Wednesday, 26 June 2013

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा



अनुवाद: सूरज प्रकाश और के पी तिवारी

अनुवादक की बातः महान प्रकृतिविज्ञानी चार्ल्स रॉबर्ट डार्विन (12 फरवरी 1809-19 अप्रैल 1882) को प्रजातियों के विकास की नयी अवधारणाओं के जनक के रूप में जाना जाता है। वे आधुनिक विज्ञान के भी जनक हैं। सबसे पहले उन्होंने ही ये सिद्धांत दिया था कि प्रजातियों का उद्भव विकासात्मक परिवर्तनों के कारण हुआ और यह वैज्ञानिक थ्योरी भी सबसे पहले उन्होंने ही दी थी कि प्राकृतिक चयन वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से इस तरह के परिवर्तन होते हैं।
उन्होंने चिकित्सा शास्त्र, भूविज्ञान, जीव विज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान, आदि विषयों का गहरा अध्ययन किया और कई नयी अवधारणाएं दीं। उन्होंने अपनी खोजों के लिए लम्बी लम्बी यात्राएं कीं और शोध किये। बीगल जहाज पर उन्होंने पांच वर्ष की लम्बी यात्राएं कीं और इन यात्राओं के अनुभवों को विभिन्न खोजों और प्रयोगों के रूप में वे सामने लाते रहे।
1859 में लिखी अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ओरिजिन ऑफ स्पेशीज से जहां एक ओर उन्हें मानव विकास की अपनी नयी अवधारणाओं से विश्व प्रसिद्धि मिली और वे महानतम वैज्ञानिकों की श्रेणी में गिने जाने लगे, वहीं दूसरी ओर, उन्हें अपने नये और धार्मिक विचारों के कारण चर्च की नाराज़गी भी झेलनी पड़ी। रूढ़िगत समाज को डार्विन साहब के मानव विकास के सिद्धांत मान्य नहीं थे। चर्च को लगता था कि डार्विन की थ्योरी मानव और पशुओं के बीच के महत्वपूर्ण फर्क को ही खत्म कर देगी। लेकिन डार्विन अपनी खोजों में लगे रहे और हर बार नये शोध पत्रों, पुस्तकों और आलेखों के माध्यम से अपनी बात कहते रहे।
डार्विन साहब आजीवन बीमार ही रहे और हर तरह के इलाज आजमाते रहे। लेकिन बार बार हमला करने वाली और लम्बी बीमारियों ने उनके हौसलों पर कोई असर नहीं डाला और वे मरते दम तक अपने शोधों मे लगे रहे। संयोग से उन्होंने अपनी ही कज़िन एम्मा वेजवुड से शादी की थी। पत्नी ने आजीवन उनकी सेवा की और उन्हें हर तरह संकटों से दूर रखने का प्रयास किया। लेकिन शायद बहुत नजदीकी खून के रिश्ते में शादी करने का खामियाजा उन्हें इस रूप में भुगतना पड़ा कि उनकी सारी संतानें हमेशा बीमार रहीं।
आधुनिक विज्ञान को उन्होंने बहुत कुछ दिया। बेशक जीते जी वे समाज के, गिरजाघर के और दूसरे वर्गों के हमले झेलते रहे, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि समाज को उनकी देन बहुत बड़ी है। अपने अकेले के बलबूते पर उन्होंने प्राकृतिक और जीव विज्ञान की सभी शाखाओं को समृद्ध किया और मानव विकास की विचार धारा को एक नयी सोच दी।
उन्होंने अपनी आत्म कथा अपने परिवार के सदस्यों के लिए ही लिखी थी लेकिन उनके बेटे फ्रांसिस डार्विन ने पिता के जीवन के अनछुए पहलुओं को सामने लाने के मकसद से इस आत्म कथा में अपनी ओर से अंश जोड़े हैं जिनसे इस पुस्तक का महत्व और भी बढ़ जाता है और हम एक पुत्र की नज़र से एक महान पिता के जीवन में झांकने का एक और मौका पाते हैं।
इसी पुस्तक के तीसरे हिस्से में डार्विन साहब के धर्म पर अलग अलग मंचों से और निजी पत्रों में व्यक्त किये गये विचारों को शामिल किया गया है। उनके ये विचार भी उनके वैज्ञानिक शोधों जितने ही महत्वपूर्ण हैं और हमारी सोच को आज भी एक नयी दिशा देते हैं।
हिन्दी पाठकों के सामने ये आत्म कथा पहली बार लाते हुए हम गर्व का अनुभव कर रहे हैं और विश्वास करते हैं कि आपको हमारा ये प्रयास अच्छा लगेगा।

चार्ल्स डार्विन की आत्मकथा.....................

[मेरे पिता के आत्म कथ्यात्मक संस्मरण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं। ये संस्मरण उन्होंने अपने घर परिवार और अपने बच्चों के लिए लिखे थे, और उनके मन में कत्तई यह विचार नहीं था कि कभी इन्हें प्रकाशित भी कराया जायेगा। बहुत से लोगों को यह असम्भव लग रहा होगा, लेकिन जो लोग मेरे पिता को जानते थे, वे समझ जाएंगे कि यह न केवल सम्भव था, बल्कि स्वाभाविक भी था। उनकी आत्मकथा का शीर्षक था - मेरे मन और व्यक्तित्व विकास के संस्मरण। और ये वाली अन्तिम टिप्पणी दर्ज की गयी थी 3 अगस्त 1876 को,  "मेरे जीवन का यह रेखाचित्र होपडेन में शायद 28 मई को शुरू हुआ और उसके बाद से मैंने लगभग प्रतिदिन दोपहर एक घण्टा लेखन किया।"
यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि यह आत्मकथा बहुत ही व्यक्तिगत और प्रगाढ़ सम्बन्धों को बताते हुए, अपने परिवार के लिए लिखी गयी थी, लिहाजा इसमें ऐसे अन्तरंग विवरण भी थे, जिन्हें प्रकाशित किया जाना उचित नहीं था। मैंने हटाए गए वर्णनों का जिक्र भी नहीं किया है। बहुत ही ज़रूरी होने पर ही क्रियापदों की चूक वग़ैरह को ठीक किया है, लेकिन इस तरह का बदलाव भी कम ही किया है - फ्रांसिस डार्विन]
एक जर्मन सम्पादक ने मुझे लिखा कि मैं अपने मन और व्यक्तित्व के विकास के बारे में लिखूँ। इसमें आत्मकथा का भी थोड़ा-सा पुट रहे। मैं इस विचार से ही रोमांचित हो गया। शायद यह मेरी संतानों या उनकी भी संतानों के कुछ काम आ जाए। मुझे पता है जब मैंने अपने दादाजी की आत्मकथा पढ़ी थी तो मुझे कैसा लगा था। उन्होंने जो सोचा और जो किया, तथा वे जो कुछ करते थे, वह सब पढ़ा तो लेकिन ये सब बहुत संक्षिप्त और नीरस-सा था। मैंने अपने बारे में जो कुछ लिखा है, वह इस तरह से लिखा है जैसे मैं नहीं बल्कि परलोक में मेरी आत्मा मेरे जीवन और कृत्यों को देख देखकर लिख रही हो। मुझे इसमें कुछ भी मुश्किल नहीं आयी। अब तो जीवन बस ढलान की ओर बढ़ रहा है। लेखन शैली पर मैंने कोई ध्यान नहीं दिया है।
मेरा जन्म 12 फरवरी 1809 को श्रूजबेरी में हुआ था। मुझे सबसे पहली याद उस समय की है, जब मैं चार बरस से कुछ महीने ज्यादा की उम्र का था। हम लोग समुद्र तट पर सैर-सपाटे के लिए गए थे। कुछ घटनाएँ और स्थान अभी भी मेरे मन पर धुंधली-सी याद के रूप में हैं।
मैं अभी आठ बरस से कुछ ही बड़ा था कि जुलाई 1817 में मेरी माँ चल बसीं, और बड़ी अजीब बात है कि उनकी मृत्यु शैय्या, काले शनील से बने उनके गाउन, बड़े ही जतन से सहेजी सिलाई कढ़ाई की उनकी मेज के अलावा उनके बारे में मुझे कुछ भी याद नहीं।
उसी साल बसन्त ऋतु में मुझे श्रूजबेरी के एक डे स्कूल में दाखिल करा दिया गया। उसमें मैं एक बरस तक रहा। लोग-बाग मुझे बताते थे कि छोटी बहन कैथरीन के मुकाबले मैं पढ़ाई-लिखाई में एकदम फिसड्डी था जबकि मैं तो मानता हूँ कि मैं काफी शरारती भी था।
इस स्कूल में जाने के समय तक प्राकृतिक इतिहास, और खास कर विभिन्न प्रकार की चीज़ों के संग्रह में मेरी रुचि बढ़ चुकी थी। मैं पौधों के नाम जानने की कोशिश करता, और शंख, बिल्लौरी पत्थर, सिक्के और धातुओं के टुकड़े बटोरता फिरता रहता। संग्रह करने का यह जुनून किसी भी व्यक्ति को सलीकेदार प्रकृतिवादी या कला पारखी ही नहीं, उसे कंजूस भी बनाता है। जो भी हो, यह जुनून मुझमें था, और यह सिर्फ मुझमें ही था, क्योंकि मेरे किसी भी भाई या बहन में इस तरह की रुचि नहीं थी।
