सुभाष गाताडे
अपनी किताब द जर्मन आइडिओलॉजी में मार्क्स एवं एंगेल्स इतिहास की अपनी भौतिकवादी व्याख्या का निरूपण करते हैं। किताब की शुरुआत 19वीं सदी के आरंभ में जर्मनी के दार्शनिक जगत पर हावी हेगेल की आदर्शवादी परंपरा एवं उसके प्रस्तोताओं की तीखी आलोचना से होती है जिसमें ये दोनों युवा इंकलाबी चेतना एवं अमूर्त विचारों पर केंद्रित करनेवाले और सामाजिक यथार्थ के उससे नि:सृत होने की उनकी समझदारी पर जोरदार हमला बोलते हैं। इस ऐतिहासिक रचना से नाम सादृश्य रखनेवाली पेरी एंडरसन की किताब दि इंडियन आइडिओलॉजी का फलक भले ही दर्शन नहीं है, मगर अपने वक्त के अग्रणी विचारकों द्वारा भारतीय राज्य एवं समाज की विवेचना की आलोचना के मामले में वह उतनी ही निर्मम दिखती है।
आज की तारीख में भारतीय राज्य एक स्थिर राजनीतिक जनतंत्र, एक सद्भावपूर्ण क्षेत्रीय एकता और एक सुसंगत धार्मिक पक्षपातविहीनता के मूल्यों को स्थापित करने का दावा करता है। उपनिवेशवादी गुलामी से लगभग एक ही समय मुक्त तीसरी दुनिया के तमाम अन्य मुल्कों की तुलना में – जहां अधिनायकवादी ताकतों ने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं एवं संस्थाओं को मजबूत नहीं होने दिया है – विगत साठ साल से अधिक समय से यहां जारी संसदीय जनतंत्र के प्रयोग को लेकर वह आत्ममुग्ध भी दिखता है। इतना ही नहीं अक्सर यह भी देखने में आता है कि भारतीय समाज की विभिन्न गैरबराबरियों, जाति-जेंडर-नस्ल आदि पर आधारित तमाम सोपानक्रमों के विभिन्न आलोचक भी भारतीय राज्य के इस आत्मप्रस्तुति/आत्मप्रशंसा से सहमत हुए दिखते हैं। मगर यह बेचैन करनेवाला सवाल नहीं पूछा जाता कि भारतीय राज्य के तमाम दावों एवं वास्तविक हकीकत के बीच कितना तारतम्य है? अगर दावों एवं हकीकत के बीच अंतराल दिखता है तो उसे हम परिस्थिति की नियति कह सकते हैं या उसकी जड़ें शासकों के आचरण में ढूंढ सकते हैं।
दरअसल भारत को अपनी इकहरी नजर के तहत हिंदू राष्ट्र बनाने को आमादा विचारकों/कार्यकर्ताओं की चिंतनप्रणाली/कार्यपद्धति विगत दो दशकों से अधिक समय से उदारवादी एवं वाम विचारकों की चिंता एवं आलोचना का विषय रही है। विडंबना यही कही जाएगी कि सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता, अधिनायकवाद बनाम जनतंत्र जैसे द्विविध (बायनरी) रूप में प्रस्तुत इस बहस में खुद उदार विचारकों की सीमाएं, उनके द्वारा धर्मनिरपेक्षता/जनतंत्र/एकता आदि मसले को गैरआलोचनात्मक ढंग से देखने का मसला कभी भी एजेंडे पर नहीं आ सका है। लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स में 2012 की गर्मियों में प्रकाशित पेरी एंडरसन द्वारा लिखे भारत संबंधी आलेखों का प्रस्तुत संकलन न केवल भारतीय संघ की वास्तविकता को पैनी नजर से देखता है बल्कि उसे लेकर स्थापित विभिन्न ‘सच्चाइयों’ को प्रश्नांकित करता है और साथ ही हमारे वक्त के तमाम अग्रणी विचारकों के रुख पर भी सवाल खड़े करता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि (बकौल अरुंधति राय) ‘पेरी एंडरसन के तर्क उन तमाम विद्वानों एवं विचारकों को बेचैन कर देंगे जिन्होंने भारतीय गणतंत्र के हालात को लेकर महिमामंडित करनेवाली सहमति कायम की है।’ पेरी एंडरसन के मुताबिक भारतीय गणतंत्र की तमाम बीमारियों की जड़ें ऐतिहासिक तौर पर गहरी हैं। उनके मुताबिक भारत का आजादी का आंदोलन जिस तरह लड़ा गया, जिसकी परिणति एक बंटे हुए उपमहाद्वीप में कांग्रेस के हाथों सत्ता हस्तांतरण में हुई, उस पूरे इतिहास को नए सिरेसे देखने-परखने की जरूरत है। इस किताब की प्रस्तावना में पेरी एंडरसन पूछते हैं ”गहराई में जाकर देखें तो भारत में जनतंत्र का सामाजिक आधार (एंकरेज) कितना है और उसमें जाति की कितनी भूमिका है? …भारतीय संघ में धर्म का कितना स्थान है – जो घोषित तौर पर धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) है, मगर अंतर्वस्तु में कितना है? और अंत में, राष्ट्र की एकता के जन्मचिह्न क्या हैं और उसकी कितनी कीमत अदा करनी पड़ी है?” किताब में समूचा जोर उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष चिंतकों पर है तथा इसमें वाम की चर्चा नहीं की गई है। लेखक के मुताबिक एक ताकत के तौर पर वाम की ‘सापेक्ष राजनीतिक कमजोरी’ ने भारतीय विचारधारा की पकड़ को और मजबूत बनाया है।
