प्रभात रंजन
चार्ल्स डिकेंस ने लिखा.... क्या मैं अपनी जिंदगी का नायक बनूंगा, या वह स्थान किसी और को मिलेगा, यह इन पन्नों से स्पष्ट हो जाएगा। अपने जीवन की शुरुआत से शुरू करके मैं यह दर्ज करना चाहता हूं (जैसा कि मुझे बताया गया है और मैं मानता हूं) कि मैं एक शुक्रवार को रात बारह बजे पैदा हुआ था। यह कहा गया कि जैसे ही घड़ी के घंटे बजने शुरू हुए, ठीक उसी वक्त मैंने भी रोना शुरू किया था।....मेरे पिता ऊपर के एक छोटे से कमरे में कुछ किताबें छोड़ गए थे, जिन तक मेरी पहुंच हो गई थी (क्योंकि इसके बगल में मेरा कमरा था) और वहां कोई नहीं जाता था। रॉड्रिक रेंडम, पेरेग्राइन पिकल, हम्फ्री क्लिंकर, टॉम जोन्स, द विकार ऑफ वेकफील्ड, डॉन किग्जॉट, जिल ब्लास और रॉबिन्सन क्रूसो उस दिव्य छोटे से कमरे से मेरा साथ देने के लिए बाहर आए। उन्होंने मेरी उत्सुकता को जीवित रखा और इस समय और स्थान के बाहर कुछ होने की उम्मीद बनाए रखी। इनमें अरेबियन नाइट्स और टेल्स ऑफ द जेनी भी शामिल थे। उन्होंने मुझे कोई नुकसान नहीं पहुंचाया और अगर उनमें कुछ नुकसानदेह था तो वो मेरे लिए नहीं था। .....अब मुझे अचरज होता है कि गंभीर चीजों के बीच ठोकरें खाते हुए मैंने इन्हें पढ़ने के लिए वक्त कैसे निकाल लिया। निर्माण और सृजन के बीच बुनियादी अंतर यह है : निर्माण की जा रही वस्तु के साथ निर्माण उपरांत ही प्रेम किया जा सकता है; परंतु सृजित वस्तु अस्तित्व में आने से पहले ही प्रेम की पात्र होती है। .....मानव हृदय में कुछ ऐसी भी तारें होती हैं, जिन्हें कभी झंकृत नहीं करना चाहिए।
अंग्रेजी भाषा और उसकी साहित्य परंपरा का ध्यान आते ही जिन लेखकों के नाम सबसे पहले जेहन में आते हैं, चार्ल्स डिकेंस उन लेखकों में रहे हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि विलियम शेक्सपियर के बाद वह अंग्रेजी-लेखन की सबसे बड़ी पहचान हैं। इंग्लैंड के अलावा कई अन्य देशों में स्कूलों-कॉलेजों में उनकी किताबें पाठय़क्रम में आज तक पढ़ाई जा रही हैं। विक्टोरिया युग के इस लेखक की स्मृतियों को इंग्लैंड में म्यूजियम में सजा कर रखा गया है, उसके नाम पर थीम पार्क बनाये गए हैं। जिस तरह कहा जाता है कि लोगों ने चंद्रकांता पढ़ने के लिए हिंदी भाषा सीखी, उसी तरह न जाने कितनी पीढ़ियों ने चार्ल्स डिकेंस के सहारे अंग्रेजी भाषा में महारत हासिल की।
औद्योगिक क्रांति के दौर में नए बनते समाज के अंतर्विरोधों को, उसकी विडंबनाओं को जिस खूबी से चार्ल्स डिकेंस ने अपने उपन्यासों डेविड कॉपरफील्ड, हार्ड टाइम्स, ग्रेट एक्सपेक्टेशंस, ए टेल ऑफ टू सिटीज, ऑलिवर ट्विस्ट, द पिकविक पेपर्स, निकोलस निकलबी, मार्टिन चजलविट और अपने अंतिम और अधूरे उपन्यास द मिस्ट्री ऑफ एडविन ड्रड आदि में चित्रित किया है, उसके कारण उनके उपन्यासों को ऐतिहासिक दस्तावेजों की तरह पढ़ा जाता है। उस दौर के ऐतिहासिक दस्तावेज के तौर पर, जब इंग्लैंड में नए पूंजीवाद का उदय हो रहा था, कारखानों के धुएं के पीछे नए शहरों की बुनियाद रखी जा रही थी, मध्यवर्ग का उदय हो रहा था। तेरह हजार से अधिक पात्रों का सृजन करने वाले इस लेखक ने उस नए बनते समाज में आम आदमी के जीवन को समझने का प्रयास किया। उस आम आदमी के जीवन को, बीसवीं शताब्दी तक आते-आते जो काफ्का के शब्दों में कहें तो एक विशाल कीड़े में बदल चुका था।
