Wednesday, 24 July 2013

लज्जा और तस्लीमा नसरीन



लज्जा’ बांग्लादेश की बहुचर्चित लेखिका तसलीमा नसरीन का पाँचवाँ उपन्यास है। इस उपन्यास ने न केवल बांग्लादेश में हलचल मचा दी है, बल्कि भारत में भी व्यापक उत्ताप की सृष्टि की है। यही वह उत्तेजक कृति है, जिसके लिए लेखिका को बांग्लादेश की कट्टरवादी साम्प्रदायिक ताकतों से सजा-ए-मौत की घोषणा की है। दिलचस्प यही है की सीमा के इस पार की साम्प्रादयिक ताकतों ने इसे ही सिर माथे लगाया। कारण ? क्योंकि यह उपन्यास बहुत ही शक्तिशाली ढंग से बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करता है और उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण करता है जो एक लंबे अरसे से बांग्लादेशी हिन्दुओं की नियति बन चुका है। हमारे देश की हिन्दूवादी शक्तियों ने ‘लज्जा’ को मुस्लिम आक्रमकता के प्रमाण के रूप में पेश करना चाहा है, लेकिन वस्तुतः ‘लज्जा’ दुधारी तलवार है। यह मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर जितनी तल्खी से आक्रमण करता है, उतनी ही तीव्रता से हिन्दू साम्प्रदायिकता की परतें भी उघाड़ता है। वस्तुतः यह पुस्तक साम्प्रदायिकता मात्र के विरुद्ध है और यही उसकी खूबसूरती है।

‘लज्जा’ की शुरुआत होती है 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़े जाने पर बांग्लादेश के मुसलमानों की आक्रमक प्रतिक्रिया से। वे अपने हिन्दू भाई-बहनों पर टूट पड़ते हैं और उनके सैकड़ों धर्मस्थलों को नष्ट कर देते हैं। लेकिन इस अत्याचार, लूट, बलात्कार और मन्दिर ध्वंस के लिए वस्तुतः जिम्मेदार कौन है ? कहना न होगा कि भारत के वे हिन्दूवादी संगठन जिन्होंने बाबरी मस्जिद ध्वंस का प्रतिशोध की राजनीति का खूँखार चेहरा दुनिया के सामने रखा। वे भूल गये कि जिस तरह भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं, उसी तरह पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। लेखिका ने ठीक ही पहचाना है कि ‘भारत कोई विच्छिन्न ‘जम्बूद्वीप’ नहीं है। भारत में यदि विष फोड़े का जन्म होता है, तो उसका दर्द सिर्फ भारत को ही नहीं भोगना पड़ेगा, बल्कि वह दर्द समूची दुनिया में, कम-से-कम पड़ोसी देशों में तो सबसे पहले ही फैल जाएगा।’ क्यों ? क्योंकि इस पूरे उपमहादेश की आत्मा एक है, यहाँ के नागरिकों का साझा इतिहास और एक साझा भविष्य है। अतः एक जगह की घटनाओं का असर दूसरी जगह पड़ेगा ही। अतः हम सभी को एक-दूसरे की संवेदनशीलता का खयाल रखना चाहिए और एक प्रेम तथा सौहार्दपूर्ण समाज की रचनी करनी चाहिए। ऐसे समाज में ही हिन्दू, मुसलमान तथा अन्य समुदायों के लोग सुख और शान्ति से रह सकते हैं। प्रेम घृणा से अधिक संक्रामक होता है।

