Wednesday, 24 July 2013

प्रतिरोध के दो महान लेखक प्रेमचंद और जार्ज ऑरवेल


डॉ. पुष्पपाल सिंह

साहित्य के इतिहास में अनेक विसंगतियां घटित होती रहती हैं, कभी-कभी कुछ श्रेष्ठ कृतियां समुचित प्रकाश-प्रसार में नहीं आ पातीं और कुछ कृतियां जग-व्यापी होकर लोकप्रियता के शिखर छू लेती हैं। प्रेमचंद की दो बैलों की कथा 1931 में प्रकाशित हुई और जार्ज ऑरवेल का लघु उपन्यास एनीमल फार्म 1945 में। वस्तुत: दोनों ही रचनाकार साम्राज्यवादी, तानाशाही ताकतों का पुरजोर विरोध पशुओं के बाडे की दुनिया के माध्यम से करते हैं- दो बैलों की कथा भी कथ्य और शैल्पिक स्तर पर एनीमल फार्म से किसी प्रकार भी कमतर नहीं, दोनों में कई-कई समानताएं हैं किंतु प्रेमचंद का दुर्भाग्य यह रहा कि उनकी कहानी का अनुवाद अंग्रेजी में नहीं हुआ और यह कहानी सारे संसार के अक्षर जगत में नहीं पहुंच सकी, यद्यपि उनका यह अद्भुत कथा-प्रयोग जॉर्ज ऑरवेल से 13-14 वर्ष पूर्व हो चुका था। वैश्विक स्तर पर दो बैलों की कथा की बात छोडिए, हिंदी समीक्षा ने भी इस कहानी को कोई खास अहमियत न दी। जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास एनीमल फॉर्म का पुनर्पाठ मेरा ध्यान बरबस प्रेमचंद की इस कहानी की ओर मोडता रहा- दोनों में अद्भुत समानता, यहां तक कि अपनी शैल्पिक सतर्कता- कहानी के रूपकत्व के बंधान में दो बैलों की कथा कितने ही स्थलों पर एनीमल फॉर्म से आगे दिखाई देती है।
एनीमल फॉर्म- 1944 ई. में लिखा गया प्रकाशन 1945 में इंग्लैंड में हुआ जिसे तब नॉवेला (लघु उपन्यास) कहा गया, यद्यपि इसकी मूल संरचना एक लंबी कहानी की है। कथाकार ने इसे प्रथम प्रकाशन के समय शीर्षक के साथ एक फेयरी टेल- (द्र. प्रथम संस्मरण का मुख पृष्ठ) एक पर कथा कहा, क्योंकि परी कथाओं के समान ही विभिन्न जानवर-जन्तु यहां उपस्थित हैं। प्रकाशन के साथ ही विश्व की सभी भाषाओं में इसके अनुवाद प्रकाशित हुए- फ्रांसीसी भाषा में तो कई-कई!! प्रसिद्ध टाइम मैगजीन ने वर्ष 2005 में एक सर्वेक्षण में 1923-2005 ई. की कालावधि में प्रकाशित 100 सर्वाधिक प्रसिद्ध उपन्यासों में इसे परिगणित किया और साथ ही 20 वीं शती की माडर्न लाइब्रेरी लिस्ट ऑफ बेस्ट 100 नॉवल्स में इसे 31 वां स्थान दिया।
एनीमल फॉर्म उपन्यास साम्यवादी क्रांति आन्दोलन के इतिहास में आई भ्रष्टता को नंगा करता हुआ दर्शाता है कि ऐसे आंदोलन के नेतृत्व में प्रवेश कर गयी स्वार्थपरता, लोभ-मोह तथा बहुत-सी अच्छी बातों से किनाराकशी किस प्रकार आदर्शो के स्वप्न-राज्य (यूटोपिया) को खंडित कर सारे सपनों को बिखेर देती है। मुक्ति आंदोलन जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया गया था, सर्वहारा वर्ग को सत्ता हस्तांतरित करने के लिए, उस उद्देश्य से भटक कर वह बहुत त्रासदायी बन जाता है। एनिमल फॉर्म का गणतंत्र इन्हीं सरोकारों पर अपनी व्यवस्था को केंद्रित करते हैं। पशुओं के बाडे का पशुवाद (एनीमलिज्म) वस्तुत: सोवियत रूस के 1910 से 1940 की स्थितियों का फंतासीपरक रूपात्मक प्रतीकीकरण है।
प्रेमचंद दो बैलों की कथा का विन्यास लगभग इसी रूप में फंतासी और रूपकत्व-शैली में होता है। प्रेमचंद की कहानी में कलात्मकता इसलिए अधिक आयी है कि उसके पशु जगत के प्राणी-जन्तु-बहुत अधिक मुखर (वोकल) रूप में अपनी बात नहीं कहते, अपितु वहां बहुत सूक्ष्म संकेतों, व्यंग्य और फंतासी में ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्ति को उखाड फेंकने की बात व्यंजित होती है वर्णित, कथित नहीं। बैल और गधों के स्वभाव की मीमांसा दोनों कलाकार करते हैं। प्रेमचंद के रचना-मानस में पराधीन भारत का जमींदारों के शोषण में पिसता सामान्य