इसी बीच एक छोटी-सी घटना मेरे ज़ेहन पर पुख्ता लकीर छोड़ गयी। मेरा विचार है कि यह मेरे ज़ेहन को बार बार परेशान भी कर देती थी। यह तो साफ ही था कि मैं अपने छुटपन में पौधों की विविधता में रुचि लेता था। मैंने अपने एक हम उम्र बच्चे (मैं यह पक्का कह सकता हूँ कि यह लेहटान था, जो आगे चलकर प्रसिद्ध शिलावल्क विज्ञानी और वनस्पति शास्त्री बना) को बताया कि मैं बहुपुष्पक और बसंत गुलाब को किसी खास रंग के पानी से सींचूंगा तो अलग ही किस्म के फूल लगेंगे। हालांकि यह बहुत बड़ी डींग हांकना था, लेकिन मैंने कभी इसके लिए कोशिश नहीं की थी। मैं यह मानने में संकोच नहीं करूँगा कि मैं बचपन में अलग ही तरह की कपोल कल्पनाएँ किया करता था, और ये सब महज एक उत्सुकता बनाए रखने के लिए करता था।
ऐसे ही एक बार मैंने अपने पिताजी के बाग में बेशकीमती फल बटोरे और झाड़ियों में छुपा दिए, और फिर हाँफता हुआ घर पहुँच गया और यह खबर फैला दी कि चुराए हुए फलों का एक ढेर मुझे झाड़ियों में मिला है।
मैं जब पहली बार स्कूल गया तो शायद बुद्धू किस्म का रहा होऊंगा। गारनेट नाम का एक लड़का एक दिन मुझे केक की दुकान पर ले गया। वहाँ उसने बिना पैसे दिए ही केक खरीदे, क्योंकि दुकानदार उसे जानता था। दुकान के बाहर निकलने के बाद मैंने उससे पूछा कि तुमने दुकानदार को पैसे क्यों नहीं दिए, तो वह फौरन बोला - इसलिए कि मेरे एक रिश्तेदार ने इस शहर को बहुत बड़ी रकम दान में दी थी, और यह शर्त रखी थी कि उनके पुराने हैट को पहनकर जो भी आए और किसी भी दुकान पर जाकर एक खास तरह से अपने सिर पर घुमाए तो इस शहर के उस दुकानदार को बिना पैसे माँगे सामान देना होगा।' इसके बाद उसने अपना हैट घुमाकर मुझे बताया। उसके बाद वह दूसरी दुकान में गया, वहाँ भी उसकी पहचान थी, उस दुकान में उसने कोई छोटा-सा सामान लिया, अपने हैट को उसी तरह से घुमाया और बिना पैसे दिए ही सामान लेकर बाहर आ गया। जब हम बाहर निकल आए तो वह बोला, `देखो अब अगर तुम खुद केक वाले की दुकान में जाना चाहते हो (मुझे सही जगह याद कहाँ रहने वाली थी) तो मैं अपना हैट दे सकता हूँ, और अगर तुम इसे सही ढंग से सिर पर हिलाओगे तो जो कुछ चाहोगे, बिना दाम लिए ले सकोगे।' इस दयानतदारी को मैंने फौरन मान लिया और दुकान में जाकर कुछ केक लिए, उस पुराने हैट को वैसे ही हिलाया जैसे बताया गया था, और ज्यों ही बाहर निकलने को हुआ, तो दुकानदार पैसे माँगते हुए मेरी तरफ लपका। मैंने केक को वहीं फेंका और जान बचाने के लिए सिर पर पैर रखकर भागा। जब मैं अपने धूर्त दोस्त गारनेट के पास पहुंचा तो उसे हँसते देखकर मैं चकित रह गया।
मैं अपने बचाव में कह सकता हूँ कि यह बाल सुलभ शरारत थी, लेकिन इस बात को शरारत मान लेने की सोच मेरी अपनी नहीं थी, बल्कि मेरी बहनों की हिदायतों और नसीहतों से मुझमें इस तरह की सोच पैदा हुई थी। मुझे संदेह है कि मानवता कोई प्राकृतिक या जन्मजात गुण हो सकती है। मुझे अण्डे बटोरने का शौक था, लेकिन किसी भी चिड़िया के घोंसले से मैं एक बार में एक ही अण्डा उठाता था, लेकिन एक बार मैं सारे ही अण्डे उठा लाया, इसलिए नहीं कि वे बेशकीमती थे, बल्कि महज अपनी बहादुरी जताने के लिए।
मुझे बंसी लेकर मछली मारने का बड़ा शौक था। किसी नदी या तालाब के किनारे मैं घन्टों बैठा रह सकता था और पानी की कल कल सुनता रहता था। मायेर में मुझे बताया गया कि अगर पानी में नमक डाल दिया जाए तो केंचुए मर जाते हैं, और उस दिन से मैंने कभी भी जिन्दा केंचुआ बंसी की कंटिया में नहीं लगाया। हालांकि, इससे परेशानी यह हुई कि मछलियाँ कम फंसती थीं।
एक घटना मुझे याद है। तब मैं शायद डे स्कूल में जाता था। अपने घर के पास ही में मैंने बड़ी ही निर्दयता से एक पिल्ले को पीटा। इसलिए नहीं कि वह किसी को नुक्सान पहुँचा रहा था बल्कि इसलिए कि मैं अपनी ताकत आजमा रहा था, लेकिन शायद मैंने उसे बहुत ज़ोर से नहीं मारा था, क्योंकि वह पिल्ला ज़रा-भी किंकियाया नहीं था। यह घटना मेरे दिलो दिमाग पर बोझ-सी बनी रही, क्योंकि वह जगह मुझे अभी भी याद है, जहाँ मैंने यह गुनाह किया था। उसके बाद तो जब मैंने कुत्तों से प्यार करना शुरू कर दिया तो यह बोझ शायद और भी बढ़ता गया, और उसके बाद काफी समय तक यह एक जुनून की तरह रहा। लगता है कि कुत्ते भी इस बात को जान गए थे क्योंकि कुत्ते भी अपने मालिक को छोड़ मुझे ज्यादा चाहने लगते थे।
मिस्टर केस के डे स्कूल में जाने के दौरान हुई एक घटना और भी है जो मुझे अब तक याद है, और वह है एक ड्रैगून सिपाही को दफनाने का मौका। अभी तक वह मंज़र मेरी आँखों के सामने है कि कैसे घोड़े पर उस सिपाही के बूट रख दिए गए थे और कारबाइन को काठी से लटका दिया गया था, फिर कब्र पर गोलियाँ चलायी गयीं। भीतर उस समय जैसे किसी सोये हुए कवि की आत्मा जाग उठी थी। इतना प्रभाव पड़ा उस दृश्य का।
सन 1818 की ग्रीष्म ऋतु में मेरा दाखिला डॉक्टर बटलर के प्रसिद्ध स्कूल में करा दिया गया। यह स्कूल श्रूजबेरी में था और सन 1825 तक सात साल मैंने वहीं गुज़ारे। जब यह स्कूल मैंने छोड़ा तो मेरी उम्र सोलह बरस की थी। इस स्कूल में पढ़ाई के दौरान मैंने सही मायनों में स्कूली बच्चे का जीवन बिताया। यह स्कूल हमारे घर से बमुश्किल आधा मील दूर रहा होगा, इसलिए मैं हाजिरी के बीच खाली समय और रात में ताले बन्द होने से पहले स्कूल और घर के कई चक्कर लगा लेता था। मैं समझता हूँ कि घर के प्रति जुड़ाव और रुचि को बरकरार रखने में यह काफी मददगार रहा।
स्कूल के शुरुआती दिनों के बारे में मुझे याद है कि मुझे समय पर पहुँचने के लिए काफी तेज दौड़ना पड़ता था, और तेज धावक होने के कारण मैं अक्सर सफल ही होता था। लेकिन जब भी मुझे संदेह होता था तो अधीरता से ईश्वर से प्रार्थना करने लगता था, और मुझे याद है कि अपनी कामयाबी का श्रेय मैं हमेशा ईश्वर को देता था, अपने तेज दौड़ने को नहीं, और हैरान होता था कि प्रभु ने मेरी कितनी मदद की है।
मैंने कई बार अपने पिता और दीदी को यह कहते सुना कि जब मैं काफी छोटा था तो संन्यासियों की तरह डग भरता था, लेकिन मुझे ऐसा कुछ याद नहीं आता है। कई बार मैं अपने आप में खो जाता था। ऐसे ही एक बार स्कूल से लौटते समय शहर की पुरानी चहारदीवारी पर चहलकदमी करता हुआ आ रहा था। चहारदीवारी को लोगों के चलने लायक तो बना दिया गया था, लेकिन अभी एक तरफ मुंडेर नहीं बनायी गयी थी। अचानक ही मेरा पैर फिसला और मैं सात आठ फुट की ऊँचाई से नीचे आ गिरा। इस दौरान मुझे एक विचित्र-सा अनुभव हुआ। अचानक और अप्रत्याशित रूप से गिरने और नीचे पहुँचने में बहुत ही थोड़ा समय लगा था, लेकिन इस थोड़े से समय के बीच ही मेरे दिमाग में इतने विचार कौंध गए कि मैं चकित रह गया, जबकि मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि प्रत्येक विचार के लिए काफी समय लगता है, पर मुझे तो अलग ही अनुभव हुआ था, और मेरा ये अनुभव उनसे बिलकुल ही अलग था।
