जागने, सोने न देती ये सियासी नंगई,
खुद को भी खोने न देती ये सियासी नंगई।
क्या हंसी, क्या नींद की बातें करे अब आदमी,
खुल के भी रोने न देती ये सियासी नंगई।
भूख के व्यापारियों से गुफ्तगू करती हुई
आदमी होने न देती, ये सियासी नंगई।
इसके अंधेरे से अंधेरा भी शर्मिंदा हुआ
रोशनी बोने न देती ये सियासी नंगई।
दर्द होता है तो हो अपनी बला से, क्या करें
घाव भी धोने न देती ये सियासी नंगई।
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