लेखक के मुताबिक वाम की कमजोरी के कारणों की गहराई में जाकर पड़ताल जरूरी है, मगर उसका मानना है कि इसकी प्रमुख वजह ‘आजादी के आंदोलन के साथ राष्ट्र के धर्म के साथ एकीकरण में निहित है।’ आयलैंड, जहां लेखक पैदा हुआ, उसकी चर्चा करते हुए वह यह भी जोड़ते हैं कि जहां-जहां पर ऐसा एकीकरण हुआ, वहां पर वाम के लिए जमीन हमेशा शुरू से प्रतिकूल रही है। प्रस्तावना के अंत में वह यह सलाह भी देते हैं कि वाम को चाहिए कि वह अपने दौर को श्रद्धाभाव से देखने के बजाय आम्बेडकर एवं पेरियार की तर्ज पर अधिक आलोचनात्मक ढंग से देखे।
अपने प्रथम अध्याय ‘इंडिपेंडस’ (स्वाधीनता) की शुरुआत लेखक जवाहरलाल नेहरू की बहुचर्चित किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया के उद्धरण से करते हैं जिसमें भारत के भावी प्रधानमंत्री आजादी के कुछ समय पहले ‘भारत की संस्कृति एवं सभ्यता की पांच-छह हजार वर्षों से अधिक समय चली आ रही निरंतरता’ को लेकर अपनी मुग्धता बयान करते हुए इस उपमहाद्वीप की प्राचीनता के अनोखेपन का जिक्र करते हैं, जो ‘सभ्यता की सुबह से ही भारत के विचार में व्याप्त एकता के सपने’ में प्रतिबिंबित होती है। फिर अमर्त्य सेन, मेघनाद देसाई, रामचंद्र गुहा, सुनिल खिलनानी, प्रताप भानु मेहता जैसे शीर्षस्थ विद्वानों की भारत संबंधी गंभीर रचनाओं का जिक्र करते हुए लेखक बताते हैं कि किस तरह भारत को समझने के लिए अनिवार्य ये रचनाएं भी राज्य के अपने प्रति शब्दाडंबर को साझा करती हैं। राष्ट्रीय आंदोलन में जिस तरह ‘भारत के प्रकृति द्वारा निर्मित एक अविभाजित धरती’ (बकौल महात्मा गांधी) जहां ‘दुनिया के अन्य हिस्सों से बिल्कुल अलग राष्ट्रीयता की भावना प्रकट होती थी’ जैसी बातों का बोलबाला था उसी सिलसिले के आज भी जारी होने की बात को रेखांकित करते हुए किताब एक महत्वपूर्ण तथ्य की तरफ इशारा करती है। दरअसल यह उपमहाद्वीप जिसे आज हम इस रूप में जानते हैं वह पूर्वआधुनिक समय में कभी भी एक राजनीतिक या सांस्कृतिक इकाई के रूप में अस्तित्व में नहीं था, अंग्रेजों के आगमन ने ही पहली दफा इसे एक प्रशासकीय और विचारधारात्मक हकीकत में तब्दील किया।
अगर हम अतीत के पन्नों को पलटें तो इतिहास के लंबे कालखंड में उसका भू-भाग मध्यम आकार के राज्यों का हिस्सा था। भारत के इतिहास में नजर आने वाले तीन बड़े साम्राज्यों – मौर्य, गुप्त या मुगल का दायरा कभी भी नेहरू द्वारा डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में वर्णित भू-भाग तक फैला नहीं था। जिस ‘भारत के विचार’ की बातें आजादी के आंदोलन के अग्रणियों ने कीं, वह ‘सारत: एक योरोपीय विचार’ था। किसी भी देशज भाषा में ऐसा शब्द वजूद में नहीं दिखता। यह अकारण नहीं था कि इस उपमहाद्वीप का बंटा हुआ समाज एवं अलग-अलग राज्यों में विभक्त भू-भाग पर नियंत्रण करना बर्तानवी शासकों के लिए बहुत कठिन साबित नहीं हुआ। निश्चित ही पुलिस एवं फौज से बनी दमनात्मक मशीनरी के अलावा ब्रिटिश राज के आधुनिकीकरण की ताकत कानूनी किताबों के निर्माण या रेल एवं यातायात के साधनों को विकसित करने तक सीमित नहीं थी। उन्होंने एक देशज अभिजात तबके के निर्माण के भी बीज डाले जो मेकाले की भाषा में ‘रंग एवं वर्ण में भारतीय था, मगर रुचियों, मतों, बौद्धिकता एवं नैतिकता के मामले में ब्रिटिश’ था। ‘भारत का विचार (आयडिया ऑफ इंडिया) उनका था। मगर जैसे-जैसे वह नौकरशाही नियम का हिस्सा बना, फिर प्रजा अपने शासकों के खिलाफ उठ खड़ी हो सकती थी और साम्राज्य का प्रभामंडल राष्ट्र के करिश्मे में तिरोहित होनेवाला था।’ (पृ. 15)
इस अध्याय का शेष भाग गांधी द्वारा आजादी के आंदोलन की अगुआई, जातिप्रथा से लेकर मशीनरी आदि ज्वलंत मसलों पर उनके विचार, अहिंसा की रणनीति का उनके द्वारा इस्तेमाल तथा ब्रिटिश राज के दिनों में संपन्न चुनावों में अलग-अलग सूबों में कायम कांग्रेस सरकारों के दमनात्मक स्वरूप आदि पर केंद्रित है। जहां 1857 के महासमर के बाद पहली दफा एक व्यापक जनांदोलन खड़ा करने में गांधी की भूमिका, कांग्रेस को एक लोकप्रिय राजनीतिक ताकत बनाने की उनकी कोशिशों की इसमें चर्चा है, वहीं यह इस बात का विशेष उल्लेख करती है कि चंद अपवादों को छोड़ दें तो किस तरह बीसवीं सदी के राष्ट्रीय आंदोलनों में उभरे तमाम नेताओं में से बहुत कम धार्मिक नेता थे और इस कतार में गांधी बिल्कुल अलग ठहरते हैं। उनके लिए ‘राजनीति की तुलना में धर्म की अधिक अहमियत थी’ (पृ.19) अपने बुनियादी विश्वासों को लेकर हिंद स्वराज किताब में वह लिखते हैं कि ”मशीनरी अधिक पाप की खान है”, ”रेलवे ने ब्युबानिक प्लेग को फैलाने में मदद पहुंचाई है” और ”अकाल की बारंबारिता को बढ़ाया है”, ”अस्पताल ऐसे स्थान हैं, जो पाप को बढ़ावा देते हैं” आदि। (पृ.21)