लेकिन बांग्लादेश का यह ताजा उन्माद सिर्फ बाबरी मस्जिद टूटने की प्रतिक्रिया भर थी ? नहीं। तसलीमा की विवेक दृष्टि और दूर तक जाती है। वे यह दिखाने की कोशिश करती हैं कि इसका संबंधमूलतः धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल से है। यद्यपि पाकिस्तान का निर्माण होने के बाद कायदे-आजम मुहम्मद अली जिन्ना ने घोषणा की थी कि धर्म नहीं, जातीयता ही किसी समुदाय को एक रख सकती है, लेकिन पाकिस्तान के दृष्टिहीन शासकों ने इस आदर्श को तिलांजलि दे दी और वे पाकिस्तान को एक मुस्लिम राष्ट्र बनाने पर तुल गये। लेकिन क्या धर्म का बन्धन पाकिस्तान को एक रख सका ? बांग्लादेश का एक मुक्ति संग्राम एक सर्वथा सेकुलर संघर्ष था। किन्तु सेकुलरबाद का यह आदर्श स्वतंत्र बांग्लादेश में भी ज्यादा दिन नहीं टिक सका। वहाँ भी, पाकिस्तान की तरह ही धर्मतांत्रिक राज्य बनाने की अधार्मिक कोशिश की गयी। नतीजा यह हुआ कि बांग्लादेश में वह बदसूरत आग फिर सुलग उठी, जिसके कारण पहले के दशकों में लाखों हिन्दुओं को देश त्याग करना पड़ा था। संकेत स्पष्ट है जब भी धर्म और राजनीति का अनुचित सम्मिश्रण होगा, समाज में तरह-तरह की बर्बताएँ फैलेंगी।
तसलीमा नसरीन मूलतः नारीवादी लेखिका हैं। वे स्त्री की पूर्ण स्वाधीनता की प्रखर पक्षधर हैं। अपने अनुभवों से वे यह अच्छी तरह जानती हैं कि स्त्री के साथ होने वाला अन्याय व्यापक सामाजिक अन्याय का ही एक अंग है। इसलिए वे यह भी देख सकीं कि कट्टरतावाद सिर्फ अल्पसंख्यकों का ही विनाश नहीं करता, बल्कि बहुसंख्यकों का जीवन भी दूषित कर देता है। कठमुल्ले पंडित और मौलवी जीवन के हर क्षेत्र को विकृत करना चाहते हैं। सुरंजन और परवीन एक-दूसरे को प्यार करते हुए भी विवाह के बंधन में नहीं बंध सके, क्योंकि दोनों के बीच धर्म की दीवार थी और माहौल धर्मोन्माद से भरा हुआ था। धर्मोन्माद के माहौल में सबसे ज्यादा कहर स्त्री पर ही टूटता हैः उसे तरह-से-तरह से सीमित और प्रताड़ित किया जाता है। सुरंजन की बहन माया का अपहरण करने वाले क्या किसी धार्मिक आदर्श पर चल रहे थे ? उपन्यास का अन्त एक तरह की हताशा से भरा हुआ है और यह हताशा सिर्फ सुरंजन के आस्थावान पिता सुधामय की नहीं, हम सबकी लज्जा है, क्योंकि हम अब भी उपमहादेश में एक मानवीय समाज नहीं बना पाए हैं। यह एक नये ढंग का उपन्यास है। कथा के साथ रिपोर्ताज और टिप्पणी का सिलसिला भी चलता रहता है। इसलिए यह हमें सिर्फ भिगोता नहीं, सोचने विचारने की पर्याप्त सामग्री भी मुहैया करता है। कहानी और तथ्य उपन्यास में भी उसी तरह घुले-मिले हुए हैं, जिस तरह कल्पना और यथार्थ जीवन में। आशा है, तसलीमा की यह विचारोत्तेजक कृति हिन्दी पाठक को न केवल एक नयी भूमि परिचित कराएगी, बल्कि उसे एक नया विचार संस्कार भी देगी।

इस तरह शुरू होती है 'लज्जा' की व्यथा-कथा
सुरंजन सोया हुआ है। माया बार-बार उससे कह रही है, "भैया उठो, कुछ तो करो देर होने पर कोई दुर्घटना घट सकती है। सुरंजन जानता है, कुछ करने का मतलब है कहीं जाकर छिप जाना। जिस प्रकार चूहा डर कर बिल में घुस जाता है फिर जब उसका डर खत्म होता है तो चारों तरफ देखकर बिल से निकल आता है, उसी तरह उन्हें भी परिस्थिति शांत होने पर छिपी हुई जगह से निकलना होगा। आखिर क्यों उसे घर छोड़कर भागना होगा ? सिर्फ इसलिए कि उसका नाम सुरंजन दत्त, उसके पिता का नाम सुधामय दत्त, माँ का नाम किरणमयी दत्त और बहन का नाम नीलांजना दत्त है ? क्यों उसके माँ-बाप बहन को घर छोड़ना होगा ? कमाल, बेलाल या हैदर के घर में आश्रम लेना होगा ? जैसा कि दो साल पहले लेना पड़ा था। तीस अक्टूबर को कमाल अपने इस्कोटन के घर से कुछ आशंका करके ही दौड़ा आया था, सुरंजन को नींद से जगाकर कहा, "जल्दी चलो, दो चार कपड़े जल्दी से लेकर घर पर ताला लगाकर सभी मेरे साथ चलो।

