Monday, 3 March 2014

कैलाश गौतम


गाँव गया था गाँव से भागा।
रामराज का हाल देखकर
पंचायत की चाल देखकर
आँगन में दीवाल देखकर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आँख में बाल देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा।

मुठ्ठी में कानून देखकर
किचकिच दोनों जून देखकर
सिर पर चढ़ा ज़ुनून देखकर
गंजे को नाख़ून देखकर
उज़बक अफ़लातून देखकर
पंडित का सैलून देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा।

सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हक़ीम देखकर
गिरवी राम-रहीम देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा।

जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा।

नए धनी का रंग देखकर
रंग हुआ बदरंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
कुएँ-कुएँ में भंग देखकर
झूठी शान उमंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा।

बिना टिकट बारात देखकर
टाट देखकर भात देखकर
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नवजात देखकर
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा।

नए नए हथियार देखकर
लहू-लहू त्योहार देखकर
झूठ की जै-जैकार देखकर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का शृंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा।

---


राहुल होना खेल नहीं, वह सबसे अलग निराला था,
अद्भुत जीवट वाला था, वह अद्भुत साहस वाला था।

रमता जोगी बहता पानी, कर्मयोग था बाँहों में,
होकर जैसे मील का पत्थर, वह चलता था राहों में।

मुँह पर चमक आँख में करुणा, संस्कार का धनी रहा,
संस्कार का धनी रहा, वह मान-प्यार का धनी रहा।

बाँधे से वह बँधा नहीं, है घिरा नहीं वह घेरे से,
जलता रहा दिया-सा हरदम, लड़ता रहा अँधेरे से।

आँधी आगे रुका नहीं, वह पर्वत आगे झुका नहीं,
चलता रहा सदा बीहड़ में, थका नहीं वह चुका नहीं।

पक्का आजमगढ़िया बाभन, लेकिन पोंगा नहीं रहा,
जहाँ रहा वह रहा अकेला, उसका जोड़ा नहीं रहा।

ठेठ गाँव का रहने वाला, खाँटी तेवर वाला था,
पंगत मे वह प्रगतिशील था, नये कलेवर वाला था।

जाति-धर्म से ऊपर उठ कर, खुल कर हाथ बँटाता था,
इनसे उनसे सबसे उसका, भाई-चारा नाता था।

भूख-गरीबी-सूखा-पाला, सब था उसकी आँखों में,
क्या-क्या उसने नहीं लिखा है, रह कर बन्द सलाखों में।

साधक था, आराधक था, वह अगुआ था, अनुयायी था,
सर्जक था, आलोचक था, वह शंकर-सा विषपायी था।

सुविधाओं से परे रहा, वह परे रहा दुविधाओं से,
खुल कर के ललकारा उसने, मंचों और सभाओं से।

माघ-पूस में टाट ओढ़ कर जाड़ा काटा राहुल ने,
असहायों लाचारों का दुःख हँस कर बाँटा राहुल ने।

कौन नापने वाला उसको, कौन तौलने वाला है?
जिसका कि हर ग्रन्थ हमारी आँख खोलने वाला है।

परिव्राजक, औघड़, गृहस्थ था, वह रसवन्त वसन्त रहा,
जीवन भर जीवन्त रहा वह, जीवन भर जीवन्त रहा।


-----

सौ में दस की भरी तिजोरी नब्बे खाली पेट।
झुग्गीवाला देख रहा है साठ लाख का गेट।
बहुत बुरा है आज देश में लोकतंत्र का हाल
कुत्ते खींच रहे हैं देखो कामधेनु की खाल
हत्या, रेप, डकैती, दंगा  हर धंधे का रेट।
बिकती है नौकरी यहाँ पर बिकता है सम्मान
आँख मूँद कर उसी घाट पर भाग रहे यजमान
जाली वीज़ा पासपोर्ट है, जाली सर्टिफ़िकेट।
लोग देश में खेल रहे हैं कैसे कैसे खेल
एक हाथ में खुला लाइटर एक हाथ में तेल
चाहें तो मिनटों में कर दें सब कुछ मटियामेट।
अंधी है सरकार-व्यवस्था अंधा है कानून
कुर्सीवाला देश बेचता रिक्शेवाला ख़ून
जिसकी उंगली है रिमोट पर वो है सबसे ग्रेट।


----

कैसे कैसे तलवे अब सहलाने पड़ते हैं, कदम कदम पर सौ सौ बाप बनाने पड़ते हैं
क्या कहने हैं दिन बहुरे हैं जब से घूरों के, घूरे भी अब सिर माथे बैठाने पड़ते हैं
शायद उसको पता नहीं वो गाँव की औरत है, इस रस्ते में आगे चलकर थाने पड़ते हैं
काम नहीं होता है केवल अर्जी देने से, कुर्सी कुर्सी पान फूल पहुँचाने पड़ते हैं
इस बस्ती में जीने के दस्तूर निराले हैं, हर हालत में वे दस्तूर निभाने पड़ते हैं
हँस हँस करके सारा गुस्सा पीना पड़ता है, रो रोकर लोहे के चने चबाने पड़ते हैं

No comments:

Post a Comment