डॉक्टर बटलर के स्कूल में मेरे दिमाग का जो विकास हुआ उससे बेकार और वाहियात घटना दूसरी नहीं हो सकती। यह स्कूल पूरी तरह से पुरातन पंथी था। प्राचीन भूगोल और इतिहास को छोड़ कर कुछ भी नहीं पढ़ाया जाता था। स्कूली तालीम के रूप में मेरे पास शून्य था। अपने पूरे जीवन काल में मैं किसी भी भाषा में महारथ हासिल नहीं कर पाया। कविता करने पर खास तौर से ज़ोर दिया जाता था, और इसमें भी मैं कोई तीर नहीं मार सका था। मेरे बहुत से दोस्त थे, और सबके पास देखें तो कुल मिला कर तुकबन्दियों का अच्छा संग्रह हो जाता था। बस, इन्हीं तुकबंदियों में जोड़ तोड़ करके, और दूसरे लड़कों की मदद से मैं भी इस विषय में थोड़ा बहुत हाथ साफ कर लेता था। स्कूल में ज्यादा ज़ोर इस बात पर दिया जाता था कि कल जो कुछ पढ़ा था उसे अच्छी तरह से घोंट कर याद कर लो, और यह काम मैं बखूबी कर लेता था। सुबह चैपल में ही मैं होमर या वर्जिल की चालीस पचास पंक्तियां याद कर लेता था। लेकिन यह कवायद भी एकदम बेकार थी, क्योंकि प्रत्येक पद्य महज अड़तालीस घण्टे में बिसर जाता था। मैं आलसी नहीं था, और पद्य रचना को छोड़ दें तो मैं शास्त्रीय पठन में निष्ठापूर्वक मेहनत करता था, सिर्फ तोता रटंत नहीं करता था। मुझे होरेस के मुक्तक बहुत पसन्द थे, और इस प्रकार के काव्य अध्ययन का एकमात्र आनन्द मुझे होरेस में ही मिला।
जब मैंने स्कूल छोड़ा तो मैं अपनी उम्र के मुताबिक न तो बहुत मेधावी था और न ही एकदम निखट्टू, लेकिन मेरे सभी मास्टर और मेरे पिता मुझे बहुत ही सामान्य लड़का समझते थे, बल्कि बुद्धिमानी में सामान्य पैमाने से भी नीचे ही मानते थे। एक बार पिताजी ने मुझसे कहा,`बन्दूक चलाने, कुत्तों और चूहों को पकड़ने के अलावा तुम्हे किसी काम की परवाह नहीं है। तुम खुद के लिए और सारे परिवार के लिए एक कलंक हो।' यह सुनकर मैं बहुत ही खिन्न हो गया। मैं एक बात और भी कहूँगा कि मेरे पिता बहुत ही दयालु थे, और उनकी याददाश्त का तो मैं कायल हूँ। शायद उस दिन वे बहुत ही गुस्से में थे, जो ऐसे कठोर शब्द उन्होंने मुझसे कहे।
स्कूली जीवन के दौरान अपने व्यक्तित्व निर्माण पर नज़र डालते हुए मैं कह सकता हूँ कि इस दौरान मुझमें कुछ ऐसे गुणों का भी विकास हो रहा था जो भविष्य की आधारशिला थे, जैसे कि मेरी रुचियाँ विविधतापूर्ण थीं। जिस चीज़ में मेरी रुचि होती थी उसके प्रति मैं उत्साह से भर जाता था, और किसी भी जटिल विषय या चीज़ को समझने में मुझे बहुत आनन्द आता था। मुझे यूक्लिड पढ़ाने के लिए एक प्राइवेट ट्यूटर आते थे। मुझे अच्छी तरह से याद है कि रेखागणित के प्रमेय सिद्ध करने में मुझे बहुत आनन्द आता था। इसी तरह मुझे यह भी याद है कि जब मुझे अंकल (फ्रांसिस गेल्टन के पिता) ने बैरोमीटर के वर्नियर सिद्धान्त समझाए तो मैं कितना खुश हुआ था। विज्ञान के अलावा मेरी रुचि अलग अलग किताबों में भी थी। शेक्सपीयर के ऐतिहासिक नाटक लिये मैं स्कूल की मोटी दीवार में बनी खिड़की में बैठकर घन्टों पढ़ता रहता था। यही नहीं, मैं थामसन की `सीजन' और बायरन तथा स्कॉट की कविताओं का भी आनन्द लेता था। मैंने कविताओं का ज़िक्र इसलिए किया कि आगे चल कर शेक्सपीयर सहित सभी प्रकार के काव्य में मेरी रुचि खत्म हो गई। मुझे इस बात का दुख भी है।
काव्य से मिलने वाले आनन्द के बारे में एक घटना और बताता हूँ कि 1882 में वेल्स की सीमाओं पर हम घुड़सवारी करते हुए सैर कर रहे थे और दृश्यों में जो जीवन्त रंग काव्य ने भरा था वह मेरे मन पर किसी भी अन्य सौन्दर्यपरक आनन्द की तुलना में कहीं अधिक समय तक बना रहा।
स्कूली जीवन के शुरुआती दौर की ही बात है, एक लड़के के पास `वन्डर्स ऑफ दि वर्ल्ड' नामक किताब थी। मैं अक्सर वह किताब पढ़ता था और उसमें लिखी हुई कई बातों की सच्चाई के बारे में दूसरे लड़कों के साथ बहस भी करता था। मैं यह मानता हूँ कि यही किताब पढ़ कर मेरे मन में दूर दराज के देशों की यात्रा करने का विचार आया, और यह विचार तब पूरा हुआ जब मैंने बीगल से समुद्री यात्रा की।
स्कूली जीवन के बाद के दौर में मुझे निशानेबाजी का शौक रहा। मुझे नहीं लगता कि जितना उत्साह मुझे चिड़ियों के शिकार का रहता था, उतना कोई और किसी बड़े से बड़े धार्मिक कार्य में भी क्या दिखाता रहा होगा। मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब मैंने कुनाल पक्षी का शिकार किया, तो मैं इतना उत्तेजित हो गया था कि मेरे हाथ काँपने लगे और बन्दूक में दूसरी गोली भरना मेरे लिए मुश्किल हो गया। यह शौक काफी समय तक बना रहा और मैं अच्छा खासा निशानेबाज बन गया। कैम्ब्रिज में पढ़ने के दौरान मैं आइने के सामने खड़ा होकर बन्दूक को झटके से कन्धे पर रखने की कवायद करता था, ताकि बन्दूक कन्धे पर एकदम सीधी रहा करे।
एक और भी खेल मैं किया करता था कि अपने किसी दोस्त को कह देता था कि वह मोमबत्ती जलाकर पकड़े, और फिर बन्दूक की नली पर डाट लगाकर गोली चलाता था, अगर निशाना सही होता था तो हवा के दबाव से छोटा-सा धमाका होता और नली पर लगी डाट से तीखा पटाखा बोलता था। मेरे एक ट्यूटर ने इस अजीब-सी घटना का जिक्र किया था कि लगता है मिस्टर डार्विन घन्टों अपने कमरे में खड़े होकर चाबुक फटकारते रहते हैं, क्योंकि मैं जब भी इनके कमरे की खिड़की के नीचे से गुज़रता हूँ तो चटाक चटाक की आवाज़ आती रहती है।
स्कूली लड़कों में मेरे बहुत से दोस्त थे, जिन्हें मैं बहुत चाहता था, और मुझे लगता है कि उस समय मेरा स्वभाव बहुत ही स्नेही था।
विज्ञान में मेरी रुचि बरकरार थी, मैं अब भी उसी उत्साह से खनिज बटोरता रहता था, लेकिन बड़े ही अवैज्ञानिक तरीके से। मैं सिर्फ इतना ही देखता था कि कोई नया खनिज है, तो रख लिया, लेकिन इनके वर्गीकरण की सावधानी मैं नहीं बरतता था। कीट पतंगों पर मैं तब से ही ध्यान देने लगा था, जब मैं दस बरस (1819) का था। मैं वेल्स के समुद्रतट पर स्थित प्लास एडवर्डस् गया था। वहाँ पर मैं काले और सिन्दूरी रंग के बड़े हेमिप्टेरस कीट, और जायगोनिया तथा सिसिन्डेला जैसे शलभ देखकर चकित रह गया। ये कीट श्रापशायर में दिखाई नहीं देते थे। मैंने फौरन ही अपना मन बना लिया कि जितने भी मरे हुए कीट बटोर सकूँगा, बटोरूँगा। मरे हुए कीट बटोरना मैंने इसलिए तय किया था क्योंकि मेरी बहन ने बताया था कि महज संग्रह के लिए कीटों को मारना ठीक नहीं। वाइट लिखित सेलबोर्न पढ़ने के बाद मैं पक्षियों की आदतों पर ध्यान देने लगा और इस बारे में खास खास बातों को लिखने भी लग गया। बड़े ही सामान्य भाव से मैं यह भी आश्चर्य करता था कि हर कोई पक्षी विज्ञानी क्यों नहीं बन जाता है।