कहीं-कहीं लेखक ऐसे वक्तव्य देते हैं जिनसे सहमत होना मुश्किल दिखता है, मसलन उनके मुताबिक ‘कांग्रेस अभिजातों की बुनियादी राजनीति खालिस धर्मनिरपेक्ष थी। पार्टी पर गांधी के नियंत्रण ने न केवल उसे लोकप्रिय आधार प्रदान किया, जो उसके पास नहीं था, मगर साथ ही साथ उसने मिथक, धर्मशास्त्र आदि के रूप में धर्म के तत्वों का भी जोरदार प्रवेश संभव बनाया।’ (पृ. 22) ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक गांधी के आगमन के पूर्व कांग्रेस राजनीति में हावी लोकमान्य तिलक आदि की राजनीति के से उतने परिचित नहीं दिखते। याद रहे कि तिलक को यह ‘श्रेय’ जाता है कि उन्होंने लोगों को लामबंद करने के लिए सार्वजनिक गणेशोत्सव या शिव जयंती जैसे त्योहारों का आयोजन शुरू किया, जो निश्चित ही किसी भी मायने में धर्मनिरपेक्ष कदम नहीं कहे जा सकते।
गांधीजी द्वारा बार-बार हिंदू धर्म की दुहाई देने के उदाहरणों को पेश करने के बाद लेखक यह सवाल भी उठाते हैं कि ”इस किस्म के हिंदू पुनरुत्थानवादी से हम ऐसी उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वह मुसलमानों को भी एक साझे राष्ट्रीय संघर्ष हेतु एकताबद्ध करेगा?” (पृ. 24) इस पहेली का समाधान एक तरह से गांधी ने यह ढूंढा कि ”इस्लाम के बैनर तले ही ब्रिटिश राज के खिलाफ मुसलमानों को गोलबंद किया जाए…” टर्की में खिलाफत की समाप्ति एक ऐसा मुद्दा था, जिसके नाम पर रूढि़वादी मुसलमानों के बड़े हिस्से को साथ जोड़ा जा सकता था। स्पष्ट था यह ऐसा मसला था जो ”…अधिक सेक्युलर मुसलमानों के लिए – जिनमें जिन्ना भी शामिल थे – न केवल अप्रासंगिक था, बल्कि बेहद प्रतिक्रियावादी भी था…” (पृ. 25) असहयोग आंदोलन में चौरी चौरा की घटना में हुई हिंसा के बाद समूचे आंदोलन को वापस लेने वाले गांधीजी किस तरह बीस साल बाद ”गुलामी के जोखड़ को उतार फेंकने के लिए जरूरत पड़े तो हिंसा का भी सहारा लेने की बात करते हैं” आदि विभिन्न घटनाओं की चर्चाओं के जरिए गांधीजी के विचारों में नजर आनेवाली असंगतियों के मद्देनजर लेखक गांधीजी द्वारा उसे औचित्य प्रदान किए जाने की बात को रेखांकित करते हैं। (पृ. 31) असहयोग आंदोलन एवं खिलाफत आंदोलन – जिसमें हिंदू-मुस्लिम दोनों ने जम कर हिस्सेदारी की थी, उस पूरे जनउभार को चौरी चौरा की घटना के बाद अचानक वापस लिए जाने के गांधी के फैसले का लेखक के मुताबिक एक अन्य असर यह भी रहा कि ”इसके बाद स्थूल रूप में मुसलमानों ने उन पर भरोसा नहीं किया।” मार्च, 1930 में जब गांधी अपने दूसरे व्यापक जनअभियान सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत दांडी मार्च के बहाने की तो इस बार आंदोलन का दायरा ”भौगोलिक तौर पर व्यापक था, लेकिन सांप्रदायिक तौर पर संकीर्ण था – लगभग मुसलमानों ने इसमें हिस्सा नहीं लिया।” (पृ. 36)
आगे लेखक ‘अस्पृश्यों को’ अलग मतदाता संघ प्रदान करने के गोलमेज सम्मेलन के फैसले के बहाने जाति के प्रश्न पर गांधी के उहापोह एवं उनकी रूढि़वादी समझदारी की चर्चा करते हैं। वर्ण व्यवस्था की हिमायत करनेवाले (”अगर हिंदू समाज आज भी खड़ा है तो उसकी वजह जातिव्यवस्था की उसकी बुनियाद है। स्वराज्य की जड़ें जाति प्रथा में देखी जा सकती हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि जाति प्रथा ने हिंदू धर्म को विघटन से बचाया है।”) और अस्पृश्यता को ‘मानवीय गलती” का हिस्सा माननेवाले गांधी के लिए ब्रिटिश सरकार का यह फैसला महज राष्ट्रीय आंदोलन को बांटने का मसला मात्र नहीं था, बल्कि इसका अर्थ था कि जाति व्यवस्था के चलते हिंदू धर्म के अभिशप्त होने की बात को कबूल करना। दलितों को अलग मतदाता संघ प्रदान करने के फैसले को पलटने के लिए गांधी द्वारा लिया गया आमरण अनशन का सहारा और आम्बेडकर पर डाला गए प्रचंड दबाव इसकी चर्चा करते हुए लेखक बताते हैं कि किस तरह आम्बेडकर के साथ संपन्न पूना करार – जिसने ‘अस्पृश्यों’ के लिए चुनावों में अधिक सीटें प्रदान करने की बात की गई, उसने दलित समुदाय को राजनीतिक स्वायत्तता से वंचित कर दिया। ”हिंदू जो भी कहें, हिंदू धर्म समानता, स्वतंत्रता एवं बंधुता के लिए खतरा है।” इस बात को जोर से रखनेवाले आम्बेडकर ने बाद में पूना करार के वक्त अपने समर्पण – जब समूचे दलित समुदाय पर वर्णसमाज के आक्रमण का खतरा मंडरा रहा था – पर पश्चात्ताप प्रगट करते हुए कहा कि ”इस अनशन में कोई उदात्तता नहीं थी। वह एक निकृष्ट एवं निंदनीय कदम था।”
