था। धार्मिक ग्रंथों, महापुरुषों के वक्तव्यों तथा उनके जीवन चरित्र को नैतिक शिक्षा का प्रमुख स्रोत माना जाता है। धर्म के बगैर भी नैतिक शिक्षा दी जा सकती है, यह मानने के लिए कोई तैयार न था। बालकों के मौलिक सोच, तर्कशीलता, मौलिक ज्ञान एवं प्रश्नाकुलता को सिरे चढ़ाने वाले साहित्य का पूरी तरह अभाव था। विज्ञान के बारे में बालक पाठशाला में जो कुछ पढ़ता था, वह केवल उसके शिक्षा-सदन तक ही सीमित रहता था। घर-समाज में विज्ञान के उपयोग, परिवेश में उसकी व्याप्ति के बारे में समझानेवाला कोई न था। परिवार में बालक की हैसियत परावलंबी प्राणी के रूप में थी। घर पहुंचकर अपनों के बीच यदि वह वैज्ञानिक प्रयोगों को दोहराना चाहता तो प्रोत्साहन की संभावना बहुत कम थी। संक्षेप में कहें तो विज्ञान और उसके साथ विज्ञान लेखन की स्थिति पूरी तरह डांवाडोल थी। भारतीय समाज में वैज्ञानिक बोध के प्रति यह उदासीनता तब थी जब प्रथम वैज्ञानिक क्रांति को हुए चार शताब्दियां गुजर चुकी थीं। आजादी के बाद हिंदी विज्ञान साहित्य की स्थिति में सुधार आया है, तथापि मौलिक सोच और स्तरीय रचनाओं की आज भी कमी है।
एक प्रश्न रह-रह दिमाग में कौंधता है। आखिर वह कौन-सा गुण है, जो किसी रचना को विज्ञान कथा या वैज्ञानिक साहित्य का रूप देता है? विज्ञान गल्प के नाम पर हिंदी में बच्चों के लिए जो रचनाएं लिखी जाती हैं, वे कितनी वैज्ञानिक हैं? क्या सिर्फ उपग्रह, स्पेस शटल, अंतरिक्ष यात्रा या ऐसे ही किसी काल्पनिक अथवा वास्तविक ग्रह, उपग्रह के यात्रा-रोमांच को लेकर बुने गए कथानक को विज्ञान साहित्य माना जा सकता है? क्या अच्छे और बुरे का द्वंद्व विज्ञान साहित्य में भी अपरिहार्य है? कई बार लगता है कि हिंदी के विज्ञान साहित्य लेखक विज्ञान और वैज्ञानिकता में अंतर नहीं कर पाते। विज्ञान साहित्य-लेखन के लिए गहरे विज्ञान-बोध की आवश्यकता होती है। उन्नत विज्ञानबोध के साथ विज्ञान का कामचलाऊ ज्ञान हो तो भी निभ सकता है। वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न लेखक अपने परिवेश से ही ऐसे अनेक विषय खोज सकता है जो विज्ञान के प्रति बालक की रुचि तथा प्रश्नाकुलता को बढ़ाने में सहायक हों। तदनुसार विज्ञान साहित्य ऐसा साहित्य है जिससे किसी वैज्ञानिक सिद्धांत की पुष्टि होती हो अथवा जो किसी वैज्ञानिक आविष्कार को लेकर तार्किक दृष्टिकोण से लिखा गया हो। उसमें या तो ज्ञात वैज्ञानिक सिद्धांत की विवेचना, उसके अनुप्रयोग की प्रामाणिक जानकारी हो अथवा तत्संबंधी आविष्कारों की परिकल्पना हो। विज्ञान गल्प को सार्थक बनाने लिए आवश्यक है कि उसके लेखक को वैज्ञानिक शोधों तथा प्रविधियों की भरपूर जानकारी हो। उसकी कल्पनाशक्ति प्रखर हो, ताकि वह वैज्ञानिक सिद्धांत, जिसके आधार पर वह अपनी रचना को गढ़ना चाहता है, के विकास की संभावनाओं की कल्पना कर सके। यदि ऐसा नहीं है तो विज्ञान कथा कोरी फंतासी बनकर रह जाएगी। ऐसी फंतासी किसी मायावी परीकथा जितनी ही हानिकर सिद्ध हो सकती है। एक रचनाकार का यह भी दायित्व है कि वह प्रचलित वैज्ञानिक नियमों के पक्ष-विपक्ष को भली-भांति परखे। उनकी ओर संकेत करे।
निर्विवाद सत्य है कि समाज को रूढ़ियों, जादू-टोने, भूत-प्रेत आदि के मकड़जाल से बाहर रखने में पिछली कुछ शताब्दियों से विज्ञान की बहुत बड़ी भूमिका रही है। विज्ञान के कारण ही देश अनेक आपदाओं तथा जनसंख्या वृद्धि से उत्पन्न खाद्यान्न समस्याओं का सामना करने में सफल रहा है। अनेक महामारियों से समाज को बचाने का श्रेय भी विज्ञान को ही जाता है। 'श्वेत क्रांति', 'हरित क्रांति' जैसी अनेक उत्पादन क्रांतियां विज्ञान के दम पर ही संभव हो सकी हैं। मगर बीते वर्षों में संचार माध्यमों और बाजार ने विज्ञान को 'आधुनिकता का धर्म' की भांति समाज में प्रसारित किया है। लोगों को बताया जाता रहा है कि विज्ञान के विकास की यह दिशा स्वाभाविक है। जिन क्षेत्रों में उसका विस्तार हुआ है, वही होना भी चाहिए था। जब कि ऐसा है नहीं। बाजार के दम पर फलने-फूलने वाले समाचारपत्र-पत्रिकाएं निहित स्वार्थ के लिए मानव समाज को उपभोक्ता समाज में ढालने की कोशिश करते रहते हैं। वे व्यक्ति के सोच को भी अपने स्वार्थानुरूप अनकूलित करते रहते हैं। पढ़े-लिखे युवाओं से लेकर साहित्यकार, बुद्धिजीवी तक उनकी बातों में आ जाते हैं। इससे विज्ञान पर अंकुश रखने, लोककल्याण के लक्ष्य के साथ उसके शोध क्षेत्रों के नियमन की बात कभी ध्यान में ही नहीं आ पाती। उदाहरण के लिए बीसवीं शताब्दी के विज्ञान की तह में जाकर देख लीजिए। उसका विकास उन क्षेत्रों में कई गुना हुआ, जहाँ पूंजीपतियों को लाभ कमाने का अवसर मिलता हो, उनका एकाधिकार पुष्ट होता हो। गांव में बोझा ढोने वाली मशीन हो या शहरी सड़कों पर दिखने वाला रिक्शा, उनमें प्रयुक्त तकनीक में पिछले पचास वर्षां में कोई बदलाव नहीं आया है, जब कि कार, फ्रिज, मोटर साइकिल, टेलीविजन, कंप्यूटर, मोबाइल जैसी उपभोक्ता वस्तुओं के हर साल दर्जनों नए माडल बाजार में उतार दिए जाते हैं। हालांकि यह कहना ज्यादती होगी कि ऐसा केवल विज्ञान के प्रति साहित्यकारों के अतिरेकी आग्रह अथवा उसके अनुप्रयोग की ओर से आंखें मूंद लेने के कारण हुआ है। मगर यह भी कटु सत्य है कि समाज-विज्ञानियों और साहित्यकर्मियों द्वारा विज्ञान के मनमाने व्यावसायिक अनुप्रयोग का जैसा रचनात्मक विरोध होना चाहिए था, वैसा नहीं हो पाया है। फ्रांसिसी बेकन का मानना था कि विज्ञान मनुष्य को जानलेवा कष्ट से मुक्ति दिलाएगा। आरंभिक आविष्कार इसकी पुष्टि भी करते थे। जेम्स वाट ने भाप का इंजन बनाया तो सबसे पहले उसका उपयोग कोयला खानों से पानी निकालने के लिए किया गया, जिससे हर साल सैकड़ों मजदूरों की जान जाती थी। विज्ञान साहित्य का अभीष्ट भी यही था कि वह विज्ञान के कल्याणकारी अनुप्रयोगों की ओर बुद्धिजीवियों-वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित करे तथा उनके समर्थन में खड़ा नजर आए। लेकिन विज्ञान लेखन को फैशन की तरह लेने वाले लेखकों से इस मामले में चूक हुई। श्रद्धातिरेक में उन्होंने विज्ञान-लेखन को भी धर्म बना लिया। प्रौद्योगिकी प्रदत्त सुविधाओं के जोश में वे भूल गए कि विज्ञान को मर्यादित करने की आवश्यकता आज पहले से कहीं अधिक है। अपने लेखन को संपूर्ण मनुष्यता के लिए कल्याणकारी मानने वाले साहित्यकारों का क्या यह दायित्व नहीं कि वे ऐसा सपना देखें जिसमें विज्ञान और तकनीक के जरिये देश के उपेक्षित वर्गों के कल्याण के बारे में सोचा गया हो! लोगों को बताएं कि मात्र प्रयोगशाला में जांचा-परखा गया सत्य ही सत्य नहीं होता। 'अहिंसा परमो धर्मः' परमकल्याणक सत्य का प्रतीक है। समाज में शांति-व्यवस्था बनाने रखने के लिए उसका अनुसरण अपरिहार्य है, हालांकि अन्य नैतिक सत्यों की भांति इसे भी किसी तर्क अथवा प्रयोगशाला द्वारा प्रमाणित नहीं किया जा सकता। विज्ञान ऐसे विषयों पर भले विचार न कर पाए, मगर साहित्य अनुभूत सत्य को भी प्रयोगशाला में खरे उतरे विज्ञान जितनी अहमियत देता है। विज्ञान तथा उसके अनुप्रयोग को लेकर नैतिक दृष्टि साहित्य में होगी, तभी तो विज्ञान में आएगी। कोरी वैज्ञानिक दृष्टि आइंस्टाइन के सापेक्षिकता के सिद्धांत से परमाणु बम ही बनवा सकती है।
मुझे दुख होता है जब देखता हूं कि विज्ञान-सम्मत लिखने के फेर में कुछ साहित्यकार साहित्य के मर्म को ही भुला देते हैं। ऐसे में यदि उनका विज्ञान-बोध भी आधा-अधूरा हो तो विज्ञान कथा या गल्प की श्रेणी में लिखी गई रचना भी तंत्र-मंत्र और जादू-मंतर जैसी बे-सिर-पैर की कल्पना बन जाती है। कुछ कथित विज्ञान कथाओं में दिखाया जाता है कि नायक या प्रतिनायक के हाथों में ऐसा टार्च है जिससे नीली रोशनी निकलती है। वह रोशनी धातु की मोटी पर्त को भी पिघला देती है। 'नीली रोशनी' संबोधन 'पराबैंगनी तरंगों' की तर्ज पर गढ़ा गया है। वे अतिलघु तरंगदैर्घ्य की अदृश्य किरणें होती हैं, जिन्हें स्पेक्ट्रम पैमाने पर नीले अथवा बैंगनी रंग से निचली ओर दर्शाया जाता है। दृश्य बैंगनी प्रकाश की किरणों के तरंगदैर्घ्य से भी अतिलघु होने के उन्हें 'अल्ट्रावायलेट' कहा जाता है। इस तथ्य से अनजान हमारे विज्ञान लेखक धड़ल्ले से नीली रोशनी का शब्द का प्रयोग भेदक किरणों के लिए करते हैं। मेरी दृष्टि में नीली किरणें फेंकने वाली टार्च और जादू के बटुए या जादुई छड़ी में उस समय तक कोई अंतर नहीं है, जब तक विज्ञान लेखक अपनी रचना में वर्णित वैज्ञानिक सत्य की ओर स्पष्ट संकेत नहीं करता। आप कहेंगे कि इससे रचना बोझिल हो जाएगी, पठनीयता बाधित होगी, तो मैं कहना चाहूंगा कि पठनीयता और विज्ञान की कसौटी दोनों का निर्वाह करना ही विज्ञान लेखक की सबसे बड़ी चुनौती होती है। इसलिए वैज्ञानिक कथाकार पूरी दुनिया में कम हुए हैं। साहित्यकार का काम वैज्ञानिक तथ्यों का सामान्यीकरण कर उनके और बाल मन के बीच तालमेल बैठाना है। वह बालक को अपने आसपास की घटनाओं से जोड़ने की जिम्मेदारी निभाता है, ताकि उसकी जिज्ञासा बलवती हो। उसमें कुछ सीखने की ललक पैदा हो। विज्ञान को ताकत का पर्याय न मान पाए इसलिए वह बार-बार इस तथ्य को समाज के बीच लाता है कि मनुष्यत्व की रक्षा संवेदना की सुरक्षा में है। संवेदन-रहित फंतासी हमें निःसंवेद रोबोटों की दुनिया में ले जाएगी। सार रूप में कहूं तो साहित्य का काम विज्ञान को दिशा देना है, न कि उसको अपनी दृष्टि बनाकर उसके अनुशासन में स्वयं को ढाल लेना। साहित्य अपने आपमें संपूर्ण शब्द है। तर्कसम्मत होना उसका गुण है। किसी रचना में साहित्यत्व की मौजूदगी ही प्रमाण है कि उसमें पर्याप्त विज्ञानबोध है।
Friday, 28 November 2014
पतित वैश्वीकरण
आज जबकि लद्दाख से लिस्बन तक, चीन से पेरू तक; पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में—वेशभूषा, जीन्स, बाल काढ़ने के तरीके, टी-शर्टस, जॉगिंग, खाने की आदतें, संगीत के सुर, यौनिकता के प्रति रवैये, सब वैश्विक हो गए हैं। यहां तक कि नशीली दवाइयों से संबंधित अपराध, औरतों के साथ दुराचार व बलात्कार, घोटाले और भ्रष्टाचार भी सरहदों को पार करके वैश्विक रूप धारण कर चुके हैं। वैश्वीकरण और उदारीकरण के अंतर्निहित वैचारिक आधार को ‘मुक्त बाजार’, ‘प्रगति’ और ‘बौद्धिक स्वतंत्रता’ जैसे विचारों की देन माना जा सकता है जो एक खास तरह के सांस्कृतिक परिवेश का हिस्सा होते हैं। इस प्रकार हमें मुट्ठी भर विकसित राष्ट्रों के वर्चस्व वाली समरूप वैश्विक संस्कृति में घुल-मिल जाना पड़ता है ताकि वैश्वीकरण और उदारीकरण के अधिकतम लाभ पा सकें। इसका नतीजा यह होता है कि राष्ट्रीय संस्कृति और लगातार घुसपैठ करती वैश्विक संस्कृति के बीच तनाव पैदा होता जाता है। और भी चिंताजनक बात यह है कि महानगरीय केंद्रों से नियंत्रित होने वाली क्षेत्रीय उपसंस्कृतियों को भी मीडिया अपने दबदबे में ले लेता है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया कुछ खास सिद्धांतों पर चलती है : बाजार सब कुछ जानता है (व्यक्तिवाद); व्यक्ति जो चाहता है उसे मिलना चाहिए ताकि वह संतुष्ट रहे, भले वह पोर्नोग्राफी ही क्यों न मांगे (भोगवाद)। कहने का मतलब यह है कि इससे विविध संस्कृतियों में बनावटी समरूपता पैदा होती है जिससे मानव सभ्यता दरिद्र होने लगती है।
मां/मोहनजीत
मैं उस मिट्टी में से उगा हूँ
जिसमें से माँ लोकगीत चुनती थी
हर नज्म लिखने के बाद सोचता हूँ-
क्या लिखा है?
माँ कहाँ इस तरह सोचती होगी!
गीत माँ के पोरों को छूकर फूल बनते
माथे को छूते- सवेर होती
दूध-भरी छातियों को स्पर्श करते
तो चांद निकलता
पता नहीं गीत का कितना हिस्सा
पहले का था
कितना माँ का
माँ नहाती तो शब्द ‘रुनझुन’ की तरह बजते
चलती तो एक लय बनती
माँ कितने साज़ों के नाम जानती होगी
अधिक से अधिक 'बंसरी' या 'अलग़ोजा'
बाबा(गुरु नानक) की मूरत देखकर
'रबाब' भी कह लेती थी
पर लोरी के साथ जो साज़ बजता है
और आह के साथ जो हूक निकलती है
उससे कौन-सा साज़ बना
माँ नहीं जानती थी
माँ कहाँ खोजनहार थी !
चरखा कातते-कातते सो जाती
उठती तो चक्की पर बैठ जाती
भीगी रात का माँ को क्या पता !
तारों के साथ परदेशी पिता की प्रतीक्षा करती
मैं भी जो विद्वान बना घूमता हूँ
इतना ही तो जानता हूँ
माँ सांस लेती तो लगता
रब जीवित है!
जिसमें से माँ लोकगीत चुनती थी
हर नज्म लिखने के बाद सोचता हूँ-
क्या लिखा है?
माँ कहाँ इस तरह सोचती होगी!
गीत माँ के पोरों को छूकर फूल बनते
माथे को छूते- सवेर होती
दूध-भरी छातियों को स्पर्श करते
तो चांद निकलता
पता नहीं गीत का कितना हिस्सा
पहले का था
कितना माँ का
माँ नहाती तो शब्द ‘रुनझुन’ की तरह बजते
चलती तो एक लय बनती
माँ कितने साज़ों के नाम जानती होगी
अधिक से अधिक 'बंसरी' या 'अलग़ोजा'
बाबा(गुरु नानक) की मूरत देखकर
'रबाब' भी कह लेती थी
पर लोरी के साथ जो साज़ बजता है
और आह के साथ जो हूक निकलती है
उससे कौन-सा साज़ बना
माँ नहीं जानती थी
माँ कहाँ खोजनहार थी !
चरखा कातते-कातते सो जाती
उठती तो चक्की पर बैठ जाती
भीगी रात का माँ को क्या पता !
तारों के साथ परदेशी पिता की प्रतीक्षा करती
मैं भी जो विद्वान बना घूमता हूँ
इतना ही तो जानता हूँ
माँ सांस लेती तो लगता
रब जीवित है!
Thursday, 27 November 2014
मेरे पास, उनके पास / जयप्रकाश त्रिपाठी
('जग के सब दुखियारे रस्ते मेरे हैं' संकलन से)
जो है, क्या-क्या है,
जो नहीं है, क्या नहीं है,
मेरे पास, उनके पास...।
सब चेहरे, सब खुशियां, सब सुबहें उनके वश में,
उजियारे, रंग सारे, उनके मन में, उनके रस में,
जो वहां है, सब नया है,
जो भी है, सब वहीं है,
उनके पास, उनके पास...।
सब कर्ज-कर्ज किस्से, सब दर्द-दर्द लम्हे,
जले सर्द-सर्द चेहरे, जो बुझे-से, मेरे हिस्से,
मेरे नाम सब उधारी,
कई खाते हैं, बही है,
मेरे पास, मेरे पास...।
सुख कितना, और कितना, जो लूटे नहीं जाते,
दुख कितना, और कितना, हमको बहुत सताते,
जो है, बड़ा-बड़ा है,
जो गलत है, जो सही है,
मेरे पास, उनके पास...।
जो है, क्या-क्या है, जो नहीं है, क्या नहीं है,
मेरे पास, उनके पास...।
जो है, क्या-क्या है,
जो नहीं है, क्या नहीं है,
मेरे पास, उनके पास...।
सब चेहरे, सब खुशियां, सब सुबहें उनके वश में,
उजियारे, रंग सारे, उनके मन में, उनके रस में,
जो वहां है, सब नया है,
जो भी है, सब वहीं है,
उनके पास, उनके पास...।
सब कर्ज-कर्ज किस्से, सब दर्द-दर्द लम्हे,
जले सर्द-सर्द चेहरे, जो बुझे-से, मेरे हिस्से,
मेरे नाम सब उधारी,
कई खाते हैं, बही है,
मेरे पास, मेरे पास...।
सुख कितना, और कितना, जो लूटे नहीं जाते,
दुख कितना, और कितना, हमको बहुत सताते,
जो है, बड़ा-बड़ा है,
जो गलत है, जो सही है,
मेरे पास, उनके पास...।
जो है, क्या-क्या है, जो नहीं है, क्या नहीं है,
मेरे पास, उनके पास...।
कमेटी ऑफ कंसर्डं जर्नलिस्ट’ के 9 कमेंट्स
अमेरिका के हावर्ड फैकल्टी क्लब में 1977 में गठित लेखकों और पत्रकारों की ‘कमेटी ऑफ कंसर्डं जर्नलिस्ट’ के पत्रकारिता पर 9 कमेंट्स.......
1. सत्य को सामने लाना पत्रकार का दायित्व है।
2. पत्रकार को सबसे पहले जनता के प्रति निष्ठावान होना चाहिए।
3. खबर तैयार करने के लिए मिलने वाली सूचनाओं की पुष्टि में अनुशासन को बनाए रखना पत्रकारिता का एक अहम तत्व है।
4. पत्रकारिता करने वालों को वैसे लोगों के प्रभाव से खुद को स्वतंत्र रखना चाहिए, जिन्हें वे कवर करते हों।
5. पत्रकारिता को सत्ता की स्वतंत्र निगरानी करने वाली व्यवस्था के तौर पर काम करना चाहिए।
6. पत्रकारिता को जन आलोचना के लिए एक मंच मुहैया कराना चाहिए। इसकी व्याख्या इस तरह से की जा सकती है कि जिस मसले पर जनता के बीच प्रतिक्रया स्वभाविक तौर पर उत्पन्न हो, उसके अभिव्यक्ति का जरिया पत्रकारिता को बनना चाहिए।
7. पत्रकार को इस दिशा में प्रयत्नशील रहना चाहिए कि खबर को सार्थक, रोचक और प्रासंगिक बनाया जा सके।
8. समाचार को विस्तृत और आनुपातिक होना चाहिए।
9. पत्रकारों को अपना विवेक इस्तेमाल करने की आजादी हर हाल में होनी ही चाहिए।
1. सत्य को सामने लाना पत्रकार का दायित्व है।
2. पत्रकार को सबसे पहले जनता के प्रति निष्ठावान होना चाहिए।
3. खबर तैयार करने के लिए मिलने वाली सूचनाओं की पुष्टि में अनुशासन को बनाए रखना पत्रकारिता का एक अहम तत्व है।
4. पत्रकारिता करने वालों को वैसे लोगों के प्रभाव से खुद को स्वतंत्र रखना चाहिए, जिन्हें वे कवर करते हों।
5. पत्रकारिता को सत्ता की स्वतंत्र निगरानी करने वाली व्यवस्था के तौर पर काम करना चाहिए।
6. पत्रकारिता को जन आलोचना के लिए एक मंच मुहैया कराना चाहिए। इसकी व्याख्या इस तरह से की जा सकती है कि जिस मसले पर जनता के बीच प्रतिक्रया स्वभाविक तौर पर उत्पन्न हो, उसके अभिव्यक्ति का जरिया पत्रकारिता को बनना चाहिए।
7. पत्रकार को इस दिशा में प्रयत्नशील रहना चाहिए कि खबर को सार्थक, रोचक और प्रासंगिक बनाया जा सके।
8. समाचार को विस्तृत और आनुपातिक होना चाहिए।
9. पत्रकारों को अपना विवेक इस्तेमाल करने की आजादी हर हाल में होनी ही चाहिए।
स्त्री : पांच / चन्द्रकान्त देवताले
जिनने तस्वीरें खींचीं, घायल हुए
तस्वीरों में देखो कैसे मुस्करा रहे हैं प्रमुदित
कि रोंगटे खड़े हो जाते हैं
भरोसा करना मुश्किल है इन तस्वीरों पर
द्रौपदी के चीर-हरण की तस्वीर फिर भी बरदाश्त कर सका था मैं
क्योंकि दूसरी दिशा से लगातार बरस रही थी हया
पर ये तस्वीरें, सब कुछ ही तो नंगा हो रहा है इनमें
छिपाओ इस बहशीपन को
बच्चों और गर्भवती स्त्रियों की नज़रों से
रोको इनका निर्यात, ढक दो इन तस्वीरों को बची खुची हया से ।
तस्वीरों में देखो कैसे मुस्करा रहे हैं प्रमुदित
कि रोंगटे खड़े हो जाते हैं
भरोसा करना मुश्किल है इन तस्वीरों पर
द्रौपदी के चीर-हरण की तस्वीर फिर भी बरदाश्त कर सका था मैं
क्योंकि दूसरी दिशा से लगातार बरस रही थी हया
पर ये तस्वीरें, सब कुछ ही तो नंगा हो रहा है इनमें
छिपाओ इस बहशीपन को
बच्चों और गर्भवती स्त्रियों की नज़रों से
रोको इनका निर्यात, ढक दो इन तस्वीरों को बची खुची हया से ।
स्त्री : चार / बोधिसत्व
दीदी बनारस में रहती है, पहले किसी पिंजरे में रहती थी,
उसके पहले किसी घोंसले में, रहती थी
उड़ती थी ख़ूब ऊपर और दूर-दूर ।
उसके भी पहले छिपी थी धरती में ।
उसे किस बात का दुख है
एक बेटी है, एक बेटा, पति कितना चहकता हुआ
घर कितना भरा हुआ, खिला हुआ, उसे कमी क्या है ?
