जयप्रकाश त्रिपाठी
आम आदमी इसलिए अरविंद केजरीवाल के पीछे नहीं भागा जा रहा कि उनसे बेहतर और कोई विकल्प नहीं है। इस तीखी प्रतिक्रिया की दो बड़ी वजहें हैं।
पहली : जनता को मौके-दर-मौके जगाने वाले आंदोलनों की पिछले कई दशकों से गुमशुदगी। चारो तरफ सन्नाटा। जो कुछ छिटपुट दिख भी जाता है, फिल्मी पर्दे पर या बौद्धिक जुगालियों में।
दूसरी : नेतानुमा चेहरों में छिपे समाज के अपराधी और माफिया, जो सिर्फ और सिर्फ पैसा जोड़ने के लिए विभिन्न पार्टियों का चोला ओढ़े पूरे मुल्क की आत्मा को मथ रहे हैं। जो कभी फिल्मों में देखे जाते थे, आज हर गली-मोहल्ले तक फैल गए हैं। आतंक इतने गहरे तक है कि 'नेता' शब्द से मन घिना जाता है। अकसर कहते सुना गया है कि 'नेता' है तो जरूर अपराधियों का सरगना होगा। ऐसी अनेक घटनाओं की जानकारियां आए दिन सूचना-माध्यमों तक पहुंचती रहती हैं लेकिन रसूखदारी की नकाब ओढ़े इन समाजविरोधियों के खिलाफ वहां भी कलम ठिठुर जाती है। जरायम दबदबे इस कदर सिर चढ़ कर बोलते हैं कि जांच एजेंसियां भी बच-बचाकर ही हाथ डालती हैं। अधिकारियों का बड़ा वर्ग इन्हें अंदर से पूरी तरह नापसंद करता है। पानी नाक से ऊपर आ गया है। ये काक्रोच सिर्फ सियासत में नहीं, जीवन के हर क्षेत्र पर छा चुके हैं...
महंगाई और भूख भी उतनी डरावनी नहीं, जितने कि इनके चेहरे...
इन्हीं हालात से आजिज आकर आज कोई भी व्यक्ति जब 'आम आदमी पार्टी' पर कोई चुभने वाली टिप्पणी करता है तो उसे लोग संदिग्ध नजरों से देखने लगते हैं। जिस चेहरे को टीवी स्क्रिन पर इंटरव्यू में अच्छी-अच्छी बातें करते दिखाया जाता है, जिन्हें बहसों में उनकी तरफदारी करते सुना जाता है, उनके घरों के आसपास का चक्कर लगा लीजिए, हकीकत पता चल जाती है कि सतह पर हालात कितने डरावने और असहनीय हैं। उनके बड़े से बड़े धतकर्म पर भी किसी की जुबान खोलने की हिम्मत नहीं है। पूरे देश का मतदाता इनसे आजिज आ चुका है। उसे राह नहीं सूझ रही है। फिलहाल वह 'आम आदमी पार्टी' को एक बार सियासत का बरगद इसलिए बनाते देखना चाहता है ताकि उसके नीचे सुस्ता कर आगे अपने और देश के भविष्य पर कुछ सोच सके।
ऐसा सोचने वालों में आम आदमी ही नहीं, विभिन्न वर्गों के वे भलेमानुस भी हैं जिन्होंने कभी समाज के लिए जीवन कुर्बान करने का सपना देखा था। उसे धर्म और जाति के नाम पर घृणा की राजनीति, फर्जी समाजवाद के नाम पर गुंडई की सौगात और पुश्तैनी पहचान की आड़ में विश्वशक्तियों की दलाली रत्ती भर हजम नहीं हो पाती है।
हालात कुछ तो बदले, और चाहे जो भी हो, इनके सिवाय.....
फिलहाल तो आम आदमी पार्टी के सिवाय और कोई नहीं, निस्संदेह।
आम आदमी इसलिए अरविंद केजरीवाल के पीछे नहीं भागा जा रहा कि उनसे बेहतर और कोई विकल्प नहीं है। इस तीखी प्रतिक्रिया की दो बड़ी वजहें हैं।
पहली : जनता को मौके-दर-मौके जगाने वाले आंदोलनों की पिछले कई दशकों से गुमशुदगी। चारो तरफ सन्नाटा। जो कुछ छिटपुट दिख भी जाता है, फिल्मी पर्दे पर या बौद्धिक जुगालियों में।
दूसरी : नेतानुमा चेहरों में छिपे समाज के अपराधी और माफिया, जो सिर्फ और सिर्फ पैसा जोड़ने के लिए विभिन्न पार्टियों का चोला ओढ़े पूरे मुल्क की आत्मा को मथ रहे हैं। जो कभी फिल्मों में देखे जाते थे, आज हर गली-मोहल्ले तक फैल गए हैं। आतंक इतने गहरे तक है कि 'नेता' शब्द से मन घिना जाता है। अकसर कहते सुना गया है कि 'नेता' है तो जरूर अपराधियों का सरगना होगा। ऐसी अनेक घटनाओं की जानकारियां आए दिन सूचना-माध्यमों तक पहुंचती रहती हैं लेकिन रसूखदारी की नकाब ओढ़े इन समाजविरोधियों के खिलाफ वहां भी कलम ठिठुर जाती है। जरायम दबदबे इस कदर सिर चढ़ कर बोलते हैं कि जांच एजेंसियां भी बच-बचाकर ही हाथ डालती हैं। अधिकारियों का बड़ा वर्ग इन्हें अंदर से पूरी तरह नापसंद करता है। पानी नाक से ऊपर आ गया है। ये काक्रोच सिर्फ सियासत में नहीं, जीवन के हर क्षेत्र पर छा चुके हैं...
महंगाई और भूख भी उतनी डरावनी नहीं, जितने कि इनके चेहरे...
इन्हीं हालात से आजिज आकर आज कोई भी व्यक्ति जब 'आम आदमी पार्टी' पर कोई चुभने वाली टिप्पणी करता है तो उसे लोग संदिग्ध नजरों से देखने लगते हैं। जिस चेहरे को टीवी स्क्रिन पर इंटरव्यू में अच्छी-अच्छी बातें करते दिखाया जाता है, जिन्हें बहसों में उनकी तरफदारी करते सुना जाता है, उनके घरों के आसपास का चक्कर लगा लीजिए, हकीकत पता चल जाती है कि सतह पर हालात कितने डरावने और असहनीय हैं। उनके बड़े से बड़े धतकर्म पर भी किसी की जुबान खोलने की हिम्मत नहीं है। पूरे देश का मतदाता इनसे आजिज आ चुका है। उसे राह नहीं सूझ रही है। फिलहाल वह 'आम आदमी पार्टी' को एक बार सियासत का बरगद इसलिए बनाते देखना चाहता है ताकि उसके नीचे सुस्ता कर आगे अपने और देश के भविष्य पर कुछ सोच सके।
ऐसा सोचने वालों में आम आदमी ही नहीं, विभिन्न वर्गों के वे भलेमानुस भी हैं जिन्होंने कभी समाज के लिए जीवन कुर्बान करने का सपना देखा था। उसे धर्म और जाति के नाम पर घृणा की राजनीति, फर्जी समाजवाद के नाम पर गुंडई की सौगात और पुश्तैनी पहचान की आड़ में विश्वशक्तियों की दलाली रत्ती भर हजम नहीं हो पाती है।
हालात कुछ तो बदले, और चाहे जो भी हो, इनके सिवाय.....
फिलहाल तो आम आदमी पार्टी के सिवाय और कोई नहीं, निस्संदेह।
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