Monday, 3 March 2014

शांति सुमन की वह लोकप्रिय रचना....


कहो रामजी, कब आए हो, अपना घर दालान छोड़कर
पोखर-पान-मखान छोड़कर,
छानी पर लौकी की लतरें, कोशी-कूल कमान छोड़कर,
नए-नए से टुसियाए हो।
गाछी-बिरछी को सूनाकर जौ-जवार का दुख दूनाकर
सपनों का शुभ-लाभ जोड़ते पोथी-पतरा को सगुनाकर
नयी हवा से बतियाए हो।
वहीं नहीं अयोध्या केवल कुछ भी नहीं यहाँ है समतल
दिन पर दिन उगते रहते हैं आँखों में मन में सौ जंगल
किस-किस को तुम पतियाए हो।
जाओगे तो जान एक दिन बाजारों के गान एक दिन
फिर-फिर लौटोगे लहरों से इस इजोत के भाव हैं मलिन
अभी सुबह से सँझियाए हो।

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