घर में रहकर ही पढ़ लिया
पहले बी.ए., फिर एम. ए. फिर पी.एच.डी. । और क्या चाहिए ।
एक स्त्री को दुनिया में और क्या चाहिए ।
जो चाहती है, खाती है, मनचाहा पहनती है,
किसी को देती है क़िताबें, किसी को पैसे, किसी को कपड़े
किसी को शाप, किसी को आशीष
इतना सब होते हुए उसे किस बात का है दुख
क्यों हरदम मगन रहने वाली दीदी का
उतरा रहता है मुँह ।
उसके पहले किसी घोंसले में, रहती थी
उड़ती थी ख़ूब ऊपर और दूर-दूर ।
उसके भी पहले छिपी थी धरती में ।
उसे किस बात का दुख है
एक बेटी है, एक बेटा, पति कितना चहकता हुआ
घर कितना भरा हुआ, खिला हुआ, उसे कमी क्या है ?
घर में रहकर ही पढ़ लिया
पहले बी.ए., फिर एम. ए. फिर पी.एच.डी. । और क्या चाहिए ।
एक स्त्री को दुनिया में और क्या चाहिए ।
जो चाहती है, खाती है, मनचाहा पहनती है,
किसी को देती है क़िताबें, किसी को पैसे, किसी को कपड़े
किसी को शाप, किसी को आशीष
इतना सब होते हुए उसे किस बात का है दुख
क्यों हरदम मगन रहने वाली दीदी का
उतरा रहता है मुँह ।
स्त्री : एक / मंगलेश डबराल
एक स्त्री के कारण तुम्हें मिल गया एक कोना
तुम्हारा भी हुआ इंतज़ार
एक स्त्री के कारण तुम्हें दिखा आकाश
और उसमें उड़ता चिड़ियों का संसार
एक स्त्री के कारण तुम बार-बार चकित हुए
तुम्हारी देह नहीं गई बेकार
एक स्त्री के कारण तुम्हारा रास्ता अंधेरे में नहीं कटा
रोशनी दिखी इधर-उधर
एक स्त्री के कारण एक स्त्री
बची रही तुम्हारे भीतर ।
तुम्हारा भी हुआ इंतज़ार
एक स्त्री के कारण तुम्हें दिखा आकाश
और उसमें उड़ता चिड़ियों का संसार
एक स्त्री के कारण तुम बार-बार चकित हुए
तुम्हारी देह नहीं गई बेकार
एक स्त्री के कारण तुम्हारा रास्ता अंधेरे में नहीं कटा
रोशनी दिखी इधर-उधर
एक स्त्री के कारण एक स्त्री
बची रही तुम्हारे भीतर ।
Wednesday, 26 November 2014
ब्लॉगिंगः ऑनलाइन विश्व की आज़ाद अभिव्यक्ति / बालेन्दु शर्मा दाधीच
"दूसरे धर्मों का तो पता नहीं पर मैंने अपने धर्म में इतने दंभी, स्वार्थी और बेवकूफ लोग देखे हैं कि मुझे पछतावा है कि मैं क्यों जैन पैदा हुआ? अब जैन में तो हर चीज करने में पाप लगता है.... कुछ जैन संप्रदाय मूर्ति पूजा करते हैं तो कुछ मूर्तिपूजा के खिलाफ हैं। अब एक जैन मंदिर में जाकर लाइट चालू करके, माइक पे वंदना करके यह संतोष व्यक्त करते हैं कि मुझे स्वर्ग मिलेगा तो कुछ 'स्थानकवासी' जैन मानते हैं कि बिजली चालू करने से पाप लगता है और मूर्ति बनाने से बहुत छोटे जीव मरते हैं इसलिए पाप लगता है। यहां दोनों संप्रदाय एक ही भगवान की पूजा करेंगे लेकिन अलग ढंग से। फिर आठ दिन भूखे रहकर यह मान लेंगे कि उनका पाप मिट गया। यानी आपने तीन खून किए हों या लाखों लोगों के रुपए लूटे हों फिर भी कुछ दिन भूखे रहने से पाप मिट जाएंगे।" (तत्वज्ञानी के हथौड़े)।
"मैं अपने आपको मुसलमान नहीं मानता मगर मैं अपने मां-बाप की बहुत इज्जत करता हूं, सिर्फ और सिर्फ उनको खुश करने के लिए उनके सामने मुसलमान होने का नाटक करता हूं, वरना मुझे अपने आपको मुसलमान करते हुए बहुत गुस्सा आता है। मैं एक आम इन्सान हूं, मेरे दिल में वही है जो दूसरों में है। मैं झूठ, फरेब, मानदारी, बेईमानी, अच्छी और बुरी आदतें, कभी शरीफ और कभी कमीना बन जाता हूं, कभी किसी की मदद करता हूं और कभी नहीं- ये बातें हर इंसान में कॉमन हैं। एक दिन अब्बा ने अम्मी से गुस्से में आकर पूछा- क्या यह हमारा ही बच्चा है? तो वो हमारी तरह मुसलमान क्यों नहीं? कयामत के दिन अल्लाह मुझसे पूछेगा कि तेरे एक बेटे को मुसलमान क्यों नहीं बनाया तो मैं क्या जवाब दूं? पहले तो अब्बा-अम्मी ने मुझे प्यार से मनाया, फिर खूब मारा-पीटा कि हमारी तरह पक्का मुसलमान बने... यहां दुबई में दुनिया भर के देशों के लोग रहते हैं और ज्यादातर मुसलमान। मुझे शुरू से मुसलमान बनना पसंद नहीं और यहां आकर सभी लोगों को करीब से देखने और उनके साथ रहने के बाद तो अब इस्लाम से और बेजारी होने लगी है। मैं यह हरगिज नहीं कहता कि इस्लाम गलत है, इस्लाम तो अपनी जगह ठीक है। मैं मुसलमानों और उनके विचारों की बात कर रहा हूं।" (नई बातें, नई सोच)।
ये दोनों टिप्पणियां दो अलग-अलग लोगों ने लिखी हैं। दो ऐसे साहसिक युवकों ने, जो प्रगतिशीलता का आवरण ओढ़े किंतु भीतर से रूढ़िवादिता को हृदयंगम कर परंपराओं और मान्यताओं को बिना शर्त ढोते रहने वाले हमारे समाज की संकीर्णताओं के भीतर घुटन महसूस करते हैं। क्या इस तरह की बेखौफ, निश्छलतापूर्ण और ईमानदार टिप्पणियां किसी पत्र-पत्रिका में प्रकाशित की जा सकती हैं? क्या क्रुद्ध समाजों की उग्रतम प्रतिक्रियाओं से भरे इस दौर में ऐसे प्रतिरोधी स्वर किसी दूरदर्शन या आकाशवाणी से प्रसारित हो सकते हैं? क्या कोई धार्मिक, सामाजिक या राजनैतिक मंच इस ईमानदार किंतु विद्रोही आक्रोश की अभिव्यक्ति का मंच बन सकता है? ऐसा संभवत: सिर्फ एक मंच है जिसमें अभिव्यक्ति किन्हीं सीमाओं, वर्जनाओं, आचार संहिताओं या अनुशासन में कैद नहीं है। वह मंच है इंटरनेट पर तेजी से लोकप्रिय हो रही ब्लॉगिंग का।
औपचारिकता के तौर पर दोहरा दूं कि ब्लॉगिंग शब्द अंग्रेजी के 'वेब लॉग' (इंटरनेट आधारित टिप्पणियां) से बना है, जिसका तात्पर्य ऐसी डायरी से है जो किसी नोटबुक में नहीं बल्कि इंटरनेट पर रखी जाती है। पारंपरिक डायरी के विपरीत वेब आधारित ये डायरियां (ब्लॉग) सिर्फ अपने तक सीमित रखने के लिए नहीं हैं बल्कि सार्वजनिक पठन-पाठन के लिए उपलब्ध हैं। चूंकि आपकी इस डायरी को विश्व भर में कोई भी पढ़ सकता है इसलिए यह आपको अपने विचारों, अनुभवों या रचनात्मकता को दूसरों तक पहुंचाने का जरिया प्रदान करती है और सबकी सामूहिक डायरियों (ब्लॉगमंडल) को मिलाकर देखें तो यह निर्विवाद रूप से विश्व का सबसे बड़ा जनसंचार तंत्र बन चुका है। उसने कहीं पत्रिका का रूप ले लिया है, कहीं अखबार का, कहीं पोर्टल का तो कहीं ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा के मंच का। उसकी विषय वस्तु की भी कोई सीमा नहीं। कहीं संगीत उपलब्ध है, कहीं कार्टून, कहीं चित्र तो कहीं वीडियो। कहीं पर लोग मिल-जुलकर पुस्तकें लिख रहे हैं तो कहीं तकनीकी समस्याओं का समाधान किया जा रहा है। ब्लॉग मंडल का उपयोग कहीं भाषाएं सिखाने के लिए हो रहा है तो कहीं अमर साहित्य को ऑनलाइन पाठकों को उपलब्ध कराने में। इंटरनेट पर मौजूद अनंत ज्ञानकोष में ब्लॉग के जरिए थोड़ा-थोड़ा व्यक्तिगत योगदान देने की लाजवाब कोशिश हो रही है।
सीमाओं से मुक्त अभिव्यक्ति
ब्लॉगिंग है एक ऐसा माध्यम जिसमें लेखक ही संपादक है और वही प्रकाशक भी। ऐसा माध्यम जो भौगोलिक सीमाओं से पूरी तरह मुक्त, और राजनैतिक-सामाजिक नियंत्रण से लगभग स्वतंत्र है। जहां अभिव्यक्ति न कायदों में बंधने को मजबूर है, न अल कायदा से डरने को। इस माध्यम में न समय की कोई समस्या है, न सर्कुलेशन की कमी, न महीने भर तक पाठकीय प्रतिक्रियाओं का इंतजार करने की जरूरत। त्वरित अभिव्यक्ति, त्वरित प्रसारण, त्वरित प्रतिक्रिया और विश्वव्यापी प्रसार के चलते ब्लॉगिंग अद्वितीय रूप से लोकप्रिय होकर करोड़ों ब्लॉगों तक पहुँच गई है। समूचे ब्लॉगमंडल का आकार हर छह महीने में दोगुना हो जाता है।
आइए फिर से अभिव्यक्ति के मुद्दे पर लौटें, जहां से हमने बात शुरू की थी। हालांकि ब्लॉगिंग की ओर आकर्षित होने के और भी कई कारण हैं। लेकिन अधिकांश विशुद्ध, गैर-व्यावसायिक ब्लॉगरों ने अपने विचारों और रचनात्मकता की अभिव्यक्ति के लिए ही इस मंच को अपनाया। जिन करोड़ों लोगों के पास आज अपने ब्लॉग हैं, उनमें से कितने पारंपरिक जनसंचार माध्यमों में स्थान पा सकते थे? स्थान की सीमा, रचनाओं के स्तर, मौलिकता, रचनात्मकता, महत्व, सामयिकता आदि कितने ही अनुशासनों में निबद्ध जनसंचार माध्यमों से हर व्यक्ति के विचारों को स्थान देने की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। लेकिन ब्लॉगिंग की दुनिया पूरी तरह स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और मनमौजी किस्म की रचनात्मक दुनिया है। वहां आपकी 'भई आज कुछ नहीं लिखेंगे' नामक छोटी सी टिप्पणी का भी उतना ही स्वागत है जितना कि जीतेन्द्र चौधरी की ओर से वर्डप्रेस पर डाली गई सम्पूर्ण रामचरित मानस का। 'भड़ास' नामक सामूहिक ब्लॉग के सूत्र वाक्य से यह बात स्पष्ट हो जाती है- कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिए... मन हल्का हो जाएगा..।
चौपटस्वामी नामक ब्लॉगर की लिखी यह टिप्पणी पढ़िए- "(हमारे यहां) धनिया में लीद मिलाने और कालीमिर्च में पपीते के बीज मिलाने को सामाजिक अनुमोदन है। रिश्वत लेना और देना सामान्य और स्वीकृत परंपरा है और उसे लगभग रीति-रिवाज के रूप में मान्यता प्राप्त है। कन्या-भ्रूण की हत्या यहां रोजमर्रा का कर्म है और अपने से कमजोर को लतियाना अघोषित धर्म है। गणेशजी को दूध पिलाना हमारी धार्मिक आस्था है। हमारा लड़का हमें गरियाते और जुतियाते हुए भी श्रवणकुमार है, पर पड़ोसी का ठीक-ठाक सा लड़का भी बिलावजह दुष्ट और बदकार है।" यानी कि सौ फीसदी अभिव्यक्ति की एक सौ एक फीसदी आजादी!
वरिष्ठ ब्लॉगर अनूप शुक्ला (फुरसतिया) कहते हैं- "अभिव्यक्ति की बेचैनी ब्लॉगिंग का प्राण तत्व है और तात्कालिकता इसकी मूल प्रवृत्ति है। विचारों की सहज अभिव्यक्ति ही ब्लॉग की ताकत है, यही इसकी कमजोरी भी। यही इसकी सामर्थ्य है, यही इसकी सीमा भी। सहजता जहां खत्म हुई वहां फिर अभिव्यक्ति ब्लॉगिंग से दूर होती जाएगी।"
जो चाहें, लिखें और अगर चाहते हैं कि इसे दूसरे लोग भी पढ़ें तो ब्लॉग पर डाल दें। किसी को जंचेगा तो पढ़ लेगा वरना आगे बढ़ जाएगा। ब्लॉगिंग वस्तुत: एक लोकतांत्रिक माध्यम है। यहां कोई न लिखने के लिए मजबूर है, न पढ़ने के लिए। जो अच्छा लिखते हैं, उनके ठिकानों पर स्वत: भीड़ हो जाती है, उनके ब्लॉगों में टिप्पणियों की बहार आ जाती है। ऐसे कई ब्लॉग हीरो ब्लॉगिंग की दुनिया ने दिए हैं जो सिर्फ अपने लेखों, भाषा या रचनात्मकता के लिए ही नहीं, तकनीकी मार्गदर्शन देने (गैर-अंग्रेजी ब्लॉगरों को इसकी जरूरत पड़ती ही है) और नए ब्लॉगरों व ब्लॉग परियोजनाओं को प्रोत्साहित करने के लिए भी जाने जाते हैं।
ब्लॉग विश्व के चर्चित लोग
दुनिया के विख्यात ब्लॉगरों में एंड्र्यू सलीवान (एंड्र्यूसलीवान.कॉम), रॉन गंजबर्गर (पोलिटिक्स१.कॉम), ग्लेन रोनाल्ड (इन्स्टापंडित.कॉम), डंकन ब्लैक, पीटर रोजास, जेनी जार्डिन, बेन ट्रोट, जोनाथन श्वार्ट्ज, जेसन गोल्डमैन, रॉबर्ट स्कोबल, मैट ड्रज (ड्रजरिपोर्ट.कॉम) आदि शामिल हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को महाभियोग की हद तक ले जाने वाले मोनिका लुइन्स्की प्रकरण का पर्दाफाश मैट ड्रज ने ही अपने ब्लॉग पर किया था। चीनी अभिनेत्री जू जिंगले का ब्लॉग संभवत: दुनिया का सर्वाधिक लोकप्रिय ब्लॉग है जिसे पांच करोड़ से भी अधिक बार पढ़ा जा चुका है। ब्लॉगिंग का चस्का बहुत सी विख्यात हस्तियों को भी लगा है जिनमें टेनिस सुंदरी अन्ना कोर्निकोवा, हॉलीवुड अभिनेत्री पामेला एंडरसन, गायिका ब्रिटनी स्पीयर्स, अभिनेत्री व सुपरमॉडल कर्टनी लव, फिल्म निर्देशक व अभिनेता केविन स्मिथ आदि शामिल हैं। हमारे देश में
भारत के कई अंग्रेजी ब्लॉग काफी लोकप्रिय हो गए हैं जिनमें गौरव सबनीस का वान्टेड प्वाइंट, अमित वर्मा का इंडिया अनकट, रश्मि बंसल का यूथ सिटी, अमित अग्रवाल का डिजिटल इनिस्परेशन, दीना मेहता का दीनामेहता.कॉम आदि प्रमुख हैं।
फिल्म अभिनेता आमिर खान (लगानडीवीडी.कॉम), जॉन अब्राहम, बिपासा बसु (बिपासाबसुनेट.कॉम), राहुल बोस, राहुल खन्ना, शेखर कपूर, सुचित्रा कृष्णमूर्ति, अनुपम खेर, कवि अशोक चक्रधर, रेडिफ चेयरमैन अजीत बालाकृष्णन, इंडियावर्ल्ड.कॉम बनाकर उसे छह सौ करोड़ रुपए में सिफी.कॉम को बेचने वाले राजेश जैन, वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई , नौकरी.कॉम के सी ई ओ संजीव बीखचंदानी आदि भी सक्रिय ब्लॉगर हैं। आमिर खान के ब्लॉग पर तो पिछली पोस्ट के जवाब में सत्रह सौ पाठकों की टिप्पणियां दर्ज हैं!
अगर आपने झटपट ब्लॉग बनाकर फटाफट धन कमाने की योजना बना ली हो तो जान लीजिए कि यह कोई आसान काम नहीं है। अपने ब्लॉग के लिए अमित अग्रवाल ही रोजाना सैंकड़ों ब्लॉगों, उतनी ही आरएसएस फीड (ब्लॉगों के लेखों को अपेक्षाकृत आसान फॉरमेट में कंप्यूटर या इंटरनेट ब्राउजर पर पढ़ने की सुविधा) और दर्जनों वेबसाइटों का अध्ययन करते हैं। रोजाना बारह से चौदह घंटे तक काम करना, पचासों मेल संदेशों का जवाब देना और सर्च इंजनों को खंगालना उनके दैनिक कर्म में शामिल है। लेकिन फिर भी, कोशिश करने में कोई बुराई नहीं है।
हिंदी ब्लॉगिंग के प्रमुख हस्ताक्षरों में जीतेन्द्र चौधरी, अनूप शुक्ला, आलोक कुमार (जिन्होंने पहला हिंदी ब्लॉग लिखा और उसके लिए 'चिट्ठा' शब्द का प्रयोग किया), देवाशीष, रवि रतलामी, पंकज बेंगानी, समीर लाल, रमण कौल, मैथिलीजी, जगदीश भाटिया, मसिजीवी, पंकज नरूला, प्रत्यक्षा, अविनाश, अनुनाद सिंह, शशि सिंह, सृजन शिल्पी, ई-स्वामी, सुनील दीपक, संजय बेंगानी आदि के नाम लिए जा सकते हैं। जयप्रकाश मानस, नीरज दीवान, श्रीश बेंजवाल शर्मा, अनूप भार्गव, शास्त्री जेसी फिलिप, हरिराम, आलोक पुराणिक, ज्ञानदत्त पांडे, रवीश कुमार, अभय तिवारी, नीलिमा, अनामदास, काकेश, अतुल अरोड़ा, घुघुती बासुती, संजय तिवारी, सुरेश चिपलूनकर, तरुण जोशी, अफलातून जैसे अन्य उत्साही लोग भी ब्लॉग जगत पर पूरी गंभीरता और नियम के साथ सक्रिय हैं और इंटरनेट पर हिंदी विषय वस्तु को समृद्ध बनाने में लगे हैं। अगर आप ब्लॉगों की दुनिया से अनजान हैं, तो संभवत: ये नाम भी आपने नहीं सुने होंगे। लेकिन अगर आप ब्लॉगजगत में सावन की तेज हवा में उड़ती पतंग का सा फर्राटा भी मार लें तो इन सबकी अनूठी रचनात्मकता, हिंदी प्रेम और ब्लॉगी जुनून का लोहा मानने पर मजबूर हो जाएंगे। इस लेख के शुरू में जिन दो ब्लॉगों पर लिखी टिप्पणियां उद्धृत की गई हैं, उन्हें रवि कामदार और शुएब संचालित करते हैं। प्रसंगवश, इसी ब्लॉगविश्व में मीडिया की आत्मालोचना पर केंद्रित 'वाह मीडिया' और 'मतांतर' नामक ब्लॉगों के माध्यम से मेरी भी उपस्थिति है।
ब्लॉगिंग में है कुछ अलग बात!
अंग्रेजी में तो ब्लॉगिंग की उम्र दस वर्ष हो गई है। इन दस वर्षों में संचार और अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनने के साथ-साथ उसने सामूहिकता और सामुदायिकता पर आधारित अनेकों नई विधाओं को जन्म दिया है। दुनिया का पहला ब्लॉग किसने बनाया, इस बारे में मतैक्य नहीं है। लेकिन इस बारे में कोई विवाद नहीं है कि ब्लॉगिंग की शुरूआत १९९७ में हुई । अप्रैल १९९७ में न्यूयॉर्क के डेव वाइनर ने स्क्रिप्टिंग न्यूज नामक एक वेबसाइट शुरू की जिसने ब्लॉगिंग की अवधारणा को स्पष्ट किया और लोगों को अपने विचार इंटरनेट पर प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया। दिसंबर १९९७ में जोर्न बार्गर ने रोबोटविसडम.कॉम की शुरूआत की और पहली बार इसे 'वेब लॉग' का नाम दिया। पीटरमी.कॉम के पीटर मरहोल्ज ने वेबलॉग के स्थान पर उसके छोटे रूप 'ब्लॉग' का प्रयोग किया। तब से इंटरनेट पर ब्लॉगों की जो तेज हवा बही, उसने पहले आंधी और अब तूफान का रूप ले लिया है।
हालांकि ब्लॉगिंग के आगमन के पहले से ही अभिव्यक्ति के नि:शुल्क मंच इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। नब्बे के दशक के शुरू में ही जियोसिटीज.कॉम, ट्राइपोड.कॉम, ८के.कॉम, होमपेज.कॉम, एंजेलफायर.कॉम, गो.कॉम आदि ने आम लोगों को अपने निजी इंटरनेट होमपेज बनाने की सुविधा दी थी और इनमें से अधिकांश आज भी सक्रिय हैं। उन पर लाखों लोगों ने अपनी वेबसाइटें बनाई भी लेकिन उन्हें ब्लॉगिंग की तर्ज पर अकूत लोकप्रियता नहीं मिली क्योंकि वेबसाइट बनाने के लिए थोड़ा-बहुत तकनीकी ज्ञान आवश्यक है। दूसरी तरफ ब्लॉग का निर्माण और संचालन लगभग मेल पाने-भेजने जितना ही आसान है। ब्लॉगर, वर्डप्रेस, माईस्पेस, लाइवजर्नल, ब्लॉग.कॉम, टाइपपैड, पिटास, रेडियो यूजरलैंड आदि पर ब्लॉग बनाना और टिप्पणियां पोस्ट करना बहुत आसान है। सरल, तेज, विश्वव्यापी, विशाल, नि:शुल्क और इंटर-एक्टिव होने के साथ-साथ कोई संपादकीय, कानूनी या संस्थागत नियंत्रण न होना ब्लॉगिंग की बुनियादी शक्तियां (और कमजोरी भी) हैं जिन्होंने इसे इंटरनेट आधारित अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों की तुलना में अधिक लोकप्रिय बनाया है।
ब्लॉगिंग विश्व ने उन लोगों की स्मृतियों को भी जीवित रखा है जो सरकारी दमनचक्र, समाजविरोधी तत्वों के जुल्म या फिर आतंकवादी कार्रवाइयों के शिकार हुए। चीन में भले ही थ्येनआनमन चौक पर हुई अमानवीय सैन्य कार्रवाई के खिलाफ मुंह खोलना बहुत बड़ा अपराध हो, पर ब्लॉगिंग की दुनिया में ऐसी रोकटोक नहीं। 'यान्स ग्लटर' नामक ब्लॉग का संचालन करने वाली यान शाम शैकलटन १९८९ में थ्येनआनमन चौक पर हुए सैनिक नरसंहार में मारे गए युवकों के प्रति अपनी भावनाओं को इस तरह व्यक्त करती हैं-
'मैं भूलूंगी नहीं। मैं आपको हमेशा याद रखने का वादा करती हूं। मैं ऐसा दोबारा नहीं होने दूंगी। मैं पूरी दुनिया को आपकी, थ्येनआनमन चौक के छात्रों की याद दिलाती रहूंगी। मेरे बड़े भाइयो और बहनों!'