पार्टी के अंदर वामपंथी धारा के अगुआ सुभाषचंद्र बोस, जो पार्टी के इतिहास में अभूतपूर्व चुनाव में उसके अध्यक्ष चुने गए थे, और जिन्हें पार्टी की अंदरूनी बगावत के जरिए गांधी ने पद से बेदखल कर दिया और बाद में कांग्रेस से भी बाहर जाने को मजबूर किया, उनके द्वारा पार्टी के अंदर रहते हुए हिंदू-मुस्लिम एकता कायम करने के लिए ली गई एक अद्भुत पहलकदमी की लेखक चर्चा करते हैं। कांग्रेस की युवा शाखा के अगुआ बोस ने बंगाल प्रांत में जमींदारों के खिलाफ खड़ी मुस्लिम किसानों की पार्टी के साथ गठजोड़ बनाने की हिमायत की थी। लेखक के मुताबिक जी.एम. बिड़ला, जो मारवाड़ी व्यापारी थे तथा कांग्रेस के लिए लाखों रुपए का चंदा देते थे, उनका इस कदम के प्रति विरोध था (बंगाल की तत्कालीन परिस्थिति से परिचित लोग बता सकते हैं कि अधिकतर जमींदार हिंदू थे) और उन्हीं की सलाह पर गांधी ने इस अंतरसामुदायिक पहल में अड़ंगा लगा दिया।
भारत छोड़ो आंदोलन के जरिए अपनी जिंदगी के आखिरी बड़े संघर्ष की अगुआई करनेवाले गांधी ने किस तरह कभी हिटलर की प्रशंसा की थी, उसका उल्लेख करना लेखक नहीं भूलते। ”उसमें कोई दुर्गुण नहीं हैं। उसने शादी नहीं की है। उसका चरित्र भी पारदर्शी कहा जाता है।” (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, पृ. 177, : 17 दिसंबर, 1941) यह आंदोलन – जिसके लिए कांग्रेस ने कोई तैयारी नहीं की थी – उसकी समाप्ति के बाद, ब्रिटिश सरकार आजादी के मसले के समाधान को अधिक लटकाना चाहती थी। इस परिस्थिति में बुनियादी फर्क दूसरे विश्वयुद्ध में शामिल जापानी सेनाओं ने किस तरह डाला और दक्षिण पूर्व एवं दक्षिण एशिया में योरोपीय उपनिवेशवाद को किस तरह जबरदस्त नुकसान पहुंचाया, इसके विवरण के साथ प्रथम अध्याय समाप्त होता है। (पृ. 48)
दूसरा अध्याय एक तरह से नेहरू के राजनीतिक व्यक्तित्व, गांधी के साथ उनके विशिष्ट किस्म के रिश्ते ”जिसमें भावनात्मक बंधनों के साथ-साथ परस्पर हितों के समीकरण भी शामिल थे” (पृ. 51) तथा आजादी के आंदोलन में उन्होंने निभाई भूमिका की चर्चा करता है।
एक क्षेपक के तौर पर इस बात का भी उल्लेख करना जरूरी है कि लेखक बौद्धिक क्षमता के मामले में आम्बेडकर के साथ नेहरू की तुलना करते हैं। ”आम्बेडकर की नेहरू के साथ तुलना करना न्यायपूर्ण नहीं होगा, जो बौद्धिक क्षमता के मामले में कांग्रेस के तमाम नेताओं से बहुत आगे थे, जिसकी एक वजह यह भी कही जा सकती है कि डॉ. आम्बेडकर ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एवं कोलंबिया विश्वविद्यालय में अधिक गंभीर अध्ययन किया था, जिन्हें पढऩा एक तरह से एक अलग दुनिया में प्रवेश करना है। मगर हम डिस्कवरी ऑफ इंडिया को पढ़ें तो वह न केवल नेहरू की औपचारिक विद्वत्ता की कमी एवं रूमानी मिथकों के प्रति अत्यधिक लगाव को उजागर करती है बल्कि अधिक गहराई में जाकर देखें तो …आत्मप्रवंचना की क्षमता को भी प्रदर्शित करती है जिसके राजनीतिक परिणाम बेहद प्रतिकूल हुए।” (पृ. 53)
जाति व्यवस्था को लेकर नेहरू की एक किस्म की समाजशास्त्रीय दृष्टिहीनता की बात का भी किताब में उल्लेख है। डिस्कवरी ऑफ इंडिया में नेहरू लिखते हैं कि ”जातिप्रथा एक ऐसी व्यवस्था थी, जो सेवाओं एवं कार्यों पर आधारित थी। उसका मकसद एक साझे दृष्टांत के बिना एक सर्वसमावेशी प्रणाली कायम करना था जिसमें हर समूह को स्थान मिले।” (पृ. 248-249) यह अकारण नहीं था कि जब गांधीजी आम्बेडकर का भयादोहन (ब्लैकमेल) कर रहे थे कि वह उनकी इस मांग को मानें कि ‘अस्पृश्य’ जातिप्रथा में शामिल एकनिष्ठ हिंदू हैं तथा अलग मतदातासंघ की मांग छोड़ दें तो उस वक्त नेहरू ने आम्बेडकर के समर्थन में एक लफ्ज भी नहीं बोला। नेहरू के लिए वह एक ‘छोटा-सा मामला’ (साइड इश्यू) था। अपने आप को नास्तिक कहलानेवाले नेहरू ने किस तरह धर्म को राष्ट्र के साथ जोड़ा था, इसकी चर्चा करते हुए किताब बताती है कि ”हिंदू धर्म राष्ट्रवाद का प्रतीक बना। वह वाकई एक राष्ट्रीय धर्म था, उसके तमाम गहरे भावों के साथ, नस्लीय और सांस्कृतिक, जो मौजूदा समय में हर जगह राष्ट्रवाद का आधार बनते हैं। इसके बरक्स बौद्ध धर्म, जिसका जन्म भारत में हुआ, उसकी वहां हार हुई क्योंकि वह ‘सारत: अंतरराष्ट्रीय” था। ( डिस्कवरी ऑफ इंडिया, पृ. 129)
