पत्रकारिता के बारे में मीडिया घरानों, पत्र समूहों से लेकर चाय और पान के ठेलों तक पर चर्चाएं होती हैं। पाठक, दर्शक और श्रोता अब निष्क्रिय नहीं है, वह सक्रिय हो गया है। पत्रकारिता भी निरामय या निरापद नहीं रही। पत्रकारिता के विविध आयामों - रक्षा-युद्ध पत्रकारिता, खोजी पत्रकारिता, राजनैतिक पत्रकारिता, मनोरंजन-फिल्म पत्रकारिता, खेल पत्रकारिता आदि के साथ ही एक नया आयाम ‘पेज-थ्री’ पत्रकारिता का है। जैसे मीडिया और पत्रकारिता में कई बातें यूरोप और अमेरिका के देशों से आयात हुई हैं वैसे ही ‘पेज-3’ भी। जब से ‘पेज-3’ नाम से फिल्म बनी और चली तब से इसकी चर्चा और अधिक हो गई है। लेकिन आज भी ‘पेज-3 पत्रकारिता’ के बारे में आम तौर पर ज्यादा विचार नहीं किया जाता।
इस दिशा में विचार न होने का कारण शायद यह भी है कि भारत की पत्रकारिता का अधिकांश हिस्सा ‘पेज-3’ की ही शक्ल ले चुका है। दरअसल 70 के दशक में ब्रिटेन में सनसनीखे़ज पत्रकारिता के लिए छाटे आकार वाले समाचार पत्रों में पेज-3’ का चलन शुरु हुआ। वहां के ‘सन’ पत्रिका ने अपने खास पृष्ठ पर महिलाओं के नग्न और अद्र्धनग्न फोटो प्रकाशित करना शुरु किया। पत्रिका में यह सब कुछ तीसरे पृष्ठ पर ही छपता था। यह सब फैशन और परंपरा के नाम पर होता रहा। बाद में यह ‘पेज थ्री’ और ‘पेज थ्री संस्कृति’ के नाम से चर्चित हुआ। समाचार क्षेत्र में वह प्रत्येक घटना जो परंपरा, संस्कृति और मूल्यों को चुनौती देने वाला हो उसे पेज 3 पर जगह मिलने लगी। सामान्यतः पत्र-पत्रिकाओं का वह हिस्सा जहां फिल्मों, अभिजात्य समारोहों, जीवन शैली और महत्वपूर्ण हस्तियों के व्यक्तिगत जीवन और मनोरंजन आदि से संबंधित हल्के-फुल्के और अ-गंभीर समाचार छपते हों उसे ‘पेज-थ्री’ समाचार कहा जा सकता है। इंग्लैंड में ‘सन’ पत्रिका की देखा-देखी अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी इस तरह की प्रतिस्पद्र्धा बढ़ गई। इस अखबार ने 1999 में ‘पेज 3’ नाम से एक वेब साइट की श्ुरुआत भी की। आज यूरोप और अन्य देशों की पत्रकारिता भले ही परिपक्व हो गई हो, लेकिन भारतीय पत्रकारिता में ‘पेज-3 पत्रकारिता’ का चलन जोरों पर है, यह दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। भारत की पत्रकारिता में यह एक नई अवधारणा का उदय है जो पत्रकारिता में काफी तेजी से अपना दखल बढ़ाता जा रहा है।
करीब डेढ़ दशक पहले अंग्रेजी अखबार टाइम्स आॅफ इंडिया ने भारत में ‘पेज-थ्री’ पत्रकारिता शुरु की। इसका उद्देश्य भारत में तैयार हो रहे एक अलग प्रकार के पाठक वर्ग पर अपनी पकड़ बनाना था। टाइम्स समूह ने इस बहाने एक नए बाजार को गढ़ने और उसका लाभ उठाने की कोशिश भी की। अब तो शायद ही कोई पत्र-पत्रिका हो जो इस राह पर न चल रहा हो। हिन्दी और अन्य भाषायी पत्र-पत्रिकाओं ने इन मामले में अंग्रेजी अखबारों की नकल उतार ली। अब तो नवभारत टाइम्स ही नहीं, बल्कि अधिकांश हिन्दी के अखबार फिल्मी हस्तियों की निजी जिंदगी तक अपने पाठकों की पहुंच सुलभ करा रहे हैंं। ये जानते हुए कि न तो उनके पाठकों के लिए और न ही उस अखबार के लिए यह जरुरी है। कई गंभीर किस्म के पत्र समूह तो अपने पाठकों का आकर्षण बरकरार रखने के लिए ही इस तरह की जद्दोजहद में लगे हैं।
