Monday, 6 January 2014

पत्रकारिता में महिलाओं का भविष्य उज्ज्वल

रवि एम. खन्ना
आप अगर आज भारत में न्यूज चैनलों, अखबारों या मैगजींस को देखें तो आप बहुत सी महिलाओं को एंकर, संपादक और पत्रकार के तौर पर पाएंगे। इसे देखकर आप ऐसी धारणा बना सकते हैं कि भारत में महिलाओं की स्थिति जो भी हो, लेकिन पत्रकारिता में उन्होंने काफी नाम कमाया है। लेकिन सच्चाई ये नहीं है, महिलाएं आज भी बदलाव के एक सिरे पर हैं और उन्हें लंबा सफर तय करना है।
 हाल ही में आई वरिष्ठ पत्रकार आर. अखिलेश्वरी की किताब ‘वुमन जर्नलिस्ट इन इंडिया, स्विमिंग अगेंस्ट द टाइड’ में लेखक ने भारत में महिला पत्रकारों की स्थिति की तुलना दूसरे देशों से की है। वह बताती हैं कि किस तरह उन्होंने एक बेहतर वेतन वाली नौकरी की जगह कम सैलरी वाली अखबार की नौकरी चुनी। तीन साल बाद, जब वह हैदराबाद पहुंचीं और नौकरी तलाशने की कोशिश की तो उन्होंने पाया कि तीन साल का अनुभव और दो अवॉर्ड भी उन्हें नौकरी नहीं दिला पाए, क्योंकि सभी अखबारों और न्यूज एजेंसियों के पास उस वक्त एक महिला रिपोर्टर थी, और दूसरी को बोझ माना जाता था। हालांकि, अपने दृढ़ निश्चय के चलते अखिलेश्वरी को आठ साल बाद नौकरी हासिल हुई। वह आगे चलकर विदेश संवाददाता बनीं और उन्होंने रूस, चीन, दक्षिण अफ्रीका, यूरोप, मिडिल ईस्ट और दक्षिणपूर्व एशिया से रिपोर्टिंग की।
 पत्रकारिता एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें भारतीय महिलाओं ने बीते कुछ दशकों में काफी प्रगति की है। महिला पत्रकारों ने दंगे, युद्ध और प्राकृतिक आपदाओं को कवर किया है। वह कई न्यूज चैनलों का चेहरा बनी हैं और उन्होंने क्रिकेट जैसे खेल की रिपोर्टिंग भी की है जो कि लंबे समय तक पुरुषों के वर्चस्व वाला क्षेत्र रहा है। हालांकि, अखिलेश्वरी कुछ दिलचस्प बिंदुओं पर चर्चा करती हैं, जैसे कि महिला पत्रकारों को दिए जाने वाले हल्के-फुल्के काम और कार्यस्थल पर महिला पत्रकारों के उत्पीड़न का संवेदनशील मसला।
 किताब में इस बात पर भी चर्चा की गई है कि महिलाएं न्यूज कवरेज को नया दृष्टिकोण प्रदान कर सकती हैं ; हो सकता है कि यह बेहतर न हो, लेकिन अलग जरूर होगा। वह किन विषयों को कवर करना चाहती हैं या फिर किस तरह से स्टोरी बताना चाहती हैं, इसे लेकर उनकी अलग राय हो सकती है। कई संस्कृतियों में तो उन्हें पुरुष सहकर्मियों के मुकाबले ज्यादा सहूलियत होती है। मसलन, मुस्लिम देशों में महिला पत्रकार महिलाओं का इंटरव्यू कर सकती हैं, लेकिन पुरुष नहीं।
 अखिलेश्वरी की ये महिला पत्रकारों के अपने पुरुष सहकर्मियों के समकक्ष आने की कहानी मुझे जानी-मानी अमेरिकी पत्रकार हेलेन थॉमस की याद दिलाती है। थॉमस पिछले साल गुजर गईं। उनका शानदार करियर संघर्षों भरा था क्योंकि वह महिला थीं। हेलेन एकमात्र ऐसी पत्रकार थीं जिनकी वाइट हाउस ब्रीफिंग रूम में अपनी फ्रंट सीट थी। उन्हें वाइट हाउस प्रेस की फर्स्ट लेडी के तौर पर जाना जाता था। हेलेन ने 50 साल से ज्यादा के करियर में 10 अमेरिकी राष्ट्रपतियों को कवर किया। उन्होंने करियर की शुरुआत वॉशिंगटन डेली न्यूज से कॉपी गर्ल के रूप में की। जल्द ही वह रिपोर्टर बन गईं। लेकिन उनके करियर की असल शुरुआत 1943 में हुई जब हेलेन ने युनाइटेड प्रेस (यूपी) जॉइन किया और स्थानीय व महिलाओं से जुड़ी खबरें कवर करना शुरू किया।
