Wednesday, 26 June 2013

अरुण प्रकाश की तीन किताबें




भैया एक्‍सप्रेस
विश्वनाथ त्रिपाठी की टिप्पणीः अरुण प्रकाश अभिधा-परंपरा के कथाकार हैं। स्थितियों और पात्रों को अप्रत्याशित झटके नहीं देते। कहन पर अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय जानकारी नहीं गाँजते। वे पहले से परिचित पात्रों और स्थितियों में अपरिचय का अंश प्रकट करते हैं। अपरिचय का परिचय नहीं देते। उनकी कहानियों में तत्कालीनता की ऐतिहासिकता की भूमिका है—यह भी प्रेमचंद, परसाई, शेखर जोशी और ज्ञानरंजन, स्वयं प्रकाश की परंपरा में है। कहानियों के पात्र और उनकी स्थितियाँ ऐसी हैं, जो अभी निर्णीत नहीं हैं, वे कुछ होने और न होने की प्रक्रिया में हैं, उनपर विराम-चिह्न नहीं लगा है।
मैनेजर पाण्डेय की टिप्पणीः बिहार के मज़दूरों की इस दुर्दशा के प्रति अरुण प्रकाश जितने संवेदनशील थे उतनी संवेदनशीलता मैंने बहुत कम लोगों में पाई है। उनकी इसी संवेदनशीलता का प्रमाण और परिणाम है उनकी मशहूर कहानी 'भैया एक्सप्रेस।’
सुरेन्द्र स्निग्ध की टिप्पणीः वे 'कफन 1984’ और 'भैया एक्सप्रेस’ जैसी कहानियों के माध्यम से बिहार के मज़दूरों के निरंतर पलायन और सामंती जकड़बंदी में उसके शोषण को बड़ी संवेदनशीलता से चित्रित कर रहे थे। इस शोषण से मुक्ति के लिए मज़दूरों के भीतर उठने वाले संघर्ष हिंदी आलोचकों को आलोचना के नए औज़ार गढऩे को विवश कर रहे थे।
जल प्रांतर
नामवर सिंह की टिप्पणीः 'जल-प्रांतर’ कहानी के रूप में रिपोर्तार्ज है। बिहार की बाढ़ का शायद ही कहीं ऐसा विवरण मिलता हो जो यथार्थ के इतना करीब हो।
विश्वनाथ त्रिपाठी की टिप्पणीः 'जल-प्रांतर’ का प्रतिपाद्य बाढ़ की विभीषिका, उस राहत कार्य में भ्रष्टाचार, सामान्य जन की विपत्ति और उनको वंचित करने के दृश्य—प्रकृति के कोप के अपार नेपथ्यों में। और इसी में घोर कर्मकाण्डी रुढिग़्रस्त अंधविश्वासी पंडित परिवार और पाहुन, और उनकी वृद्धा पत्नी का प्रकरण है, जो बाढ़-लीला का छोटा-सा किनारे पड़ा हुआ अंश है। किंतु वृद्धा पत्नी और उनके पति पाहुन के संबंधों-स्थितियों से जूझते हुए संबंधों को इतनी सहजता, संयम, मितकथन से संकेतित किया गया गया है कि इस विशदकथा की मार्मिकता उस वृद्ध दम्पती केन्द्रित-पर्यवसित हो जाती है।
रामशरण जोशी की टिप्पणीः 'जल-प्रांतर’ में जमा छह कहानियों में से 'जल-प्रांतर’ मुझे प्रत्येक दृष्टि से अद्वितीय लगी। एक ज़बरदस्त कहानी। अरुण ने इसमें अपना सब-कुछ उलीच कर रख दिया। मनुष्य, कल और व्यवस्था का एक यथार्थवादी रूपक। कहानी का नायक पंडित वासुदेव का किरदार एक साथ कई द्वंद्वों का प्रतिनिधित्व करता है। 'जल-प्रांतर’ सिर्फ बाढ़ से घिरे लोगों और इलाके की कहानी नहीं है। मैं इसे राष्ट्र के संधिकाल के अंतर्विरोधों के रूपक के तौर पर लेता हूँ।
हृषीकेश सुलभ की टिप्पणीः  'जल-प्रांतर’ का स्थापत्य विराट है। इसके स्थापत्य में युगों से चली आ रही आस्थाओं के भग्नावशेष के साथ-साथ गँवई समाज के विविधवर्णी क्रियात्मक रूप और प्रकृति की महाकाव्यात्मकता शामिल हैं। कहानी का पाश्र्व रचते हुए अरुण प्रकाश कुछ भी आक्षेपित किए बिना सहज भाव से वर्णन करते हैं और जीवन का मर्म उकेरते चलते हैं। अरुण प्रकाश की कहानियाँ मानसधर्मी कहानियाँ नहीं हैं। वह कालधर्मी कहानीकार हैं। वह अपने उन जीवनानुभवों को कहानी के कथ्य में रूपांतरित करते हैं जिन्हें वह हमारे समय, समाज और मनुष्य के अंतर्विरोधों से टकराकर अर्जित करते हैं।
उपन्‍यास के रंग
अरुण प्रकाश ने अपनी किताब  'गद्य की पहचान’ में उपन्यास को एक रूपबंध कहा था जिसमें कई विधाओं की आवाजाही हो सकती है। प्रस्तुत किताब  'उपन्यास के रंग' में अरुण प्रकाश उपन्यास के संभावित आयतन को नए सिरे से अन्वेषित करते हैं। उपन्यास में आ सकने वाली विधाओं और सामग्री की यह एक गंभीर जाँच-पड़ताल है जो पाठकों के साथ ही लेखकों को भी उद्वेलित करती है। कथाकार अरुण प्रकाश फिल्म की भाषा में सोचनेवाले रचनाकार थे अत: वे फार्म, भाषा, शिल्प के साथ ही आख्यान के सभी रूपों को गहराई से समझते थे। यह गुण उनकी आलोचना में मुख्य धातु की तरह विद्यमान है।
लीलाधर मंडलोई टिप्पणीः अरुण प्रकाश इस किताब से एक गंभीर आलोचक की अपनी जगह सुनिश्चित करते हैं। उनकी यह किताब उपन्यास में आ रहे विधागत बदलाओं को समझने की एक भरोसेदार कुंजी है।

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