आदमी और गरीब किसान है, उसी की बात वे गधे के माध्यम से करते हैं। उसके सीधेपन का वर्णन करते हुए प्रेमचंद के मानस में देशवासी ही बसे हुए हैं जो मेले-ठेलों, तीज-त्योहारों में (बैशाख में) कभी-कभी कुलेले कर लेते हैं पर जो एक स्थायी विषाद भारतीय कृषक और मजदूर के चेहरे पर छाया रहता है। निश्चय ही उनका मंतव्य यहां पशु जगत की कथा कहना नहीं है, रुपकत्व के कुशल बंधान से वे देश में साम्राज्यवादी शक्तियों के अत्याचारों-अनाचारों की पोल खोल, देशवासियों को परतंत्रता की बेडियां काटने के लिए उत्प्रेरित कर रहे हैं। जापान इसीलिए उदाहरणस्वरूप उनकी दृष्टि में आता है। प्रेमचंद के इस गधे के वर्णन के बाद ऑरवेल द्वारा अपने उपन्यास के बेंजामिन नामक गधे का यह वर्णन भी द्रष्टव्य है, बूढे बेंजामिन में विद्रोह के बाद भी कोई बदलाव नहीं आया था, वह अब भी उसी तरह सुस्ती से काम करता था, जैसे जोंस के समय करता था। वह काम से कभी नहीं जी चुराता था, लेकिन स्वेच्छा से कभी अतिरिक्त काम नहीं करता था। विद्रोह और उसके परिणामों पर वह कोई राय व्यक्त नहीं करता था। यह पूछे जाने पर कि क्या वह जोंस के जाने पर खुश नहीं है, तो कहता गधे लम्बा जीवन जीते हैं। तुम लोगों में से किसी ने कभी मरे हुए गधे को नहीं देखा होगा।
मोती और हीरा जब अपने सम्मिलित पुरजोर धक्कों से कांजीहाउस की दीवार गिरा देते हैं तो सब पशु-घोडियां, बकरियां, भैंसे, आदि भाग निकले पर गधे अभी तक ज्यों-के-त्यों खडे थे। प्रेमचंद के इस छोटे-से वाक्य के निहितार्थ व्यंजना क्या है? कहना चाहते हैं कि देश में ऐसे गधों की कमी नहीं थी जो सारी विद्रोहपूर्ण हलचलों से पूरी तरह उपराम बने हुए थे। एनीमल फॉर्म के गधे की भी कमोबेश यही स्थिति है। अपने साथी जानवरों को मार से बचाने के लिए, उनकी जान बचाने के लिए हीरा-मोती मार खाते हैं, उनके तोष का बिंदु यही है कि उनके प्रयत्नों से नौ-दस प्राणियों की जान बच गयी। वे सब तो आशीर्वाद देंगे। भारतेंदु से लेकर प्रेमचंद तक सभी ने भारत-दुर्दशा के लिए भारत-भाग्य को दोषी माना है, प्रेमचंद भी मोती और हीरा के माध्यम से इसी भाग्यवादी दृष्टिकोण को प्रकट कर रहे हैं। जब देश की सामान्य जनता परतंत्रता के जुए के नीचे त्राहि-त्राहि कर रही थी, उस समय भी कुछ लोग धन और ऐश्वर्य का भोग कर मस्ती से पागुर कर रहे थे, हरे हार में चलते इन लोगों की ओर कहानी में बैलों के माध्यम से ही ध्यान खींचा गया है, राह में गाय-बैलों का एक रेवड हरे-हरे हार में चरता नजर आया सभी जानवर प्रसन्न थे, चिकने, चपल। कोई उछलता था, कोई आनंद से बैठा पागुर करता था, कितना सुखी जीवन था इनका; पर कितने स्वार्थी हैं सब! किसी को चिंता नहीं कि उनके दो भाई बधिक के हाथ पडे कैसे दुखी हैं।
कसाई के हाथों से मुक्त हो कर झूरी के पास पहुंचते हैं और अपनी दुर्दशा पर विचार करते हुए कहते हैं, हमारी जान को कोई जान ही नहीं समझता।.. इसीलिए कि हम इतने नीचे हैं। इस प्रकार प्रेमचंद इस कांजीहाउस और दो बैलों की अन्योक्तिपरक रूपकात्मक फंतासी के माध्यम से बहुत गहरी संवेदना और कलात्मकता के साथ परतंत्र भारत में अंग्रेजों के खिलाफ उभर रहे विद्रोह को अपने रूप में वाणी दे दो बैलों की कथा जैसी बेजोड कहानी लिखते हैं। इस कहानी पर फिल्म भी बनी, गो उसका हस्त्र वही हुआ जो साहित्यिक कृतियों पर बनी अन्य बहुत-सी फिल्मों का हुआ है, उधर एनीमल फॉर्म पर भी कई-कई फिल्में बनीं और चर्चित हुई। ये दोनों ही क्लासिक्स विश्व साहित्य के दो महान कलाकारों की साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ प्रबल प्रतिरोध दर्ज करती हैं।

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