मेरा स्कूली जीवन समापन की ओर था। इस बीच मेरे भाई रसायन विज्ञान में काफी मेहनत कर रहे थे। घर के बाग में बने टूलरूम को उन्होंने एक अच्छी खासी प्रयोगशाला में बदल दिया था। वहाँ पर तरह तरह के उपकरण जुटा लिए थे, और ज्यादातर प्रयोगों में मुझे उनके सहायक के तौर पर मदद की इजाज़त मिल गयी थी। उन्होंने सभी गैसें तैयार कर ली थीं और कई एक यौगिक रसायन भी बना लिए थे। मैंने भी रसायन पर कई किताबें पढ़ ली थीं, इनमें सबसे पसन्दीदा किताब थी, हेनरी और पार्क्स की कैमिकल कैटेकिस्म। इस विषय में मेरा मन बहुत रम रहा था, और हम दोनों भाई देर रात तक काम में जुटे रहते थे। स्कूली शिक्षा के दौरान यह समय मेरे जीवन का सर्कोत्तम काल था, क्योंकि इसी दौरान मैंने प्रयोगात्मक विज्ञान को व्यावहारिक रूप में समझा। हम दोनों मिलकर रसायनों पर प्रयोग करते हैं, यह बात न जाने कैसे स्कूल में फैल गयी। इस तरह का काम स्कूली लड़कों ने पहले कभी नहीं किया था, इसलिए सबने इसका मज़ाक उड़ाया और इसे नाम दिया - गैस। डॉक्टर बटलर हमारे हेडमास्टर थे। एक बार उन्होंने भी सभी के सामने मेरा अपमान करते हुए कहा कि मैं ऐसे वाहियात किस्म के विषयों पर अपना समय बर्बाद कर रहा हूँ। उन्होंने सबके सामने बेवजह ही मुझे एकान्तवासी संन्यासी कहा, उस समय तो मुझे इसका मतलब समझ नहीं आया लेकिन इतना तो मैं जान ही गया था कि कुछ कड़वी बात कही गयी है।
यह देखते हुए कि मैं स्कूल में कुछ खास नहीं कर पा रहा हूँ, मेरे पिता ने समझदारी दिखाते हुए मुझे कुछ पहले ही स्कूल से उठवा लिया और मुझे भाई के साथ (अक्तूबर 1825) एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी भेज दिया, जहाँ पर मैं दो बरस तक रहा।
मेरे भाई अपनी डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर रहे थे। हालांकि मैं जानता था कि डाक्टरी की प्रैक्टिस करने का उनका कोई इरादा नहीं था, और पिताजी ने मुझे इसलिए भेजा था कि मैं भी डाक्टरी की पढ़ाई शुरू कर सकूँ। इसी दौरान मुझे कुछेक छोटी मोटी घटनाओं से यह पता चल चुका था कि मेरे पिताजी मेरे लिए इतनी जायदाद छोड़ जाएँगे कि मैं आराम से ज़िन्दगी बसर कर सकूँ। हालांकि मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मैं इतना धनवान हूँ, लेकिन जब मुझे अपनी हैसियत का पता चला तो इतना ज़रूर हुआ कि डाक्टरी पढ़ने की मेहनत के रास्ते में रुकावट आ गयी।
एडिनबर्ग में सारी शिक्षा लैक्चरों के जरिए दी जाती थी। लेकिन ये लैक्चर इतने उबाऊ और नीरस होते थे कि बस, पूछो मत। इनमें अगर कुछ अपवाद था तो रसायनशास्त्र के बारे में होप के लैक्चर। इस सबके बावजूद मेरे विचार से पढ़ने की तुलना में लैक्चरों से लाभ तो कुछ नहीं होता था, उल्टे इनके साथ हानियाँ कई एक जुड़ी हुई थीं। सर्दियों में सवेरे ठीक आठ बजे डॉक्टर डन्कन द्वारा मैटेरिया मेडिका पर दिए जाने वाले लैक्चरों की याद आज भी तन को झकझोर देती है। डॉक्टर मुनरो मानव शरीर शास्त्र पर उतने ही नीरस लैक्चर देते थे, जितने नीरस वे खुद थे, और यह विषय मुझे वैसे भी कोफ्त भरा लगता था। मेरे जीवन में यह तो एक बड़ी दुर्घटना के रूप में तो है ही कि मैं चीर-फाड़ की कला नहीं सीख पाया। यदि सीख लेता तो न केवल अपनी झुँझलाहट से बच जाता, बल्कि यह अभ्यास भविष्य में मेरी काफी मदद करता। इस कमी की तो भरपाई कभी भी नहीं हो पायी।
मुझमें एक और कमी भी थी कि मैं ड्राइंग भी नहीं बना पाता था। मैं अस्पताल में क्लीनिकल वार्ड में नियमित रूप से जाता था। कुछ मामले तो ऐसे थे जिन्हें देखकर मैं व्याकुल हो जाता था। कुछ तो ऐसे हैं जो आज भी मेरे दिलो-दिमाग पर गहराई से छाए हुए हैं, लेकिन इन सबसे विचलित होकर मैंने कक्षाओं में अपनी हाजिरी कम नहीं होने दी। मुझे अभी भी यह समझ में नहीं आया है कि इस विषय की शिक्षा प्राप्त करने में मुझे रोचकता का अनुभव क्यों नहीं हुआ, क्योंकि एडिनबर्ग आने से पहले गर्मियों के दौरान श्रूजबेरी में मैंने कुछ गरीब लोगों का इलाज किया था, खासकर औरतों और बच्चों का। सभी रोगियों के मामलों में मैंने उनके सभी लक्षणों को विस्तारपूर्वक लिखा, फिर ये सभी पिताजी को सुनाए, उन्होंने कुछ और बातें भी पूछने के लिए कहा और मुझे दवाओं के बारे में भी बताया। ये दवाएं भी मैंने खुद ही तैयार कीं। एक बार में मेरे पास तकरीबन एक दर्जन बीमार आते थे और मुझे इस काम में काफी रुचि भी थी।
मैं जितने भी लोगों को जानता हूँ, उनमें मेरे पिताजी ही ऐसे थे जो व्यक्तित्व के गहरे रखी थे, और उन्होंने मेरे लिए एक दिन कहा था कि मैं एक सफल डाक्टर बन सकता हूँ, इसका मतलब तो बस यही होता था, ऐसा व्यक्ति जिसके पास ढेर सारे मरीज आएँ। दूसरी ओर वे यह भी मानते थे कि सफलता का मुख्य तत्त्व है, आत्मविश्वास; लेकिन मेरी जिस बात ने उन्हें प्रभावित किया था वह यह कि मैं जो कुछ नहीं भी जानता था उस बात के प्रति भी अपने मन में आत्मविश्वास पैदा कर लेता था। मैं एडिनबर्ग में दो बार ऑपरेशन थिएटर में भी गया, और बहुत ही दर्दनाक ढंग से किए जा रहे दो ऑपरेशन भी देखे। इनमें से एक ऑपरेशन तो किसी बच्चे का था, लेकिन ऑपरेशन पूरा होने से पहले ही मैं बाहर निकल आया। इसके बाद मैं कभी भी ऑपरेशन कक्ष में नहीं गया।
यहाँ यह भी बता दूँ कि उन दिनों क्लोरोफार्म का उपयोग नहीं किया जाता था, इसलिए दोनों ही ऑपरेशन देखकर दिल दहल गया था। मन में एक बलवती इच्छा तो थी कि एक बार मैं फिर ऑपरेशन देखने जाऊँ, लेकिन कभी नहीं गया। लेकिन दोनों ऑपरेशनों के दृश्य मुझे काफी दिनों तक विचलित करते रहे।
मेरे भाई यूनिवर्सिटी में सिर्फ एक साल ही मेरे साथ रहे। दूसरे बरस तो सारे इन्तज़ाम मुझे खुद ही करने पड़े, और यह एक तरह से अच्छा भी रहा, क्योंकि इसी दौरान मैं ऐसे युवकों के सानिध्य में आया जो प्राकृतिक विज्ञान में रुचि रखते थे। इन्हीं युवाओं में एक थे, एन्सवर्थ, बाद में इन्होंने असीरिया की यात्रा का वृत्तांत भी प्रकाशित कराया। ये सज्जन वर्नेरियन भूविज्ञानी थे, और बहुत से विषयों की थोड़ी बहुत जानकारी रखते थे। डॉक्टर कोल्डस्ट्रीम एक अलग ही तरह के नवयुवक थे। बड़े ही विनम्र और नफासत पसन्द, बहुत ही धार्मिक और दयालु; बाद में इन्होंने प्राणिशास्त्र में कई बेहतरीन लेख प्रकाशित कराए। मेरा एक और युवा साथी था, हार्डी, आगे चलकर वह वनस्पति शास्त्री बना, लेकिन भारत प्रवास के दौरान बहुत कम उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी थी।
मेरे आखिरी दोस्त थे डॉक्टर ग्रान्ट। वैसे तो वे मुझसे कई बरस वरिष्ठ थे; उनके साथ मेरी घनिष्ठता कैसे हुई, मुझे नहीं मालूम। उन्होंने प्राणिशास्त्र में अतिश्रेष्ठ लेख प्रकाशित कराए थे, लेकिन यूनिवर्सिटी कॉलेज में प्रोफेसर के रूप में लन्दन आने के बाद उन्होंने विज्ञान में कुछ खास नहीं किया। यह बात ऐसी थी, जिसे मैं कभी समझ नहीं पाया। मैं उन्हें अच्छी तरह से जानता था। उनका व्यवहार बड़ा ही नीरस और औपचारिक था, लेकिन इस बाहरी खोल के भीतर निहायत ही नेक दिल और उत्साही व्यक्ति छिपा हुआ था। एक दिन हम लोग साथ-साथ घूम रहे थे कि अचानक ही उन्होंने उद् विकास के बारे में लैमारेक के दृष्टिकोणों पर अपने विचार प्रकट करने शुरू कर दिए। मैं चकित होकर मूक श्रोता बना रहा, लेकिन जहाँ तक मेरा ख्याल है, मुझ पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इससे पहले मैंने अपने दादाजी की जूनोमिया पढ़ी थी। उसमें भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए गए थे और उनका भी मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। इसके बावजूद यह भी सम्भावना है कि जीवन के आरम्भ में ही इस प्रकार की विचारधारा को स्वीकार करता और उसकी प्रशंसा करता तो जिस प्रकार से उन्हीं विचारों को मैंने ओरिजिन ऑफ स्पेशीज़ में लिखा है, शायद उनका रूप कुछ और ही होता। इस समय मैं जूनोमिया की काफी प्रशंसा करता हूँ, लेकिन दस या पन्द्रह वर्ष के अन्तराल के बाद दोबारा वही किताब पढ़ कर मैं काफी असन्तुष्ट रहा। तथ्यों और परिकल्पनाओं में बहुत ही अन्तर दिखाई दिया।