दुनिया में खुली अर्थव्यवस्था का दौर है। भारत में 1990 से शुरु हुआ आर्थिक उदारीकरण और बाजारवाद का दौर अपने शबाब पर है। पूंजी और सूचनाएं अबाध गति से भूमंडलीकृत हो रही है। भारतीय मीडिया और पत्रकारिता भी इस प्रक्रिया से बेअसर नहीं है। दुनियाभर में न सिंर्फ आर्थिक खुलेपन आया है, बल्कि सांस्कृतिक तौर पर भी अनेक परिवर्तन हो रहे हैं। न सिर्फ जीवन शैली बल्कि भाषा भी बदल रही है। वैश्विक स्तर पर सास्कृतिक समरुपीकरण (ीवउवहमदपेंजपवद) का दौर चल रहा है। वैश्वीकरण की यह तीव्र लालसा है कि दुनिया में न देशों की मुद्राएं एक हो जाएं बल्कि उनकी संस्कृति भी एक समान हो जाए। उदारवादी दुनिया की यह कल्पना है कि दुनिया सांस्कृतिक विविधताएं समाप्त होकर एक जैसी हो जायेंगी। पश्चिमी देशों का यह मिशन है कि विश्व की विभिन्न संस्कृतियां आदान-प्रदान करें और विश्व व्यवस्था की मातहत बन जाएं। अर्थात् विविध संस्कृतियां आदान-प्रदान करती हुई सशक्त न हों बल्कि एक ही हो जाएं।
पत्रकारिता में ‘पेज-थ्री’ की अवधारणा, वैश्वीकरण की सांस्कृतिक समरुपीकरण से मिलती-जुलती है। पेज-थी्र समाचार अंततः ‘पेज-थ्री संस्कृति’ को जन्म देते हैंं। गत दशकों में पत्रकारिता में अनेक परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तनों में सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं - संपादक संस्था का हृास या पतन, पत्रकारिता में पूंजी और तकनीक का बढ़ता दखल और पत्रकारिता का बाजारोन्मुख होना है। पेज थ्री पत्रकारिता बाज़ार की बाज़ारी पत्रकारिता है। यह पत्रकारिता देश-समाज की असल समस्याओं से मुँह मोड़ कर ग्लैमर और मनोरंजन के सहारे एक काल्पनिक दुनिया पैदा करती है। पेज-थ्री पत्रकारिता स्वप्न की पत्रकारिता है। यह समृद्धि की पत्रकारिता है, विकास की नहीं। यह खुशहाली की नहीं, अमीरों की पत्रकारिता है। एक मायने में यह पत्रकारिता की मूल अपेक्षाओं का हिंसक उल्लंघन करती है। मीडिया, प्राच्यवाद और वर्चुअल यथार्थ नामक पुस्तक में जगदीश्वर चतुर्वेदी और सुधा सिंह ने बौद्रिलार्द का हवाला देते हुए लिखा है - बौद्रिलार्द ने लिखा है हमारा मीडिया आज लुप्त सामाजिकता और उसके साझा अनुभवों को सुरक्षित बनाए हुए है। उसके अर्थों को सहेजे हुए है और उसका उपभोग बढ़ा रहा है। इसके जरिए वह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करता है। जनजाति समाजों, उत्सवों और हिंसा के विकल्प के तौर पर हमने स्थानीय फुटबॉल, राष्ट्रीय लॉटरी गेम शो, प्रातःकालीन टीवी और उसके बेहतरीन प्रस्तोता, फिल्म के प्रीमियर और तत्संबंधी घटना, समाचार कवरेज, कामुक प्रसाधन कार्यक्रमों सनसनीखेज, मसालेदार धारावाहिक और जनता के कष्ट, अपमान और रियलिटी टीवी के घृणा के पात्रों के रूप में पेश किया है। समस्त सामाजिक उर्जा को इस काम में ऐसे लगा दिया है कि वह यदि और मांग करे तो उसे तत्काल सप्लाई दे दी जाए। चर्चित व्यक्तित्वों की हगनी-मुतनी से लेकर समारोह तक की गतिविधियों का आनंद लेने के साथ राजा-महाराजाओं, अमीरों के शौक-मौज और खेल को रोज परोसा जा रहा है।