लोकतंत्र की आवाज़
दमन के विरुद्ध विद्रोह और लोकतंत्र की चाहत को भी ब्लॉगिंग ने स्वर दिए हैं। बहरीन में शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन करते लोगों के सरकारी दमन को वहीं के एक ब्लॉगर 'चनाद बहरीनी' (ब्लॉगर का छद्म नाम) ने अपने चित्रों में कैद किया और ब्लॉग के माध्यम से दुनिया भर को उसकी जानकारी दी। कुछ वर्ष पहले अमेरिकी सीनेटर ट्रेन्ट लोट ने १९४८ के राष्ट्रपति चुनाव में हैरी ट्रूमैन के प्रतिद्वंद्वी और रंगभेद समर्थक उम्मीदवार स्ट्रॉम थरमंड का समर्थन किया। मीडिया ने इस पर खास ध्यान नहीं दिया तो ब्लॉगर समुदाय ने जोर-शोर से यह मुद्दा उठाया और सीनेटर से इस्तीफा दिलवाकर ही दम लिया। इस घटना में ब्लॉगरों ने मीडिया के वैकल्पिक स्वरूप के रूप में अपनी उपयोगिता सिद्ध की।
यही बात इराक युद्ध के दौरान भी 'बगदाद ब्लॉगर' के नाम से प्रसिद्ध एक गुमनाम ब्लॉगर ने 'सलाम पैक्स' के नाम से लिखे अपने ब्लॉग के माध्यम से दिखाई। वह इराक युद्ध की विनाशलीला का आंखों देखा हाल उपलब्ध कराता रहा और उसकी टिप्पणियों का दुनिया भर के मीडिया ने उपयोग किया। ब्लॉगिंग को लोकप्रिय बनाने में उसकी अहम भूमिका मानी जाती है। इराक युद्ध के दौरान जब बीबीसी और वॉयस ऑफ अमेरिका में इस ब्लॉगर पर केंद्रित कार्यक्रमों का प्रसारण किया गया तो उसके पिता को पहली बार अहसास हुआ कि संभवत: ये कार्यक्रम मेरे शर्मीले पुत्र के बारे में हैं जो चुपचाप कमरे में बैठकर इंटरनेट पर कुछ करता रहता है। उन्हें लगा कि सद्दाम हुसैन की खुफिया एजेंसियों को पता चलने वाला है और वे पक्के तौर पर बहुत बड़े संकट में फंसने जा रहे हैं। लेकिन सौभाग्य से ऐसा कुछ नहीं हुआ और सलाम का नाम ब्लॉगिंग के इतिहास में दर्ज हो गया। (संयोगवश, सलाम ने इराक युद्ध के बाद लंदन के 'गार्जियन' अखबार में कॉलम भी लिखा)।
ब्लॉग लेखन आम तौर पर बहुत गंभीर लेखन नहीं माना जाता लेकिन ड्रज रिपोर्ट, बगदाद ब्लॉगर आदि की जिम्मेदाराना भूमिकाओं और ट्रेन्ट लोट के इस्तीफे के बाद समाचार माध्यम के रूप में भी उसकी साख और विश्वसनीयता में वृद्धि हुई है। पिछले अप्रैल माह में अमेरिका के वर्जीनिया विश्वविद्यालय में अनजान हमलावरों ने अंधाधुंध फायरिंग कर कई छात्रों को मार डाला तब ब्लॉगर अनुराग मिश्रा ने हमारे अपने 'इंडिया टीवी' के लिए रिपोर्टिंग की। इंडिया टीवी से जुड़े नीरज दीवान, जो स्वयं 'कीबोर्ड के सिपाही' नामक ब्लॉग चलाते हैं, कहते हैं- "उस घटना पर किसी भारतीय द्वारा अमेरिका से दी जा रही वह पहली जानकारी थी। अनुराग भाषा, शैली में पूर्णत: सक्षम और विश्वस्त ब्लॉगर हैं। वे उसी विश्वविद्यालय के छात्र भी हैं। उस वक्त मेरे पास उनसे बेहतर कोई और विकल्प नहीं था। अनुराग ने जन-पत्रकार की भूमिका बखूबी निभाई ।"
हिंसा व आतंक के खिलाफ और लोकतंत्र के पक्ष में खड़े होने वाले ये गुमनाम सिपाही स्वयं भी लोकतंत्र विरोधियों के दमन का शिकार होते रहे हैं। ईरान सरकार ने अराश सिगारची नामक ब्लॉगर को उसकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति से खफा होकर १४ साल के लिए जेल में डाल दिया है। अनार्कएंजेल नामक एक ब्लॉगर के खिलाफ मुस्लिम कट्टरपंथियों ने मौत का फतवा भी जारी किया है। सिंगापुर में दो चीनी ब्लॉगरों को स्थानीय कानूनों की आलोचना करने ओर मुसलमानों के खिलाफ टिप्पणियां करने के लिए जेल में डाल दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र से जुड़े एक राजनयिक को उसके ब्लॉग में लिखी टिप्पणियों के कारण सूडान ने तीन दिन में देश छोड़ने का आदेश दिया था। यानी चुनौतियों की कोई कमी भी नहीं।
ब्लॉगिंग अब नए क्षेत्रों, नई दिशाओं में आगे बढ़ रही है। असल में ब्लॉग तो अपनी अभिव्यक्ति, अपनी रचनाओं को विश्वव्यापी इंटरनेट उपयोक्ताओं के साथ बांटने का मंच है, और ऐसे मंच का प्रयोग सिर्फ लेखों, राजनैतिक टिप्पणियों और साहित्यिक रचनाओं के लिए किया जाए, यह किसी किताब में नहीं लिखा है। ब्लॉग पर फोटो या वीडियो डाल दीजिए, वह फोटो ब्लॉग तथा वीडियो ब्लॉग कहलाएगा। संगीत डाल दीजिए तो वही म्यूजिक ब्लॉग हो जाएगा। रेडियो कार्यक्रम की तरह अपनी टिप्पणियों को रिकॉर्ड करके ऑडियो फाइलें डाल दीजिए तो वह पोडकास्ट कहलाएगा। किसी ब्लॉग को कई लोग मिलकर चलाएं तो वह कोलेबरेटिव या सामूहिक ब्लॉग बन जाएगा। हिंदी में 'बुनोकहानी' नामक ब्लॉग पर कई ब्लॉगर मिलकर कहानियां लिख रहे हैं। यह इसी श्रेणी में आएगी।
किसी परियोजना विशेष से जुड़े लोग यदि आपस में विचारों के आदान-प्रदान के लिए ब्लॉग बनाएंगे तो वह प्रोजेक्ट ब्लॉग माना जाएगा और अगर कोई कंपनी अपने उत्पादों या सेवाओं का प्रचार करने या फिर अपने कर्मचारियों के बीच वैचारिक आदान-प्रदान के लिए ब्लॉग बनाती है तो इसे कारपोरेट ब्लॉग कहेंगे। यानी ब्लॉग आपकी जरूरतों के अनुसार ढल सकता है। यूट्यूब (आम लोगों की ओर से पोस्ट किए गए वीडियो), फ्लिकर (आम लोगों के खींचे चित्र), विकीपीडिया (आम लोगों द्वारा लिखे गए लेख) जैसी परियोजनाएं भी ब्लॉगों की ही तर्ज पर विकसित हुई हैं। अब आम लोगों के भेजे समाचारों की वेबसाइटें भी लोकप्रिय हो रही हैं। अंग्रेजी समाचार चैनल आईबीएन ने पिछले साल इस दिशा में पहल की थी जो बहुत सफल हुई । भारत में मेरीन्यूज.कॉम भी नागरिक पत्रकारिता (सिटीजन जर्नलिज्म) पर आधारित एक चर्चित वेबसाइट है।
ब्लॉगिंग के और भी बहुत से रूप तथा उपयोग हैं। आजकल मेल पर जिस तरह से वायरसों और स्पैम (अनचाही तथा घातक डाक) का हमला हो रहा है उसे देखते हुए बहुत सी कंपनियां ब्लॉगों को संदेशों के आदान-प्रदान के सुरक्षित माध्यम के रूप में भी इस्तेमाल कर रही हैं। यह सामाजिक मेलजोल का भी एक माध्यम है। अपने ब्लॉग पर टिप्पणियां करने वाले अनजान व्यक्तियों के साथ संदेशों का आदान-प्रदान करते-करते उनके साथ मित्रता हो जाना स्वाभाविक है। धीरे-धीरे एक ही विषय में रुचि रखने वाले लोगों के बीच सामुदायिकता की भावना पैदा हो जाती है। ऐसे ब्लॉगर समय-समय पर मिल-बैठकर चर्चाएं भी करते हैं जैसे कि १४ जुलाई को दिल्ली में पहले कैफे कॉफी डे पर और फिर एक नए ब्लॉग एग्रीगेटर के दफ्तर पर हुई ।
हिंदी ब्लॉगिंग में हलचलें
अंग्रेजी में जहां ब्लॉगिंग १९९७ में शुरू हो गई थी वहीं हिंदी में पहला ब्लॉग दो मार्च २००३ को लिखा गया। समय के लिहाज से अंग्रेजी और हिंदी के बीच महज छह साल की दूरी है लेकिन ब्लॉगों की संख्या के लिहाज से दोनों के बीच कई प्रकाश-वर्षों का अंतर है। हालांकि अप्रत्याशित रूप से ब्लॉगिंग विश्व में एशिया ने ही दबदबा बनाया हुआ है। टेक्नोरैटी के अनुसार विश्व के कुल ब्लॉगों में से ३७ प्रतिशत जापानी भाषा में हैं और ३६ प्रतिशत अंग्रेजी में। कोई आठ प्रतिशत ब्लॉगों के साथ चीनी भाषा तीसरे नंबर पर है।
ब्लॉगों के मामले में हिंदी अपने ही देश की तमिल से भी पीछे है जिसमें दो हजार से अधिक ब्लॉग मौजूद हैं। लेकिन हिंदी ब्लॉग जगत निराश नहीं है। कुवैत में रहने वाले वरिष्ठ हिंदी ब्लॉगर जीतेन्द्र चौधरी कहते हैं- २००३ में शुरू हुए इस कारवां में बढ़ते हमसफरों की संख्या से मैं संतुष्ट हूं।
जीतेंद्र चौधरी के आशावाद के विपरीत रवि रतलामी मौजूदा हालात से संतुष्ट नहीं दिखते, "जब तक हिंदी ब्लॉग लेखकों की संख्या एक लाख से ऊपर न पहुंच जाए और किसी लोकप्रिय चिट्ठे को नित्य दस हजार लोग नहीं पढ़ लें तब तक संतुष्टि नहीं आएगी। इस लक्ष्य को प्राप्त करने की गति अत्यंत धीमी है। पर इंटरनेट और कंप्यूटर में हिंदी है भी तो बहुत जटिल भाषा- जिसमें तमाम दिक्कतें हैं।"
दुनिया की दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा होने के लिहाज से देखें तो हिंदी में ब्लॉगों की संख्या अपेक्षा से बहुत कम दिखेगी। लेकिन इसके कारण स्पष्ट हैं। टेलीफोन, कंप्यूटर, इंटरनेट, बिजली और तकनीकी ज्ञान जैसी बुनियादी आवश्यकताएं पूरी किए बिना कंप्यूटर और इंटरनेट को तेजी से लोकप्रिय बनाने की आशा नहीं की जा सकती। दूसरे, आर्थिक रूप से हम इतने सक्षम और निश्चिंत नहीं हैं कि ऐसी किसी तकनीकी सुविधा पर समय, श्रम और धन खर्च करना पसंद करें, जो अपरिहार्य नहीं है। तीसरे, हमारा समाज संभवत: पश्चिम के जितना अभिव्यक्तिमूलक भी नहीं है। बहरहाल, आर्थिक तरक्की के साथ-साथ इन सभी क्षेत्रों में स्थितियां बदल रही हैं जिसका असर ब्लॉग की दुनिया में भी दिख रहा है। पिछले छह महीने में नए हिंदी ब्लॉग बनने की गति कुछ तेज हुई है। चिट्ठाकार आलोक कहते हैं, "ब्लॉगिंग की गति में आई तेजी के कई कारण हैं। एक तो हिंदी में लेखन के अलग-अलग तंत्रों (सॉफ्टवेयरों) का विकास, दूसरे विन्डोज एक्सपी का अधिक प्रयोग जिसमें हिंदी में काम करना विंडोज ९८ की तुलना में अधिक आसान है, तीसरे ब्लॉगर जैसी वेबसाइटों में मौजूद सुविधाओं में वृद्धि (जिनसे ब्लॉगिंग की प्रक्रिया निरंतर आसान हो रही है), और चौथे पत्र-पत्रिकाओं में इंटरनेट, ब्लॉग आदि के बारे में छप रहे लेख।"
पुणे के सॉफ्टवेयर इंजीनियर देवाशीष चक्रवर्ती, जिन्होंने नवंबर २००३ में नुक्ताचीनी नामक ब्लॉग शुरू किया, ने हिंदी ब्लॉगिंग में अहम भूमिका निभाई है। नुक्ताचीनी के अलावा वे पॉडभारती नामक पोडकास्ट और नल प्वाइंटर नामक अंग्रेजी ब्लॉग चलाते हैं। उन्होंने श्रेष्ठ ब्लॉगों को पुरस्कृत करने के लिए 'इंडीब्लॉगीज' नामक पुरस्कारों की शुरूआत भी की है। देवाशीष कहते हैं, "भारतीय भाषाओं में ब्लॉग जगत में निरंतर विकास होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। अधिकांश भाषाओं के अपने ब्लॉग एग्रीगेटर हैं, और स्थानीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने भी भाषायी ब्लॉगरों को काफी प्रचारित एवं प्रोत्साहित किया है। गूगल और माइक्रोसॉफ्ट की कुछ तकनीकों से भी भाषायी ब्लॉगिंग को गति मिली है।" इस बीच, तरकश समूह ने भी ब्लॉग पोर्टल के रूप में एक अच्छी शुरूआत की है और वह तरकश जोश (अंग्रेजी), टॉक एंड कैफे (अंग्रेजी) और पॉडकास्ट का संचालन कर रहा है। नारद के कुछ प्रतिद्वंद्वी ब्लॉग एग्रीगेटर भी सामने आए हैं जिनमें ब्लॉगवाणी, चिट्ठाजगत और हिंदीब्लॉग्स.कॉम प्रमुख हैं। इन सबने हिंदी ब्लॉग जगत को विविधता दी है और उसकी विषय वस्तु को समृद्ध किया है।
अक्षरग्राम और नारद
बहरहाल, अगर कुछ समर्पित ब्लॉगरों ने मिलकर प्रयास न किए होते तो शायद हिंदी में ब्लॉगिंग की हालत बहुत कमजोर होती। अलग-अलग देशों में रहने ब्लॉगरों के कुछ समूहों ने हिंदी ब्लॉगिंग को संस्थागत रूप देने और नए ब्लॉगरों को प्रोत्साहित करने का अद्वितीय काम किया है। उन्होंने हिंदी में काम करने की दिशा में मौजूद तकनीकी गुत्थियां सुलझाने, नए लोगों को तकनीकी मदद देने, हिंदी टाइपिंग और ब्लॉगिंग के लिए सॉफ्टवेयरों का विकास करने, ब्लॉगों को अधिकतम लोगों तक पहुंचाने के लिए ब्लॉग एग्रीगेटरों (एक सॉफ्टवेयर जो विभिन्न ब्लॉगों पर दी जा रही सामग्री को एक ही स्थान पर उपलब्ध कराने में सक्षम है) का निर्माण करने, सामूहिक रूप से अच्छी गुणवत्ता वाली रचनाओं का सृजन करने और ब्लॉगरों के बीच नियमित चर्चा के मंच बनाने जैसे महत्वपूर्ण कार्य किए हैं।
'चिट्ठाकारों की चपल चौपाल' के नाम से चर्चित अक्षरग्राम नेटवर्क ऐसा ही एक समूह है। इसके सदस्यों में पंकज नरूला (अमेरिका), जीतेन्द्र चौधरी (कुवैत), ईस्वामी, संजय बेंगानी, अमित गुप्ता, पंकज बेंगानी, निशांत वर्मा, विनोद मिश्रा, अनूप शुक्ला और देवाशीष चक्रवर्ती शामिल हैं। यह समूह ब्लॉग एग्रीगेटर 'नारद' और 'चिट्ठा विश्व' (आजकल निष्क्रिय), 'अक्षरग्राम', हिंदी विकी 'सर्वज्ञ', ब्लॉगरों के बीच वैचारिक-आदान प्रदान के मंच 'परिचर्चा', सामूहिक रचनाकर्म पर आधारित परियोजना 'बुनो कहानी', ब्लॉग पत्रिका 'निरंतर' आदि का संचालन करता है। ब्लॉग जगत से जुड़े अधिकांश सदस्य इन सभी से न सिर्फ परिचित हैं, बल्कि किसी न किसी तरह जुड़े हुए भी हैं। (हिंदिनी, भड़ास, हिंद-युग्म, सराय, चिट्ठा चर्चा आदि भी सामूहिक ब्लॉगों के अच्छे उदाहरण हैं)।
हिंदी ब्लॉगिंग के क्षेत्र में धीमी प्रगति के बावजूद इस समूह ने अपनी लगन और उत्साह में कमी नहीं आने दी। इस बारे में जीतेंद्र चौधरी का कहना है, "इंटरनेट पर हिंदी का प्रचार-प्रसार हिंदी ब्लॉगिंग के जरिए बढ़ सकता है क्योंकि हर ब्लॉगर अपने साथ कम से कम दस पाठक जरूर लाएगा। अगर उन दस पाठकों में से चार ने भी ब्लॉगिंग शुरू की तो एक श्रृंखला बन जाएगी और ध्यान रखिए, इंटरनेट पर जितनी ज्यादा सामग्री हिंदी में उपलब्ध होगी, जनमानस का इंटरनेट के प्रति रुझान भी बढ़ता जाएगा।
अद्यतन टिप्पणीः हिंदी में नारद के अतिरिक्त भी कुछ अच्छे ब्लॉग एग्रीगेटर आए, जिन्होंने ब्लॉगिंग के प्रति रुझान बढ़ाने और इस क्षेत्र को सुनियोजित बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनमें मैथिली और सिरिल गुप्ता का 'ब्लॉगवाणी' और आलोक कुमार का 'चिट्ठाजगत' प्रमुख थे। इससे पूर्व 'चिट्ठा विश्व' के रूप में भी देवाशीष चक्रवर्ती की पहल पर एक अच्छा प्रयास हो चुका था। लेकिन कुछ ब्लॉगिंग विश्व से जुड़े कारणों, कुछ तकनीकी और कुछ निजी कारणों से ये एग्रीगेटर बंद हो गए।
सीमाएं और चुनौतियां
हिंदी ब्लॉगिंग के स्वस्थ विकास के लिए कुछ मुद्दों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। जिस तरह ब्लॉगरों की संख्या में वृद्धि की दर दूसरी भाषाओं की तुलना में काफी कम है, उसी तरह यहां पाठकों का भी टोटा है। हिंदी ब्लॉग विश्व को चिंतन करना होगा कि वह आम पाठक तक क्यों नहीं पहुंच पा रहा? क्या इसलिए कि हिंदी ब्लॉगिंग में विविधता का अभाव है? क्या इसलिए कि इसमें मौजूद अधिकांश सामग्री समसामयिक विषयों पर टिप्पणियों, निजी कविताओं, पुराने लेखों तथा प्रसिद्ध लेखकों की रचनाओं को इंटरनेट पर डालने तक सीमित है? क्या इसलिए कि हिंदी ब्लॉगों की भाषा अभी विकास के दौर से गुजर रही है और पूरी तरह मंजी नहीं है? क्या इसलिए कि हिंदी ब्लॉगों की सामग्री सुव्यवस्थित ढंग से उपलब्ध नहीं है बल्कि छिन्न-भिन्न है जिसमें मतलब की चीज ढूंढना चारे के ढेर में सुई ढूंढने के समान है? या फिर इसलिए कि पत्र-पत्रिकाओं में खूब छपने के बावजूद हिंदी पाठक अभी तक ब्लॉगिंग को तकनीकी अजूबा मानते हुए उनसे दूर हैं?
इंटरनेट आधारित साहित्यिक पत्रिका सृजनगाथा.कॉम के संपादक और ब्लॉगर जयप्रकाश मानस कहते हैं, "जहां तक हिंदी ब्लॉगिंग की भाषा का प्रश्न है, वह अभी परिनिष्ठित हिंदी को स्पर्श भी नहीं कर सकी है। वहां भाषा का सौष्ठव कमजोर है। अधिकांश ब्लॉगर नगरीय परिवेश से हैं, ऊपर से हिंदी के खास लेखक और समर्पित लेखक ब्लॉग से अभी कोसों दूर हैं, सो वहां भाषाई कृत्रिमता और शुष्कता ज्यादा है। वहां व्याकरण की त्रुटियां भी साबित करती हैं कि अभी हिंदी ब्लॉगिंग में भाषा का स्तर अनियंत्रित है।" अविनाश भी इससे सहमत दिखते हैं, "हिंदी ब्लॉगिंग की अभी कोई शक्ल नहीं बन पाई है। विविधता के हिसाब से भी अभी विषयवार ब्लॉग नहीं हैं। लेकिन जो हैं, वे जड़ता तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।"
हालांकि कई लेखक लीक से हटकर चलने की कोशिश जरूर कर रहे हैं। अतुल अरोरा और सुनील दीपक के संस्मरण और यात्रा वृत्तांत, रवि रतलामी, श्रीश शर्मा, जीतेन्द्र चौधरी, देबाशीष, पंकज नरूला, ईस्वामी, अमित गुप्ता, प्रतीक पांडेय आदि के तकनीकी आलेखों का स्तर बहुत अच्छा है। प्रत्यक्षा जैसी कथालेखिका, अशोक चक्रधर, बोधिसत्व जैसे कवि और जयप्रकाश मानस, प्रमोद सिंह, प्रियंकर जैसे साहित्यकार-ब्लॉगर, आलोक पुराणिक जैसे सक्रिय व्यंग्यकार और रवीश कुमार, चंद्रभूषण, इरफान जैसे पत्रकार भी अच्छी, विचारोत्तेजक ब्लॉगिंग कर रहे हैं। लेखक ने स्वयं अपने ब्लॉग 'वाहमीडिया' को विविधता के लिहाज से मीडिया की आत्मालोचना पर केंद्रित रखा है। कमल शर्मा का 'वाह मनी' आर्थिक विषयों पर केंद्रित है और आलोक का 'स्मार्ट मनी' निवेश संबंधी सलाह देता है।
'फुरसतिया' और 'मोहल्ला' पर कई ऊंचे दर्जे के साक्षात्कार और लेख पढ़े जा सकते हैं। नीलिमा हिंदी ब्लॉग जगत में पाठकों-लेखकों संबंधी आंकड़ों की गहन छानबीन कर रही हैं। मनीषा स्त्री विमर्श के मुद्दों पर साहसिक लेखन कर रही हैं। लेकिन विविधता अभी और भी चाहिए। जीतेन्द्र चौधरी भी यह बात मानते हैं- "लेखन के विषयों और गुणवत्ता पर काफी कुछ किया जाना बाकी है। आसपास कई ऐसे चिट्ठाकार आए हैं जिनके लेखन में विविधता है और लेखन भी काफी उत्कृष्ट कोटि का है। लेकिन बहुसंख्यक ब्लॉग ऐसे हैं जो निजी डायरी के रूप में ही चल रहे हैं।"
अनगढ़ भाषा कोई अड़चन नहीं!