डॉक्टर ग्रान्ट और डॉक्टर कोल्डस्ट्रीम, दोनों ही मैरीन जूलॉजी पर अधिक ध्यान देते थे। मैं भी यदा कदा डॉक्टर ग्रान्ट के साथ समुद्र किनारे चला जाता था और समुद्र में ज्वार के बाद किनारे रुके हुए पानी में जीव पकड़ता था। बाद में इन जीवों की मैं चीर-फाड़ भी करता था। न्यू हैवेन के बहुत से मछुआरों से मेरी दोस्ती हो गयी थी। जब वे सीपियाँ पकड़ने जाते तो मैं भी कई बार उनके साथ हो लेता था। इस तरह से मैंने कई नमूने एकत्र कर लिए थे। अब चीर-फाड़ का मुझे अधिक ज्ञान और अभ्यास भी नहीं था और मेरा सूक्ष्मदर्शी यंत्र भी बस कामचलाऊ ही था। इन सब बाधाओं के कारण मैं इस दिशा में ज्यादा कुछ नहीं कर पाया।
इस सबके बावजूद मैंने छोटा किन्तु रोचक अन्वेषण किया और प्लिनियन सोसायटी के समक्ष एक छोटा-सा लेख भी पढ़ा। यह लेख फ्लस्ट्रा के डिम्बों के बारे में था। इसमें मैंने बताया था कि सिलिया के माध्यम से इसमें स्वतंत्र गति होती है, लेकिन बाद में पता चला कि वास्तव में ये लारवे थे। एक और लेख में मैंने दर्शाया था कि छोटे छोटे गोलाकार जीव, जिन्हें फ्यूकस लोरेस की आरम्भिक अवस्था कहा जाता है, वस्तुत: पोन्टोबडेला म्यूरीकेटा जैसे कृमियों के अण्डों का खोल थे।
मेरी जानकारी के मुताबिक प्लिनियन सोसायटी की स्थापना प्रोफेसर जेम्सन ने की थी और वही इसके प्रेरक भी थे, इस सोसायटी में कई छात्र भी शामिल थे और प्राकृत विज्ञान के बारे में लेख पढ़ने और विचार विमर्श के लिए यूनिवर्सिटी के एक तहखाने में इसकी बैठकें होती रहती थीं। मैं इनमें नियमित रूप से शामिल होता था, और मेरे उत्साह को बढ़ाने तथा मुझे नए किस्म की अंदरूनी नज़दीकी प्रदान करने में इन बैठकों का काफी योगदान रहा।
एक शाम की बात है, एक बेचारा युवक बोलने के लिए खड़ा हुआ किन्तु बहुत देर तक हकलाता रहा। वह भयातुर हो पीला पड़ गया। अन्त में वह किसी तरह बोला, `माननीय अध्यक्ष महोदय, मैं जो कुछ कहना चाहता था, वह सब भूल गया हूँ।' वह बेचारा पूरी तरह से भयभीत लग रहा था। सभी सदस्य हैरान, कोई भी यह समझ नहीं पा रहा था कि उस बेचारे की बौखलाहट पर क्या कहा जाए? हमारी सोसायटी में जो लेख पढ़े जाते थे वे मुद्रित नहीं होते थे, इसलिए मुझे अपने लेखों को मुद्रित रूप में देख पाने का सौभाग्य नहीं मिला, लेकिन मुझे मालूम है कि डॉक्टर ग्रान्ट ने मेरी छोटी-सी खोज को फ्लास्ट्रा पर अपने अनुसंधान लेख में स्थान दिया था।
मैं रॉयल मेडिकल सोसायटी का भी सदस्य था, और इसमें भी नियमित रूप से शामिल होता था। इसके सभी विषय पूरी तरह से मेडिकल से जुड़े थे, इसलिए मेरी रुचि अधिक नहीं रही। यहाँ तो सब ऊल-जलूल ही बातें होती थीं, लेकिन इसमें कुछ अच्छे वक्ता भी थे। इनमें सर जे के शटलवर्थ सर्वोत्तम थे। डॉक्टर ग्रान्ट मुझे यदा कदा वर्नेरियन सोसायटी की सभाओं में भी ले जाते थे। वहाँ प्राकृतिक इतिहास पर विभिन्न आलेखों का वाचन किया जाता था, विचार विमर्श होता और फिर उन्हें ट्रान्जक्शन्स में प्रकाशित किया जाता था। मैंने सुना था कि ऑडोबान ने दक्षिण अमरीकी पक्षियों की आदतों पर रोचक आख्यान दिया था। वाटरटन में बड़े ही अन्यायपूर्वक तरीके से उसका तिरस्कार हुआ। इस सबके बीच मैं यह भी बताना चाहूंगा कि एडिनबर्ग में एक नीग्रो रहता था, जिसने वाटरटन के साथ यात्रा की थी। मरे हुए पक्षियों में भुस भर कर वह अपना जीवन यापन करता था। इस काम में उसे महारथ हासिल थी। कुछ पैसे लेकर उसने मुझे भी यह काम सिखा दिया। अक्सर मैं उसके पास बैठता था। वह बड़ा ही खुशमिज़ाज और बुद्धिमान व्यक्ति था।
मिस्टर लियोनार्ड हार्नर एक बार मुझे रायल सोसायटी ऑफ एडिनबर्ग की सभा में भी ले गए। वहाँ मैंने सर वाल्टर स्कॉट को अध्यक्ष के रूप में देखा। सर स्काट इस बात के लिए माफी माँग रहे थे कि वे उस पद के लायक नहीं थे। मैंने उन पर और समूचे दृश्य पर हैरानी और श्रद्धापूर्वक निगाह दौड़ायी। मैं समझता हूँ इसका कारण यह था कि मैं वहाँ काफी युवावस्था में पहुंच गया था और मैं रॉयल मेडिकल सोसायटी की सभाओं में जाता रहता था, लेकिन मुझे इस बात का गर्व था कि इन दोनों ही सोसायटियों ने कुछ ही बरस पहले मुझे अपनी सदस्यता प्रदान की थी, जो अपने आप में किसी भी सम्मान से कहीं अधिक था। यदि मुझे कभी बताया जाता कि मुझे यह सम्मान मिलेगा तो मैं कहता हूँ कि मुझे ही यह हास्यास्पद और असम्भव सा लगता, जैसे कि किसी ने मुझसे कह दिया हो कि `तुम्हें इंग्लैन्ड का राजा चुना जाना चाहिए'।
एडिनबर्ग प्रवास के अपने दूसरे बरस में मैंने भूविज्ञान और प्राणीविज्ञान पर जेम्सन के व्याख्यान सुने, पर ये बहुत ही नीरस थे। इनका मुझ पर जो समग्र प्रभाव पड़ा, वह यही था कि मैं ताज़िन्दगी भूविज्ञान पर कोई किताब पढ़ने का प्रयास न करूँ या फिर विज्ञान का अध्ययन ही न करूँ। तो भी इतना तो पक्का ही है कि मैं इस विषय पर दार्शनिक व्याख्यान के लिए तैयार था, क्योंकि श्रापशायर के निवासी एक बुज़ुर्ग मिस्टर कॉटन को चट्टानों की अच्छी जानकारी थी। उन्होंने ही दो तीन बरस पहले श्रूजबेरी शहर में पड़े एक शिलाखण्ड के बारे में बताया था। इस शिलाखण्ड को लोग बेलस्टोन कहते थे। इसके बारे में बताते हुए उन्होंने कहा था कि कैम्बरलैन्ड या स्कॉटलैन्ड से पहले इस तरह की चट्टानें नहीं मिलती हैं। उन्होंने मुझे बड़े ही प्रभावपूर्ण ढंग से बताया कि जिस जगह पर यह शिलाखण्ड पड़ा था, उस जगह तक यह कैसे पहुँचा, यह भेद तो शायद प्रलय के बाद भी नहीं खुलेगा। इसका मुझ पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और मैं इस सुन्दर शिलाखण्ड के बारे में कई बार चिन्तन करता रहता था। इसी बीच जब मैंने यह वृत्तान्त पढ़ा कि किस प्रकार आइसबर्ग के माध्यम से बड़े बड़े शिलाखण्ड भी अपनी जगह बदल देते हैं, तो मैं पुलकित हो उठा, और मैं उन महाशय के भूविज्ञान के ज्ञान की दशा पर रीझ गया।
यह तथ्य भी मुझे उतना ही चमत्कारी लगा, जब सड़सठ वर्ष की अवस्था में मैंने सेलिसबरी क्रेग में एक प्रोफेसर से काले रंग की चट्टान के बारे में व्याख्यान सुना। हमारे आस पास तो ज्वालामुखीय चट्टानें हैं। उस परिवेश में बादामी आकार वाले किनारों और दोनों तरफ कठोर परत वाली इस चट्टान के बारे में उन्होंने कहा कि इसमें कोई दरार रही होगी जिस पर ऊपर से गाद भरती चली गयी। उपहासपूर्वक उन्होंने यह भी कहा कि कुछ लोग यह मानते हैं कि यह कठोर परत तरल रूप में नीचे से घुसी हुई होगी। यह लैक्चर सुनने के बाद तो भूविज्ञान के व्याख्यान सुनने में अपने परहेज़ पर मुझे क़तई हैरानी नहीं हुई।
जेम्सन के व्याख्यान सुनने के बाद मैं मिस्टर मैकागिलिवरे से परिचित हुआ। ये एक संग्रहालय के क्यूरेटर थे। इन्होंने स्काटलैन्ड के पक्षियों पर एक बड़ी पुस्तक का प्रकाशन कराया। मैं उनके साथ प्राकृत इतिहास पर रोचक चर्चा करता रहता था, और वह मुझसे प्रसन्न भी रहते थे। उन्होंने मुझे कुछ दुर्लभ शल्क भी दिए। उस समय मैं समुद्री मोलस्कों का संग्रह कर रहा था, लेकिन इस संग्रह के लिए मुझ में कोई खास उत्साह नहीं था।