इस क्रम में समाज को पेशेवर और व्यक्तिवादी बनाया जा रहा है। ये सारी चीजें बगैर मांगे ही अपने आप आपको घर बैठे उपलब्ध हो रही है। इन्हें पाने के लिए किसी किस्म के सामाजिक संपर्क की जरूरत नहीं है। उपभोक्ता समाज उन वस्तुओं पर टिका नहीं है जो जरूरत की हैं, बिल्क उन वस्तुओं पर टिका है जो जरूरत की नहीं है। गैर-जरूरी को जरूरत का हिस्सा बनाना ही प्रधान लक्ष्य है। इस समूची प्रक्रिया में वास्तविक जरूरत और नकली जरूरत के बीच का अंतर खत्म हो जाता है। यह सारा काम किया जाता है मार्केटिंग और विज्ञापन के जरिए। बौद्रिलार्द के अनुसार, विज्ञापनों, फिल्मों एवं टीवी में अधिकांश प्रस्तुतियां प्रामाणिक नहीं होती। ज्यादातर फिल्मों में दैनंदिन रोमांस, कार, टेलीफोन, मनोविज्ञान, मेकअप आदि का ही रुपायन होता है। वे पूरी तरह जीवन शैली के विवरण है। विज्ञापनों में भी यही होता है।
दरअसल पत्रकारिता का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है उसका विषय-वस्तु। यही पत्रकारिता को सााख और धाक् दोनों देती है। इसी से पत्रकारिता को ताकत मिलती है। अखबारों की प्रतिबद्धता से ही पाठकों में उसके प्रति लगाव और विश्वसनीयता बढ़ती है। पत्रकारिता की यह विश्वसनीयता उसके विषय-वस्तु के कारण ही है। यही वजह है कि पाठक विज्ञापनों की बजाए खबरों और संपादकीय विषय-वस्तु पर अधिक भरोसा करते हैं। पत्रकारिता का यह धर्म है कि वह अपने लक्ष्य समूह तक सही सूचनाएं पहंचाए। बाज़ार की शक्तियों ने अखबार और उसके पाठकों के ‘प्रतिबद्धता-विश्वसनीयता’ तन्तु को भली-भाँति जान-समझ लिया। इसे उन्होंने अपने आर्थिक हित के लिए उपयोग किया। कंपनियों ने बाज़ार में अपने उत्पादों की मांग, अनावश्यक मांग पैदा करने के लिए अखबारों का सहारा लिया। कंपनियों की प्रेस विज्ञप्तियां खबरों की तरह छपने लगी। विज्ञापनों ने खबरों में घुसपैठ कर ली। अखबारों न भी लालचवश अपनी प्रतिबद्धता को दांव पर लगा दिया। उन्होंने पाठकों की विश्वसनीयता को ताक पर रख कंपनी मालिकों से समझौता कर लिया। खबरों की सौदेबाजी होने लगी। इसने समाचार और विज्ञापन के भेद को खत्म कर दिया। पत्रकारिता में आ रहा यह बदलाव समझ से परे जरूर था, लकिन यह हकीकत था। अनसुनी और अकल्पनीय बात आंखों के सामने हो रही थी। भारत में यह खतरनाक श्ुारुआत हुई। 15-25 वर्षों पहले अंग्रेजी पत्रकारिता में ‘पेज-थ्री’ के नाम से शुरु हुआ यह बदलाव हिन्दी पत्रकारिता में पेड-न्यूज और ‘सुपारी पत्रकारिता’ के स्वरुप में दिख रहा है।