अगर राष्ट्रीय धर्म एवं उसकी बुनियादी संस्थाओं के बारे में नेहरू का यह नजरिया था तो अन्य धर्मों के अनुयायी जो जन्म से ही राष्ट्रीय नहीं था, उसके प्रति उनका रुख क्या था? लेखक के मुताबिक इसकी पहली परीक्षा 1937 में संपन्न प्रांतीय चुनावों के बाद आई, जब नेहरू खुद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे तथा गांधी ने एक तरह से 1934 से अपने आप को किनारे किया था। कई प्रांतों में कांग्रेस को मिले बहुमत से गदगद नेहरू ने ऐलान किया कि अब भारत में दो ही ताकतें हैं: कांग्रेस एवं ब्रिटिश सरकार, जबकि हकीकत यही थी कि मुस्लिमबहुल कुछ प्रांतों में सत्ता की बागडोर मुस्लिम लीग के हाथ में थी और जहां तक कांग्रेस की सदस्यता का सवाल है तो वह 97 फीसदी हिंदू थी। ”समूचे भारत में 90 फीसदी मुस्लिम मतदातासंघों में उसे प्रत्याशी तक नहीं मिले थे। नेहरू के अपने सूबे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने तमाम हिंदू सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन उसे एक भी मुस्लिम सीट नहीं मिली थी।” (पृ. 56) इस परिस्थिति के बावजूद नेहरू ने मुस्लिम लीग के इस अनुरोध को ठुकरा दिया कि वह सरकार के साथ गठजोड़ करना चाहती है ताकि उसे भी प्रतिनिधित्व मिले। पचहत्तर साल बाद आज भले ही हम इस मसले पर कोई निश्चयात्मक राय न बना सकें, मगर कम से कम इस बात को रेखांकित कर सकते हैं कि आजादी के संघर्ष में कांग्रेस पार्टी की अपने एकाधिकार की समझदारी के प्रतिकूल परिणाम हुए।
प्रस्तुत अध्याय में आगे एक वक्त सेक्युलर नजरिया रखनेवाले जिन्ना का कांग्रेस में हाशिये में जाना, कांग्रेस की समाजशास्त्रीय हकीकत के बारे में – कि वह मूलत: हिंदू पार्टी है -उनका बढ़ता एहसास, मुस्लिम समुदाय के रूढि़वादी तत्वों को साथ में लेकर चलने की कांग्रेस की कोशिशों के प्रति उनका बढ़ता विरोध और बाद में मुस्लिम राष्ट्रवाद की उनकी हिमायत की चर्चा है। बर्तानवी उपनिवेशवादियों ने किस तरह कभी हिंदुओं से या कभी मुसलमानों से नजदीकी दिखा कर अपने आप को केंद्र में बना कर रखा, बंटवारे के वक्त किस तरह उनके लिए हिंदू बहुल कांग्रेस अधिक प्रिय हो चली, इसका विवरण भी पेश किया गया है। बंटवारे के वक्त हुए आबादियों की अदला-बदली एवं उससे जनित हिंसा को लेकर एक बात रेखांकित की गई है कि भले ही पंजाब एवं पूर्व के बंगाल से आबादियों की अदला-बदली हुई, मगर जितने बड़े पैमाने पर पंजाब के बंटवारे के वक्त हिंसाचार देखने को मिला, उसकी तुलना में बंगाल में बहुत कम हिंसा हुई। जहां लगभग 45 लाख हिंदू एवं सिखों को पश्चिमी पंजाब से बेदखल कर दिया गया, वहीं पंजाब के पूर्वी हिस्से से 55 लाख से अधिक मुसलमान अपने घरों से बेदखल हुए।
किताब में कश्मीर के भारत में एकीकरण को लेकर भी कई अनछुए तथ्यों को रेखांकित किया गया है। गौरतलब है कि बंटवारे के वक्त चली अंतरसामुदायिक हिंसा के वातावरण में हथियारबंद पठानों ने पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी प्रांत से कश्मीर पर हमला बोल दिया और उनकी असंगठित टीमें श्रीनगर तक पहुंचीं। उनके डर से कश्मीर के तत्कालीन राजा हरि सिंह ने जम्मू की तरफ पलायन किया। कश्मीर को ‘आजाद’ रखने की ख्वाहिश रखनेवाले राजा हरि सिंह के पास भारत में विलय के करारनामे पर दस्तखत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, मगर इसका इंतजार किए बिना एक फर्जी दस्तावेज पेश किया गया जिसमें महाराजा द्वारा भारत के साथ विलय पर सहमति पेश की गई थी। यही वह फर्जी दस्तावेज है जिसके आधार पर साठ साल के बाद भी भारतीय राज्य कश्मीर पर अपने नियंत्रण को जायज ठहराता है। (पृ. 83) और जिसके आधार पर भारतीय सेनाओं ने कश्मीर पर नियंत्रण कायम करने की कार्रवाई शुरू की।
”इसके बावजूद, यह बिल्कुल स्पष्ट था कि एक ऐसा प्रांत जो मुस्लिम बहुल था उसे ताकत के बल पर – और जैसा कि बाद की घटनाओं ने स्पष्ट किया – फरेब के बलबूते हासिल किया गया था। यहां तक कि लंदन में सत्तासीन एटली के नेतृत्ववाली लेबर पार्टी की सरकार, जिसका कांग्रेस के प्रति बेहतर रुख था, उसने इस घटनाक्रम पर बेचैनी प्रगट की। प्रधानमंत्री एटली ने इसे ‘डर्टी बिजनेस’ की संज्ञा दी। संयुक्त राष्ट्रसंघ में भी इसके चलते समस्या खड़ी हुई।” (पृ. 84)