वैसे एक मजेदार तथ्य यह भी है कि भाषा के लिहाज से बेहद कमजोर माने जाने वाले कुछ ब्लॉग लोकप्रियता में परिमार्जित भाषा वाले ब्लॉगों से कहीं आगे हैं। तत्वज्ञानी के हथौड़े की भाषा देखिए- "वेसे अगर आपके जमाने कि बात करे तो भी लता से बहेतर बहुत सी गायिकाए होन्गी लेकिन आपकि कमजोर संगीत सुझकि बजह से वह आपको दिखी नहि! शायद आप पोप्युलर गाने हि सुनते थे इसिलिए शमशाद बेगम को भुल गए। शायद लताजी फिल्मों में राजनिति करती थी और इसलिए कोई और आपके जमाने मे से उभर नहि पाया? मुझे अफसोस होता है कि आप लोगो ने केवल २-३ अछछी गायिकाए दी!" और शुएब को देखिए, "अपने विचारों को शेर करने के लिए मेरा ब्लॉग काफी है और मेरी डाईरी यही ब्लॉग है। भारत मेरा पहला धर्म है जहां मैं पैदा होवा और उसी के बनाए कानून के मुताबिक कोर्ट में शादी करूंगा मगर एसी लड़की मिलेगी कहां?"
कहना न होगा कि व्याकरण संबंधी त्रुटियों के बावजूद ये दोनों ब्लॉगर सर्वाधिक पढ़े जाने वालों में से हैं। भाषा की बात चली है तो कुछ स्थानों पर असहज और चौंका देने वाली भाषा भी दिखती है। इस संदर्भ में कुछ शीर्षकों की मिसालें भी दी जा सकती हैं, "सब मोहल्ले का लौंडपना है", "क्या इस देश को चूतिया बनाया जा रहा है?" आदि आदि। भाषायी सुरुचि और शालीनता में विश्वास रखने वाले शुद्धतावादियों को शायद इन टिप्पणियों को पढ़कर भी निराशा होगी-
1. "आपके चिट्ठे की टिप्पणियों में बेनामों की विष्ठा के अलावा कोई भी नामधारी टिप्पणी क्यों नहीं है?",
2. "बेंगाणी एक गंदा नैपकिन है",
3. "ये लोग (एक ब्लॉगर) आतंकवादी से भी खतरनाक हैं। ये हमेशा आग लगाने की फिराक में रहते हैं।"
जयप्रकाश मानस कहते हैं, "सार्थक अर्थों में वैचारिक, अर्थशास्त्रीय, चिकित्सा, इतिहास, लोक अभिरुचि और साहित्यिक ब्लॉग नहीं के बराबर हैं। हिंदी ब्लॉगरों के उत्साह को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए ब्लॉगिंग के विषयों और उसके कोणों में विविधता और विश्वसनीयता आवश्यक है अन्यथा इनकी स्थिति भी वैसी ही हो जाएगी जैसे किसी दैनिक अखबार के संपादक को कई बार किसी कल्पित नाम से 'संपादक के नाम पत्र' छापना पड़ता है।'
लेखकों के साथ-साथ हिंदी ब्लॉगों के पाठक कैसे बढ़ें? रवि रतलामी के अनुसार, "फिलहाल हिंदी ब्लॉग जगत के अधिकतर पाठक वे ही हैं जो किसी न किसी रूप से स्वयं ब्लॉगिंग से जुड़े हुए हैं। उनमें से अधिकतर स्वयं सक्रिय रूप से ब्लॉग लिखते हैं।" अनूप शुक्ला भी यह बात स्वीकार करते हैं, "पाठक तब बढ़ेंगे जब हिंदी में तकनीक का प्रसार होगा। हमारे समाज में कंप्यूटर और नेट का पूरी तरह से उपयोग होना बाकी है। जैसे-जैसे मीडिया में ब्लॉगिंग का प्रचार होगा, वैसे-वैसे पाठक संख्या में भी वृद्धि होगी।" आलोक कुमार इस संदर्भ में बड़ी कंपनियों के पहल करने की जरूरत महसूस करते हैं, "बड़े पोर्टल और बड़ी कंपनियां हिंदी भाषियों की जरूरतों को पूरा करने में पीछे रह गई हैं। इस समय जो भी बड़ी कंपनियां व पोर्टल आगे आकर हिंदी के स्थल बनाएंगे उनके पीछे हिंदी भाषियों की बहुत बड़ी टोली हो लेगी।"
यानी हिंदी ब्लॉगिंग को भी बड़े संस्थानों के समर्थन की जरूरत है। शायद आलोक कुमार ठीक कहते हैं। ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर और संस्थागत आधार पर तैयार किए गए सॉफ्टवेयरों की तुलनात्मक स्थिति को देखकर भी यह धारणा पुष्ट होती है कि आम लोगों द्वारा किए जाने वाले असंगठित तकनीकी प्रयासों को किसी न किसी दिशानिर्देशक या व्यवस्थागत समर्थन के बिना उतनी बड़ी सफलता नहीं मिल पाती जिसके वे वास्तव में हकदार होते हैं। (balendu.com से साभार)
"मैं अपने आपको मुसलमान नहीं मानता मगर मैं अपने मां-बाप की बहुत इज्जत करता हूं, सिर्फ और सिर्फ उनको खुश करने के लिए उनके सामने मुसलमान होने का नाटक करता हूं, वरना मुझे अपने आपको मुसलमान करते हुए बहुत गुस्सा आता है। मैं एक आम इन्सान हूं, मेरे दिल में वही है जो दूसरों में है। मैं झूठ, फरेब, मानदारी, बेईमानी, अच्छी और बुरी आदतें, कभी शरीफ और कभी कमीना बन जाता हूं, कभी किसी की मदद करता हूं और कभी नहीं- ये बातें हर इंसान में कॉमन हैं। एक दिन अब्बा ने अम्मी से गुस्से में आकर पूछा- क्या यह हमारा ही बच्चा है? तो वो हमारी तरह मुसलमान क्यों नहीं? कयामत के दिन अल्लाह मुझसे पूछेगा कि तेरे एक बेटे को मुसलमान क्यों नहीं बनाया तो मैं क्या जवाब दूं? पहले तो अब्बा-अम्मी ने मुझे प्यार से मनाया, फिर खूब मारा-पीटा कि हमारी तरह पक्का मुसलमान बने... यहां दुबई में दुनिया भर के देशों के लोग रहते हैं और ज्यादातर मुसलमान। मुझे शुरू से मुसलमान बनना पसंद नहीं और यहां आकर सभी लोगों को करीब से देखने और उनके साथ रहने के बाद तो अब इस्लाम से और बेजारी होने लगी है। मैं यह हरगिज नहीं कहता कि इस्लाम गलत है, इस्लाम तो अपनी जगह ठीक है। मैं मुसलमानों और उनके विचारों की बात कर रहा हूं।" (नई बातें, नई सोच)।
ये दोनों टिप्पणियां दो अलग-अलग लोगों ने लिखी हैं। दो ऐसे साहसिक युवकों ने, जो प्रगतिशीलता का आवरण ओढ़े किंतु भीतर से रूढ़िवादिता को हृदयंगम कर परंपराओं और मान्यताओं को बिना शर्त ढोते रहने वाले हमारे समाज की संकीर्णताओं के भीतर घुटन महसूस करते हैं। क्या इस तरह की बेखौफ, निश्छलतापूर्ण और ईमानदार टिप्पणियां किसी पत्र-पत्रिका में प्रकाशित की जा सकती हैं? क्या क्रुद्ध समाजों की उग्रतम प्रतिक्रियाओं से भरे इस दौर में ऐसे प्रतिरोधी स्वर किसी दूरदर्शन या आकाशवाणी से प्रसारित हो सकते हैं? क्या कोई धार्मिक, सामाजिक या राजनैतिक मंच इस ईमानदार किंतु विद्रोही आक्रोश की अभिव्यक्ति का मंच बन सकता है? ऐसा संभवत: सिर्फ एक मंच है जिसमें अभिव्यक्ति किन्हीं सीमाओं, वर्जनाओं, आचार संहिताओं या अनुशासन में कैद नहीं है। वह मंच है इंटरनेट पर तेजी से लोकप्रिय हो रही ब्लॉगिंग का।
औपचारिकता के तौर पर दोहरा दूं कि ब्लॉगिंग शब्द अंग्रेजी के 'वेब लॉग' (इंटरनेट आधारित टिप्पणियां) से बना है, जिसका तात्पर्य ऐसी डायरी से है जो किसी नोटबुक में नहीं बल्कि इंटरनेट पर रखी जाती है। पारंपरिक डायरी के विपरीत वेब आधारित ये डायरियां (ब्लॉग) सिर्फ अपने तक सीमित रखने के लिए नहीं हैं बल्कि सार्वजनिक पठन-पाठन के लिए उपलब्ध हैं। चूंकि आपकी इस डायरी को विश्व भर में कोई भी पढ़ सकता है इसलिए यह आपको अपने विचारों, अनुभवों या रचनात्मकता को दूसरों तक पहुंचाने का जरिया प्रदान करती है और सबकी सामूहिक डायरियों (ब्लॉगमंडल) को मिलाकर देखें तो यह निर्विवाद रूप से विश्व का सबसे बड़ा जनसंचार तंत्र बन चुका है। उसने कहीं पत्रिका का रूप ले लिया है, कहीं अखबार का, कहीं पोर्टल का तो कहीं ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा के मंच का। उसकी विषय वस्तु की भी कोई सीमा नहीं। कहीं संगीत उपलब्ध है, कहीं कार्टून, कहीं चित्र तो कहीं वीडियो। कहीं पर लोग मिल-जुलकर पुस्तकें लिख रहे हैं तो कहीं तकनीकी समस्याओं का समाधान किया जा रहा है। ब्लॉग मंडल का उपयोग कहीं भाषाएं सिखाने के लिए हो रहा है तो कहीं अमर साहित्य को ऑनलाइन पाठकों को उपलब्ध कराने में। इंटरनेट पर मौजूद अनंत ज्ञानकोष में ब्लॉग के जरिए थोड़ा-थोड़ा व्यक्तिगत योगदान देने की लाजवाब कोशिश हो रही है।
सीमाओं से मुक्त अभिव्यक्ति
ब्लॉगिंग है एक ऐसा माध्यम जिसमें लेखक ही संपादक है और वही प्रकाशक भी। ऐसा माध्यम जो भौगोलिक सीमाओं से पूरी तरह मुक्त, और राजनैतिक-सामाजिक नियंत्रण से लगभग स्वतंत्र है। जहां अभिव्यक्ति न कायदों में बंधने को मजबूर है, न अल कायदा से डरने को। इस माध्यम में न समय की कोई समस्या है, न सर्कुलेशन की कमी, न महीने भर तक पाठकीय प्रतिक्रियाओं का इंतजार करने की जरूरत। त्वरित अभिव्यक्ति, त्वरित प्रसारण, त्वरित प्रतिक्रिया और विश्वव्यापी प्रसार के चलते ब्लॉगिंग अद्वितीय रूप से लोकप्रिय होकर करोड़ों ब्लॉगों तक पहुँच गई है। समूचे ब्लॉगमंडल का आकार हर छह महीने में दोगुना हो जाता है।
आइए फिर से अभिव्यक्ति के मुद्दे पर लौटें, जहां से हमने बात शुरू की थी। हालांकि ब्लॉगिंग की ओर आकर्षित होने के और भी कई कारण हैं। लेकिन अधिकांश विशुद्ध, गैर-व्यावसायिक ब्लॉगरों ने अपने विचारों और रचनात्मकता की अभिव्यक्ति के लिए ही इस मंच को अपनाया। जिन करोड़ों लोगों के पास आज अपने ब्लॉग हैं, उनमें से कितने पारंपरिक जनसंचार माध्यमों में स्थान पा सकते थे? स्थान की सीमा, रचनाओं के स्तर, मौलिकता, रचनात्मकता, महत्व, सामयिकता आदि कितने ही अनुशासनों में निबद्ध जनसंचार माध्यमों से हर व्यक्ति के विचारों को स्थान देने की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती। लेकिन ब्लॉगिंग की दुनिया पूरी तरह स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और मनमौजी किस्म की रचनात्मक दुनिया है। वहां आपकी 'भई आज कुछ नहीं लिखेंगे' नामक छोटी सी टिप्पणी का भी उतना ही स्वागत है जितना कि जीतेन्द्र चौधरी की ओर से वर्डप्रेस पर डाली गई सम्पूर्ण रामचरित मानस का। 'भड़ास' नामक सामूहिक ब्लॉग के सूत्र वाक्य से यह बात स्पष्ट हो जाती है- कोई बात गले में अटक गई हो तो उगल दीजिए... मन हल्का हो जाएगा..।
चौपटस्वामी नामक ब्लॉगर की लिखी यह टिप्पणी पढ़िए- "(हमारे यहां) धनिया में लीद मिलाने और कालीमिर्च में पपीते के बीज मिलाने को सामाजिक अनुमोदन है। रिश्वत लेना और देना सामान्य और स्वीकृत परंपरा है और उसे लगभग रीति-रिवाज के रूप में मान्यता प्राप्त है। कन्या-भ्रूण की हत्या यहां रोजमर्रा का कर्म है और अपने से कमजोर को लतियाना अघोषित धर्म है। गणेशजी को दूध पिलाना हमारी धार्मिक आस्था है। हमारा लड़का हमें गरियाते और जुतियाते हुए भी श्रवणकुमार है, पर पड़ोसी का ठीक-ठाक सा लड़का भी बिलावजह दुष्ट और बदकार है।" यानी कि सौ फीसदी अभिव्यक्ति की एक सौ एक फीसदी आजादी!
वरिष्ठ ब्लॉगर अनूप शुक्ला (फुरसतिया) कहते हैं- "अभिव्यक्ति की बेचैनी ब्लॉगिंग का प्राण तत्व है और तात्कालिकता इसकी मूल प्रवृत्ति है। विचारों की सहज अभिव्यक्ति ही ब्लॉग की ताकत है, यही इसकी कमजोरी भी। यही इसकी सामर्थ्य है, यही इसकी सीमा भी। सहजता जहां खत्म हुई वहां फिर अभिव्यक्ति ब्लॉगिंग से दूर होती जाएगी।"
जो चाहें, लिखें और अगर चाहते हैं कि इसे दूसरे लोग भी पढ़ें तो ब्लॉग पर डाल दें। किसी को जंचेगा तो पढ़ लेगा वरना आगे बढ़ जाएगा। ब्लॉगिंग वस्तुत: एक लोकतांत्रिक माध्यम है। यहां कोई न लिखने के लिए मजबूर है, न पढ़ने के लिए। जो अच्छा लिखते हैं, उनके ठिकानों पर स्वत: भीड़ हो जाती है, उनके ब्लॉगों में टिप्पणियों की बहार आ जाती है। ऐसे कई ब्लॉग हीरो ब्लॉगिंग की दुनिया ने दिए हैं जो सिर्फ अपने लेखों, भाषा या रचनात्मकता के लिए ही नहीं, तकनीकी मार्गदर्शन देने (गैर-अंग्रेजी ब्लॉगरों को इसकी जरूरत पड़ती ही है) और नए ब्लॉगरों व ब्लॉग परियोजनाओं को प्रोत्साहित करने के लिए भी जाने जाते हैं।
ब्लॉग विश्व के चर्चित लोग
दुनिया के विख्यात ब्लॉगरों में एंड्र्यू सलीवान (एंड्र्यूसलीवान.कॉम), रॉन गंजबर्गर (पोलिटिक्स१.कॉम), ग्लेन रोनाल्ड (इन्स्टापंडित.कॉम), डंकन ब्लैक, पीटर रोजास, जेनी जार्डिन, बेन ट्रोट, जोनाथन श्वार्ट्ज, जेसन गोल्डमैन, रॉबर्ट स्कोबल, मैट ड्रज (ड्रजरिपोर्ट.कॉम) आदि शामिल हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को महाभियोग की हद तक ले जाने वाले मोनिका लुइन्स्की प्रकरण का पर्दाफाश मैट ड्रज ने ही अपने ब्लॉग पर किया था। चीनी अभिनेत्री जू जिंगले का ब्लॉग संभवत: दुनिया का सर्वाधिक लोकप्रिय ब्लॉग है जिसे पांच करोड़ से भी अधिक बार पढ़ा जा चुका है। ब्लॉगिंग का चस्का बहुत सी विख्यात हस्तियों को भी लगा है जिनमें टेनिस सुंदरी अन्ना कोर्निकोवा, हॉलीवुड अभिनेत्री पामेला एंडरसन, गायिका ब्रिटनी स्पीयर्स, अभिनेत्री व सुपरमॉडल कर्टनी लव, फिल्म निर्देशक व अभिनेता केविन स्मिथ आदि शामिल हैं। हमारे देश में
भारत के कई अंग्रेजी ब्लॉग काफी लोकप्रिय हो गए हैं जिनमें गौरव सबनीस का वान्टेड प्वाइंट, अमित वर्मा का इंडिया अनकट, रश्मि बंसल का यूथ सिटी, अमित अग्रवाल का डिजिटल इनिस्परेशन, दीना मेहता का दीनामेहता.कॉम आदि प्रमुख हैं।
फिल्म अभिनेता आमिर खान (लगानडीवीडी.कॉम), जॉन अब्राहम, बिपासा बसु (बिपासाबसुनेट.कॉम), राहुल बोस, राहुल खन्ना, शेखर कपूर, सुचित्रा कृष्णमूर्ति, अनुपम खेर, कवि अशोक चक्रधर, रेडिफ चेयरमैन अजीत बालाकृष्णन, इंडियावर्ल्ड.कॉम बनाकर उसे छह सौ करोड़ रुपए में सिफी.कॉम को बेचने वाले राजेश जैन, वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई , नौकरी.कॉम के सी ई ओ संजीव बीखचंदानी आदि भी सक्रिय ब्लॉगर हैं। आमिर खान के ब्लॉग पर तो पिछली पोस्ट के जवाब में सत्रह सौ पाठकों की टिप्पणियां दर्ज हैं!
अगर आपने झटपट ब्लॉग बनाकर फटाफट धन कमाने की योजना बना ली हो तो जान लीजिए कि यह कोई आसान काम नहीं है। अपने ब्लॉग के लिए अमित अग्रवाल ही रोजाना सैंकड़ों ब्लॉगों, उतनी ही आरएसएस फीड (ब्लॉगों के लेखों को अपेक्षाकृत आसान फॉरमेट में कंप्यूटर या इंटरनेट ब्राउजर पर पढ़ने की सुविधा) और दर्जनों वेबसाइटों का अध्ययन करते हैं। रोजाना बारह से चौदह घंटे तक काम करना, पचासों मेल संदेशों का जवाब देना और सर्च इंजनों को खंगालना उनके दैनिक कर्म में शामिल है। लेकिन फिर भी, कोशिश करने में कोई बुराई नहीं है।
हिंदी ब्लॉगिंग के प्रमुख हस्ताक्षरों में जीतेन्द्र चौधरी, अनूप शुक्ला, आलोक कुमार (जिन्होंने पहला हिंदी ब्लॉग लिखा और उसके लिए 'चिट्ठा' शब्द का प्रयोग किया), देवाशीष, रवि रतलामी, पंकज बेंगानी, समीर लाल, रमण कौल, मैथिलीजी, जगदीश भाटिया, मसिजीवी, पंकज नरूला, प्रत्यक्षा, अविनाश, अनुनाद सिंह, शशि सिंह, सृजन शिल्पी, ई-स्वामी, सुनील दीपक, संजय बेंगानी आदि के नाम लिए जा सकते हैं। जयप्रकाश मानस, नीरज दीवान, श्रीश बेंजवाल शर्मा, अनूप भार्गव, शास्त्री जेसी फिलिप, हरिराम, आलोक पुराणिक, ज्ञानदत्त पांडे, रवीश कुमार, अभय तिवारी, नीलिमा, अनामदास, काकेश, अतुल अरोड़ा, घुघुती बासुती, संजय तिवारी, सुरेश चिपलूनकर, तरुण जोशी, अफलातून जैसे अन्य उत्साही लोग भी ब्लॉग जगत पर पूरी गंभीरता और नियम के साथ सक्रिय हैं और इंटरनेट पर हिंदी विषय वस्तु को समृद्ध बनाने में लगे हैं। अगर आप ब्लॉगों की दुनिया से अनजान हैं, तो संभवत: ये नाम भी आपने नहीं सुने होंगे। लेकिन अगर आप ब्लॉगजगत में सावन की तेज हवा में उड़ती पतंग का सा फर्राटा भी मार लें तो इन सबकी अनूठी रचनात्मकता, हिंदी प्रेम और ब्लॉगी जुनून का लोहा मानने पर मजबूर हो जाएंगे। इस लेख के शुरू में जिन दो ब्लॉगों पर लिखी टिप्पणियां उद्धृत की गई हैं, उन्हें रवि कामदार और शुएब संचालित करते हैं। प्रसंगवश, इसी ब्लॉगविश्व में मीडिया की आत्मालोचना पर केंद्रित 'वाह मीडिया' और 'मतांतर' नामक ब्लॉगों के माध्यम से मेरी भी उपस्थिति है।
ब्लॉगिंग में है कुछ अलग बात!
अंग्रेजी में तो ब्लॉगिंग की उम्र दस वर्ष हो गई है। इन दस वर्षों में संचार और अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनने के साथ-साथ उसने सामूहिकता और सामुदायिकता पर आधारित अनेकों नई विधाओं को जन्म दिया है। दुनिया का पहला ब्लॉग किसने बनाया, इस बारे में मतैक्य नहीं है। लेकिन इस बारे में कोई विवाद नहीं है कि ब्लॉगिंग की शुरूआत १९९७ में हुई । अप्रैल १९९७ में न्यूयॉर्क के डेव वाइनर ने स्क्रिप्टिंग न्यूज नामक एक वेबसाइट शुरू की जिसने ब्लॉगिंग की अवधारणा को स्पष्ट किया और लोगों को अपने विचार इंटरनेट पर प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया। दिसंबर १९९७ में जोर्न बार्गर ने रोबोटविसडम.कॉम की शुरूआत की और पहली बार इसे 'वेब लॉग' का नाम दिया। पीटरमी.कॉम के पीटर मरहोल्ज ने वेबलॉग के स्थान पर उसके छोटे रूप 'ब्लॉग' का प्रयोग किया। तब से इंटरनेट पर ब्लॉगों की जो तेज हवा बही, उसने पहले आंधी और अब तूफान का रूप ले लिया है।
हालांकि ब्लॉगिंग के आगमन के पहले से ही अभिव्यक्ति के नि:शुल्क मंच इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। नब्बे के दशक के शुरू में ही जियोसिटीज.कॉम, ट्राइपोड.कॉम, ८के.कॉम, होमपेज.कॉम, एंजेलफायर.कॉम, गो.कॉम आदि ने आम लोगों को अपने निजी इंटरनेट होमपेज बनाने की सुविधा दी थी और इनमें से अधिकांश आज भी सक्रिय हैं। उन पर लाखों लोगों ने अपनी वेबसाइटें बनाई भी लेकिन उन्हें ब्लॉगिंग की तर्ज पर अकूत लोकप्रियता नहीं मिली क्योंकि वेबसाइट बनाने के लिए थोड़ा-बहुत तकनीकी ज्ञान आवश्यक है। दूसरी तरफ ब्लॉग का निर्माण और संचालन लगभग मेल पाने-भेजने जितना ही आसान है। ब्लॉगर, वर्डप्रेस, माईस्पेस, लाइवजर्नल, ब्लॉग.कॉम, टाइपपैड, पिटास, रेडियो यूजरलैंड आदि पर ब्लॉग बनाना और टिप्पणियां पोस्ट करना बहुत आसान है। सरल, तेज, विश्वव्यापी, विशाल, नि:शुल्क और इंटर-एक्टिव होने के साथ-साथ कोई संपादकीय, कानूनी या संस्थागत नियंत्रण न होना ब्लॉगिंग की बुनियादी शक्तियां (और कमजोरी भी) हैं जिन्होंने इसे इंटरनेट आधारित अभिव्यक्ति के अन्य माध्यमों की तुलना में अधिक लोकप्रिय बनाया है।
ब्लॉगिंग विश्व ने उन लोगों की स्मृतियों को भी जीवित रखा है जो सरकारी दमनचक्र, समाजविरोधी तत्वों के जुल्म या फिर आतंकवादी कार्रवाइयों के शिकार हुए। चीन में भले ही थ्येनआनमन चौक पर हुई अमानवीय सैन्य कार्रवाई के खिलाफ मुंह खोलना बहुत बड़ा अपराध हो, पर ब्लॉगिंग की दुनिया में ऐसी रोकटोक नहीं। 'यान्स ग्लटर' नामक ब्लॉग का संचालन करने वाली यान शाम शैकलटन १९८९ में थ्येनआनमन चौक पर हुए सैनिक नरसंहार में मारे गए युवकों के प्रति अपनी भावनाओं को इस तरह व्यक्त करती हैं-
'मैं भूलूंगी नहीं। मैं आपको हमेशा याद रखने का वादा करती हूं। मैं ऐसा दोबारा नहीं होने दूंगी। मैं पूरी दुनिया को आपकी, थ्येनआनमन चौक के छात्रों की याद दिलाती रहूंगी। मेरे बड़े भाइयो और बहनों!'