स्वप्रचार की भूखी एक ऐसी पूरी जमात जो धन लुटाने का तैयार थी अखबारों को मिल गई। अखबारों में अभिजात्य अमीरों की पार्टियों की तस्वीरें छापीं जाने लगी। फिल्मी और कला-संस्कृति जगत की हस्तियों के निजी जीवन समाचार बनने लगे। तारिकाओं और मॉडल्स की नग्न-अद्र्धनग्न तस्वीरें किस्म-किस्म वस्त्र-अधोवस्त्रों में छपने लगी। अखबारों में यह सब भुगतान के आधार पर छापा जाने लगा। पत्रकारिता ने अपनी सााख को पेज-थ्री के हवाले कर दिया। विज्ञापन-खबर और संपादकीय दूरियां खत्म कर दी गई। पत्रकारिता में ‘एडवरटोरियल’ का जमाना आ गया। अब समाचार भी प्रायोजित होने लगे। पत्रकारिता ने एक नई विधा को अपना लिया। इसके तहत विज्ञापन को संपादकीय सामग्री या समाचार की तरह प्रस्तुत किया जाने लगा। एक प्रकार से अखबार और पाठकों के बीच के भरोसे को बाज़ार की ताकतों ने खरीद लिया। व्यवसाय और बाज़ार की दुनिया के ताकतवर लोगों ने पत्रकारिता के प्राण ‘खबर’ का हरण कर लिया। पत्रकारिता में एडवरटोरियल नाम के विषाणु ने जन्म लिया और देखते ही देखते अनियंत्रित हो गया। समाचारों से सौदेबाजी की शुरुआत व्यावसायिक घरानों और प्रचार की लिप्सा से ग्रस्त धनाढ्यों ने की। बाद में राजनीति ने भी इसका भरपूर इस्तेमाल किया। लोकसभा और विधानसभा चुनावों से लेकर स्थानीय निकाय के चुनावों में भी बड़े पैमाने पर खबरों की सौदेबाजी की गई। चुनावों के दरम्यान राजनीति के लोगों ने प्रेस रिलीज, इंटरव्यू और अपने पक्ष में खबर छपवाने के लिए खूब सौदेबाजी की। आज पेज-3, पेडन्यूज और सुपारी पत्रकारिता का दाग पत्रकारिता के दामन पर लग चुका है।
पेज-3 पत्रकारिता के नाम पर अभिजात्य जीवन शैली, आधुनिक प्रचलन, सिनेमा, अभिजन विचारों और ऐसे ही कई विषयों को प्रकाशित किया जा रहा है। लेकिन आज यह पत्रकारिता बहुत दूर जा चुकी है। ऐसे अनेक असामाजिक, अनैतिक और नाजायज घटनाओं को कवर किया जा रहा है जो भावी पीढ़ी के लिए खतरनाक है। यह आने वाली पीढ़ी को रुग्ण बना सकता है। इलेक्टाªॅनिक और प्रिंट दोनों पत्रकारिता में विभत्स, हिंसक, उत्तेजक और अश्लील पार्टियों की बाढ़ आ गई है। टीवी के विभिन्न चैनलों में बिग बॉस, सच का सामना, बिकनी क्वीन प्रतियोगिता, फैशन-शो और विश्व सुंदरी चयन प्रतियोगिता को दिखाया जाना और उसके समाचार बार-बार प्रकाशित-प्रसारित करना यह पेज-थ्री का हिस्सा बन गया है। टीवी, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में शहरी और मेट्रो शहरों का तड़क-भड़क दिखाया जाता है। पेज थ्री पत्रकारिता की पहचान इन्हीं समाचारों से बनी है। इसका नकारात्मक प्रभाव ग्रामीण और अद्र्ध शहरी समाजों पर पड़ता है।
जिस पेज-थ्री पत्रकारिता की शुरुआत पाठकों को लुभाने, आकर्षित करने और अपने अखबार से प्रतिबद्ध रखने के लिए किया गया था, आज वही अपने विभत्स रूप में न सिंर्फ अपने पाठकों का, बल्कि समूचे समाज का अहित कर रहा है। बहुत लंबा समय नहीं हुआ जब भारतीय पत्रकारिता में मिशन और प्रोफेशन की चर्चा सरेआम हुआ करती थी। तब चर्चा यह होती थी कि खबरों को विचारों से अलग रखा जाए, लेकिन आज चर्चा इस बात पर होने लगी है कि खबरों को विज्ञापन से अलग कैसे रखा जाए। रिपोर्टर और विज्ञापन एजेंट के बीच दूरी कैसे बरकरार रखी जाए। पेज थ्री ने पहले पत्रकारिता को पटरी से उतारा अब वह भारतीय समाज को सांस्कृतिक मूल्यों की पटरी से उतारने में लगी है। यह समाज और पत्रकारिता दोनों के लिए घातक है।