इन दोनों ही वर्षों में गर्मी की छुट्टियों में मैंने खूब मज़े मारे। हाँ, इतना ज़रूर था कि कोई न कोई पुस्तक मैं हमेशा पढ़ता रहता था। सन 1826 की गर्मियों में मैंने अपने दो दोस्तों को साथ लिया, अपने-अपने पिट्ठू थैले लादे और नॉर्थ वेल्स की सैर को पैदल ही निकल गए। एक दिन में हम तीस मील तो चले ही जाते थे। एक दिन हमने स्नोडान में पड़ाव भी डाला। एक बार मैं अपनी बहन के साथ घुड़सवारी करता हुआ नॉर्थ वेल्स की सैर को भी गया था। एक नौकर ने काठी वाले झोले में हमारे कपड़े संभाले हुए थे। पतझड़ का सारा मौसम निशानेबाजी में जाता था। यह समय मैं ज्यादातर वुडहाउस में मिस्टर ओवेन और मायेर में अंकल जोस के साथ बिताता था। निशानेबाजी का तो मुझ पर जुनून-सा सवार था। इतना कि जब मैं सोने के लिए जाता तो अपने शिकारी जूते भी पलंग के पास ही रख लेता था ताकि सवेरे उठते ही उन्हें पहन सकूँ और अपना एक मिनट भी बरबाद किए बिना तैयार हो जाऊँ।
एक बार 20 अगस्त को तो अपने इसी प्रिय खेल के चक्कर में मैं मायेर में काफी दूर तक निकल गया, और घने सरकण्डों तथा स्काटलैन्ड में पाए जाने वाले देवदार के पेड़ों के बीच सारा दिन गेमकीपर के साथ भटकता रहा।
पूरे मौसम में मैं जितने पक्षियों का शिकार करता था, उन सब का पूरा लेखा-जोखा रखता था। एक दिन वुडहाउस में मिस्टर ओवेन के ज्येष्ठ पुत्र कैप्टन ओवेन और उनके कज़िन मेजर हिल के साथ निशानेबाजी कर रहा था। यही मेजर हिल आगे चलकर लार्ड बेरविक के नाम से मशहूर हुए। इन दोनों ही से मेरी खूब छनती थी। इसी का फायदा उठाते हुए उस रोज़ दोनों ने मुझे खूब छकाया, क्योंकि जितनी बार मैं गोली चलाता और सोचता कि मैंने एक पक्षी मार लिया है तो फौरन ही दोनों में से कोई एक अपनी बन्दूक में गोली भरने का स्वांग करने लगता, और वहीं से चिल्लाता, `तुम उस पक्षी की गिनती मत करना क्योंकि उसी वक्त मैंने भी गोली चलायी थी'। और तो और, गेमकीपर भी उनके इस मज़ाक को समझ गया और उन्हीं का साथ देने लगा। कुछ घंटों के बाद जब उन्होंने इस मज़ाक के बारे में बताया, तो साथ ही यह भी बताया कि उस दिन मैंने बहुत से पक्षियों का शिकार किया था, लेकिन मुझे नहीं मालूम है कि कितने पक्षियों का, क्योंकि उनके मज़ाक के चक्कर में मैंने गिनती नहीं की थी। अमूमन ऐसा होता था कि अपने कोट के बटन के साथ मैं एक धागा लटका लेता था और जितने पक्षी मैं मारता था उतनी ही गाँठें उस धागे में लगाता जाता था, पर उस दिन मैं ऐसा नहीं कर पाया था। यह मेरे ठिठोलीबाज़ दोस्तों को मालूम था।
मैं इस निशानेबाजी में क्यों रुचि लेने लगा था, मुझे नहीं मालूम, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि उस वक्त मैं निशानेबाजी के चक्कर में विवेकशून्य हो गया था। तभी तो मैं यह सोचने लगा था कि अच्छी निशानेबाजी भी बुद्धिमानी की निशानी है, क्योंकि यह जानना भी एक कला है कि अच्छे शिकार कहाँ मिलेंगे और उनका शिकार कैसे किया जाए।
मैं सन 1827 में जब पतझड़ के मौसम में मायेर गया हुआ था, तो वहां पर सर जे मेकिनटोश से भेंट हुई। मुझे जितने भी वक्ता मिले उनमें वे सर्वोत्तम थे। बाद में पीठ पीछे मेरी तारीफ करते हुए उन्होंने गर्व से कहा था, `इस युवक में कुछ है जो मुझे रुचिकर लगा।' शायद उन्होंने भी देख लिया था कि उनकी बतायी हर बात को मैं कितने ध्यान से सुन रहा था, और मैं तो इतिहास, राजनीति और नैतिक दर्शनशास्त्र के बारे में निरा बुद्धू था। किसी प्रसिद्ध व्यक्ति से अपनी प्रशंसा सुनना किसी भी युवक को अच्छा लगता है, क्योंकि यह उसे सही रास्ते पर लगाए रखता है, हालांकि इस प्रकार की तारीफ से कुशाग्रता बढ़ती है लेकिन कई बार मिथ्या अहं भी बढ़ सकता है।
बाद के दो-तीन बरस में जब मैं मायेर गया तो मैंने निशानेबाजी नहीं की, फिर भी समय शानदार गुज़रा। वहाँ का जीवन एकदम तनाव रहित था। पैदल घूमने या घुड़सवारी करने के लिए दूर-दराज के इलाके बड़े ही दिलकश थे, और शाम को सब बैठकर संगीत और गप्पबाजी का आनन्द लेते थे। हमारी गप्पें बहुत व्यक्तिगत नहीं होती थीं, जैसा कि बड़े परिवारों में अक्सर होती हैं। गर्मियों में पूरा परिवार अक्सर पुराने पोर्टिको की सीढ़ियों में बैठ जाता था। सामने ही फुलवारी थी और मकान के ठीक सामने फैला हुआ ढलवाँ जंगल नदी में चमकता रहता था। नदी में मछलियों की छलाँग या जल पक्षियों का तैरना बड़ा ही मनमोहक था। मेरे दिलो दिमाग पर मायेर की उन शामों की याद आज भी ताज़ा है। मैं अंकल जोस का बहुत आदर करता था और मुझे उनसे लगाव भी बहुत था। वे बहुत ही मौन प्रकृति के और एकान्तप्रिय व्यक्ति थे, लेकिन मुझसे कई बार खुलकर बातें करते थे। वे अत्यन्त सरल और स्पष्ट विवेक के स्वामी थे। मुझे नहीं लगता कि संसार में ऐसी कोई भी शक्ति होगी जो उन्हें उस मार्ग से विचलित कर सके, जो मार्ग उनकी समझ में सही हो। उनके बारे में मैं होरेस के काव्य की कुछ पंक्तियाँ कहता था।
कैम्ब्रिज, 1828-1831 एडिनबर्ग में दो सत्र गुज़ारने के बाद, पता नहीं मेरे पिता को मालूम हो गया, या मेरी बहनों ने बता दिया कि मैं फिजीशियन बनने का विचार पसन्द नहीं करता। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं पादरी बन जाऊँ तो बेहतर होगा। क्योंकि मैं एक निठल्ला शिकारी बनूँ, इस बात के वे प्रखर विरोधी थे। उस समय तो यही सम्भावना ज्यादा थी कि मैं शिकारी बनने की ओर कदम बढ़ा रहा था। मैंने सोचने के लिए कुछ मोहलत माँगी, ताकि चर्च ऑफ इंग्लैन्ड के सभी धर्मसूत्रों के प्रति अपने मन में विश्वास पैदा कर सकूं, क्योंकि सुनी सुनाई बातों के कारण में मन में बहुत-सी आशंकाएं घर कर चुकी थीं। इसके अलावा मैं पादरी बनने के विचार को पसन्द करता था। इसी क्रम में मैंने ईसाई सिद्धान्तों पर पीयरसन के लेख और अन्य धर्मग्रन्थ बहुत ही सावधानी से पढ़े। उस समय तो बाइबल के प्रत्येक शब्द में वर्णित सत्य का कड़े और अक्षरशः पालन करने में मुझे संदेह नहीं रह गया। जल्द ही मैं इस बात का मुरीद हो गया कि ईसाई मत के सिद्धान्तों का सम्पूर्ण रूप से पालन होना चाहिए।
इस बात पर ध्यान दूँ कि मेरे विचारों के कारण किस प्रकार से मुझ पर रूढ़िवादियों ने हमले किए, तो यह बड़ा ही असंगत लगता है कि कभी मैं पादरी बनना चाहता था। वैसे मेरा तो अभिप्राय नहीं था और मैंने पिताजी की इच्छा को छोड़ा भी नहीं था, लेकिन पादरी बनने का यह विचार भी उस समय स्वाभाविक रूप से दम तोड़ गया, जब मैंने प्रकृतिवादी के रूप में बीगल में काम शुरू किया। यदि मानस विज्ञानियों का भरोसा किया जाए तो मैं पादरी बनने के लिए कई मायनों में एकदम सही था। कुछ वर्ष पहले जर्मन मानस विज्ञानी सोसायटी के कार्यालय से मुझे एक पत्र मिला था, जिसमें उन्होंने काफी शिद्दत के साथ मेरा फोटो माँगा था। कुछ समय बाद मुझे उनकी बैठकों का वृत्तान्त प्राप्त हुआ, उसमें यह उल्लेख था कि मेरे ललाट का आकार प्रकार वहां चर्चा का विषय रहा, और वहाँ मौजूद एक वक्ता ने तो यहाँ तक कहा कि मेरे जैसा उन्नत ललाट तो दस पादरियों को मिलाकर भी नहीं होगा।