लोकतंत्र की आवाज़
दमन के विरुद्ध विद्रोह और लोकतंत्र की चाहत को भी ब्लॉगिंग ने स्वर दिए हैं। बहरीन में शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन करते लोगों के सरकारी दमन को वहीं के एक ब्लॉगर 'चनाद बहरीनी' (ब्लॉगर का छद्म नाम) ने अपने चित्रों में कैद किया और ब्लॉग के माध्यम से दुनिया भर को उसकी जानकारी दी। कुछ वर्ष पहले अमेरिकी सीनेटर ट्रेन्ट लोट ने १९४८ के राष्ट्रपति चुनाव में हैरी ट्रूमैन के प्रतिद्वंद्वी और रंगभेद समर्थक उम्मीदवार स्ट्रॉम थरमंड का समर्थन किया। मीडिया ने इस पर खास ध्यान नहीं दिया तो ब्लॉगर समुदाय ने जोर-शोर से यह मुद्दा उठाया और सीनेटर से इस्तीफा दिलवाकर ही दम लिया। इस घटना में ब्लॉगरों ने मीडिया के वैकल्पिक स्वरूप के रूप में अपनी उपयोगिता सिद्ध की।
यही बात इराक युद्ध के दौरान भी 'बगदाद ब्लॉगर' के नाम से प्रसिद्ध एक गुमनाम ब्लॉगर ने 'सलाम पैक्स' के नाम से लिखे अपने ब्लॉग के माध्यम से दिखाई। वह इराक युद्ध की विनाशलीला का आंखों देखा हाल उपलब्ध कराता रहा और उसकी टिप्पणियों का दुनिया भर के मीडिया ने उपयोग किया। ब्लॉगिंग को लोकप्रिय बनाने में उसकी अहम भूमिका मानी जाती है। इराक युद्ध के दौरान जब बीबीसी और वॉयस ऑफ अमेरिका में इस ब्लॉगर पर केंद्रित कार्यक्रमों का प्रसारण किया गया तो उसके पिता को पहली बार अहसास हुआ कि संभवत: ये कार्यक्रम मेरे शर्मीले पुत्र के बारे में हैं जो चुपचाप कमरे में बैठकर इंटरनेट पर कुछ करता रहता है। उन्हें लगा कि सद्दाम हुसैन की खुफिया एजेंसियों को पता चलने वाला है और वे पक्के तौर पर बहुत बड़े संकट में फंसने जा रहे हैं। लेकिन सौभाग्य से ऐसा कुछ नहीं हुआ और सलाम का नाम ब्लॉगिंग के इतिहास में दर्ज हो गया। (संयोगवश, सलाम ने इराक युद्ध के बाद लंदन के 'गार्जियन' अखबार में कॉलम भी लिखा)।
ब्लॉग लेखन आम तौर पर बहुत गंभीर लेखन नहीं माना जाता लेकिन ड्रज रिपोर्ट, बगदाद ब्लॉगर आदि की जिम्मेदाराना भूमिकाओं और ट्रेन्ट लोट के इस्तीफे के बाद समाचार माध्यम के रूप में भी उसकी साख और विश्वसनीयता में वृद्धि हुई है। पिछले अप्रैल माह में अमेरिका के वर्जीनिया विश्वविद्यालय में अनजान हमलावरों ने अंधाधुंध फायरिंग कर कई छात्रों को मार डाला तब ब्लॉगर अनुराग मिश्रा ने हमारे अपने 'इंडिया टीवी' के लिए रिपोर्टिंग की। इंडिया टीवी से जुड़े नीरज दीवान, जो स्वयं 'कीबोर्ड के सिपाही' नामक ब्लॉग चलाते हैं, कहते हैं- "उस घटना पर किसी भारतीय द्वारा अमेरिका से दी जा रही वह पहली जानकारी थी। अनुराग भाषा, शैली में पूर्णत: सक्षम और विश्वस्त ब्लॉगर हैं। वे उसी विश्वविद्यालय के छात्र भी हैं। उस वक्त मेरे पास उनसे बेहतर कोई और विकल्प नहीं था। अनुराग ने जन-पत्रकार की भूमिका बखूबी निभाई ।"
हिंसा व आतंक के खिलाफ और लोकतंत्र के पक्ष में खड़े होने वाले ये गुमनाम सिपाही स्वयं भी लोकतंत्र विरोधियों के दमन का शिकार होते रहे हैं। ईरान सरकार ने अराश सिगारची नामक ब्लॉगर को उसकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति से खफा होकर १४ साल के लिए जेल में डाल दिया है। अनार्कएंजेल नामक एक ब्लॉगर के खिलाफ मुस्लिम कट्टरपंथियों ने मौत का फतवा भी जारी किया है। सिंगापुर में दो चीनी ब्लॉगरों को स्थानीय कानूनों की आलोचना करने ओर मुसलमानों के खिलाफ टिप्पणियां करने के लिए जेल में डाल दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र से जुड़े एक राजनयिक को उसके ब्लॉग में लिखी टिप्पणियों के कारण सूडान ने तीन दिन में देश छोड़ने का आदेश दिया था। यानी चुनौतियों की कोई कमी भी नहीं।
ब्लॉगिंग अब नए क्षेत्रों, नई दिशाओं में आगे बढ़ रही है। असल में ब्लॉग तो अपनी अभिव्यक्ति, अपनी रचनाओं को विश्वव्यापी इंटरनेट उपयोक्ताओं के साथ बांटने का मंच है, और ऐसे मंच का प्रयोग सिर्फ लेखों, राजनैतिक टिप्पणियों और साहित्यिक रचनाओं के लिए किया जाए, यह किसी किताब में नहीं लिखा है। ब्लॉग पर फोटो या वीडियो डाल दीजिए, वह फोटो ब्लॉग तथा वीडियो ब्लॉग कहलाएगा। संगीत डाल दीजिए तो वही म्यूजिक ब्लॉग हो जाएगा। रेडियो कार्यक्रम की तरह अपनी टिप्पणियों को रिकॉर्ड करके ऑडियो फाइलें डाल दीजिए तो वह पोडकास्ट कहलाएगा। किसी ब्लॉग को कई लोग मिलकर चलाएं तो वह कोलेबरेटिव या सामूहिक ब्लॉग बन जाएगा। हिंदी में 'बुनोकहानी' नामक ब्लॉग पर कई ब्लॉगर मिलकर कहानियां लिख रहे हैं। यह इसी श्रेणी में आएगी।
किसी परियोजना विशेष से जुड़े लोग यदि आपस में विचारों के आदान-प्रदान के लिए ब्लॉग बनाएंगे तो वह प्रोजेक्ट ब्लॉग माना जाएगा और अगर कोई कंपनी अपने उत्पादों या सेवाओं का प्रचार करने या फिर अपने कर्मचारियों के बीच वैचारिक आदान-प्रदान के लिए ब्लॉग बनाती है तो इसे कारपोरेट ब्लॉग कहेंगे। यानी ब्लॉग आपकी जरूरतों के अनुसार ढल सकता है। यूट्यूब (आम लोगों की ओर से पोस्ट किए गए वीडियो), फ्लिकर (आम लोगों के खींचे चित्र), विकीपीडिया (आम लोगों द्वारा लिखे गए लेख) जैसी परियोजनाएं भी ब्लॉगों की ही तर्ज पर विकसित हुई हैं। अब आम लोगों के भेजे समाचारों की वेबसाइटें भी लोकप्रिय हो रही हैं। अंग्रेजी समाचार चैनल आईबीएन ने पिछले साल इस दिशा में पहल की थी जो बहुत सफल हुई । भारत में मेरीन्यूज.कॉम भी नागरिक पत्रकारिता (सिटीजन जर्नलिज्म) पर आधारित एक चर्चित वेबसाइट है।
ब्लॉगिंग के और भी बहुत से रूप तथा उपयोग हैं। आजकल मेल पर जिस तरह से वायरसों और स्पैम (अनचाही तथा घातक डाक) का हमला हो रहा है उसे देखते हुए बहुत सी कंपनियां ब्लॉगों को संदेशों के आदान-प्रदान के सुरक्षित माध्यम के रूप में भी इस्तेमाल कर रही हैं। यह सामाजिक मेलजोल का भी एक माध्यम है। अपने ब्लॉग पर टिप्पणियां करने वाले अनजान व्यक्तियों के साथ संदेशों का आदान-प्रदान करते-करते उनके साथ मित्रता हो जाना स्वाभाविक है। धीरे-धीरे एक ही विषय में रुचि रखने वाले लोगों के बीच सामुदायिकता की भावना पैदा हो जाती है। ऐसे ब्लॉगर समय-समय पर मिल-बैठकर चर्चाएं भी करते हैं जैसे कि १४ जुलाई को दिल्ली में पहले कैफे कॉफी डे पर और फिर एक नए ब्लॉग एग्रीगेटर के दफ्तर पर हुई ।
हिंदी ब्लॉगिंग में हलचलें
अंग्रेजी में जहां ब्लॉगिंग १९९७ में शुरू हो गई थी वहीं हिंदी में पहला ब्लॉग दो मार्च २००३ को लिखा गया। समय के लिहाज से अंग्रेजी और हिंदी के बीच महज छह साल की दूरी है लेकिन ब्लॉगों की संख्या के लिहाज से दोनों के बीच कई प्रकाश-वर्षों का अंतर है। हालांकि अप्रत्याशित रूप से ब्लॉगिंग विश्व में एशिया ने ही दबदबा बनाया हुआ है। टेक्नोरैटी के अनुसार विश्व के कुल ब्लॉगों में से ३७ प्रतिशत जापानी भाषा में हैं और ३६ प्रतिशत अंग्रेजी में। कोई आठ प्रतिशत ब्लॉगों के साथ चीनी भाषा तीसरे नंबर पर है।
ब्लॉगों के मामले में हिंदी अपने ही देश की तमिल से भी पीछे है जिसमें दो हजार से अधिक ब्लॉग मौजूद हैं। लेकिन हिंदी ब्लॉग जगत निराश नहीं है। कुवैत में रहने वाले वरिष्ठ हिंदी ब्लॉगर जीतेन्द्र चौधरी कहते हैं- २००३ में शुरू हुए इस कारवां में बढ़ते हमसफरों की संख्या से मैं संतुष्ट हूं।
जीतेंद्र चौधरी के आशावाद के विपरीत रवि रतलामी मौजूदा हालात से संतुष्ट नहीं दिखते, "जब तक हिंदी ब्लॉग लेखकों की संख्या एक लाख से ऊपर न पहुंच जाए और किसी लोकप्रिय चिट्ठे को नित्य दस हजार लोग नहीं पढ़ लें तब तक संतुष्टि नहीं आएगी। इस लक्ष्य को प्राप्त करने की गति अत्यंत धीमी है। पर इंटरनेट और कंप्यूटर में हिंदी है भी तो बहुत जटिल भाषा- जिसमें तमाम दिक्कतें हैं।"
दुनिया की दूसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा होने के लिहाज से देखें तो हिंदी में ब्लॉगों की संख्या अपेक्षा से बहुत कम दिखेगी। लेकिन इसके कारण स्पष्ट हैं। टेलीफोन, कंप्यूटर, इंटरनेट, बिजली और तकनीकी ज्ञान जैसी बुनियादी आवश्यकताएं पूरी किए बिना कंप्यूटर और इंटरनेट को तेजी से लोकप्रिय बनाने की आशा नहीं की जा सकती। दूसरे, आर्थिक रूप से हम इतने सक्षम और निश्चिंत नहीं हैं कि ऐसी किसी तकनीकी सुविधा पर समय, श्रम और धन खर्च करना पसंद करें, जो अपरिहार्य नहीं है। तीसरे, हमारा समाज संभवत: पश्चिम के जितना अभिव्यक्तिमूलक भी नहीं है। बहरहाल, आर्थिक तरक्की के साथ-साथ इन सभी क्षेत्रों में स्थितियां बदल रही हैं जिसका असर ब्लॉग की दुनिया में भी दिख रहा है। पिछले छह महीने में नए हिंदी ब्लॉग बनने की गति कुछ तेज हुई है। चिट्ठाकार आलोक कहते हैं, "ब्लॉगिंग की गति में आई तेजी के कई कारण हैं। एक तो हिंदी में लेखन के अलग-अलग तंत्रों (सॉफ्टवेयरों) का विकास, दूसरे विन्डोज एक्सपी का अधिक प्रयोग जिसमें हिंदी में काम करना विंडोज ९८ की तुलना में अधिक आसान है, तीसरे ब्लॉगर जैसी वेबसाइटों में मौजूद सुविधाओं में वृद्धि (जिनसे ब्लॉगिंग की प्रक्रिया निरंतर आसान हो रही है), और चौथे पत्र-पत्रिकाओं में इंटरनेट, ब्लॉग आदि के बारे में छप रहे लेख।"
पुणे के सॉफ्टवेयर इंजीनियर देवाशीष चक्रवर्ती, जिन्होंने नवंबर २००३ में नुक्ताचीनी नामक ब्लॉग शुरू किया, ने हिंदी ब्लॉगिंग में अहम भूमिका निभाई है। नुक्ताचीनी के अलावा वे पॉडभारती नामक पोडकास्ट और नल प्वाइंटर नामक अंग्रेजी ब्लॉग चलाते हैं। उन्होंने श्रेष्ठ ब्लॉगों को पुरस्कृत करने के लिए 'इंडीब्लॉगीज' नामक पुरस्कारों की शुरूआत भी की है। देवाशीष कहते हैं, "भारतीय भाषाओं में ब्लॉग जगत में निरंतर विकास होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। अधिकांश भाषाओं के अपने ब्लॉग एग्रीगेटर हैं, और स्थानीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने भी भाषायी ब्लॉगरों को काफी प्रचारित एवं प्रोत्साहित किया है। गूगल और माइक्रोसॉफ्ट की कुछ तकनीकों से भी भाषायी ब्लॉगिंग को गति मिली है।" इस बीच, तरकश समूह ने भी ब्लॉग पोर्टल के रूप में एक अच्छी शुरूआत की है और वह तरकश जोश (अंग्रेजी), टॉक एंड कैफे (अंग्रेजी) और पॉडकास्ट का संचालन कर रहा है। नारद के कुछ प्रतिद्वंद्वी ब्लॉग एग्रीगेटर भी सामने आए हैं जिनमें ब्लॉगवाणी, चिट्ठाजगत और हिंदीब्लॉग्स.कॉम प्रमुख हैं। इन सबने हिंदी ब्लॉग जगत को विविधता दी है और उसकी विषय वस्तु को समृद्ध किया है।
अक्षरग्राम और नारद
बहरहाल, अगर कुछ समर्पित ब्लॉगरों ने मिलकर प्रयास न किए होते तो शायद हिंदी में ब्लॉगिंग की हालत बहुत कमजोर होती। अलग-अलग देशों में रहने ब्लॉगरों के कुछ समूहों ने हिंदी ब्लॉगिंग को संस्थागत रूप देने और नए ब्लॉगरों को प्रोत्साहित करने का अद्वितीय काम किया है। उन्होंने हिंदी में काम करने की दिशा में मौजूद तकनीकी गुत्थियां सुलझाने, नए लोगों को तकनीकी मदद देने, हिंदी टाइपिंग और ब्लॉगिंग के लिए सॉफ्टवेयरों का विकास करने, ब्लॉगों को अधिकतम लोगों तक पहुंचाने के लिए ब्लॉग एग्रीगेटरों (एक सॉफ्टवेयर जो विभिन्न ब्लॉगों पर दी जा रही सामग्री को एक ही स्थान पर उपलब्ध कराने में सक्षम है) का निर्माण करने, सामूहिक रूप से अच्छी गुणवत्ता वाली रचनाओं का सृजन करने और ब्लॉगरों के बीच नियमित चर्चा के मंच बनाने जैसे महत्वपूर्ण कार्य किए हैं।
'चिट्ठाकारों की चपल चौपाल' के नाम से चर्चित अक्षरग्राम नेटवर्क ऐसा ही एक समूह है। इसके सदस्यों में पंकज नरूला (अमेरिका), जीतेन्द्र चौधरी (कुवैत), ईस्वामी, संजय बेंगानी, अमित गुप्ता, पंकज बेंगानी, निशांत वर्मा, विनोद मिश्रा, अनूप शुक्ला और देवाशीष चक्रवर्ती शामिल हैं। यह समूह ब्लॉग एग्रीगेटर 'नारद' और 'चिट्ठा विश्व' (आजकल निष्क्रिय), 'अक्षरग्राम', हिंदी विकी 'सर्वज्ञ', ब्लॉगरों के बीच वैचारिक-आदान प्रदान के मंच 'परिचर्चा', सामूहिक रचनाकर्म पर आधारित परियोजना 'बुनो कहानी', ब्लॉग पत्रिका 'निरंतर' आदि का संचालन करता है। ब्लॉग जगत से जुड़े अधिकांश सदस्य इन सभी से न सिर्फ परिचित हैं, बल्कि किसी न किसी तरह जुड़े हुए भी हैं। (हिंदिनी, भड़ास, हिंद-युग्म, सराय, चिट्ठा चर्चा आदि भी सामूहिक ब्लॉगों के अच्छे उदाहरण हैं)।
हिंदी ब्लॉगिंग के क्षेत्र में धीमी प्रगति के बावजूद इस समूह ने अपनी लगन और उत्साह में कमी नहीं आने दी। इस बारे में जीतेंद्र चौधरी का कहना है, "इंटरनेट पर हिंदी का प्रचार-प्रसार हिंदी ब्लॉगिंग के जरिए बढ़ सकता है क्योंकि हर ब्लॉगर अपने साथ कम से कम दस पाठक जरूर लाएगा। अगर उन दस पाठकों में से चार ने भी ब्लॉगिंग शुरू की तो एक श्रृंखला बन जाएगी और ध्यान रखिए, इंटरनेट पर जितनी ज्यादा सामग्री हिंदी में उपलब्ध होगी, जनमानस का इंटरनेट के प्रति रुझान भी बढ़ता जाएगा।
अद्यतन टिप्पणीः हिंदी में नारद के अतिरिक्त भी कुछ अच्छे ब्लॉग एग्रीगेटर आए, जिन्होंने ब्लॉगिंग के प्रति रुझान बढ़ाने और इस क्षेत्र को सुनियोजित बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनमें मैथिली और सिरिल गुप्ता का 'ब्लॉगवाणी' और आलोक कुमार का 'चिट्ठाजगत' प्रमुख थे। इससे पूर्व 'चिट्ठा विश्व' के रूप में भी देवाशीष चक्रवर्ती की पहल पर एक अच्छा प्रयास हो चुका था। लेकिन कुछ ब्लॉगिंग विश्व से जुड़े कारणों, कुछ तकनीकी और कुछ निजी कारणों से ये एग्रीगेटर बंद हो गए।
सीमाएं और चुनौतियां
हिंदी ब्लॉगिंग के स्वस्थ विकास के लिए कुछ मुद्दों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। जिस तरह ब्लॉगरों की संख्या में वृद्धि की दर दूसरी भाषाओं की तुलना में काफी कम है, उसी तरह यहां पाठकों का भी टोटा है। हिंदी ब्लॉग विश्व को चिंतन करना होगा कि वह आम पाठक तक क्यों नहीं पहुंच पा रहा? क्या इसलिए कि हिंदी ब्लॉगिंग में विविधता का अभाव है? क्या इसलिए कि इसमें मौजूद अधिकांश सामग्री समसामयिक विषयों पर टिप्पणियों, निजी कविताओं, पुराने लेखों तथा प्रसिद्ध लेखकों की रचनाओं को इंटरनेट पर डालने तक सीमित है? क्या इसलिए कि हिंदी ब्लॉगों की भाषा अभी विकास के दौर से गुजर रही है और पूरी तरह मंजी नहीं है? क्या इसलिए कि हिंदी ब्लॉगों की सामग्री सुव्यवस्थित ढंग से उपलब्ध नहीं है बल्कि छिन्न-भिन्न है जिसमें मतलब की चीज ढूंढना चारे के ढेर में सुई ढूंढने के समान है? या फिर इसलिए कि पत्र-पत्रिकाओं में खूब छपने के बावजूद हिंदी पाठक अभी तक ब्लॉगिंग को तकनीकी अजूबा मानते हुए उनसे दूर हैं?
इंटरनेट आधारित साहित्यिक पत्रिका सृजनगाथा.कॉम के संपादक और ब्लॉगर जयप्रकाश मानस कहते हैं, "जहां तक हिंदी ब्लॉगिंग की भाषा का प्रश्न है, वह अभी परिनिष्ठित हिंदी को स्पर्श भी नहीं कर सकी है। वहां भाषा का सौष्ठव कमजोर है। अधिकांश ब्लॉगर नगरीय परिवेश से हैं, ऊपर से हिंदी के खास लेखक और समर्पित लेखक ब्लॉग से अभी कोसों दूर हैं, सो वहां भाषाई कृत्रिमता और शुष्कता ज्यादा है। वहां व्याकरण की त्रुटियां भी साबित करती हैं कि अभी हिंदी ब्लॉगिंग में भाषा का स्तर अनियंत्रित है।" अविनाश भी इससे सहमत दिखते हैं, "हिंदी ब्लॉगिंग की अभी कोई शक्ल नहीं बन पाई है। विविधता के हिसाब से भी अभी विषयवार ब्लॉग नहीं हैं। लेकिन जो हैं, वे जड़ता तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।"
हालांकि कई लेखक लीक से हटकर चलने की कोशिश जरूर कर रहे हैं। अतुल अरोरा और सुनील दीपक के संस्मरण और यात्रा वृत्तांत, रवि रतलामी, श्रीश शर्मा, जीतेन्द्र चौधरी, देबाशीष, पंकज नरूला, ईस्वामी, अमित गुप्ता, प्रतीक पांडेय आदि के तकनीकी आलेखों का स्तर बहुत अच्छा है। प्रत्यक्षा जैसी कथालेखिका, अशोक चक्रधर, बोधिसत्व जैसे कवि और जयप्रकाश मानस, प्रमोद सिंह, प्रियंकर जैसे साहित्यकार-ब्लॉगर, आलोक पुराणिक जैसे सक्रिय व्यंग्यकार और रवीश कुमार, चंद्रभूषण, इरफान जैसे पत्रकार भी अच्छी, विचारोत्तेजक ब्लॉगिंग कर रहे हैं। लेखक ने स्वयं अपने ब्लॉग 'वाहमीडिया' को विविधता के लिहाज से मीडिया की आत्मालोचना पर केंद्रित रखा है। कमल शर्मा का 'वाह मनी' आर्थिक विषयों पर केंद्रित है और आलोक का 'स्मार्ट मनी' निवेश संबंधी सलाह देता है।
'फुरसतिया' और 'मोहल्ला' पर कई ऊंचे दर्जे के साक्षात्कार और लेख पढ़े जा सकते हैं। नीलिमा हिंदी ब्लॉग जगत में पाठकों-लेखकों संबंधी आंकड़ों की गहन छानबीन कर रही हैं। मनीषा स्त्री विमर्श के मुद्दों पर साहसिक लेखन कर रही हैं। लेकिन विविधता अभी और भी चाहिए। जीतेन्द्र चौधरी भी यह बात मानते हैं- "लेखन के विषयों और गुणवत्ता पर काफी कुछ किया जाना बाकी है। आसपास कई ऐसे चिट्ठाकार आए हैं जिनके लेखन में विविधता है और लेखन भी काफी उत्कृष्ट कोटि का है। लेकिन बहुसंख्यक ब्लॉग ऐसे हैं जो निजी डायरी के रूप में ही चल रहे हैं।"
अनगढ़ भाषा कोई अड़चन नहीं!