इस दिशा में विचार न होने का कारण शायद यह भी है कि भारत की पत्रकारिता का अधिकांश हिस्सा ‘पेज-3’ की ही शक्ल ले चुका है। दरअसल 70 के दशक में ब्रिटेन में सनसनीखे़ज पत्रकारिता के लिए छाटे आकार वाले समाचार पत्रों में पेज-3’ का चलन शुरु हुआ। वहां के ‘सन’ पत्रिका ने अपने खास पृष्ठ पर महिलाओं के नग्न और अद्र्धनग्न फोटो प्रकाशित करना शुरु किया। पत्रिका में यह सब कुछ तीसरे पृष्ठ पर ही छपता था। यह सब फैशन और परंपरा के नाम पर होता रहा। बाद में यह ‘पेज थ्री’ और ‘पेज थ्री संस्कृति’ के नाम से चर्चित हुआ। समाचार क्षेत्र में वह प्रत्येक घटना जो परंपरा, संस्कृति और मूल्यों को चुनौती देने वाला हो उसे पेज 3 पर जगह मिलने लगी। सामान्यतः पत्र-पत्रिकाओं का वह हिस्सा जहां फिल्मों, अभिजात्य समारोहों, जीवन शैली और महत्वपूर्ण हस्तियों के व्यक्तिगत जीवन और मनोरंजन आदि से संबंधित हल्के-फुल्के और अ-गंभीर समाचार छपते हों उसे ‘पेज-थ्री’ समाचार कहा जा सकता है। इंग्लैंड में ‘सन’ पत्रिका की देखा-देखी अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी इस तरह की प्रतिस्पद्र्धा बढ़ गई। इस अखबार ने 1999 में ‘पेज 3’ नाम से एक वेब साइट की श्ुरुआत भी की। आज यूरोप और अन्य देशों की पत्रकारिता भले ही परिपक्व हो गई हो, लेकिन भारतीय पत्रकारिता में ‘पेज-3 पत्रकारिता’ का चलन जोरों पर है, यह दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। भारत की पत्रकारिता में यह एक नई अवधारणा का उदय है जो पत्रकारिता में काफी तेजी से अपना दखल बढ़ाता जा रहा है।
करीब डेढ़ दशक पहले अंग्रेजी अखबार टाइम्स आॅफ इंडिया ने भारत में ‘पेज-थ्री’ पत्रकारिता शुरु की। इसका उद्देश्य भारत में तैयार हो रहे एक अलग प्रकार के पाठक वर्ग पर अपनी पकड़ बनाना था। टाइम्स समूह ने इस बहाने एक नए बाजार को गढ़ने और उसका लाभ उठाने की कोशिश भी की। अब तो शायद ही कोई पत्र-पत्रिका हो जो इस राह पर न चल रहा हो। हिन्दी और अन्य भाषायी पत्र-पत्रिकाओं ने इन मामले में अंग्रेजी अखबारों की नकल उतार ली। अब तो नवभारत टाइम्स ही नहीं, बल्कि अधिकांश हिन्दी के अखबार फिल्मी हस्तियों की निजी जिंदगी तक अपने पाठकों की पहुंच सुलभ करा रहे हैंं। ये जानते हुए कि न तो उनके पाठकों के लिए और न ही उस अखबार के लिए यह जरुरी है। कई गंभीर किस्म के पत्र समूह तो अपने पाठकों का आकर्षण बरकरार रखने के लिए ही इस तरह की जद्दोजहद में लगे हैं।