देर मत करो, जल्दी चलो। कमाल के घर पर उनकी मेहमान नवाजी में कोई कमी नहीं थी, सुबह नाश्ते में अंडा रोटी दोपहर में मछली भात शाम को लॉन में बैठकर अड्डेबाजी, रात में आरामदेह बिस्तर पर सोना, काफी अच्छी बीता था वह समय। लेकिन क्यों उसे कमाल के घर पर आश्रय लेना पड़ता है ? कमाल उसका बहुत पुराना दोस्त है। रिश्तेदारों को लेकर उसे क्यों अपना घर छोड़कर भागना पड़ता है, कमाल को तो भागना नहीं पड़ता ? यह देश जितना कमाल के लिए है उतना ही सुरंजन के लिए भी तो है। नागरिक अधिकार दोनों का समान ही होना चाहिए। लेकिन कमाल की तरह वह क्यों सिर उठाये। खड़ा नहीं हो सकता। वह क्यों इस बात का दावा नहीं कर सकता कि मैं इसी मिट्टी की संतान हूँ, मुझे कोई नुकसान मत पहुँचाओ।

सुरंजन लेटा ही रहता है। माया बेचैन होकर इस कमरे से उस कमरे में टहल रही है। वह यह समझना चाह रही है कि कुछ अघट-घट जाने के बाद दुखी होने से कोई फायदा नहीं होता। सी.एन.एन. टीवी पर बाबरी तोड़े जाने का दृश्य दिखा रहा है। टेलीविजन के सामने सुधामय और किरणमयी स्तंभित बैठे हैं। वे सोचे रहे हैं कि सन् 1990 के अक्टूबर की तरह इस बार भी सुरंजन किसी मुसलमान के घर पर उन्हें छिपाने ले जायेगा। लेकिन आज सुरंजन को कहीं भी जाने की इच्छा नहीं है, उसने निश्चय किया है कि वह सारा दिन सो कर ही बिताएगा। कमाल या अन्य कोई यदि लेने भी आता है तो कहेगा, "घर छोड़कर वह कहीं नहीं जायेगा, जो होगा देखा जायेगा।

आज दिसम्बर महीने की सातवीं तारीख है। कल दोपहर को अयोध्या में सरयू नदी के किनारे घना अंधकार उतर आया। कार सेवकों द्वारा साढ़े चार सौ वर्ष पुरानी एक मस्जिद तोड़ दी गयी। विश्व हिन्दू परिषद द्वारा घोषित कार सेवा शुरू होने के पच्चीस मिनट पहले यह घटना घटी। कार सेवकों ने करीब पाँच घंटे तक लगातार कोशिश करके तीन गुम्बद सहित पूरी इमारत को धूल में मिला दिया। यह सब भारतीय जनता पार्टी विश्व हिन्दू परिषद आर.एस.एस. और बजरंग दल के सर्वोच्च नेताओं के नेतृत्व में हुआ और केन्द्रीय सुरक्षा वाहिनी पी.ए.सी. और उत्तर प्रदेश पुलिस निष्क्रिय खड़ी-खड़ी कार सेवकों का अविश्वसनीय तांडव देखती रही। दोपहर के दो बज कर पैंतालीस मिनट पर एक गुम्बद तोड़ा गया। बारह बजे दूसरा गुम्बद तोड़ा गया, चार बजकर पैतांलिस मिनट पर तीसरे गुम्बद को भी कार सेवकों ने ढहा दिया। इमारत को तोड़ते समय चार कार सेवक मलवे में दबकर मर गये और सौ से अधिक घायल हुए।

सुरंजन बिस्तर पर लेटे-लेटे ही अखबार के पन्नों को उलट रहा था। आज के सभी अखबारों की बैनर हैडिंग है। बाबरी मस्जिद का ध्वंस विध्वस्त। वह कभी अयोध्या नहीं गया, बाबरी मस्जिद नहीं देखी। देखेगा भी कैसे, उसने तो कभी देश से बाहर कदम रखा ही नहीं। राम का जन्म कब हुआ था और मिट्टी को खोदकर कोई मस्जिद बनी या नहीं, यह उसके लिए कोई मतलब नहीं रखता लेकिन सुरंजन यह मानता है कि सोलहवीं शताब्दी के इस स्थापत्य पर आघात करने का मतलब सिर्फ भारतीय मुसलमानों पर ही आघात करना नहीं बल्कि सम्पूर्ण हिन्दुओं पर भी आघात करना है। दरअसल, यह सम्पूर्ण भारत पर, समग्र कल्याणबोध पर, सामूहिक विवेक पर आघात करना है। सुरंजन समझ रहा है कि बांग्ला देश में बाबरी मस्जिद को लेकर तीव्र तांडव शुरू हो जायेगा, सारे मन्दिर धूल में मिल जायेंगे। हिन्दुओं के घर जलेंगे।