वैसे एक मजेदार तथ्य यह भी है कि भाषा के लिहाज से बेहद कमजोर माने जाने वाले कुछ ब्लॉग लोकप्रियता में परिमार्जित भाषा वाले ब्लॉगों से कहीं आगे हैं। तत्वज्ञानी के हथौड़े की भाषा देखिए- "वेसे अगर आपके जमाने कि बात करे तो भी लता से बहेतर बहुत सी गायिकाए होन्गी लेकिन आपकि कमजोर संगीत सुझकि बजह से वह आपको दिखी नहि! शायद आप पोप्युलर गाने हि सुनते थे इसिलिए शमशाद बेगम को भुल गए। शायद लताजी फिल्मों में राजनिति करती थी और इसलिए कोई और आपके जमाने मे से उभर नहि पाया? मुझे अफसोस होता है कि आप लोगो ने केवल २-३ अछछी गायिकाए दी!" और शुएब को देखिए, "अपने विचारों को शेर करने के लिए मेरा ब्लॉग काफी है और मेरी डाईरी यही ब्लॉग है। भारत मेरा पहला धर्म है जहां मैं पैदा होवा और उसी के बनाए कानून के मुताबिक कोर्ट में शादी करूंगा मगर एसी लड़की मिलेगी कहां?"
कहना न होगा कि व्याकरण संबंधी त्रुटियों के बावजूद ये दोनों ब्लॉगर सर्वाधिक पढ़े जाने वालों में से हैं। भाषा की बात चली है तो कुछ स्थानों पर असहज और चौंका देने वाली भाषा भी दिखती है। इस संदर्भ में कुछ शीर्षकों की मिसालें भी दी जा सकती हैं, "सब मोहल्ले का लौंडपना है", "क्या इस देश को चूतिया बनाया जा रहा है?" आदि आदि। भाषायी सुरुचि और शालीनता में विश्वास रखने वाले शुद्धतावादियों को शायद इन टिप्पणियों को पढ़कर भी निराशा होगी-
1. "आपके चिट्ठे की टिप्पणियों में बेनामों की विष्ठा के अलावा कोई भी नामधारी टिप्पणी क्यों नहीं है?",
2. "बेंगाणी एक गंदा नैपकिन है",
3. "ये लोग (एक ब्लॉगर) आतंकवादी से भी खतरनाक हैं। ये हमेशा आग लगाने की फिराक में रहते हैं।"
जयप्रकाश मानस कहते हैं, "सार्थक अर्थों में वैचारिक, अर्थशास्त्रीय, चिकित्सा, इतिहास, लोक अभिरुचि और साहित्यिक ब्लॉग नहीं के बराबर हैं। हिंदी ब्लॉगरों के उत्साह को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए ब्लॉगिंग के विषयों और उसके कोणों में विविधता और विश्वसनीयता आवश्यक है अन्यथा इनकी स्थिति भी वैसी ही हो जाएगी जैसे किसी दैनिक अखबार के संपादक को कई बार किसी कल्पित नाम से 'संपादक के नाम पत्र' छापना पड़ता है।'
लेखकों के साथ-साथ हिंदी ब्लॉगों के पाठक कैसे बढ़ें? रवि रतलामी के अनुसार, "फिलहाल हिंदी ब्लॉग जगत के अधिकतर पाठक वे ही हैं जो किसी न किसी रूप से स्वयं ब्लॉगिंग से जुड़े हुए हैं। उनमें से अधिकतर स्वयं सक्रिय रूप से ब्लॉग लिखते हैं।" अनूप शुक्ला भी यह बात स्वीकार करते हैं, "पाठक तब बढ़ेंगे जब हिंदी में तकनीक का प्रसार होगा। हमारे समाज में कंप्यूटर और नेट का पूरी तरह से उपयोग होना बाकी है। जैसे-जैसे मीडिया में ब्लॉगिंग का प्रचार होगा, वैसे-वैसे पाठक संख्या में भी वृद्धि होगी।" आलोक कुमार इस संदर्भ में बड़ी कंपनियों के पहल करने की जरूरत महसूस करते हैं, "बड़े पोर्टल और बड़ी कंपनियां हिंदी भाषियों की जरूरतों को पूरा करने में पीछे रह गई हैं। इस समय जो भी बड़ी कंपनियां व पोर्टल आगे आकर हिंदी के स्थल बनाएंगे उनके पीछे हिंदी भाषियों की बहुत बड़ी टोली हो लेगी।"
यानी हिंदी ब्लॉगिंग को भी बड़े संस्थानों के समर्थन की जरूरत है। शायद आलोक कुमार ठीक कहते हैं। ओपन सोर्स सॉफ्टवेयर और संस्थागत आधार पर तैयार किए गए सॉफ्टवेयरों की तुलनात्मक स्थिति को देखकर भी यह धारणा पुष्ट होती है कि आम लोगों द्वारा किए जाने वाले असंगठित तकनीकी प्रयासों को किसी न किसी दिशानिर्देशक या व्यवस्थागत समर्थन के बिना उतनी बड़ी सफलता नहीं मिल पाती जिसके वे वास्तव में हकदार होते हैं। (balendu.com से साभार)
Page Three Journalism / Anil Saumitra
पत्रकारिता के बारे में मीडिया घरानों, पत्र समूहों से लेकर चाय और पान के ठेलों तक पर चर्चाएं होती हैं। पाठक, दर्शक और श्रोता अब निष्क्रिय नहीं है, वह सक्रिय हो गया है। पत्रकारिता भी निरामय या निरापद नहीं रही। पत्रकारिता के विविध आयामों - रक्षा-युद्ध पत्रकारिता, खोजी पत्रकारिता, राजनैतिक पत्रकारिता, मनोरंजन-फिल्म पत्रकारिता, खेल पत्रकारिता आदि के साथ ही एक नया आयाम ‘पेज-थ्री’ पत्रकारिता का है। जैसे मीडिया और पत्रकारिता में कई बातें यूरोप और अमेरिका के देशों से आयात हुई हैं वैसे ही ‘पेज-3’ भी। जब से ‘पेज-3’ नाम से फिल्म बनी और चली तब से इसकी चर्चा और अधिक हो गई है। लेकिन आज भी ‘पेज-3 पत्रकारिता’ के बारे में आम तौर पर ज्यादा विचार नहीं किया जाता।
इस दिशा में विचार न होने का कारण शायद यह भी है कि भारत की पत्रकारिता का अधिकांश हिस्सा ‘पेज-3’ की ही शक्ल ले चुका है। दरअसल 70 के दशक में ब्रिटेन में सनसनीखे़ज पत्रकारिता के लिए छाटे आकार वाले समाचार पत्रों में पेज-3’ का चलन शुरु हुआ। वहां के ‘सन’ पत्रिका ने अपने खास पृष्ठ पर महिलाओं के नग्न और अद्र्धनग्न फोटो प्रकाशित करना शुरु किया। पत्रिका में यह सब कुछ तीसरे पृष्ठ पर ही छपता था। यह सब फैशन और परंपरा के नाम पर होता रहा। बाद में यह ‘पेज थ्री’ और ‘पेज थ्री संस्कृति’ के नाम से चर्चित हुआ। समाचार क्षेत्र में वह प्रत्येक घटना जो परंपरा, संस्कृति और मूल्यों को चुनौती देने वाला हो उसे पेज 3 पर जगह मिलने लगी। सामान्यतः पत्र-पत्रिकाओं का वह हिस्सा जहां फिल्मों, अभिजात्य समारोहों, जीवन शैली और महत्वपूर्ण हस्तियों के व्यक्तिगत जीवन और मनोरंजन आदि से संबंधित हल्के-फुल्के और अ-गंभीर समाचार छपते हों उसे ‘पेज-थ्री’ समाचार कहा जा सकता है। इंग्लैंड में ‘सन’ पत्रिका की देखा-देखी अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी इस तरह की प्रतिस्पद्र्धा बढ़ गई। इस अखबार ने 1999 में ‘पेज 3’ नाम से एक वेब साइट की श्ुरुआत भी की। आज यूरोप और अन्य देशों की पत्रकारिता भले ही परिपक्व हो गई हो, लेकिन भारतीय पत्रकारिता में ‘पेज-3 पत्रकारिता’ का चलन जोरों पर है, यह दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। भारत की पत्रकारिता में यह एक नई अवधारणा का उदय है जो पत्रकारिता में काफी तेजी से अपना दखल बढ़ाता जा रहा है।
करीब डेढ़ दशक पहले अंग्रेजी अखबार टाइम्स आॅफ इंडिया ने भारत में ‘पेज-थ्री’ पत्रकारिता शुरु की। इसका उद्देश्य भारत में तैयार हो रहे एक अलग प्रकार के पाठक वर्ग पर अपनी पकड़ बनाना था। टाइम्स समूह ने इस बहाने एक नए बाजार को गढ़ने और उसका लाभ उठाने की कोशिश भी की। अब तो शायद ही कोई पत्र-पत्रिका हो जो इस राह पर न चल रहा हो। हिन्दी और अन्य भाषायी पत्र-पत्रिकाओं ने इन मामले में अंग्रेजी अखबारों की नकल उतार ली। अब तो नवभारत टाइम्स ही नहीं, बल्कि अधिकांश हिन्दी के अखबार फिल्मी हस्तियों की निजी जिंदगी तक अपने पाठकों की पहुंच सुलभ करा रहे हैंं। ये जानते हुए कि न तो उनके पाठकों के लिए और न ही उस अखबार के लिए यह जरुरी है। कई गंभीर किस्म के पत्र समूह तो अपने पाठकों का आकर्षण बरकरार रखने के लिए ही इस तरह की जद्दोजहद में लगे हैं।
दुनिया में खुली अर्थव्यवस्था का दौर है। भारत में 1990 से शुरु हुआ आर्थिक उदारीकरण और बाजारवाद का दौर अपने शबाब पर है। पूंजी और सूचनाएं अबाध गति से भूमंडलीकृत हो रही है। भारतीय मीडिया और पत्रकारिता भी इस प्रक्रिया से बेअसर नहीं है। दुनियाभर में न सिंर्फ आर्थिक खुलेपन आया है, बल्कि सांस्कृतिक तौर पर भी अनेक परिवर्तन हो रहे हैं। न सिर्फ जीवन शैली बल्कि भाषा भी बदल रही है। वैश्विक स्तर पर सास्कृतिक समरुपीकरण (ीवउवहमदपेंजपवद) का दौर चल रहा है। वैश्वीकरण की यह तीव्र लालसा है कि दुनिया में न देशों की मुद्राएं एक हो जाएं बल्कि उनकी संस्कृति भी एक समान हो जाए। उदारवादी दुनिया की यह कल्पना है कि दुनिया सांस्कृतिक विविधताएं समाप्त होकर एक जैसी हो जायेंगी। पश्चिमी देशों का यह मिशन है कि विश्व की विभिन्न संस्कृतियां आदान-प्रदान करें और विश्व व्यवस्था की मातहत बन जाएं। अर्थात् विविध संस्कृतियां आदान-प्रदान करती हुई सशक्त न हों बल्कि एक ही हो जाएं।
पत्रकारिता में ‘पेज-थ्री’ की अवधारणा, वैश्वीकरण की सांस्कृतिक समरुपीकरण से मिलती-जुलती है। पेज-थी्र समाचार अंततः ‘पेज-थ्री संस्कृति’ को जन्म देते हैंं। गत दशकों में पत्रकारिता में अनेक परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तनों में सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं - संपादक संस्था का हृास या पतन, पत्रकारिता में पूंजी और तकनीक का बढ़ता दखल और पत्रकारिता का बाजारोन्मुख होना है। पेज थ्री पत्रकारिता बाज़ार की बाज़ारी पत्रकारिता है। यह पत्रकारिता देश-समाज की असल समस्याओं से मुँह मोड़ कर ग्लैमर और मनोरंजन के सहारे एक काल्पनिक दुनिया पैदा करती है। पेज-थ्री पत्रकारिता स्वप्न की पत्रकारिता है। यह समृद्धि की पत्रकारिता है, विकास की नहीं। यह खुशहाली की नहीं, अमीरों की पत्रकारिता है। एक मायने में यह पत्रकारिता की मूल अपेक्षाओं का हिंसक उल्लंघन करती है। मीडिया, प्राच्यवाद और वर्चुअल यथार्थ नामक पुस्तक में जगदीश्वर चतुर्वेदी और सुधा सिंह ने बौद्रिलार्द का हवाला देते हुए लिखा है - बौद्रिलार्द ने लिखा है हमारा मीडिया आज लुप्त सामाजिकता और उसके साझा अनुभवों को सुरक्षित बनाए हुए है। उसके अर्थों को सहेजे हुए है और उसका उपभोग बढ़ा रहा है। इसके जरिए वह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करता है। जनजाति समाजों, उत्सवों और हिंसा के विकल्प के तौर पर हमने स्थानीय फुटबॉल, राष्ट्रीय लॉटरी गेम शो, प्रातःकालीन टीवी और उसके बेहतरीन प्रस्तोता, फिल्म के प्रीमियर और तत्संबंधी घटना, समाचार कवरेज, कामुक प्रसाधन कार्यक्रमों सनसनीखेज, मसालेदार धारावाहिक और जनता के कष्ट, अपमान और रियलिटी टीवी के घृणा के पात्रों के रूप में पेश किया है। समस्त सामाजिक उर्जा को इस काम में ऐसे लगा दिया है कि वह यदि और मांग करे तो उसे तत्काल सप्लाई दे दी जाए। चर्चित व्यक्तित्वों की हगनी-मुतनी से लेकर समारोह तक की गतिविधियों का आनंद लेने के साथ राजा-महाराजाओं, अमीरों के शौक-मौज और खेल को रोज परोसा जा रहा है।
इस क्रम में समाज को पेशेवर और व्यक्तिवादी बनाया जा रहा है। ये सारी चीजें बगैर मांगे ही अपने आप आपको घर बैठे उपलब्ध हो रही है। इन्हें पाने के लिए किसी किस्म के सामाजिक संपर्क की जरूरत नहीं है। उपभोक्ता समाज उन वस्तुओं पर टिका नहीं है जो जरूरत की हैं, बिल्क उन वस्तुओं पर टिका है जो जरूरत की नहीं है। गैर-जरूरी को जरूरत का हिस्सा बनाना ही प्रधान लक्ष्य है। इस समूची प्रक्रिया में वास्तविक जरूरत और नकली जरूरत के बीच का अंतर खत्म हो जाता है। यह सारा काम किया जाता है मार्केटिंग और विज्ञापन के जरिए। बौद्रिलार्द के अनुसार, विज्ञापनों, फिल्मों एवं टीवी में अधिकांश प्रस्तुतियां प्रामाणिक नहीं होती। ज्यादातर फिल्मों में दैनंदिन रोमांस, कार, टेलीफोन, मनोविज्ञान, मेकअप आदि का ही रुपायन होता है। वे पूरी तरह जीवन शैली के विवरण है। विज्ञापनों में भी यही होता है।
दरअसल पत्रकारिता का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है उसका विषय-वस्तु। यही पत्रकारिता को सााख और धाक् दोनों देती है। इसी से पत्रकारिता को ताकत मिलती है। अखबारों की प्रतिबद्धता से ही पाठकों में उसके प्रति लगाव और विश्वसनीयता बढ़ती है। पत्रकारिता की यह विश्वसनीयता उसके विषय-वस्तु के कारण ही है। यही वजह है कि पाठक विज्ञापनों की बजाए खबरों और संपादकीय विषय-वस्तु पर अधिक भरोसा करते हैं। पत्रकारिता का यह धर्म है कि वह अपने लक्ष्य समूह तक सही सूचनाएं पहंचाए। बाज़ार की शक्तियों ने अखबार और उसके पाठकों के ‘प्रतिबद्धता-विश्वसनीयता’ तन्तु को भली-भाँति जान-समझ लिया। इसे उन्होंने अपने आर्थिक हित के लिए उपयोग किया। कंपनियों ने बाज़ार में अपने उत्पादों की मांग, अनावश्यक मांग पैदा करने के लिए अखबारों का सहारा लिया। कंपनियों की प्रेस विज्ञप्तियां खबरों की तरह छपने लगी। विज्ञापनों ने खबरों में घुसपैठ कर ली। अखबारों न भी लालचवश अपनी प्रतिबद्धता को दांव पर लगा दिया। उन्होंने पाठकों की विश्वसनीयता को ताक पर रख कंपनी मालिकों से समझौता कर लिया। खबरों की सौदेबाजी होने लगी। इसने समाचार और विज्ञापन के भेद को खत्म कर दिया। पत्रकारिता में आ रहा यह बदलाव समझ से परे जरूर था, लकिन यह हकीकत था। अनसुनी और अकल्पनीय बात आंखों के सामने हो रही थी। भारत में यह खतरनाक श्ुारुआत हुई। 15-25 वर्षों पहले अंग्रेजी पत्रकारिता में ‘पेज-थ्री’ के नाम से शुरु हुआ यह बदलाव हिन्दी पत्रकारिता में पेड-न्यूज और ‘सुपारी पत्रकारिता’ के स्वरुप में दिख रहा है।
स्वप्रचार की भूखी एक ऐसी पूरी जमात जो धन लुटाने का तैयार थी अखबारों को मिल गई। अखबारों में अभिजात्य अमीरों की पार्टियों की तस्वीरें छापीं जाने लगी। फिल्मी और कला-संस्कृति जगत की हस्तियों के निजी जीवन समाचार बनने लगे। तारिकाओं और मॉडल्स की नग्न-अद्र्धनग्न तस्वीरें किस्म-किस्म वस्त्र-अधोवस्त्रों में छपने लगी। अखबारों में यह सब भुगतान के आधार पर छापा जाने लगा। पत्रकारिता ने अपनी सााख को पेज-थ्री के हवाले कर दिया। विज्ञापन-खबर और संपादकीय दूरियां खत्म कर दी गई। पत्रकारिता में ‘एडवरटोरियल’ का जमाना आ गया। अब समाचार भी प्रायोजित होने लगे। पत्रकारिता ने एक नई विधा को अपना लिया। इसके तहत विज्ञापन को संपादकीय सामग्री या समाचार की तरह प्रस्तुत किया जाने लगा। एक प्रकार से अखबार और पाठकों के बीच के भरोसे को बाज़ार की ताकतों ने खरीद लिया। व्यवसाय और बाज़ार की दुनिया के ताकतवर लोगों ने पत्रकारिता के प्राण ‘खबर’ का हरण कर लिया। पत्रकारिता में एडवरटोरियल नाम के विषाणु ने जन्म लिया और देखते ही देखते अनियंत्रित हो गया। समाचारों से सौदेबाजी की शुरुआत व्यावसायिक घरानों और प्रचार की लिप्सा से ग्रस्त धनाढ्यों ने की। बाद में राजनीति ने भी इसका भरपूर इस्तेमाल किया। लोकसभा और विधानसभा चुनावों से लेकर स्थानीय निकाय के चुनावों में भी बड़े पैमाने पर खबरों की सौदेबाजी की गई। चुनावों के दरम्यान राजनीति के लोगों ने प्रेस रिलीज, इंटरव्यू और अपने पक्ष में खबर छपवाने के लिए खूब सौदेबाजी की। आज पेज-3, पेडन्यूज और सुपारी पत्रकारिता का दाग पत्रकारिता के दामन पर लग चुका है।
पेज-3 पत्रकारिता के नाम पर अभिजात्य जीवन शैली, आधुनिक प्रचलन, सिनेमा, अभिजन विचारों और ऐसे ही कई विषयों को प्रकाशित किया जा रहा है। लेकिन आज यह पत्रकारिता बहुत दूर जा चुकी है। ऐसे अनेक असामाजिक, अनैतिक और नाजायज घटनाओं को कवर किया जा रहा है जो भावी पीढ़ी के लिए खतरनाक है। यह आने वाली पीढ़ी को रुग्ण बना सकता है। इलेक्टाªॅनिक और प्रिंट दोनों पत्रकारिता में विभत्स, हिंसक, उत्तेजक और अश्लील पार्टियों की बाढ़ आ गई है। टीवी के विभिन्न चैनलों में बिग बॉस, सच का सामना, बिकनी क्वीन प्रतियोगिता, फैशन-शो और विश्व सुंदरी चयन प्रतियोगिता को दिखाया जाना और उसके समाचार बार-बार प्रकाशित-प्रसारित करना यह पेज-थ्री का हिस्सा बन गया है। टीवी, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में शहरी और मेट्रो शहरों का तड़क-भड़क दिखाया जाता है। पेज थ्री पत्रकारिता की पहचान इन्हीं समाचारों से बनी है। इसका नकारात्मक प्रभाव ग्रामीण और अद्र्ध शहरी समाजों पर पड़ता है।
जिस पेज-थ्री पत्रकारिता की शुरुआत पाठकों को लुभाने, आकर्षित करने और अपने अखबार से प्रतिबद्ध रखने के लिए किया गया था, आज वही अपने विभत्स रूप में न सिंर्फ अपने पाठकों का, बल्कि समूचे समाज का अहित कर रहा है। बहुत लंबा समय नहीं हुआ जब भारतीय पत्रकारिता में मिशन और प्रोफेशन की चर्चा सरेआम हुआ करती थी। तब चर्चा यह होती थी कि खबरों को विचारों से अलग रखा जाए, लेकिन आज चर्चा इस बात पर होने लगी है कि खबरों को विज्ञापन से अलग कैसे रखा जाए। रिपोर्टर और विज्ञापन एजेंट के बीच दूरी कैसे बरकरार रखी जाए। पेज थ्री ने पहले पत्रकारिता को पटरी से उतारा अब वह भारतीय समाज को सांस्कृतिक मूल्यों की पटरी से उतारने में लगी है। यह समाज और पत्रकारिता दोनों के लिए घातक है।
इस दिशा में विचार न होने का कारण शायद यह भी है कि भारत की पत्रकारिता का अधिकांश हिस्सा ‘पेज-3’ की ही शक्ल ले चुका है। दरअसल 70 के दशक में ब्रिटेन में सनसनीखे़ज पत्रकारिता के लिए छाटे आकार वाले समाचार पत्रों में पेज-3’ का चलन शुरु हुआ। वहां के ‘सन’ पत्रिका ने अपने खास पृष्ठ पर महिलाओं के नग्न और अद्र्धनग्न फोटो प्रकाशित करना शुरु किया। पत्रिका में यह सब कुछ तीसरे पृष्ठ पर ही छपता था। यह सब फैशन और परंपरा के नाम पर होता रहा। बाद में यह ‘पेज थ्री’ और ‘पेज थ्री संस्कृति’ के नाम से चर्चित हुआ। समाचार क्षेत्र में वह प्रत्येक घटना जो परंपरा, संस्कृति और मूल्यों को चुनौती देने वाला हो उसे पेज 3 पर जगह मिलने लगी। सामान्यतः पत्र-पत्रिकाओं का वह हिस्सा जहां फिल्मों, अभिजात्य समारोहों, जीवन शैली और महत्वपूर्ण हस्तियों के व्यक्तिगत जीवन और मनोरंजन आदि से संबंधित हल्के-फुल्के और अ-गंभीर समाचार छपते हों उसे ‘पेज-थ्री’ समाचार कहा जा सकता है। इंग्लैंड में ‘सन’ पत्रिका की देखा-देखी अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी इस तरह की प्रतिस्पद्र्धा बढ़ गई। इस अखबार ने 1999 में ‘पेज 3’ नाम से एक वेब साइट की श्ुरुआत भी की। आज यूरोप और अन्य देशों की पत्रकारिता भले ही परिपक्व हो गई हो, लेकिन भारतीय पत्रकारिता में ‘पेज-3 पत्रकारिता’ का चलन जोरों पर है, यह दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। भारत की पत्रकारिता में यह एक नई अवधारणा का उदय है जो पत्रकारिता में काफी तेजी से अपना दखल बढ़ाता जा रहा है।