जब यह तय हो गया कि मैं पादरी बनूँ, तो यह भी ज़रूरी हो गया कि इस दिशा में तैयारी करने के लिए मैं किसी इंग्लिश यूनिवर्सिटी में पढ़ने जाऊँ और उपाधि हासिल करूँ। मेरे साथ संकट यह था कि स्कूल छोड़ने के बाद मैंने कोई शास्त्रीय ग्रन्थ नहीं पढ़ा था। मुझे यह जान कर बड़ा ही क्षोभ हुआ कि इन दो बरस के दौरान स्कूल में पढ़ा हुआ सब कुछ भूल गया था। सब कुछ। यहाँ तक कि ग्रीक वर्णमाला के कुछ अक्षर भी। इसलिए मैं अक्तूबर में ठीक समय पर कैम्ब्रिज नहीं जा सका, बल्कि श्रूजबेरी में ही प्राइवेट ट्यूटर से पढ़ा और फिर क्रिसमस की छुट्टियों के दौरान 1828 की शुरुआत में ही कैम्ब्रिज जा पाया। मैंने जल्द ही स्कूल की सारी पढ़ाई को याद कर लिया, और होमर तथा ग्रीक टेस्टामेन्ट जैसी आसान ग्रीक पुस्तकों का सुविधानुसार अनुवाद भी कर लेने लगा था।
यदि शैक्षणिक ज्ञान को देखा जाए तो मैंने कैम्ब्रिज में तीन बरस का अपना समय बरबाद किया। यह ठीक वैसा ही रहा जैसा एडिनबर्ग में स्कूल में हुआ था। मैंने गणित का अभ्यास शुरू किया, और 1828 की गर्मियों में बारमाउथ में प्राइवेट ट्यूटर भी रखा, लेकिन मेरी पढ़ाई बहुत धीमी चल रही थी। मुझे बीजगणित के शुरुआती सूत्र तो बेमतलब ही लग रहे थे। पढ़ाई में इस तरह की अधीरता दिखाना एक तरह से बेवकूफी थी, क्योंकि बाद के समय में मैं खुद को ही कोसता था कि मैंने मेहनत क्यों नहीं की और गणित के कुछ विख्यात सूत्रों को क्यों नहीं समझा। मुझे लगने लगा था कि गणित की जानकारी रखने वाले प्रबल मेधा के स्वामी होते हैं। लेकिन साथ ही मुझे यह भी महसूस हुआ कि गणित की पढ़ाई में मैं खास कुछ कर भी न पाता। शास्त्रीय ज्ञान के बारे में मैंने कॉलेज के अनिवार्य लैक्चरों के अलावा कुछ खास नहीं किया, और इनमें भी मैं मामूली तौर पर ही जाता था।
अपने दूसरे वर्ष के दौरान लिटिल गो पास करने के लिए मैंने एक या दो महीने जमकर मेहनत की और बेड़ा पार हो गया। इसी तरह से अंतिम वर्ष में बीए की डिग्री पाने के लिए मैंने मनोयोग से अध्ययन किया, अपना शास्त्रीय ज्ञान, बीजगणित और यूक्लिड दोहराया। यूक्लिड में मुझे वैसा ही आनन्द आया जैसा कि स्कूली दिनों में आता था। बीए की परीक्षा पास करने के लिए मुझे पाले द्वारा लिखित एविडेन्स ऑफ फिलॉस्फी पढ़ना भी ज़रूरी था। यह काम मैंने मन लगाकर किया और मुझे यह तो भरोसा हो ही गया था कि मैं सम्पूर्ण एविडेन्स को पूरी शुद्धता के साथ लिख सकता था। हाँ, इतना ज़रूर है कि पाले जैसी स्पष्ट भाषा नहीं लिख पाता। इस किताब के विभिन्न प्रकार के तर्कों ने, और मैं यह भी कहूँगा कि उनकी प्राकृतिक आध्यात्म विद्या ने मुझे यूक्लिड जैसा ही आनन्द प्रदान किया। इन रचनाओं का सावधानीपूर्वक अध्ययन हमारे शैक्षणिक पाठ्यक्रम का वह भाग था जो मेरे दिमागी विकास के लिए शिक्षण में ज़रा-सा भी काम का नहीं था। मैंने इन रचनाओं की तोता रटंत का प्रयास नहीं किया। इसे मैं तब भी बेकार मानता था और आज भी मानता हूँ। मैंने उस समय पाले की भूमिका के बारे में स्वयं को ज्यादा परेशान नहीं किया; इसी विश्वास के बूते मैं तर्क वितर्क की परम्परा से खुश और सन्तुष्ट भी रहा। पाले के सभी प्रश्नों का ठीक उत्तर देने, यूक्लिड में बेहतर तैयारी और शास्त्रों की पढ़ाई में भी दयनीय रूप से असफल न होने के कारण मुझे आनर्स न करने वाली पोल्लोई या लोगों की भीड़ में अच्छा स्थान और डिग्री भी मिल गयी। मुझे ठीक तरह से तो नहीं मालूम कि मेरा रैंक कितना ऊपर था, लेकिन मुझे थोड़ा बहुत याद है कि सूची में पाँचवें, दसवें या शायद बारहवें स्थान पर था।
यूनिवर्सिटी में कई विषयों पर सार्वजनिक व्याख्यान दिए जाते थे, और इनमें ह़ाजिर होना अपनी मर्जी के मुताबिक था, लेकिन एडिनबर्ग में लैक्चर सुन सुनकर मैं इतना ऊब गया था कि मैं सेडविक के प्रभावशाली और रोचक व्याख्यानों में भी नहीं गया। यदि मैं उन व्याख्यानों में गया होता तो बहुत पहले ही भूविज्ञानी बन जाता। हालांकि मैंने वनस्पतिशास्त्र में हेन्सलो के व्याख्यान सुने और उनकी स्पष्टता को तथा अत्यधिक प्रभावशाली उद्धरणों को मैंने बहुत पसन्द किया लेकिन मैं वनस्पतिशास्त्र पढ़ता नहीं था। हेन्सलो अपने शिष्यों और यूनिवर्सिटी के कुछ पुराने सदस्यों को लेकर दूर दराज के इलाकों तक पैदल या घोड़ागाड़ी में या फिर नदी के बहाव के साथ साथ बजरे में बैठकर अध्ययन यात्राओं पर जाते थे। इस दौरान पाए जाने वाले दुर्लभ पौधों और पशुओं पर वे व्याख्यान देते। ये अध्ययन यात्राएँ बड़ी मनोरंजक होती थीं।
इस समय वैसे तो यही लग रहा होगा कि कैम्ब्रिज में पढ़ाई के दौरान मेरे जीवन के कुछ निर्धारक पहलू उजागर हो रहे थे, तो भी मैं यही कहूँगा कि वहाँ मेरा समय बुरी तरह से बरबाद हो रहा था। भयंकर बरबादी। निशानेबाजी की और शिकार करने की मेरी भावना मर चुकी थी, और अब मुझे देश के दूर दूर के हिस्सों की सैर करने में मज़ा आने लगा था। मैं दूर दूर तक घुड़सवारी करता। यहाँ मैं एक नई ही चांडाल चौकड़ी में फंस गया था। हमारी इस मंडली में कुछ लफंगे और नीच प्रवृत्ति के युवक भी थे। हम अक्सर शाम को एक साथ भोजन करते, हालांकि इनमें हमारे साथ अक्सर कोई न कोई गरिमामय व्यक्ति भी रहता था, और कई बार हम ज्यादा पी लेते थे, और बाद में गाते रहते या ताश खेलते। इस तरह से जितनी शामें मैंने गुज़ारीं, मुझे आज भी उसके लिए शरम महसूस होती है। हालांकि मेरे कुछ मित्र बहुत ही खुशमिजाज़ थे और हम सभी के दिमाग सातवें आसमान पर थे, लेकिन कुल मिलाकर मुझे उन दिनों की याद बहुत सुखदायक नहीं है।
लेकिन मुझे यह जानकर खुशी भी है कि मेरे कुछ और दोस्त भी थे जो पूरी तरह अलग प्रकृति के थे। व्हिटले के साथ मेरी दांत-काटी दोस्ती वाला मामला था। बाद में वह सीनियर रैंगलर बना। हम दोनों काफी दूर तक घूमने निकल जाते थे। उसने मुझमें अच्छे चित्रों और नक्काशियों के प्रति रुझान पैदा किया। इनमें से कुछ कलाकृतियाँ मैंने खरीदीं भी। मैं अक्सर फिट्जविलियम गैलरी भी जाता रहता था, और लगता है मेरी रुचि भी काफी अच्छी थी, क्योंकि मैंने हमेशा अच्छे चित्रों की प्रशंसा की थी, और उनके बारे में बुजुर्ग क्यूरेटर से चर्चा भी करता था। मैंने सर जोशुआ रेनाल्ड की किताब काफी रुचि के साथ पढ़ी। हालांकि यह रुचि मेरे प्राकृतिक रुझान में नहीं थी, तो भी कुछ बरस तक मैंने इसमें काफी रुचि ली, और लन्दन स्थित नेशनल गैलरी के कई सारे चित्र मुझे बहुत आनन्दित करते थे, और सेबेस्टियन देल पियेम्बो के चित्र तो जैसे मुझे दिव्यलोक में ले जाते थे।