दुनिया में खुली अर्थव्यवस्था का दौर है। भारत में 1990 से शुरु हुआ आर्थिक उदारीकरण और बाजारवाद का दौर अपने शबाब पर है। पूंजी और सूचनाएं अबाध गति से भूमंडलीकृत हो रही है। भारतीय मीडिया और पत्रकारिता भी इस प्रक्रिया से बेअसर नहीं है। दुनियाभर में न सिंर्फ आर्थिक खुलेपन आया है, बल्कि सांस्कृतिक तौर पर भी अनेक परिवर्तन हो रहे हैं। न सिर्फ जीवन शैली बल्कि भाषा भी बदल रही है। वैश्विक स्तर पर सास्कृतिक समरुपीकरण (ीवउवहमदपेंजपवद) का दौर चल रहा है। वैश्वीकरण की यह तीव्र लालसा है कि दुनिया में न देशों की मुद्राएं एक हो जाएं बल्कि उनकी संस्कृति भी एक समान हो जाए। उदारवादी दुनिया की यह कल्पना है कि दुनिया सांस्कृतिक विविधताएं समाप्त होकर एक जैसी हो जायेंगी। पश्चिमी देशों का यह मिशन है कि विश्व की विभिन्न संस्कृतियां आदान-प्रदान करें और विश्व व्यवस्था की मातहत बन जाएं। अर्थात् विविध संस्कृतियां आदान-प्रदान करती हुई सशक्त न हों बल्कि एक ही हो जाएं।
पत्रकारिता में ‘पेज-थ्री’ की अवधारणा, वैश्वीकरण की सांस्कृतिक समरुपीकरण से मिलती-जुलती है। पेज-थी्र समाचार अंततः ‘पेज-थ्री संस्कृति’ को जन्म देते हैंं। गत दशकों में पत्रकारिता में अनेक परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तनों में सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं - संपादक संस्था का हृास या पतन, पत्रकारिता में पूंजी और तकनीक का बढ़ता दखल और पत्रकारिता का बाजारोन्मुख होना है। पेज थ्री पत्रकारिता बाज़ार की बाज़ारी पत्रकारिता है। यह पत्रकारिता देश-समाज की असल समस्याओं से मुँह मोड़ कर ग्लैमर और मनोरंजन के सहारे एक काल्पनिक दुनिया पैदा करती है। पेज-थ्री पत्रकारिता स्वप्न की पत्रकारिता है। यह समृद्धि की पत्रकारिता है, विकास की नहीं। यह खुशहाली की नहीं, अमीरों की पत्रकारिता है। एक मायने में यह पत्रकारिता की मूल अपेक्षाओं का हिंसक उल्लंघन करती है। मीडिया, प्राच्यवाद और वर्चुअल यथार्थ नामक पुस्तक में जगदीश्वर चतुर्वेदी और सुधा सिंह ने बौद्रिलार्द का हवाला देते हुए लिखा है - बौद्रिलार्द ने लिखा है हमारा मीडिया आज लुप्त सामाजिकता और उसके साझा अनुभवों को सुरक्षित बनाए हुए है। उसके अर्थों को सहेजे हुए है और उसका उपभोग बढ़ा रहा है। इसके जरिए वह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करता है। जनजाति समाजों, उत्सवों और हिंसा के विकल्प के तौर पर हमने स्थानीय फुटबॉल, राष्ट्रीय लॉटरी गेम शो, प्रातःकालीन टीवी और उसके बेहतरीन प्रस्तोता, फिल्म के प्रीमियर और तत्संबंधी घटना, समाचार कवरेज, कामुक प्रसाधन कार्यक्रमों सनसनीखेज, मसालेदार धारावाहिक और जनता के कष्ट, अपमान और रियलिटी टीवी के घृणा के पात्रों के रूप में पेश किया है। समस्त सामाजिक उर्जा को इस काम में ऐसे लगा दिया है कि वह यदि और मांग करे तो उसे तत्काल सप्लाई दे दी जाए। चर्चित व्यक्तित्वों की हगनी-मुतनी से लेकर समारोह तक की गतिविधियों का आनंद लेने के साथ राजा-महाराजाओं, अमीरों के शौक-मौज और खेल को रोज परोसा जा रहा है।