करीब डेढ़ दशक पहले अंग्रेजी अखबार टाइम्स आॅफ इंडिया ने भारत में ‘पेज-थ्री’ पत्रकारिता शुरु की। इसका उद्देश्य भारत में तैयार हो रहे एक अलग प्रकार के पाठक वर्ग पर अपनी पकड़ बनाना था। टाइम्स समूह ने इस बहाने एक नए बाजार को गढ़ने और उसका लाभ उठाने की कोशिश भी की। अब तो शायद ही कोई पत्र-पत्रिका हो जो इस राह पर न चल रहा हो। हिन्दी और अन्य भाषायी पत्र-पत्रिकाओं ने इन मामले में अंग्रेजी अखबारों की नकल उतार ली। अब तो नवभारत टाइम्स ही नहीं, बल्कि अधिकांश हिन्दी के अखबार फिल्मी हस्तियों की निजी जिंदगी तक अपने पाठकों की पहुंच सुलभ करा रहे हैंं। ये जानते हुए कि न तो उनके पाठकों के लिए और न ही उस अखबार के लिए यह जरुरी है। कई गंभीर किस्म के पत्र समूह तो अपने पाठकों का आकर्षण बरकरार रखने के लिए ही इस तरह की जद्दोजहद में लगे हैं।
दुनिया में खुली अर्थव्यवस्था का दौर है। भारत में 1990 से शुरु हुआ आर्थिक उदारीकरण और बाजारवाद का दौर अपने शबाब पर है। पूंजी और सूचनाएं अबाध गति से भूमंडलीकृत हो रही है। भारतीय मीडिया और पत्रकारिता भी इस प्रक्रिया से बेअसर नहीं है। दुनियाभर में न सिंर्फ आर्थिक खुलेपन आया है, बल्कि सांस्कृतिक तौर पर भी अनेक परिवर्तन हो रहे हैं। न सिर्फ जीवन शैली बल्कि भाषा भी बदल रही है। वैश्विक स्तर पर सास्कृतिक समरुपीकरण (ीवउवहमदपेंजपवद) का दौर चल रहा है। वैश्वीकरण की यह तीव्र लालसा है कि दुनिया में न देशों की मुद्राएं एक हो जाएं बल्कि उनकी संस्कृति भी एक समान हो जाए। उदारवादी दुनिया की यह कल्पना है कि दुनिया सांस्कृतिक विविधताएं समाप्त होकर एक जैसी हो जायेंगी। पश्चिमी देशों का यह मिशन है कि विश्व की विभिन्न संस्कृतियां आदान-प्रदान करें और विश्व व्यवस्था की मातहत बन जाएं। अर्थात् विविध संस्कृतियां आदान-प्रदान करती हुई सशक्त न हों बल्कि एक ही हो जाएं।
पत्रकारिता में ‘पेज-थ्री’ की अवधारणा, वैश्वीकरण की सांस्कृतिक समरुपीकरण से मिलती-जुलती है। पेज-थी्र समाचार अंततः ‘पेज-थ्री संस्कृति’ को जन्म देते हैंं। गत दशकों में पत्रकारिता में अनेक परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तनों में सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं - संपादक संस्था का हृास या पतन, पत्रकारिता में पूंजी और तकनीक का बढ़ता दखल और पत्रकारिता का बाजारोन्मुख होना है। पेज थ्री पत्रकारिता बाज़ार की बाज़ारी पत्रकारिता है। यह पत्रकारिता देश-समाज की असल समस्याओं से मुँह मोड़ कर ग्लैमर और मनोरंजन के सहारे एक काल्पनिक दुनिया पैदा करती है। पेज-थ्री पत्रकारिता स्वप्न की पत्रकारिता है। यह समृद्धि की पत्रकारिता है, विकास की नहीं। यह खुशहाली की नहीं, अमीरों की पत्रकारिता है। एक मायने में यह पत्रकारिता की मूल अपेक्षाओं का हिंसक उल्लंघन करती है। मीडिया, प्राच्यवाद और वर्चुअल यथार्थ नामक पुस्तक में जगदीश्वर चतुर्वेदी और सुधा सिंह ने बौद्रिलार्द का हवाला देते हुए लिखा है - बौद्रिलार्द ने लिखा है हमारा मीडिया आज लुप्त सामाजिकता और उसके साझा अनुभवों को सुरक्षित बनाए हुए है। उसके अर्थों को सहेजे हुए है और उसका उपभोग बढ़ा रहा है। इसके जरिए वह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करता है। जनजाति समाजों, उत्सवों और हिंसा के विकल्प के तौर पर हमने स्थानीय फुटबॉल, राष्ट्रीय लॉटरी गेम शो, प्रातःकालीन टीवी और उसके बेहतरीन प्रस्तोता, फिल्म के प्रीमियर और तत्संबंधी घटना, समाचार कवरेज, कामुक प्रसाधन कार्यक्रमों सनसनीखेज, मसालेदार धारावाहिक और जनता के कष्ट, अपमान और रियलिटी टीवी के घृणा के पात्रों के रूप में पेश किया है। समस्त सामाजिक उर्जा को इस काम में ऐसे लगा दिया है कि वह यदि और मांग करे तो उसे तत्काल सप्लाई दे दी जाए। चर्चित व्यक्तित्वों की हगनी-मुतनी से लेकर समारोह तक की गतिविधियों का आनंद लेने के साथ राजा-महाराजाओं, अमीरों के शौक-मौज और खेल को रोज परोसा जा रहा है।
इस क्रम में समाज को पेशेवर और व्यक्तिवादी बनाया जा रहा है। ये सारी चीजें बगैर मांगे ही अपने आप आपको घर बैठे उपलब्ध हो रही है। इन्हें पाने के लिए किसी किस्म के सामाजिक संपर्क की जरूरत नहीं है। उपभोक्ता समाज उन वस्तुओं पर टिका नहीं है जो जरूरत की हैं, बिल्क उन वस्तुओं पर टिका है जो जरूरत की नहीं है। गैर-जरूरी को जरूरत का हिस्सा बनाना ही प्रधान लक्ष्य है। इस समूची प्रक्रिया में वास्तविक जरूरत और नकली जरूरत के बीच का अंतर खत्म हो जाता है। यह सारा काम किया जाता है मार्केटिंग और विज्ञापन के जरिए। बौद्रिलार्द के अनुसार, विज्ञापनों, फिल्मों एवं टीवी में अधिकांश प्रस्तुतियां प्रामाणिक नहीं होती। ज्यादातर फिल्मों में दैनंदिन रोमांस, कार, टेलीफोन, मनोविज्ञान, मेकअप आदि का ही रुपायन होता है। वे पूरी तरह जीवन शैली के विवरण है। विज्ञापनों में भी यही होता है।
दरअसल पत्रकारिता का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है उसका विषय-वस्तु। यही पत्रकारिता को सााख और धाक् दोनों देती है। इसी से पत्रकारिता को ताकत मिलती है। अखबारों की प्रतिबद्धता से ही पाठकों में उसके प्रति लगाव और विश्वसनीयता बढ़ती है। पत्रकारिता की यह विश्वसनीयता उसके विषय-वस्तु के कारण ही है। यही वजह है कि पाठक विज्ञापनों की बजाए खबरों और संपादकीय विषय-वस्तु पर अधिक भरोसा करते हैं। पत्रकारिता का यह धर्म है कि वह अपने लक्ष्य समूह तक सही सूचनाएं पहंचाए। बाज़ार की शक्तियों ने अखबार और उसके पाठकों के ‘प्रतिबद्धता-विश्वसनीयता’ तन्तु को भली-भाँति जान-समझ लिया। इसे उन्होंने अपने आर्थिक हित के लिए उपयोग किया। कंपनियों ने बाज़ार में अपने उत्पादों की मांग, अनावश्यक मांग पैदा करने के लिए अखबारों का सहारा लिया। कंपनियों की प्रेस विज्ञप्तियां खबरों की तरह छपने लगी। विज्ञापनों ने खबरों में घुसपैठ कर ली। अखबारों न भी लालचवश अपनी प्रतिबद्धता को दांव पर लगा दिया। उन्होंने पाठकों की विश्वसनीयता को ताक पर रख कंपनी मालिकों से समझौता कर लिया। खबरों की सौदेबाजी होने लगी। इसने समाचार और विज्ञापन के भेद को खत्म कर दिया। पत्रकारिता में आ रहा यह बदलाव समझ से परे जरूर था, लकिन यह हकीकत था। अनसुनी और अकल्पनीय बात आंखों के सामने हो रही थी। भारत में यह खतरनाक श्ुारुआत हुई। 15-25 वर्षों पहले अंग्रेजी पत्रकारिता में ‘पेज-थ्री’ के नाम से शुरु हुआ यह बदलाव हिन्दी पत्रकारिता में पेड-न्यूज और ‘सुपारी पत्रकारिता’ के स्वरुप में दिख रहा है।
स्वप्रचार की भूखी एक ऐसी पूरी जमात जो धन लुटाने का तैयार थी अखबारों को मिल गई। अखबारों में अभिजात्य अमीरों की पार्टियों की तस्वीरें छापीं जाने लगी। फिल्मी और कला-संस्कृति जगत की हस्तियों के निजी जीवन समाचार बनने लगे। तारिकाओं और मॉडल्स की नग्न-अद्र्धनग्न तस्वीरें किस्म-किस्म वस्त्र-अधोवस्त्रों में छपने लगी। अखबारों में यह सब भुगतान के आधार पर छापा जाने लगा। पत्रकारिता ने अपनी सााख को पेज-थ्री के हवाले कर दिया। विज्ञापन-खबर और संपादकीय दूरियां खत्म कर दी गई। पत्रकारिता में ‘एडवरटोरियल’ का जमाना आ गया। अब समाचार भी प्रायोजित होने लगे। पत्रकारिता ने एक नई विधा को अपना लिया। इसके तहत विज्ञापन को संपादकीय सामग्री या समाचार की तरह प्रस्तुत किया जाने लगा। एक प्रकार से अखबार और पाठकों के बीच के भरोसे को बाज़ार की ताकतों ने खरीद लिया। व्यवसाय और बाज़ार की दुनिया के ताकतवर लोगों ने पत्रकारिता के प्राण ‘खबर’ का हरण कर लिया। पत्रकारिता में एडवरटोरियल नाम के विषाणु ने जन्म लिया और देखते ही देखते अनियंत्रित हो गया। समाचारों से सौदेबाजी की शुरुआत व्यावसायिक घरानों और प्रचार की लिप्सा से ग्रस्त धनाढ्यों ने की। बाद में राजनीति ने भी इसका भरपूर इस्तेमाल किया। लोकसभा और विधानसभा चुनावों से लेकर स्थानीय निकाय के चुनावों में भी बड़े पैमाने पर खबरों की सौदेबाजी की गई। चुनावों के दरम्यान राजनीति के लोगों ने प्रेस रिलीज, इंटरव्यू और अपने पक्ष में खबर छपवाने के लिए खूब सौदेबाजी की। आज पेज-3, पेडन्यूज और सुपारी पत्रकारिता का दाग पत्रकारिता के दामन पर लग चुका है।
पेज-3 पत्रकारिता के नाम पर अभिजात्य जीवन शैली, आधुनिक प्रचलन, सिनेमा, अभिजन विचारों और ऐसे ही कई विषयों को प्रकाशित किया जा रहा है। लेकिन आज यह पत्रकारिता बहुत दूर जा चुकी है। ऐसे अनेक असामाजिक, अनैतिक और नाजायज घटनाओं को कवर किया जा रहा है जो भावी पीढ़ी के लिए खतरनाक है। यह आने वाली पीढ़ी को रुग्ण बना सकता है। इलेक्टाªॅनिक और प्रिंट दोनों पत्रकारिता में विभत्स, हिंसक, उत्तेजक और अश्लील पार्टियों की बाढ़ आ गई है। टीवी के विभिन्न चैनलों में बिग बॉस, सच का सामना, बिकनी क्वीन प्रतियोगिता, फैशन-शो और विश्व सुंदरी चयन प्रतियोगिता को दिखाया जाना और उसके समाचार बार-बार प्रकाशित-प्रसारित करना यह पेज-थ्री का हिस्सा बन गया है। टीवी, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में शहरी और मेट्रो शहरों का तड़क-भड़क दिखाया जाता है। पेज थ्री पत्रकारिता की पहचान इन्हीं समाचारों से बनी है। इसका नकारात्मक प्रभाव ग्रामीण और अद्र्ध शहरी समाजों पर पड़ता है।
जिस पेज-थ्री पत्रकारिता की शुरुआत पाठकों को लुभाने, आकर्षित करने और अपने अखबार से प्रतिबद्ध रखने के लिए किया गया था, आज वही अपने विभत्स रूप में न सिंर्फ अपने पाठकों का, बल्कि समूचे समाज का अहित कर रहा है। बहुत लंबा समय नहीं हुआ जब भारतीय पत्रकारिता में मिशन और प्रोफेशन की चर्चा सरेआम हुआ करती थी। तब चर्चा यह होती थी कि खबरों को विचारों से अलग रखा जाए, लेकिन आज चर्चा इस बात पर होने लगी है कि खबरों को विज्ञापन से अलग कैसे रखा जाए। रिपोर्टर और विज्ञापन एजेंट के बीच दूरी कैसे बरकरार रखी जाए। पेज थ्री ने पहले पत्रकारिता को पटरी से उतारा अब वह भारतीय समाज को सांस्कृतिक मूल्यों की पटरी से उतारने में लगी है। यह समाज और पत्रकारिता दोनों के लिए घातक है।
प्रश्न 30 / एक किताब / 100 जवाब
1. मीडिया पूंजी बटोरने का धंधा है या समाज को दिशा देने का मिशन?
2. क्या भारत के गरीबों और वंचितों को मीडिया ने हाशिये पर फेक दिया है?
3. क्या हिंदी मीडिया के लिए साहित्य गैरजरूरी हो गया है?
4. क्या ज्यादातर मीडिया घरानों को अब पत्रकार नहीं, एचआर हेड चला रहे हैं?
5. हिंदी मीडिया क्या गांव-देहात के पत्रकारों का सबसे ज्यादा शोषण कर रहा है?
6. क्या मीडिया में महिलाओं, दलितों और मुसलमानों की संख्या नगण्य है?
7. क्या ज्यादातर मीडिया हाउसों में एक भी मान्यता-प्राप्त महिला पत्रकार नहीं हैं?
8. क्या हिंदी मीडिया के लिए पाठक केवल ग्राहक भर रह गया है?
9. क्या ज्यादातर हिंदी अखबार पत्रकारिता के मूल्यों को रौंद रहे हैं?
10. क्या फूहड़ता परोस कर मीडिया आधी आबादी की अस्मिता से खेल रहा है?
11. क्या पत्रकारिता सामाजिक परिवर्तन का सबसे कारगर माध्यम है?
12. क्या आज पत्रकारिता अपने मार्ग से भटक गयी है?
13. क्या पत्रकारिता की शक्तियों का मीडिया हाउस दुरूपयोग कर रहे हैं?
14. क्या मीडिया भारतीय समाज के तीन स्तंभों पर हावी होना चाहता है?
15. क्या मीडिया हाउस भी बेरोजगारी और अशिक्षा का लाभ उठा रहे हैं?
16. क्या भ्रष्टाचार के ज्यादातर मामलों पर मीडिया हाउस चुप्पी साध लेते हैं?
17. क्या मीडिया किसानों और मजदूरों पर अत्याचार की खबरों को छिपाता है?
18. क्या मीडिया गांवों की समस्याओं को नकार दिया है?
19. क्या मीडिया ने आजादी के आंदोलन में पत्रकारिता की भूमिका को भुला दिया है?
20. क्या हिंदी मीडिया में अब लेखकों, साहित्यकारों की संख्या नगण्य हो गयी है?
21. क्या सभी बड़े अखबार अपने को सबसे ज्यादा लोकप्रिय बताकर झूठ बोलते हैं?
22. क्या ज्यादातर मीडिया हाउस संचालक पूंजीपति हैं?
23. जनता को जगाने के लिए मीडिया को क्या करना चाहिए?
24. क्या हिंदी अखबारों में पत्रकारों से बारह से सोलह घंटे तक काम लिया जाता है?
25. क्या मीडिया हाउस श्रम कानूनों का उल्लंघन कर रहे हैं?
26. क्या पत्रकार समाज का प्रहरी नहीं, केवल वेतनभोगी होता है?
27. क्या ज्यादातर पत्रकार ईमानदार और अपने पेशे से संतुष्ट नहीं हैं?
28. क्या अब स्वतंत्र पत्रकारिता के दिन लद चुके हैं?
29. क्या यह पत्रकारिता का प्रश्नकाल है?
30. क्या ये प्रश्न जरूरी हैं? इनके समाधान की दिशा में अब क्या होना चाहिए?
(जन मीडिया मंच की ओर से जारी)
2. क्या भारत के गरीबों और वंचितों को मीडिया ने हाशिये पर फेक दिया है?
3. क्या हिंदी मीडिया के लिए साहित्य गैरजरूरी हो गया है?
4. क्या ज्यादातर मीडिया घरानों को अब पत्रकार नहीं, एचआर हेड चला रहे हैं?
5. हिंदी मीडिया क्या गांव-देहात के पत्रकारों का सबसे ज्यादा शोषण कर रहा है?
6. क्या मीडिया में महिलाओं, दलितों और मुसलमानों की संख्या नगण्य है?
7. क्या ज्यादातर मीडिया हाउसों में एक भी मान्यता-प्राप्त महिला पत्रकार नहीं हैं?
8. क्या हिंदी मीडिया के लिए पाठक केवल ग्राहक भर रह गया है?
9. क्या ज्यादातर हिंदी अखबार पत्रकारिता के मूल्यों को रौंद रहे हैं?
10. क्या फूहड़ता परोस कर मीडिया आधी आबादी की अस्मिता से खेल रहा है?
11. क्या पत्रकारिता सामाजिक परिवर्तन का सबसे कारगर माध्यम है?
12. क्या आज पत्रकारिता अपने मार्ग से भटक गयी है?
13. क्या पत्रकारिता की शक्तियों का मीडिया हाउस दुरूपयोग कर रहे हैं?
14. क्या मीडिया भारतीय समाज के तीन स्तंभों पर हावी होना चाहता है?
15. क्या मीडिया हाउस भी बेरोजगारी और अशिक्षा का लाभ उठा रहे हैं?
16. क्या भ्रष्टाचार के ज्यादातर मामलों पर मीडिया हाउस चुप्पी साध लेते हैं?
17. क्या मीडिया किसानों और मजदूरों पर अत्याचार की खबरों को छिपाता है?
18. क्या मीडिया गांवों की समस्याओं को नकार दिया है?
19. क्या मीडिया ने आजादी के आंदोलन में पत्रकारिता की भूमिका को भुला दिया है?
20. क्या हिंदी मीडिया में अब लेखकों, साहित्यकारों की संख्या नगण्य हो गयी है?
21. क्या सभी बड़े अखबार अपने को सबसे ज्यादा लोकप्रिय बताकर झूठ बोलते हैं?
22. क्या ज्यादातर मीडिया हाउस संचालक पूंजीपति हैं?
23. जनता को जगाने के लिए मीडिया को क्या करना चाहिए?
24. क्या हिंदी अखबारों में पत्रकारों से बारह से सोलह घंटे तक काम लिया जाता है?
25. क्या मीडिया हाउस श्रम कानूनों का उल्लंघन कर रहे हैं?
26. क्या पत्रकार समाज का प्रहरी नहीं, केवल वेतनभोगी होता है?
27. क्या ज्यादातर पत्रकार ईमानदार और अपने पेशे से संतुष्ट नहीं हैं?
28. क्या अब स्वतंत्र पत्रकारिता के दिन लद चुके हैं?
29. क्या यह पत्रकारिता का प्रश्नकाल है?
30. क्या ये प्रश्न जरूरी हैं? इनके समाधान की दिशा में अब क्या होना चाहिए?
(जन मीडिया मंच की ओर से जारी)
जयंती रंगनाथन की कहानी गीली छतरी
कल की तरह आज भी वो रेस्तरां के कोने वाली सीट पर बैठा था। सुनहरे लंबे बाल। लगता है आज उसने शैंपू कर रखा था। सुबह की रोशनी में उसके बाल चमक रहे थे। नीले रंग की ढीली सी चैक वाली कमीज और कंधे पर टिका जयपुरी झोला।
उसके सामने वही कल वाली बच्ची बैठी थी। दोनों हाथों से बड़ा सा सैंडविच खाने की कोशिश करती हुई।
कल रिंकी ने ही मुझे टो
क कर कहा था,‘ममा, वहां देखो...’
हम दोनों को वह फिरंगी मजेदार लगा। सामने बैठी बच्ची देसी थी। काले-भूरे बेतरतीब खुले बाल। सुबह के समय भी आंखों में धूप का चश्मा लगाए। लाल रंग की छींट वाली सलवार-कमीज में वह अपनी उम्र से बड़ी लग रही थी। वह कचर-कचर कचौड़ी खा रही थी और फिरंग सलीके से चीज ऑमलेट खा रहा था।
रिंकी के साथ अकेली इस तरह घूमने पहली बार घर से निकली थी। इससे पहले जब भी बाहर गए, अशोक हमारे साथ रहे। अशोक को हमेशा जल्दी मची रहती थी। वह दस मिनट चैन से नाश्ता करने नहीं देता, हमारे पीछे पड़ जाता कि तुम दोनों मां-बेटी घूमने आई हो या आराम से बैठ कर खाने-पीने? यहां से निकलोगी तो कहीं लंच करने बैठ जाओगी। घूमोगी कब?
लेकिन हम दोनों तो ऐसे ही थे। आराम से एक जगह रुक कर, सुकून से उस क्षण को जीने में मजा आता था। हम दोनों बटर टोस्ट के साथ चाय पर चाय पीते रहे और फिरंगी और उस बच्ची को कौतुहल से देखते रहे। रिंकी ने कहा, ‘वो एक लेखक होगा और कहानी लिखने के लिए यहां आया होगा। वो ही लोग तो होते हैं ना थोड़े से झक्की। वरना वह उस बच्ची को यहां क्यों ले कर आता नाश्ता खिलाने?’
रिंकी की बात में दम था। सोलह साल की मेरी बेटी समय से पहले परिपक्व हो चली थी।
बच्ची ने टोस्ट खाए, बड़े वाले गिलास में मिल्क शेक पिया। इस बीच मैंने और रिंकी ने कटलेट्स मंगवा लिए। रिंकी का भी मन मिल्क शेक पीने को हो आया।
इस बीच फिरंगी उठ गया। बच्ची शायद अभी भी कुछ खाना चाहती थी। रिंकी ने फिर से मुझे टहोका, ‘देखो मम्मा, बिल कौन दे रहा है?’
काउंटर पर वह बारह-तेरह साल की लडक़ी अपने पर्स से पैसे निकाल रही थी। पांच सौ के कई सारे नोट थे उसके पास।
वे दोनों चले गए। हम दोनों कहानियां बुनने लगे कि कौन होगी यह बच्ची?
