Friday, 28 February 2014

केदारनाथ अग्रवाल

मार हथौड़ा, कर-कर चोट! लाल हुए काले लोहे को
जैसा चाहे वैसा मोड़!
मार हथौड़ा,             कर-कर चोट!
            थोड़े नहीं-- अनेकों गढ़ ले
            फ़ौलादी नरसिंह करोड़।
मार हथौड़ा,
कर-कर चोट!
लोहू और पसीने से ही
बंधन की दीवारें तोड़।
            मार हथौड़ा,
            कर-कर चोट!
            दुनिया की जाती ताकत हो,
            जल्दी छवि से नाता जोड़!

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हे मेरी तुम!
आज धूप जैसी हो आई
और दुपट्टा
उसने मेरी छत पर रक्खा
मैंने समझा तुम आई हो
दौड़ा मैं तुमसे मिलने को
लेकिन मैंने तुम्हें न देखा
बार-बार आँखों से खोजा
वही दुपट्टा मैंने देखा
अपनी छत के ऊपर रक्खा।
मैं हताश हूँ
पत्र भेजता हूँ, तुम उत्तर जल्दी देना:
बतलाओ क्यों तुम आई थीं मुझ से मिलने
आज सवेरे,
और दुपट्टा रख कर अपना
चली गई हो बिना मिले ही?
क्यों?
आख़िर इसका क्या कारण?

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