इस क्रम में समाज को पेशेवर और व्यक्तिवादी बनाया जा रहा है। ये सारी चीजें बगैर मांगे ही अपने आप आपको घर बैठे उपलब्ध हो रही है। इन्हें पाने के लिए किसी किस्म के सामाजिक संपर्क की जरूरत नहीं है। उपभोक्ता समाज उन वस्तुओं पर टिका नहीं है जो जरूरत की हैं, बिल्क उन वस्तुओं पर टिका है जो जरूरत की नहीं है। गैर-जरूरी को जरूरत का हिस्सा बनाना ही प्रधान लक्ष्य है। इस समूची प्रक्रिया में वास्तविक जरूरत और नकली जरूरत के बीच का अंतर खत्म हो जाता है। यह सारा काम किया जाता है मार्केटिंग और विज्ञापन के जरिए। बौद्रिलार्द के अनुसार, विज्ञापनों, फिल्मों एवं टीवी में अधिकांश प्रस्तुतियां प्रामाणिक नहीं होती। ज्यादातर फिल्मों में दैनंदिन रोमांस, कार, टेलीफोन, मनोविज्ञान, मेकअप आदि का ही रुपायन होता है। वे पूरी तरह जीवन शैली के विवरण है। विज्ञापनों में भी यही होता है।
दरअसल पत्रकारिता का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है उसका विषय-वस्तु। यही पत्रकारिता को सााख और धाक् दोनों देती है। इसी से पत्रकारिता को ताकत मिलती है। अखबारों की प्रतिबद्धता से ही पाठकों में उसके प्रति लगाव और विश्वसनीयता बढ़ती है। पत्रकारिता की यह विश्वसनीयता उसके विषय-वस्तु के कारण ही है। यही वजह है कि पाठक विज्ञापनों की बजाए खबरों और संपादकीय विषय-वस्तु पर अधिक भरोसा करते हैं। पत्रकारिता का यह धर्म है कि वह अपने लक्ष्य समूह तक सही सूचनाएं पहंचाए। बाज़ार की शक्तियों ने अखबार और उसके पाठकों के ‘प्रतिबद्धता-विश्वसनीयता’ तन्तु को भली-भाँति जान-समझ लिया। इसे उन्होंने अपने आर्थिक हित के लिए उपयोग किया। कंपनियों ने बाज़ार में अपने उत्पादों की मांग, अनावश्यक मांग पैदा करने के लिए अखबारों का सहारा लिया। कंपनियों की प्रेस विज्ञप्तियां खबरों की तरह छपने लगी। विज्ञापनों ने खबरों में घुसपैठ कर ली। अखबारों न भी लालचवश अपनी प्रतिबद्धता को दांव पर लगा दिया। उन्होंने पाठकों की विश्वसनीयता को ताक पर रख कंपनी मालिकों से समझौता कर लिया। खबरों की सौदेबाजी होने लगी। इसने समाचार और विज्ञापन के भेद को खत्म कर दिया। पत्रकारिता में आ रहा यह बदलाव समझ से परे जरूर था, लकिन यह हकीकत था। अनसुनी और अकल्पनीय बात आंखों के सामने हो रही थी। भारत में यह खतरनाक श्ुारुआत हुई। 15-25 वर्षों पहले अंग्रेजी पत्रकारिता में ‘पेज-थ्री’ के नाम से शुरु हुआ यह बदलाव हिन्दी पत्रकारिता में पेड-न्यूज और ‘सुपारी पत्रकारिता’ के स्वरुप में दिख रहा है।
स्वप्रचार की भूखी एक ऐसी पूरी जमात जो धन लुटाने का तैयार थी अखबारों को मिल गई। अखबारों में अभिजात्य अमीरों की पार्टियों की तस्वीरें छापीं जाने लगी। फिल्मी और कला-संस्कृति जगत की हस्तियों के निजी जीवन समाचार बनने लगे। तारिकाओं और मॉडल्स की नग्न-अद्र्धनग्न तस्वीरें किस्म-किस्म वस्त्र-अधोवस्त्रों में छपने लगी। अखबारों में यह सब भुगतान के आधार पर छापा जाने लगा। पत्रकारिता ने अपनी सााख को पेज-थ्री के हवाले कर दिया। विज्ञापन-खबर और