कश्मीर में जनमत संग्रह को लेकर, जिसका वायदा भारत सरकार ने किया था ताकि यह दिखाया जा सके कि कश्मीरी लोग अपनी स्वेच्छा से भारत से जुड़े हैं, न कि राजा की इच्छा से, उसके बारे में भी जल्द ही स्थिति स्पष्ट होती गई। कश्मीर के भारत में ‘विलय’ के कुछ समय बाद ही गृहमंत्री पटेल ने नेहरू को लिखा, ”यह दिख रहा है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस एवं शेख साहब (अब्दुल्ला) घाटी की जनता पर अपनी पकड़ खो रहे हैं और अलोकप्रिय हो रहे हैं …ऐसी परिस्थितियों में मैं आप से सहमत हूं कि जनमत संग्रह अवास्तविक होगा।” (पृ. 86 पर उद्धृत, दुर्गा दास (संपा.) पटेलस् कॉरसपांडंस, अहमदाबाद, 1971, खंड – 1, पृ. 286, 317)
मुल्क के बंटवारे की बात करना जिस वक्त कांग्रेस पार्टी में कुफ्र था और खुद मुस्लिम लीग के लिए भी अभी इस मसले को लेकर धुंधली समझदारी थी, उस वक्त (1944) प्रकाशित डॉ. आम्बेडकर की रचना पाकिस्तान आर पार्टिशन ऑफ इंडिया की प्रशंसा करते हुए लेखक बताता है कि इस मुद्दे पर प्रकाशित एकमात्र गंभीर उपरोक्त रचना, ”जिसके संदर्भ रेनन से एक्टन से कार्सन तक फैले हैं, कनाडा से आयरलैंड से स्विटजरलैंड तक बिखरे हैं, वह कांग्रेस एवं उसके नेताओं के बौद्धिक दिवालियेपन का ठोस सबूत थी।” (पृ. 89)
अध्याय में हैदराबाद पर भारतीय सेनाओं के नियंत्रण के बाद वहां भारतीय सेनाओं की मदद से हिंदुओं द्वारा किए गए स्थानीय मुस्लिम आबादी के जनसंहार के लगभग भुला दिए गए तथ्य की भी चर्चा है। ध्यान रहे कि इस जनसंहार की जांच के लिए भेजी गई सरकारी टीम का अनुमान था कि इस मारकाट में कुछ सप्ताह के अंदर ही वहां 27 हजार से 45 हजार तक मुसलमान मार दिए गए थे। ”भारतीय संघ के इतिहास में यह सबसे बड़ा कत्लेआम था, जिसके सामने पठान घुसपैठियों द्वारा श्रीनगर पर नियंत्रण कायम करने की कोशिशों के दौरान की गई हिंसा बहुत छोटी मालूम पड़ती है…।”(पृ. 91)
अंत में लेखक यह सवाल रखता है कि क्या भारत का बंटवारा अनिवार्य था? ब्रिटिश राज के खिलाफ चले संघर्ष को लेकर उपलब्ध प्रचुर साहित्य में भी इस प्रश्न पर व्याप्त मौन की भी बात इसमें की गई है। राष्ट्रीय आंदोलन में एक स्थापित समझदारी यही चली आ रही है कि ब्रिटिशों की ‘बांटो एवं राज करो’ की नीति का प्रतिफलन इस उपमहाद्वीप का बंटवारा हुआ। इसके बरक्स लेखक का स्पष्ट मानना है कि ”इसकी अंतिम चालक शक्तियां देशज थीं, न कि साम्राजी।” राष्ट्रीय आंदोलन की शब्दावली एवं चित्रांकन में धर्म के प्रवेश के लिए जिन्ना को जिम्मेदार ठहराये जाने की प्रवृत्ति को प्रश्नांकित करते हुए लेखक इसका जिम्मेदार गांधी को मानते हैं। उनके मुताबिक ”भले ही उन्होंने इस काम को संकीर्ण भावना के साथ नहीं किया, जहां मुसलमानों को खिलाफत बचाने के लिए आगे आने को कहा वहीं हिंदुओं को रामराज्य कायम करने की अपील की, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्होंने ब्रिटिशों के खिलाफ साझा संघर्ष में अपने सहयोगी कौन हो सकते हैं इस सवाल को छोड़ दिया।” (पृ. 94)
किताब का अंतिम अध्याय ‘रिपब्लिक’ (गणतंत्र) भारतीय गणतंत्र के निर्माण एवं विकास की यात्रा पर चर्चा करता है और भारतीय जनतंत्र के स्थायित्व को लेकर उदार विचारकों द्वारा अक्सर किए जानेवाले महिमामंडन में दबे रहनेवाले तथ्यों को रेखांकित करता है। लेखक के मुताबिक भारतीय जनतंत्र का स्थायित्व भारत की आजादी की स्थितियों से सबसे पहले निर्धारित हुआ, जहां ब्रिटिश राज को पलटा नहीं गया बल्कि कांग्रेस को सत्ता हस्तांतरित की गई। उपनिवेशवादियों को अलविदा कहा गया, मगर औपनिवेशिक नौकरशाही तंत्र एवं सेना को भी अक्षुण्ण रखा गया। राज की विरासत सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं थी। प्रशासन एवं दमन के तंत्र के साथ-साथ कांग्रेस ने प्रतिनिधित्व की उसकी परंपरा को भी आगे बढ़ाया।