 हेलेन को पहला बड़ा अवसर 1960 में मिला, जब उन्होंने युनाइटेड प्रेस इंटरनैशनल के लिए राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी और वाइट हाउस की रोजाना होने वाली प्रेस ब्रीफिंग्स को कवर करना शुरू किया। महज दो साल बाद वह केनेडी को इस बात पर राजी कराने में कामयाब हो गईं कि वाइट हाउस संवाददाताओं और फोटोग्राफरों के लिए होने वाले सालाना डिनर में महिलाओं को भी शामिल होने की इजाजत दी जानी चाहिए। थॉमस 1970 में पहली महिला चीफ वाइट हाउस कॉरेस्पॉन्डेंट बनीं। वह प्रिंट मीडिया से एकमात्र ऐसी महिला पत्रकार थीं जो राष्ट्रपति निक्सन के ऐतिहासिक चीन दौरे (1972) पर उनके साथ थीं।
 पिछले साल उनकी मौत पर राष्ट्रपति ओबामा ने कहा, ‘हेलेन सही मायने में नया रास्ता तैयार करने वाली महिला थीं, उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में महिलाओं के लिए दरवाजे खोले और उनकी रहा में आने वाले अवरोधों को हटाया। उन्होंने राष्ट्रपति निक्सन से लेकर हर वाइट हाउस को कवर किया, और इस दौरान वह राष्ट्रपतियों को - जिसमें मैं भी शामिल हूं - सतर्क रखने के मामले में कभी नहीं चूकीं। उन्हें वाइट हाउस प्रेस कॉरेपॉन्डेंट्स का अगुवा बनाने वाली वजह सिर्फ लंबा-चौड़ा करियर नहीं थी, बल्कि यह विश्वास था कि लोकतंत्र तभी बेहतर ढंग से काम करता है जब हम कठिन सवाल पूछते हैं और अपने नेताओं की जवाबदेही तय करते हैं।’
 मैंने थॉमस की कहानी की चर्चा दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र और सबसे बड़े लोकतंत्र, यानी भारत में महिला पत्रकारों की स्थिति की तुलना के लिए की। इस तुलना से मुझे भारत में महिला पत्रकारों को लेकर उम्मीद बंधती है क्योंकि जो हेलेन थॉमस ने हासिल किया वो अमेरिका को अंग्रेजों से आजादी हासिल होने के 200 साल बाद की घटना थी। लेकिन भारत की महिला पत्रकार महज 60 सालों में आधी दूरी तय कर चुकी हैं। आपको यकीन नहीं होगा कि 1959 में जाकर कोई महिला वॉशिंगटन डीसी स्थित नैशनल प्रेस क्लब की मेंबर बन सकी। हां, वह हेलेन थॉमस थीं।
 कहानी का सार ये है कि अगर भारत की महिला पत्रकार अपने पेशे को लेकर ईमानदार और समर्पित रहती हैं, और उनका फोकस लक्ष्य पर रहता है तो ऊंचाइयों पर पहुंचने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा, हो सकता है कि वे अपने पुरुष सहकर्मियों से आगे निकल जाएं। शायद पुरुष पत्रकारों को ऐसा लगता है कि वे पहले ही सबकुछ हासिल कर चुके हैं, उनके लिए पत्रकारिता अब जज्बा नहीं, शायद एक अन्य पेशे की तरह है।

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