दुकानें लूटी जायेंगी। भारतीय जनता पार्टी की प्रेरणा से कार सेवकों ने वहाँ बाबरी मज्जिद को तोड़ कर इस देश के कट्टर कठमुल्लावादी दलों को और भी मजबूत कर दिया है। विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय जनता पार्टी और उनके सहयोगी दल क्या यह सोच रहे हैं कि उनके उन्मत्त आचरण का प्रभाव सिर्फ भारत की भौगोलिक सीमा तक ही सीमित रहेगा ? भारत में साम्प्रदायिक हंगामे ने व्यापक आकार धारण कर लिया है। मारे गये लोगों की संख्या पाँच सौ छह सौ, हजार तक पहुँच गयी है। प्रति घंटे की रफ्तार से मृतकों की संख्या बढ़ रही है। हिन्दुओं के स्वार्थ रक्षकों को क्या मालूम नहीं है कि कम-से-कम दो ढाई करोड़ हिन्दू बंगलादेश में हैं ? सिर्फ बंगालदेश में ही क्यों, पश्चिम एशिया के प्रायः सभी देशों में हिन्दू हैं। उनकी क्या दुर्गति होगी, क्या हिन्दू कठमुल्लों ने कभी सोचा भी है ? राजनैतिक दल होने के नाते भारतीय जनता पार्टी को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि भारत कोई ‘विच्छिन जम्बू द्वीप’ नहीं है। भारत में यदि विष फोड़े का जन्म होता है तो उसका दर्द सिर्फ भारत को ही नहीं भोगना पड़ेगा, बल्कि वह दर्द समूची दुनिया में कम से कम पडोसी देशों में तो सबसे पहले फैल जायेगा।

सुरंजन आँख मूँद कर सोया रहता है। उसे धकेल कर माया बोली, तुम उठोगे कि नहीं, बोलो ! माँ, पिताजी तुम्हारे भरोसे बैठे हैं।"

सुरंजन अँगड़ाई लेते हुए बोला, तुम चाहो तो चली जाओ, मैं इस घर को छोड़कर एक कदम भी नहीं जाऊँगा।"

"और वे ?"

‘मैं नहीं जानता।’

‘यदि कुछ हो गया तो ?’

‘क्या होगा !’

‘मानो घर लूट लिया, जला दिया।’

‘क्या तुम उसके बाद भी बैठे रहोगे ?’

‘बैठा नहीं लेटा रहूँगा।’

खाली पेट सुरंजन ने एक सिगरेट सुलगायी। उसे चाय पीने की इच्छा हो रही थी। किरणमयी रोज सुबह उसे एक कप चाय देती है, पर आज अब तक नहीं दी। इस वक्त उसे कौन देगा एक कप गरमगरम चाय। माया से बोलना बेकार है। यहाँ से भागने के अलावा फिलहाल वह लड़की कुछ भी सोच नहीं पा रही है। इस वक्त चाय बनाने के लिए कहने पर उसका गला फिर से सातवें आसमान पर चढ़ जायेगा। वह खुद ही बना सकता है पर आलस उसे छोड़ ही नहीं रहा है। उस कमरे में टेलीविजन चल रहा है। सी.एन.एन. के सामने आँखें फाड़कर बैठे रहने की उसकी इच्छा नहीं हो रही है। उसे कमरे से माया थोड़ी-थोड़ी देर में चीख रही है, भैया लेटे-लेटे अखबार पढ़ रहा है, उसे कोई होश नहीं।’

सुरंजन को होश नहीं है, यह बात ठीक नहीं। वह जानता है कि किसी भी समय दरवाजा तोड़कर एक झुण्ड आदमी अन्दर आ सकते हैं, उनमें कई जाने, कई अनजाने होंगे। घर के सामान तोड़-फोड़कर लूटपाट करेंगे और जाते-जाते घर में आग भी लगा देंगे। ऐसी हालत में कमाल या हैदर के घर आश्रय लेने पर कोई नहीं कहेगा कि हमारे यहाँ जगह नहीं है, लेकिन उसे जाने में शर्मिदगी महसूस होती है। माया चिल्ला रही है तुम लोग नहीं जाओगे तो मैं अकेली ही चली जा रही हूँ। पारुल के घर चली जाती हूँ। भैया कहीं ले जाने वाले हैं, मुझे नहीं लगता। उसे जीने की जरूरत नहीं होगी मुझे है। माया समझ गई है कि चाहे कारण कुछ भी हो सुरंजन आज उन्हें किसी के घर छिपने के लिए नहीं ले जायेगा। निरुपाय होकर उसने खुद ही अपनी सुरक्षा के बारे में सोचा है। सुरक्षा शब्द ने सुरंजन को काफी सताया है।