इस संदर्भ में यह बात महत्वपूर्ण है कि जिस संविधान सभा ने देश को अपना संविधान दिया वह ब्रिटिशों द्वारा निर्मित इकाई थी (1946), जिसके लिए ब्रिटेन की तत्कालीन प्रजा के सात में से एक व्यक्ति को मताधिकार मिला था। निश्चित ही आजादी मिलने के बाद कांग्रेस सार्विक मताधिकार के साथ नए चुनावों का आयोजन कर सकती थी, मगर उसे इस बात का डर था कि इसका नतीजा क्या हो सकता है? 1951-52 के पहले ऐसे चुनाव नहीं हुए। ”इस तरह जिस निकाय ने भारतीय जनतंत्र को जन्म दिया वह उसकी अभिव्यक्ति नहीं थी बल्कि उस पर लादी गई औपनिवेशिक बंदिशों का प्रतीक थी।” (पृ. 106) बकौल सुनिल खिलनानी (दि इंडियन कांस्टिट्यूशन एंड डेमोक्रसी, देखें: इंडियाज लिविंग कांस्टिटयूशन, संपा. जोया हसन तथा अन्य) ”सामाजिक संरचना के मामले में संविधान सभा एक बहुत संकीर्ण इकाई थी जिस पर कांग्रेस के उंची जाति एवं ब्राह्मणवादी अभिजातों का दबदबा था और उसने ऐसा संविधान बनाया जो सार्वजनिक जीवन को गठित करनेवाला नहीं बल्कि किसी क्लब हाउस के नियमों के तर्ज पर था…।”
इस संविधान सभा द्वारा निर्मित भारतीय जनतंत्र की प्रातिनिधिक संस्थाओं की जड़ में ही किस तरह चुनावी विकृतियां थीं, इसकी चर्चा करते हुए लेखक इस बात पर जोर देता है कि यहां आनुपातिक प्रतिनिधित्व देने के बजाय, ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ अर्थात जो जीता वही सिंकदर की तर्ज पर प्रतिनिधित्व दिया गया जिसके चलते 1951 से 1971 के दरमियान कभी भी वोटों का बहुमत न मिलने के बावजूद (जो कभी 45 फीसदी से आगे नहीं गया) कांग्रेस पार्टी के लिए संसद में 70 फीसदी सीटों पर कब्जा कर सकी। आगे भारतीय जनतंत्र के एक अन्य अपवाद की चर्चा है। भारत में जहां गरीब मतदाताओं की संख्या अधिक है वहीं वोट देने में भी वह आगे ही रहते हैं। इसके बरक्स शेष दुनिया में, जैसे- जैसे आय एवं साक्षरता में गिरावट आती है उसी अनुपात में वोट का प्रतिशत भी गिरता है। आखिर ऐसा क्यों है? गरीबों, वंचितों को गुस्सा उदार जनतंत्र के खिलाफ फूट न पडऩे का कारण यहां की ‘सामाजिक स्तरीकरण की प्रणाली’ है, जो किसी भी किस्म की सामूहिक कार्रवाई की राह में बाधा है। भारत के इस ‘जातिबद्ध’ जनतंत्र – जो धार्मिक ताकतों में भी आबद्ध है – की चर्चा के बाद आगे यहां व्याप्त प्रचंड विविधता में कायम एकता पर किताब फोकस करती है। संविधान निर्माताओं ने सचेतन तौर पर ‘संघीय’ (फेडरल) शब्द के इस्तेमाल से परहेज किया। आजादी के वक्त भारत में चौदह राज्य थे और आज इनकी संख्या 28 तक पहुंची है। ”कभी भी इस पुनर्विभाजन के लिए मतदाताओं से सलाह मशविरा नहीं लिया गया है, न पहले और न ही बाद में…।” भारत के हुक्मरानों ने अपनी सुविधा से इसे अंजाम दिया, इसके बावजूद एक केंद्रीय सरकार के अधीन इन क्षेत्रीय हुकूमतों को भारतीय संविधान की एक ‘अलग किस्म की उपलब्धि’ के तौर पर रेखांकित किया जाता है और यह समझदारी ‘भारतीय विचारधारा’ का एक अहम अंग बनी है कि यह धारणा कि देश की एकता की भारतीय राज्य द्वारा रक्षा एक किस्म का करिश्मा है। ”निश्चित तौर पर इस किस्म के हांकने का कोई आधार नहीं है।” (पृ. 114) किसी भी योरोपीय उपनिवेश को आज देखें तो यही नियम दिखता है।
भारतीय राज्य द्वारा ब्रिटिशकालीन भारत को ‘एकताबद्ध’ रखने की कोशिशों ने किस तरह कश्मीरी जनता की लोकप्रिय इच्छा (पापुलर विल) पर कहर बरपाया है, इसकी चर्चा के बाद लेखक उत्तर-पूर्व को एकीकृत रखने की नवस्वाधीन मुल्क की कोशिशों पर आता है, जहां की जनता का बड़ा हिस्सा आज भी इस कहर को दमनात्मक कानूनों या बड़े हिस्सों में आज भी जारी सैन्य दमन के रूप में झेल रहा है। ध्यान रहे कि यह वह इलाका है जहां आजादी के बाद से ही हथियारबंद संघर्षों का सिलसिला जारी है, जो भारत से आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग करते रहे हैं। इस संदर्भ में नागा नेशनल काउंसिल के प्रतिनिधिमंडल को गांधी द्वारा दिए गए आश्वासन को अक्सर भुला दिया जाता है। आजादी से एक माह पहले इस प्रतिनिधिमंडल से गांधीजी ने साफ कहा था कि ”…व्यक्तिगत तौर पर, आप सभी मेरा या भारत का हिस्सा हैं। मगर अगर आप यह कहते हैं कि नहीं, तो कोई भी आप पर दबाव नहीं डाल सकता।” (पृ. 121)
नेहरू की महानता की चर्चा करते वक्त जिस बात का अक्सर उल्लेख किया जाता है कि वह तानाशाहों से बजबजाती गैरपश्चिमी दुनिया में एक जनतांत्रिक नेता के तौर पर शासन करते रहे, उस संदर्भ में लेखक इस पहलू को रेखांकित करना नहीं भूलता – ”… नेहरू सबसे पहले एक भारतीय राष्ट्रवादी थे और जहां आम जन-इच्छा राष्ट्र के उनके तसव्वुर के साथ सामंजस्य बिठाती नहीं दिखी, उन्होंने बिना पश्चाताप के उसका दमन किया। यहां सरकार की प्रणाली मतदातापत्र नहीं थी, बल्कि जैसा कि उन्होंने खुद कहा है, संगीनें थीं।” (पृ. 133) ”1961 में उन्होंने भारत की एकता पर भाषण में या लेखन में, छवि में या प्रतीक में, सवाल उठाने को अपराध घोषित किया, जिसके लिए तीन साल की सजा दी जा सकती थी। नगा जनता, जिस पर उन्होंने 1963 में बमबारी शुरू की, वह तब भी लड़ रही थी, जब उनका देहांत हुआ। तीन साल बाद बगल की मिजो जनता भी बगावत में उठ खड़ी हुई।” (पृ. 135)
