Monday, 3 March 2014

कई कई परतों में व्यथा यादवेंद्र अनूदित कमाल सुरेया की बहुपठित रचना

एक दिन स्त्री चल देती है चुपचाप ...दबे पाँव
 कोई स्त्री रिश्तों को निभाने में सहती है बहुत कुछ ..मुश्किलें
उसका दिमाग,दिल और रूह तक किसी का निष्ठापूर्वक साथ निभाने को
झेलता  है इतने आघात और झटके
कि दूसरा आदमी आता ही नहीं उसके दिलो-दिमाग़ में
वह आदमियों की तरह तुनक कर झगड़ा भी नहीं उठाती
कि सूप में नमक कम क्यों है
बल्कि उलटे कहती है ..कोई बात नही,यदि कोई मुश्किल है तो इसकी बाबत बात कर लेते हैं
और मर्द हैं कि सबसे ज्यादा इसी एक बात से खीझते आग बबूला होते हैं।
बातचीत ऐसे ही टलती जाती है ...
कभी मैच ख़तम होने तक ..नहीं तो फिर डिनर या दूसरी गैरजरूरी बातों के बहाने।

स्त्रियाँ जिद्दी और बावली होती हैं
अपने प्रेम को ऐसे सीने से चिपका के रहती हैं
जैसे जीवन न हुआ खूँटी के ऊपर टिका हुआ कोई सामान हुआ
यही वजह है कि वे चाहती हैं तफसील से  बातचीत करें
और साझा करें अपना दुःख दर्द
तबतक आस नहीं छोड़तीं जबतक समझा न लें
और उसके पास बचे न कोई और रास्ता
स्त्रियाँ देख ही लेती हैं दूर कहीं कोई उजाला और खोल  डालती हैं
अपनी व्यथा का पिटारा
पर यह सब करके उनको अक्सर जवाब क्या मिलता है?
"अपनी यह बकवास अब बंद भी करो"
ये सब बातें उसको नाहक की चिख चिख लगती हैं
और वह उनकी और कभी गौर से देखता तक नहीं
और इस तरह एक समस्या समाधान के बगैर छोड़ कर
देखने लगता है दूसरी ओर
आदमी को कभी एहसास ही नहीं होता
कि यही अनसुलझी बात गोली की तरह आएगी
और लगेगी उसके सीने पर एक दिन.

आदमियों की निगाह में यदि स्त्री करती है गिले शिकवे
या बार बार दुहराती रहती है एक ही बात
आदमी को समझ जाना चाहिए कि उसकी आस अभी टूटी नहीं है
और रिश्ता उसके लिए बेशकीमती है
वो सबकुछ के बावजूद उसे निभाने को आतुर है
रहना चाहती है साथ ..सुलझा के तमाम बदशक्ल गाँठें
और इसी पर है उसका सारा ध्यान
क्योंकि बन्दे से अब भी करती है खूब प्यार।

एकदिन स्त्री चल देती है चुपचाप ...दबे पाँव
यह उसके प्रस्थान का सबसे अहम् पहलू है
और जाहिर सी बात है कि आदमी इस बात को समझ नहीं पाते
बोलती ,कुछ शिकायत करती और झगडती स्त्री
अचानक चुप्पी के इलाके में प्रवेश कर जाती है
जब अंतिम तौर पर टूट जाती है रिश्ते पर से उसकी आखिरी आस
उसका प्यार हो जाता है लहू लुहान
मन ही मन वो समेटती है अपने साजो सामान सूटकेस के अन्दर
अपने दिमाग के अन्दर ही वो खरीदती है अपने लिए सफ़र का टिकट
हाँलाकि उसका शरीर ऊपरी तौर पर करता रहता है सब कुछ यथावत
इस तरह स्त्री निकल जाती है रिश्ते के दरवाजे से बाहर।
सचमुच ऐसे प्रस्थान कर जाने वाली स्त्री के पदचाप नहीं सुनाई देते
आहट नहीं होती उसकी कोई
वह अपना बोरिया बिस्तर ऐसे समेटती है
कि किसी को कानों कान खबर नहीं होती
वो दरवाज़े को भिड़काये बगैर निकल जाती है
जब तलक सांझ को घर लौटने पर स्त्री खोलने को रहती है तत्पर दरवाज़ा
समझता नहीं आदमी उस स्त्री का वजूद
एकदिन बगैर कोई आवाज किये चली जाती है स्त्री चुपचाप
फिर रसोई में जो स्त्री बनाती है खाना
बगल में बैठ कर जो देखती है टी वी
रात में अपनी रूह को परे धर कर जो स्त्री
कर लेती है बिस्तर में जैसे तैसे प्रेम
वह लगती भले वैसी ही स्त्री हो पर पहले वाली स्त्री नहीं होती
स्त्रियों के कातर स्वर से ...उनके झगड़ों से डरना मुनासिब नहीं
क्योंकि वे इतनी शालीनता और चुप्पी से करती हैं प्रस्थान
कि कोई आहट भी नहीं होती।           

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