Monday, 3 March 2014

जयप्रकाश त्रिपाठी


जागने, सोने न देती ये सियासी नंगई,
खुद को भी खोने न देती ये सियासी नंगई।

क्या हंसी, क्या नींद की बातें करे अब आदमी,
खुल के भी रोने न देती ये सियासी नंगई।

भूख के व्यापारियों से गुफ्तगू करती हुई
आदमी होने न देती, ये सियासी नंगई।

इसके अंधेरे से अंधेरा भी शर्मिंदा हुआ
रोशनी बोने न देती ये सियासी नंगई।

दर्द होता है तो हो अपनी बला से, क्या करें
घाव भी धोने न देती ये सियासी नंगई।

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