भारतीय विचारधारा का तीसरा अहम हिस्सा धर्मनिरपेक्षता के सवाल को लेकर है। लेखक बताता है कि किस तरह संविधान को अपनाते वक्त भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य कहने से बचा गया। न उसने कानून के सामने समानता के सिद्धांत को स्थापित किया, न समान नागरिक संहिता को लागू किया। हिंदू एवं मुसलमान दोनों अपने पारिवारिक जीवन में अपनी आस्था से जनित परंपरा/रिवाजों के अधीन रखे गए, दैनंदिन जीवन में धार्मिक सोपानक्रमों में दखल देने से इनकार किया गया, अस्पृश्यता पर पाबंदी लगा दी गई, मगर जाति को अक्षुण्ण रखा गया। गौरतलब है कि संविधान निर्माता के तौर पर अक्सर महिमामंडित किए जानेवाले डॉ. आम्बेडकर खुद संविधान जैसा कि वजूद में आया उससे संतुष्ट नहीं थे। संविधान निर्माण के बाद उनका यह वक्तव्य मशहूर है। ”लोग अक्सर मुझे कहते हैं कि सर, आप संविधान के निर्माता हैं। मेरा जवाब होता है, मैं किराये का टट्टू था, मुझे जो करने के लिए कहा गया, मैंने किया और अधिकतर अपनी इच्छा के खिलाफ”(पृ. 139) हिंदुओं की विवाह प्रथा में व्याप्त गैरबराबरी के खिलाफ हिंदू कोड बिल बनाने की उनकी योजना को जब पलीता लगा, तो उसके आधार पर कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर हुए आम्बेडकर इस बात के प्रति भी सचेत थे कि संविधान के बनने से उनके अपने लोगों की स्थिति में कोई सुधार आया है। ”वही तानाशाही, वही पुराने उत्पीडऩ का अस्तित्व आज भी बना हुआ है, पहले से चला आ रहा भेदभाव आज भी जारी है, और आज शायद अधिक खराब रूप में।” (आम्बेडकर, रायटिंग्ज एंड स्पीचेस, खंड 14, जिल्द-2, बांबे 1995, पृ.1318-1322) यहां धर्मनिरपेक्षता को धर्म के राज्य से अलगाव के तौर पर अपनाने एवं व्यवहार में लाने के बजाय सर्वधर्म-समभाव के तौर पर अपनाया गया। ”…कांग्रेस के नेतृत्व वाले राज्य ने भी कभी भी मुस्लिम अल्पसंख्यकों की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति सुधारने के लिए गंभीर प्रयास नहीं किए। अगर पार्टी या राज्य वाकई धर्मनिरपेक्ष होता, तो हर मामले में उसे प्राथमिकता मिलती, लेकिन यह बात उसके दिमाग में कभी नहीं आई।” (पृ. 146)
अंत में किताब जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता एवं एकता की इस ‘त्रिमूर्ति’, जो लेखक के मुताबिक भारतीय विचारधारा की बुनियाद है, पर विभिन्न अग्रणी विचारकों की समझदारी की चर्चा करती है और स्पष्टत: दिखाती है कि जहां सामाजिक आलोचना का पक्ष इनकी रचनाओं में अहम दिखता है, वही तेवर राजनीतिक आलोचना में नजर नहीं आता। एक उदाहरण के तौर पर वह ऑक्सफोर्ड कंपेनियन टू पॉलिटिक्स शीर्षक हाल में प्रकाशित संदर्भ ग्रंथ का उल्लेख करते हैं, जिसमें भारत, जैसा कि आज अस्तित्व में है, उसमें इन तमाम अग्रणियों के विचारों को देखा जा सकता है। भारतीय राज्य की दमनात्मक प्रणालियों पर यह कंपेनियन लगभग मौन है।
अपनी इस किताब का समापन करते हुए लेखक लिखते हैं कि ”एक बार जब उपनिवेशवादविरोधी संघर्ष से किसी नवस्वाधीन राष्ट्र का निर्माण होता है, तो उसकी जागृति के लिए प्रयुक्त विमर्श उसे उन्मत्त भी कर सकता है। भारत में यह खतरा अधिक दिखता है… आज जरूरत इस बात की है कि रूमानीकृत अतीत के मोह एवं वर्तमान में मौजूद उसके अवशेषों से हम मुक्त हों।”
भारत की अवाम की बेहतरी के लिए चिंतनरत तथा सक्रिय हर व्यक्ति के लिए पेरी एंडरसन की यह किताब बेहद जरूरी है। जरूरी नहीं कि हम उसके तमाम निष्कर्षों से सहमत हों, मगर भारतीय राज्य द्वारा अपनी आत्मप्रशंसा में बनाए गए तमाम मिथकों से – जो सहजबोध का हिस्सा बने हैं, मुक्त होने के लिए हमें निश्चित तौर पर यह एक आईना प्रदान करती है। जिस तरह जर्मन आइडियोलॉजी में लेखकद्वय ने अपने समकालीन चिंतकों, लेखकों को – जिनका जोर चेतना एवं अमूर्त विचारों पर था – ‘जिंदगी की वास्तविक परिस्थितियों से रूबरू होने’ की अपील की थी, उसी तरह यह किताब भी भारत के यथार्थ, अतीत और वर्तमान के तमाम असहज करनेवाली सच्चाइयों का सामना करने के लिए लोगों को झकझोरती है। (www.samayantar.com से साभार)
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