मैं एक संगीत मंडली में भी जाता था। मेरा एक जोशीला दोस्त हर्बर्ट मुझे वहाँ ले गया। उसके पास हाई रैंगलर की उपाधि भी थी। इस मंडली में शामिल होने और उनकी धुनों को सुनकर मुझमें संगीत के प्रति गहरा लगाव पैदा हो गया था। मैं अपनी सैर का समय इस तरह रखता था कि सप्ताह के दिनों में किंग्स कालेज के चैपल में उस मंडली को राष्ट्रगान की धुन बजाते सुन सकूं। इसमें मुझे इतना गहरा आनन्द आता था कि कई बार मेरी रीढ़ में सिहरन दौड़ जाती थी। मैं पक्के तौर पर कह सकता हूँ कि इस लगाव में कोई बनावट या केवल नकल नहीं थी, क्योंकि मैं कई बार खुद ही किंग्स कालेज चला जाता था, और कई बार तो गिरजे की गायन मंडली के बच्चों को पैसे देकर अपने कमरे में उनका गायन सुनता था। यह बात दूसरी है कि मेरे कान संगीत को समझने के मामले में दीन हीन थे। मैं एक भी धुन समझ नहीं पाता था, और न ही कोई धुन बजा पाता था। सही तरीके से गुनगुनाना तो मेरे लिए कठिन था, फिर भी यह रहस्य ही है कि मैं संगीत का आनन्द क्योंकर ले पाता था।
मेरी संगीत मंडली के मेरे मित्रों ने जल्द ही मेरी हालत का अन्दाजा लगा लिया। कई बार वे सब संगीत में मेरा इम्तिहान लेते और अपना मनोरंजन भी करते। वे कोई धुन बजाते और फिर सब मुझसे पूछते कि इनमें कौन कौन सी धुनों को मैं पहचान सकता हूँ। इन्हीं धुनों को जब वे सामान्य से द्रुत या मंथर गति से बजाते थे तो मेरे लिए और भी कठिनाई होती थे। इस तरह से तो गॉड सेव्ड द किंग की धुन भी मेरे लिए कष्टप्रद पहेली बन जाती थी। एक और व्यक्ति भी था जो संगीत में मेरे जितनी ही समझ रखता था और कहने में अटपटा लगता है कि वह थोड़ा बहुत बांसुरी भी बजा लेता था। हमारी संगीत मंडली की परीक्षाओं में एक बार मैंने उसे पराजित कर दिया तो मुझे बहुत खुशी हासिल हुई थी।
कैम्ब्रिज में रहने के दौरान मैं जिस उत्सुकता और लगन से भृंगी कीट पकड़ता था वह मेरे लिए आनन्ददायक था, और जितना आनन्द मुझे इस काम में मिलता था, उतना किसी अन्य काम में नहीं आता था। यह काम केवल संग्रह का जुनून था, क्योंकि मैं इन कीटों की चीर फाड़ नहीं करता था। हाँ, इतना ज़रूर है कि प्रकाशित विवरणों के साथ इन कीटों के बाहरी लक्षण यदा-कदा मिला लेता था, लेकिन मैं उनके नाम ज़रूर रख लेता था। कीट संग्रह के बारे में मैं अपने उत्साह के प्रमाणस्वरूप एक घटना बताता हूँ।
एक दिन पेड़ की पुरानी छाल उतारते समय मुझे दो दुर्लभ भृंग दिखाई दिए। मैंने दोनों को एक एक हाथ से उठाया, तभी मुझे तीसरा भृंग भी दिखाई दिया। मैं उसे भी छोड़ना नहीं चाहता था, इसलिए मैंने हाथ में पकड़े हुए एक भृंग को मुँह में रख लिया। दुर्भाग्यवश उस कीट में से कोई तीखा तरल पदार्थ निकला जिससे मेरी जीभ जल गयी और मैं थू थू कर उठा। भृंग मुँह से बाहर गिरा और साथ ही तीसरा भृंग भी हाथ न आया।
मैं इस प्रकार के कीटों का संग्रह करने में काफी सफल रहा और इसके लिए मैंने दो नए तरीके ईज़ाद किए। मैंने एक मज़दूर रख लिया था जो सर्दियों में जम गए पुराने वृक्षों की छाल को काट छाँट कर बड़े थैले में भर लाता था, और इसी तरह दलदली इलाकों से सरकंडे लाने वाले बजरों की तली में से कूड़ा कचरा बटोर लाता था। इस तरह से मुझे कुछ दुर्लभ प्रजाति के भृंग भी मिले।
शायद किसी कवि को अपनी पहली कविता के प्रकाशन पर भी इतनी प्रसन्नता नहीं होती होगी, जितनी मुझे उस समय हुई, जब मैंने स्टीफन की इलस्ट्रेशन्स ऑफ ब्रिटिश इन्सेक्ट्स, में यह जादुई शब्द देखे - सर, सी डार्विन द्वारा संगृहीत'। मेरे दूर के रिश्ते के चचेरे भाई डब्लयू डार्विन फॉक्स एक चतुर और बहुत ही खुशमिजाज व्यक्ति थे, उस समय क्राइस्ट कालेज में पढ़ते थे। मैं इनके साथ काफी हिल मिल गया था और इन्होंने ही मुझे कीट विज्ञान से परिचित कराया। इसके बाद मैं ट्रिनिटी कालेज के एल्बर्ट वे से भी परिचित हुआ और उनके साथ भी कीट संग्रह के लिए जाने लगा। आगे चलकर यही सज्जन सुविख्यात पुरातत्त्ववेत्ता बने। साथ में उसी कालेज के एच थाम्पसन भी होते थे। बाद में यह प्रसिद्ध कृषिविज्ञानी, ग्रेट रेलवे के चेयरमैन और संसद सदस्य भी बने। लगता है कि भृंगी कीटों के संग्रह की मेरी रुचि में ही भविष्य में मेरे जीवन की सफलता की सूत्र छिपा हुआ था।
मुझे इस बात की हैरानी है कि कैम्ब्रिज में मैंने जितने भृंगी कीट पकड़े, उनमें से कई ने मेरे दिमाग पर अमिट छाप छोड़ दी थी। जहाँ जहाँ मुझे अच्छा संग्रह करने का मौका लगा उन सभी खम्भों, पुराने वृक्षों और नदी के किनारों को मैं आज भी याद कर सकता हूं। उन दिनों पेनागियस क्रुक्स मेजर नामक प्यारा भृंगी कीट एक खजाने की तरह से था, और डॉन में घूमते हुए मैंने एक भृंगी कीट देखा जो कि सड़क पर दौड़ता हुआ जा रहा था। मैंने भाग कर उसे पकड़ा, और तुरन्त ही मैंने अंदाज़ा लगा लिया कि यह पेनागियस क्रुक्स मेजर से थोड़ा अलग है। बाद में पता चला कि वह पी क्वाड्रिपंक्टेटस था, जो कि इसकी एक किस्म या इसी की निकट सम्बन्धी प्रजाति है, लेकिन इसकी बनावट में थोड़ा अन्तर है। मैंने उन दिनों लिसीनस को कभी जिंदा नहीं देखा था, यह कीट भी अनजान व्यक्ति के लिए काले कैराबाइडुअस भृंग से शायद ही अलग लगे, लेकिन मेरे बेटों ने यहाँ एक ऐसा ही कीट पकड़ा और मैं तुरन्त जान गया कि यह मेरे लिए नया है। तो भी पिछले बीस साल से मैंने ब्रिटिश भृंगी कीट नहीं देखा है।
मैंने अभी तक वह परिस्थिति नहीं बतायी है जिसने दूसरी बातों की तुलना में मेरे समूचे कैरियर को सर्वाधिक प्रभावित किया। यह घटना थी, प्रोफेसर हेन्सलो के साथ मेरी दोस्ती। कैम्ब्रिज आने से पहले मैंने अपने भाई से उनके बारे में सुना था। प्रोफेसर हेन्सलो विज्ञान की हर शाखा के बारे में जानते थे, और मैं उनके प्रति नतमस्तक था। सप्ताह में एक बार वे ओपन हाउस रखते थे। उस दिन यूनिवर्सिटी में विज्ञान विषय पढ़ने वाले सभी अन्डर ग्रेजुएट और पुराने सदस्य एकत्र होते थे। फॉक्स के माध्यम से जल्द ही मुझे भी सभा में शामिल होने का निमंत्रण मिला और उसके बाद मैं नियमित रूप से वहाँ जाने लगा। हेन्सलो के साथ घुलने मिलने में मुझे अधिक समय नहीं लगा। कैम्ब्रिज में बाद के दिनों में मैं ज्यादातर उन्हीं के साथ सैर करने जाता था। कुछ गुरुजन तो मुझे यह भी कहने लगे थे, `हेन्सलो के साथ घूमने वाला व्यक्ति' और अक्सर शाम को वे मुझे अपने परिवार के साथ भोजन पर बुला लेते थे। वनस्पति शास्त्र, कीट विज्ञान, रसायन, खनिज विज्ञान और भूविज्ञान में उन्हें व्यापक ज्ञान था। लम्बे समय तक निरन्तर चलने वाले सूक्ष्म अवलोकन से निष्कर्ष निकालने की उनकी रुचि बहुत गहरी थी। उनकी निर्णय शक्ति अद्वितीय और उनका दिमाग संतुलित था, लेकिन मुझे कोई भी तो ऐसा नहीं दिखाई देता था जो यह कहे कि प्रोफेसर हेन्सलो में आत्म प्रज्ञा नहीं थी।
वे बहुत ही धार्मिक और रुढ़िवादी थे। एक दिन उन्होंने मुझे बताया कि थर्टीनाइन आर्टिकल्स का अगर एक भी शब्द बदला जाए तो उन्हें बहुत दुख होगा। उनके नैतिक गुण अत्यधिक प्रशंसनीय थे। उनमें लेश मात्र भी मिथ्या अहंकार नहीं था। वे अन्य क्षुद्र भावनाओं से भी कोसों दूर थे। मैंने ऐसा व्यक्ति नहीं देखा था जो अपने और अपने कार्य व्यापार के बारे में बहुत ही कम सोचता हो। वे हर प्रकार की अहंमन्यता या इसी प्रकार की संकीर्ण विचारधारा से पूरी तरह मुक्त थे। उनका स्वभाव अत्यन्त शान्त था, वे सुशील थे और दूसरे के दिल को जीत लेते थे, लेकिन वे किसी भी गलत काम के खिलाफ बहुत ही जल्दी आक्रोश से भर जाते थे, और फौरन ही उसे रोकने का प्रयास भी करते थे।  (hindisamay.com से साभार)

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