संपादकीय दूरियां खत्म कर दी गई। पत्रकारिता में ‘एडवरटोरियल’ का जमाना आ गया। अब समाचार भी प्रायोजित होने लगे। पत्रकारिता ने एक नई विधा को अपना लिया। इसके तहत विज्ञापन को संपादकीय सामग्री या समाचार की तरह प्रस्तुत किया जाने लगा। एक प्रकार से अखबार और पाठकों के बीच के भरोसे को बाज़ार की ताकतों ने खरीद लिया। व्यवसाय और बाज़ार की दुनिया के ताकतवर लोगों ने पत्रकारिता के प्राण ‘खबर’ का हरण कर लिया। पत्रकारिता में एडवरटोरियल नाम के विषाणु ने जन्म लिया और देखते ही देखते अनियंत्रित हो गया। समाचारों से सौदेबाजी की शुरुआत व्यावसायिक घरानों और प्रचार की लिप्सा से ग्रस्त धनाढ्यों ने की। बाद में राजनीति ने भी इसका भरपूर इस्तेमाल किया। लोकसभा और विधानसभा चुनावों से लेकर स्थानीय निकाय के चुनावों में भी बड़े पैमाने पर खबरों की सौदेबाजी की गई। चुनावों के दरम्यान राजनीति के लोगों ने प्रेस रिलीज, इंटरव्यू और अपने पक्ष में खबर छपवाने के लिए खूब सौदेबाजी की। आज पेज-3, पेडन्यूज और सुपारी पत्रकारिता का दाग पत्रकारिता के दामन पर लग चुका है।
पेज-3 पत्रकारिता के नाम पर अभिजात्य जीवन शैली, आधुनिक प्रचलन, सिनेमा, अभिजन विचारों और ऐसे ही कई विषयों को प्रकाशित किया जा रहा है। लेकिन आज यह पत्रकारिता बहुत दूर जा चुकी है। ऐसे अनेक असामाजिक, अनैतिक और नाजायज घटनाओं को कवर किया जा रहा है जो भावी पीढ़ी के लिए खतरनाक है। यह आने वाली पीढ़ी को रुग्ण बना सकता है। इलेक्टाªॅनिक और प्रिंट दोनों पत्रकारिता में विभत्स, हिंसक, उत्तेजक और अश्लील पार्टियों की बाढ़ आ गई है। टीवी के विभिन्न चैनलों में बिग बॉस, सच का सामना, बिकनी क्वीन प्रतियोगिता, फैशन-शो और विश्व सुंदरी चयन प्रतियोगिता को दिखाया जाना और उसके समाचार बार-बार प्रकाशित-प्रसारित करना यह पेज-थ्री का हिस्सा बन गया है। टीवी, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में शहरी और मेट्रो शहरों का तड़क-भड़क दिखाया जाता है। पेज थ्री पत्रकारिता की पहचान इन्हीं समाचारों से बनी है। इसका नकारात्मक प्रभाव ग्रामीण और अद्र्ध शहरी समाजों पर पड़ता है।
जिस पेज-थ्री पत्रकारिता की शुरुआत पाठकों को लुभाने, आकर्षित करने और अपने अखबार से प्रतिबद्ध रखने के लिए किया गया था, आज वही अपने विभत्स रूप में न सिंर्फ अपने पाठकों का, बल्कि समूचे समाज का अहित कर रहा है। बहुत लंबा समय नहीं हुआ जब भारतीय पत्रकारिता में मिशन और प्रोफेशन की चर्चा सरेआम हुआ करती थी। तब चर्चा यह होती थी कि खबरों को विचारों से अलग रखा जाए, लेकिन आज चर्चा इस बात पर होने लगी है कि खबरों को विज्ञापन से अलग कैसे रखा जाए। रिपोर्टर और विज्ञापन एजेंट के बीच दूरी कैसे बरकरार रखी जाए। पेज थ्री ने पहले पत्रकारिता को पटरी से उतारा अब वह भारतीय समाज को सांस्कृतिक मूल्यों की पटरी से उतारने में लगी है। यह समाज और पत्रकारिता दोनों के लिए घातक है।
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