सुरक्षा नब्बे के अक्तूबर में भी नहीं थी। प्रसिद्ध ढाकेश्वरी मन्दिर में आग लगा दी गयी। पुलिस निष्क्रिय होकर सामने खड़ी तमाशा देखती रही। कोई रुकावट नहीं डाली गयी। मुख्य मन्दिर जल कर राख हो गया। अन्दर घुस कर उन लोगों ने देवी-देवताओं के आसन को विध्वस्त कर दिया। उन्होंने नटमन्दिर, शिवमन्दिर, अतिथिगृह, उसके बगल में स्थित श्री दामघोष का आदि निवास गौड़ीय मठ का मूल मन्दिर नटमन्दिर, अतिथिशाला आदि का ध्वंस करके मन्दिर की सम्पत्ति लूट ली। उसके बाद फिर माधव गौड़ीय मठ के मूल मन्दिर का भी ध्वंस कर डाला। जयकाली मन्दिर भी चूर-चूर हो गया। ब्रह्म समाज की चारदीवारी के भीतर वाले कमरे को बम से उड़ा दिया गया। राम सीता मन्दिर के भीतर आकर्षक काम किया हुआ सिंहसान तोड़-फोड़ कर उसके मुख्य कमरे को नष्ट कर दिया। शंखारी बाजार के सामने स्थित हिन्दुओं की पाँच दुकानों में लूटपाट व तोड़फोड़ के बाद उन्हें जला दिया गया। शिला वितान, सुर्मा ट्रेडर्स, सैलून और टायर की दुकान, लॉण्ड्री, माता मार्बल, साहा कैबिनेट, रेस्टोरेन्ट-कुछ भी उनके तांडव से बच नहीं पाया।

शंखारी बाजार के मोड़ पर ऐसा ध्वंस यज्ञ हुआ कि दूर-दूर तक जहाँ भी नजर जाती ध्वंस विशेष के सिवाय कुछ भी नजर नहीं आता था। डेमरा शनि अखाड़े का मन्दिर भी लूटा गया। पच्चीस परिवारों का घर-द्वार सब कुछ दो-तीन सौ साम्प्रदायिक संन्यासियों द्वारा लूटा गया। लक्ष्मी बाजार के वीरभद्र मन्दिर की दीवारें तोड़ कर अन्दर का सब कुछ नष्ट कर दिया गया। इस्लामपुर रोड की छाता और सोने की दुकानों को लूट कर उनमें आग लगा दी गयी। नवाबपुर रोड पर स्थित मरणचाँद की मिठाई की दुकान, पुराना पल्टन बाजार की मरणचाँद की दुकान आदि को भी तोड़ दिया गया। राय बाजार के काली मन्दिर को तोड़ कर वहाँ की मूर्ति को रास्ते पर फेंक दिया गया। सुत्रापुर में हिन्दुओं की दुकानों को लूट कर, तोड़कर उनमें मुसलमानों के नाम पट्ट लटका दिये गये। नवाबपुर के घोष एण्ड सन्स की मिठाई की दुकान को लूट कर उसमें नवाबपुर की रामधन पंसारी नामक प्राचीन दुकान को भी लूटा गया।
बाबू बाजार पुलिस चौकी से मात्र कुछ गज की दूरी पर अवस्थित शुक लाल मिष्ठान भंडार को धूल में मिला दिया गया। वाद्ययंत्र की प्रसिद्ध दुकान ‘यतीन एण्ड कम्पनी’ के कारखाना व दुकान को इस तरह तोड़ा गया कि सिलिंग फैन से लेकर सब कुछ भस्मीभूत हो गया। ऐतिहासिक साँप मन्दिर का काफी हिस्सा तोड़ दिया गया। सदरघाट मोड़ में स्थित रतन सरकार मार्केट भी पूरी तरह ध्वस्त हो गयी।
सुरंजन की आँखों के सामने उभर आया नब्बे की लूटपाट का भयावह दृश्य। क्या नब्बे की घटना को दंगा कहा जा सकता है ? दंगा का अर्थ मारपीट एक सम्प्रदाय के साथ दूसरे सम्प्रदाय के संघर्ष का नाम ही दंगा है, लेकिन इसे तो दंगा नहीं कहा जा सकता। यह है एक सम्प्रदाय के ऊपर दूसरे सम्प्रदाय का हमला, अत्याचार। खिड़की से होकर धूल सुरंजन के ललाट पर पड़ रही है। जाड़े की धूल है। इस धूल से बदन नहीं जलता। लेटे-लेटे उसे चाय की तलब महसूस होती है।


No comments:

Post a Comment