इसके बाद हम दोनों होटल के अपने कमरे में आ गए। रिंकी का मन कहीं जाने का नहीं था। लंच भी हमने अपने कमरे में किया। शाम को घूमने निकले। हलकी बूंदा-बांदी हो रही थी। पहाड़ी सडक़ों की ढलानों पर घूमने में रिंकी को मजा आ रहा था। और उसके खुश होते देखने में मुझे।
पिछले साल इन दिनों। लगा नहीं था कि रिंकी फिर कभी सामान्य हो पाएगी। पंद्रह साल की नहीं हुई थी। अशोक के परिवार में शादी थी। बुआ की बेटी आशी की। रिंकी उत्साहित थी। वह आशी के आगे-पीछे लगी रहती। शादी के एक सप्ताह पहले वह आशी के साथ रहने चली गई। इससे पहले भी उसने एक-दो दिन वहां बिताए थे।
पर उस सुबह जब वह घर आई, तो कुछ भी सही नहीं था। रात आशी अपनी सहेलियों के साथ कैट पार्टी में मस्त थी और रिंकी बारह बजे के बाद सोने चली गई। उसी कमरे में आशी के पिताजी आए। उनसे हमेशा से डर लगता था। उनकी लाल आंखें और घनी मूंछें भयानक लगती थी। मुझे भी। मेरी बेटी चिल्ला नहीं पाई। डर गई जब उनकी मूंछों से निकलते लपलपाते होंठों ने उसे छुआ। उस दानव के शरीर के नीचे दबी मेरी गुडिय़ा ने अपने पूरे शरीर पर उन घिनौनी उंगलियों को बर्दाश्त किया।
सुबह-सुबह बिना किसी को बताए रिक्शा ले कर घर चली आई थी रिंकी। आंखों में आंसू। सहमा सा चेहरा। उसे देख कर मैं चौंकी, फिर हिल गई। अशोक भी घर पर थे। अशोक का रवैया अलग था--वे इस बात से चौकन्ने और कहीं से संतुष्ट लगे कि उनकी बेटी के साथ बलात्कार नहीं हुआ। जो हुआ, उसके बाद अशोक का यह रवैया मुझे ज्यादा रुला गया।
रिंकी जैसे मुझे सबकुछ बता कर उस घटना से अलग हो गई। बस उस दिन से उसका अशोक के साथ रिश्ता बदल गया। मैंने घर में शोर मचाया, परिवार वालों को बुलाया, पुलिस में शिकायत की। आश्चर्य था कि इन सबमें अशोक कहीं पीछे छूटते चले गए। वे बेशक आशी की शादी में नहीं गए, पर परिवार के दूसरे सदस्यों की तरह दबी जुबान में यह तो कह ही दिया कि हम मां-बेटी छोटी सी बात को बेवजह बड़ा कर रहे हैं।
रिंकी धीरे-धीरे सामान्य हो गई। मेरे अशोक से अलग होने के बाद ज्यादा। इस ट्रिप की योजना भी उसने ही बनाई थी। वह ट्रेन में सफर करना चाहती थी। मेरे साथ बहुत कुछ बांटना चाहती थी। कल रात जब हम बारिश में भीग कर कमरे में लौटे, तो उसने केतली में पानी गर्म कर मुझे चाय बना कर पिलाया। खाना खाने हम रेस्तरां गए। मैंने वाइन पी। उसके इसरार करने पर एक घूंट उसे भी पीने को दी। उसने एकदम से मुंह बनाया, ‘यक मॉम। इसमें एेसा क्या है? आप इतना शौक से कैसे पीते हो?’ हमने पास्ता खाया, काफी पी। फिर थोड़ा टहलने के बाद लौटे। वह चुप थी, लेकिन खुश लग रही थी। कमरे में आ कर उसने कपड़े बदले। शॉर्ट्स और टी शर्ट पहन कर मुझसे चिपट कर लेट गई, ‘मम्मा, जिंदगी एेसी ही रहे तो अच्छा हो ना। हमारे आसपास कोई गलत आदमी ना हो।’
उसके सोने तक मैं जागती रही। समझ नहीं आया कि अपनी बेटी को गलत आदमियों से कैसे बचा कर रखूं? उसे अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए भी एेसी ही दुनिया चाहिए थी।
‘मैं आज पता करके ही रहूंगी, कौन है ये लडक़ी? देखो ममा। वो तो फिरंगी के गिलास से काफी पी रही है। कहीं ये फिरंगी उसका डैड तो नहीं?’ कहने के बाद रिंकी खुद हंसने लगी, ‘यह उसका पापा हो ही नहीं सकता। कितनी अजीब लग रही है ना वो लडक़ी? टाइट्स पहन रखा है और माथे पर इतनी बड़ी बिंदी।’
मैंने इशारे से वेटर को बुलाया, आर्डर देने। रिंकी चुप नहीं रह सकी, ‘भैया, ये फॉरिनेर जो आगे बैठे हैं, कौन हैं?’
वेटर ने सिर हिलाया, ‘पता नहीं, एेसे तो भतेरे आते हैं यहां।’
रिंकी चुप हो गई। पर उसका पूरा ध्यान उस बच्ची पर था। सैंडविच खा चुकी थी। शायद वह कुछ और खाना चाहती थी। फिरंगी उठ गया। काउंटर पर पैसे दे कर वह तेजी से आगे जाने लगा। लडक़ी ने रेस्तरां के दरवाजे पर पहुंच कर उसे रोकना चाहा। आदमी ने उसे धक्का दिया और बाहर निकल गया। दरवाजे का हत्था लडक़ी के सिर पर लग गया, वह जमीन पर बैठ गई और जोर-जोर से रोने लगी।
रिंकी फौरन अपनी जगह से उठी और दौड़ती हुई उस लडक़ी के पास पहुंच गई। लडक़ी के माथे पर चोट लग गई थी। रिंकी ने वेटर से टिश्यू मंगवाया। देखते ही देखते वहां छोटी-मोटी भीड़ इकट्टा हो गई। मैं दूर से देख रही थी कि किस तरह रिंकी लडक़ी की मदद कर रही है। आंसू पोंछ रही है, गुस्से में कह रही है कि उस आदमी को कोई हक नहीं पहुंचता कि एक बच्ची के साथ एेसा व्यवहार करे।
रिंकी ने लडक़ी को उठाया और धीरे से उसे मेरे पास ले आई। उसे अपनी बगल की कुर्सी पर बिठा कर उसने प्यार से पूछा, ‘कुछ और खाओगी तुम? बताओ? कटलेट? फिंगर चिप्स? बर्गर?’
लडक़ी की आंखें चमक उठीं। रिंकी ने फौरन उसके लिए बर्गर मंगवाया।
पास से लडक़ी और भी छोटी लग रही थी। गोल चेहरे पर बड़ी सी नथनी अजीब लग रही थी। रिंकी ने उसका नाम पूछा। बड़ी मुश्किल से उसने बताया--मल्लिका।
बर्गर आया। मल्लिका ने दोनों हाथ में भींच कर खाने की कोशिश की। दो कौर खाया, फिर मुंह बना कर बोली, ‘जूस पिला दो।’
रिंकी ने कहा, ‘पहले बर्गर तो खत्म करो।’
मल्लिका अचानक ऊंची आवाज में रोने लगी, ‘मुझे नहीं खाना। मुझे जूस पीना है।’
मैंने रिंकी का हाथ दबाया और उसके लिए जूस मंगवाया। एक घूंट पीने के बाद मल्लिका उठ गई। रिंकी ने रोकने की कोशिश की, पर वह दौड़ती हुई बाहर निकल गई।
मैं और रिंकी हक्के-बक्के रह गए। कुछ देर तक तो हम दोनों के मुंह से कोई बात ही नहीं निकली।
बिल दे कर हम दोनों रेस्तरां से बाहर निकले। सडक़ के किनारे एक सिगरेट की दुकान के सामने फिरंगी दिख गया। रिंकी ने कहा, ‘मम्मा, देखो, कितने आराम से यहां खड़ा है मल्लिका को मारने के बाद। देखो ना मां, एकदम फूफा जी की तरह लग रहा है। मेरा मन कर रहा है कि मैं डंडे से इसे जोर से पीटूं।’
रिंकी उत्तेजित होने लगी थी। मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। इस समय तो मुझे उस फिरंगी के साथ-साथ मल्लिका का भी रवैया अजीब लग रहा था। गरीब बच्ची, जिसे खाने की हवस है, पर पेट में जगह नहीं है। पता नहीं, किसकी बच्ची है? इसके साथ क्यों घूम रही है?
दया हो आई बच्ची पर। स्कूल जाने की उम्र में कहां मारी-मारी फिर रही है? कौन हैं इसके माता-पिता?
हम अपने होटल की तरफ बढ़ ही रहे थे कि सामने से दौड़ती हुई मल्लिका आई और फिरंगी से जा कर लिपट गई। फिरंगी ने उसे चांटा मारा।
रिंकी जोर से चीखी, ‘मां, उस आदमी को छोडऩा मत।’ मैं रुक नहीं पाई। मैं आगे, रिंकी पीछे। मैंने दूर से ही चिल्ला कर कहा, ‘ए, लडक़ी को हाथ मत लगाना। आइ विल कॉल पुलिस।’
फिरंगी सहमा फिर कुछ अकड़ कर बोला, ‘हू आर यू? कॉल एनिबडी। आइएम नॉट स्केर्ड। शी इज माइ वाइफ। आइ कैन डू वाटेवर आई वांट।’
मैं सन्न रह गई। सिगरेट के खोमचे वाले ने कहा, ‘मैडम जी, आप भी किस पंगे में फंस रही हैं? ये तो इनका रोज का चक्कर है। अभी मार-पीट करेंगे, दूजे मिनट लडक़ी इसकी गोद में जा बैठेगी।’
मेरी आवाज थरथरा रही थी,‘लेकिन इसने कहा कि यह बच्ची इसकी ब्याहता है।’
‘हां, तो कर ली होगी शादी। इसके मां-बाप तो हर साल अपनी सभी बेटियों की ना जाने कित्ती बार शादी करते हैं। उन्हें चार पैसे मिल जाते हैं और चार दिन इन बच्चियों के खा-पी कर गुजर जाते हैं।’
‘पर यह लडक़ी तो बारह-तेरह साल की लगती है।’
‘अरे मैडम। आप भी ना? बच्ची से उसकी उम्र पूछो तो अठारह बताएगी। ’
‘इसके बाद?’
‘अरे, ये फिरंगी इधर हमेशा थोड़े ही रहते हैं? चार-छह महीने बाद अपने वतन लौट जाते हैं।’
मुझे लगा कि मैं चक्कर खा कर गिर जाऊंगी। रिंकी कुछ समझ नहीं पा रही थी। उसने मल्लिका का हाथ पकडऩा चाहा, पर उसने झटक दिया और फिरंगी के कंधे पर सवार हो कर चलने लगी।
अबकि दुकान वाले ने कुछ नरमी से कहा, ‘आप लोग टूरिस्ट हो। आराम से दो-चार दिन यहां गुजार कर जाओ। पहाड़ देखो, झरने देखो, सन सेट पाइंट देखो।’ मैं किसी तरह अपने को संभाल कर आगे बढ़ी। रिंकी लगातार मुझसे पूछ रही थी, ‘मम्मा क्या हुआ बताओ ना?’ मैं उसे क्या जवाब देती? कैसे कहती उससे कि इस दुनिया में हर कहीं ‘गलत आदमी’ हैं। उनकी गिरफ्त में मासूम रिंकिंया और मल्लिकाएं आती रहती हैं। कभी-कभी तो उन्हें जन्म देने वाले को भी उनकी परवाह नहीं होती। मल्लिका का मासूमियम भरा दोनों हाथों से बर्गर खाने वाला चेहरा मेरे आगे घूम गया। उसकी चमकती आंखें जैसे मुझसे सवाल कर रही थीं। और मैंने अपने दुपट्टे से अपनी बेटी को ढक कर अपने करीब कर लिया।
उसके सामने वही कल वाली बच्ची बैठी थी। दोनों हाथों से बड़ा सा सैंडविच खाने की कोशिश करती हुई।
कल रिंकी ने ही मुझे टो
क कर कहा था,‘ममा, वहां देखो...’
हम दोनों को वह फिरंगी मजेदार लगा। सामने बैठी बच्ची देसी थी। काले-भूरे बेतरतीब खुले बाल। सुबह के समय भी आंखों में धूप का चश्मा लगाए। लाल रंग की छींट वाली सलवार-कमीज में वह अपनी उम्र से बड़ी लग रही थी। वह कचर-कचर कचौड़ी खा रही थी और फिरंग सलीके से चीज ऑमलेट खा रहा था।
रिंकी के साथ अकेली इस तरह घूमने पहली बार घर से निकली थी। इससे पहले जब भी बाहर गए, अशोक हमारे साथ रहे। अशोक को हमेशा जल्दी मची रहती थी। वह दस मिनट चैन से नाश्ता करने नहीं देता, हमारे पीछे पड़ जाता कि तुम दोनों मां-बेटी घूमने आई हो या आराम से बैठ कर खाने-पीने? यहां से निकलोगी तो कहीं लंच करने बैठ जाओगी। घूमोगी कब?
लेकिन हम दोनों तो ऐसे ही थे। आराम से एक जगह रुक कर, सुकून से उस क्षण को जीने में मजा आता था। हम दोनों बटर टोस्ट के साथ चाय पर चाय पीते रहे और फिरंगी और उस बच्ची को कौतुहल से देखते रहे। रिंकी ने कहा, ‘वो एक लेखक होगा और कहानी लिखने के लिए यहां आया होगा। वो ही लोग तो होते हैं ना थोड़े से झक्की। वरना वह उस बच्ची को यहां क्यों ले कर आता नाश्ता खिलाने?’
रिंकी की बात में दम था। सोलह साल की मेरी बेटी समय से पहले परिपक्व हो चली थी।
बच्ची ने टोस्ट खाए, बड़े वाले गिलास में मिल्क शेक पिया। इस बीच मैंने और रिंकी ने कटलेट्स मंगवा लिए। रिंकी का भी मन मिल्क शेक पीने को हो आया।
इस बीच फिरंगी उठ गया। बच्ची शायद अभी भी कुछ खाना चाहती थी। रिंकी ने फिर से मुझे टहोका, ‘देखो मम्मा, बिल कौन दे रहा है?’
काउंटर पर वह बारह-तेरह साल की लडक़ी अपने पर्स से पैसे निकाल रही थी। पांच सौ के कई सारे नोट थे उसके पास।
वे दोनों चले गए। हम दोनों कहानियां बुनने लगे कि कौन होगी यह बच्ची?
इसके बाद हम दोनों होटल के अपने कमरे में आ गए। रिंकी का मन कहीं जाने का नहीं था। लंच भी हमने अपने कमरे में किया। शाम को घूमने निकले। हलकी बूंदा-बांदी हो रही थी। पहाड़ी सडक़ों की ढलानों पर घूमने में रिंकी को मजा आ रहा था। और उसके खुश होते देखने में मुझे।
पिछले साल इन दिनों। लगा नहीं था कि रिंकी फिर कभी सामान्य हो पाएगी। पंद्रह साल की नहीं हुई थी। अशोक के परिवार में शादी थी। बुआ की बेटी आशी की। रिंकी उत्साहित थी। वह आशी के आगे-पीछे लगी रहती। शादी के एक सप्ताह पहले वह आशी के साथ रहने चली गई। इससे पहले भी उसने एक-दो दिन वहां बिताए थे।
पर उस सुबह जब वह घर आई, तो कुछ भी सही नहीं था। रात आशी अपनी सहेलियों के साथ कैट पार्टी में मस्त थी और रिंकी बारह बजे के बाद सोने चली गई। उसी कमरे में आशी के पिताजी आए। उनसे हमेशा से डर लगता था। उनकी लाल आंखें और घनी मूंछें भयानक लगती थी। मुझे भी। मेरी बेटी चिल्ला नहीं पाई। डर गई जब उनकी मूंछों से निकलते लपलपाते होंठों ने उसे छुआ। उस दानव के शरीर के नीचे दबी मेरी गुडिय़ा ने अपने पूरे शरीर पर उन घिनौनी उंगलियों को बर्दाश्त किया।
सुबह-सुबह बिना किसी को बताए रिक्शा ले कर घर चली आई थी रिंकी। आंखों में आंसू। सहमा सा चेहरा। उसे देख कर मैं चौंकी, फिर हिल गई। अशोक भी घर पर थे। अशोक का रवैया अलग था--वे इस बात से चौकन्ने और कहीं से संतुष्ट लगे कि उनकी बेटी के साथ बलात्कार नहीं हुआ। जो हुआ, उसके बाद अशोक का यह रवैया मुझे ज्यादा रुला गया।
रिंकी जैसे मुझे सबकुछ बता कर उस घटना से अलग हो गई। बस उस दिन से उसका अशोक के साथ रिश्ता बदल गया। मैंने घर में शोर मचाया, परिवार वालों को बुलाया, पुलिस में शिकायत की। आश्चर्य था कि इन सबमें अशोक कहीं पीछे छूटते चले गए। वे बेशक आशी की शादी में नहीं गए, पर परिवार के दूसरे सदस्यों की तरह दबी जुबान में यह तो कह ही दिया कि हम मां-बेटी छोटी सी बात को बेवजह बड़ा कर रहे हैं।
रिंकी धीरे-धीरे सामान्य हो गई। मेरे अशोक से अलग होने के बाद ज्यादा। इस ट्रिप की योजना भी उसने ही बनाई थी। वह ट्रेन में सफर करना चाहती थी। मेरे साथ बहुत कुछ बांटना चाहती थी। कल रात जब हम बारिश में भीग कर कमरे में लौटे, तो उसने केतली में पानी गर्म कर मुझे चाय बना कर पिलाया। खाना खाने हम रेस्तरां गए। मैंने वाइन पी। उसके इसरार करने पर एक घूंट उसे भी पीने को दी। उसने एकदम से मुंह बनाया, ‘यक मॉम। इसमें एेसा क्या है? आप इतना शौक से कैसे पीते हो?’ हमने पास्ता खाया, काफी पी। फिर थोड़ा टहलने के बाद लौटे। वह चुप थी, लेकिन खुश लग रही थी। कमरे में आ कर उसने कपड़े बदले। शॉर्ट्स और टी शर्ट पहन कर मुझसे चिपट कर लेट गई, ‘मम्मा, जिंदगी एेसी ही रहे तो अच्छा हो ना। हमारे आसपास कोई गलत आदमी ना हो।’
उसके सोने तक मैं जागती रही। समझ नहीं आया कि अपनी बेटी को गलत आदमियों से कैसे बचा कर रखूं? उसे अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए भी एेसी ही दुनिया चाहिए थी।
‘मैं आज पता करके ही रहूंगी, कौन है ये लडक़ी? देखो ममा। वो तो फिरंगी के गिलास से काफी पी रही है। कहीं ये फिरंगी उसका डैड तो नहीं?’ कहने के बाद रिंकी खुद हंसने लगी, ‘यह उसका पापा हो ही नहीं सकता। कितनी अजीब लग रही है ना वो लडक़ी? टाइट्स पहन रखा है और माथे पर इतनी बड़ी बिंदी।’
मैंने इशारे से वेटर को बुलाया, आर्डर देने। रिंकी चुप नहीं रह सकी, ‘भैया, ये फॉरिनेर जो आगे बैठे हैं, कौन हैं?’
वेटर ने सिर हिलाया, ‘पता नहीं, एेसे तो भतेरे आते हैं यहां।’
रिंकी चुप हो गई। पर उसका पूरा ध्यान उस बच्ची पर था। सैंडविच खा चुकी थी। शायद वह कुछ और खाना चाहती थी। फिरंगी उठ गया। काउंटर पर पैसे दे कर वह तेजी से आगे जाने लगा। लडक़ी ने रेस्तरां के दरवाजे पर पहुंच कर उसे रोकना चाहा। आदमी ने उसे धक्का दिया और बाहर निकल गया। दरवाजे का हत्था लडक़ी के सिर पर लग गया, वह जमीन पर बैठ गई और जोर-जोर से रोने लगी।
रिंकी फौरन अपनी जगह से उठी और दौड़ती हुई उस लडक़ी के पास पहुंच गई। लडक़ी के माथे पर चोट लग गई थी। रिंकी ने वेटर से टिश्यू मंगवाया। देखते ही देखते वहां छोटी-मोटी भीड़ इकट्टा हो गई। मैं दूर से देख रही थी कि किस तरह रिंकी लडक़ी की मदद कर रही है। आंसू पोंछ रही है, गुस्से में कह रही है कि उस आदमी को कोई हक नहीं पहुंचता कि एक बच्ची के साथ एेसा व्यवहार करे।
रिंकी ने लडक़ी को उठाया और धीरे से उसे मेरे पास ले आई। उसे अपनी बगल की कुर्सी पर बिठा कर उसने प्यार से पूछा, ‘कुछ और खाओगी तुम? बताओ? कटलेट? फिंगर चिप्स? बर्गर?’
लडक़ी की आंखें चमक उठीं। रिंकी ने फौरन उसके लिए बर्गर मंगवाया।
पास से लडक़ी और भी छोटी लग रही थी। गोल चेहरे पर बड़ी सी नथनी अजीब लग रही थी। रिंकी ने उसका नाम पूछा। बड़ी मुश्किल से उसने बताया--मल्लिका।
बर्गर आया। मल्लिका ने दोनों हाथ में भींच कर खाने की कोशिश की। दो कौर खाया, फिर मुंह बना कर बोली, ‘जूस पिला दो।’
रिंकी ने कहा, ‘पहले बर्गर तो खत्म करो।’
मल्लिका अचानक ऊंची आवाज में रोने लगी, ‘मुझे नहीं खाना। मुझे जूस पीना है।’
मैंने रिंकी का हाथ दबाया और उसके लिए जूस मंगवाया। एक घूंट पीने के बाद मल्लिका उठ गई। रिंकी ने रोकने की कोशिश की, पर वह दौड़ती हुई बाहर निकल गई।
मैं और रिंकी हक्के-बक्के रह गए। कुछ देर तक तो हम दोनों के मुंह से कोई बात ही नहीं निकली।
बिल दे कर हम दोनों रेस्तरां से बाहर निकले। सडक़ के किनारे एक सिगरेट की दुकान के सामने फिरंगी दिख गया। रिंकी ने कहा, ‘मम्मा, देखो, कितने आराम से यहां खड़ा है मल्लिका को मारने के बाद। देखो ना मां, एकदम फूफा जी की तरह लग रहा है। मेरा मन कर रहा है कि मैं डंडे से इसे जोर से पीटूं।’
रिंकी उत्तेजित होने लगी थी। मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। इस समय तो मुझे उस फिरंगी के साथ-साथ मल्लिका का भी रवैया अजीब लग रहा था। गरीब बच्ची, जिसे खाने की हवस है, पर पेट में जगह नहीं है। पता नहीं, किसकी बच्ची है? इसके साथ क्यों घूम रही है?
दया हो आई बच्ची पर। स्कूल जाने की उम्र में कहां मारी-मारी फिर रही है? कौन हैं इसके माता-पिता?
हम अपने होटल की तरफ बढ़ ही रहे थे कि सामने से दौड़ती हुई मल्लिका आई और फिरंगी से जा कर लिपट गई। फिरंगी ने उसे चांटा मारा।
रिंकी जोर से चीखी, ‘मां, उस आदमी को छोडऩा मत।’ मैं रुक नहीं पाई। मैं आगे, रिंकी पीछे। मैंने दूर से ही चिल्ला कर कहा, ‘ए, लडक़ी को हाथ मत लगाना। आइ विल कॉल पुलिस।’
फिरंगी सहमा फिर कुछ अकड़ कर बोला, ‘हू आर यू? कॉल एनिबडी। आइएम नॉट स्केर्ड। शी इज माइ वाइफ। आइ कैन डू वाटेवर आई वांट।’
मैं सन्न रह गई। सिगरेट के खोमचे वाले ने कहा, ‘मैडम जी, आप भी किस पंगे में फंस रही हैं? ये तो इनका रोज का चक्कर है। अभी मार-पीट करेंगे, दूजे मिनट लडक़ी इसकी गोद में जा बैठेगी।’
मेरी आवाज थरथरा रही थी,‘लेकिन इसने कहा कि यह बच्ची इसकी ब्याहता है।’
‘हां, तो कर ली होगी शादी। इसके मां-बाप तो हर साल अपनी सभी बेटियों की ना जाने कित्ती बार शादी करते हैं। उन्हें चार पैसे मिल जाते हैं और चार दिन इन बच्चियों के खा-पी कर गुजर जाते हैं।’
‘पर यह लडक़ी तो बारह-तेरह साल की लगती है।’
‘अरे मैडम। आप भी ना? बच्ची से उसकी उम्र पूछो तो अठारह बताएगी। ’
‘इसके बाद?’
‘अरे, ये फिरंगी इधर हमेशा थोड़े ही रहते हैं? चार-छह महीने बाद अपने वतन लौट जाते हैं।’
मुझे लगा कि मैं चक्कर खा कर गिर जाऊंगी। रिंकी कुछ समझ नहीं पा रही थी। उसने मल्लिका का हाथ पकडऩा चाहा, पर उसने झटक दिया और फिरंगी के कंधे पर सवार हो कर चलने लगी।
अबकि दुकान वाले ने कुछ नरमी से कहा, ‘आप लोग टूरिस्ट हो। आराम से दो-चार दिन यहां गुजार कर जाओ। पहाड़ देखो, झरने देखो, सन सेट पाइंट देखो।’ मैं किसी तरह अपने को संभाल कर आगे बढ़ी। रिंकी लगातार मुझसे पूछ रही थी, ‘मम्मा क्या हुआ बताओ ना?’ मैं उसे क्या जवाब देती? कैसे कहती उससे कि इस दुनिया में हर कहीं ‘गलत आदमी’ हैं। उनकी गिरफ्त में मासूम रिंकिंया और मल्लिकाएं आती रहती हैं। कभी-कभी तो उन्हें जन्म देने वाले को भी उनकी परवाह नहीं होती। मल्लिका का मासूमियम भरा दोनों हाथों से बर्गर खाने वाला चेहरा मेरे आगे घूम गया। उसकी चमकती आंखें जैसे मुझसे सवाल कर रही थीं। और मैंने अपने दुपट्टे से अपनी बेटी को ढक कर अपने करीब कर लिया।
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