चार्ल्स डिकेंस को इस अर्थ में एक युगान्तकारी लेखक माना जाता है। उन्होंने उपन्यास साहित्य को साधारण लोगों के जीवन के करीब ला दिया। उन्होंने अपने उपन्यासों में नए ऐश्वर्य, चमक-दमक का गौरव गान नहीं किया, बल्कि उस ऐश्वर्य के नीचे दबे श्रमिक-वर्ग की जीवन-स्थितियों, उनकी कठिनाइयों का करुण गान किया है। इसी करुणा के सहारे उन्होंने सामाजिक यथार्थ का एक ऐसा मुहावरा गढ़ा, जो बाद में प्रगतिशीलता को परिभाषित करने वाला मुहावरा बन गया, एक निर्णायक मुहावरा। लगभग एक शताब्दी तक विश्व साहित्य में इसी मुहावरे का वर्चस्व बना रहा। जिस साहित्य में यह सामाजिक यथार्थ, यह करुणा नहीं पाई गई, उसे पतनशील, ह्रासशील मूल्यों का प्रतीक माना गया। इस रूप में उनका महत्व समझ में आता है। अगर वे विश्व साहित्य की सबसे प्रभावशाली धारा यथार्थवाद के जनक नहीं थे तो निस्संदेह उन्होंने उसे सबसे लोकप्रिय, सबसे स्वीकार्य मुहावरे में बदल दिया। जन्म के दो सौ साल बाद भी अगर चार्ल्स डिकेंस को लेकर पाठकों-आलोचकों में वही उत्साह बरकरार है तो उसके पीछे एक बड़ा कारण यही है कि वे अपने लेखन में समाज के सबसे अंतिम व्यक्ति के साथ खड़े रहे।
प्रसिद्ध मार्क्सवादी चिंतक टेरी इगलटन ने हाल में उनके ऊपर लिखे एक लेख में इस ओर ध्यान दिलाया है कि वे सच्चे अर्थों में अंग्रेजी के पहले शहरी लेखक हैं। उस दौर के लंदन को उनके उपन्यासों ने चित्र-रूप में अमर कर दिया। कहते हैं कि लंदन के छोटे-बड़े ठिकानों, गलियों-मुहानों, रस्मों-रिवाजों की जैसी समझ चार्ल्स डिकेंस को थी, वैसी शायद ही किसी को रही हो। उन्नीसवीं सदी के इंग्लैंड को यदि ‘विक्टोरियन समय’ की संज्ञा दी जाती है तो उस समय की उतनी ही जानी-मानी पहचान ‘डिकेंसियन समय’ की भी कही जाती है। कोई लेखक यदि अपने समय के समाज की एक ऐसी पहचान बन जाए कि उसका नाम ही अपने समय की पहचान बन जाए तो उसके लेखनकर्म की इससे बड़ी सफलता यकीनन और कोई नहीं हो सकती।
डिकेंस का लेखन अपने समय से कुछ इस कदर गहराई से जुड़ा था कि उनके लेखन में इंग्लैंड के शहरी जीवन की उत्तेजना, उसकी बेचैनी दिखाई देती है, वह अजनबियत जो शहरी समाज ने इंसानी जीवन को दी, वह अकेलापन जिसके साथ जीने के लिए इंसान अभिशप्त हो गया। बीसवीं शताब्दी के लेखकों काफ्का, सैमुएल बेकेट, सार्त् आदि में जिसका चरम दिखाई देता है, उस इंसानी नियति के बीज चार्ल्स डिकेंस के लेखन में शायद पहले-पहल दिखाई देते हैं।
प्रसिद्ध फिल्मकार-अभिनेता और मानवतावादी चार्ल्स चेप्लिन की आत्मकथा का शुरुआती स्वरूप इसी विक्टोरियन और डिकेंसियन समय की याद दिलाता है। आत्मकथा में दी गई तस्वीरों में से झांकते घरों और गलियों में से चार्ल्स डिकेंस की कितनी ही कहानियों के विवरण अनजाने में ही उभर आते हैं।
महज चौबीस साल की उम्र में लेखक के रूप में प्रसिद्घ हो जाने वाले चार्ल्स डिकेंस ने किसी महत्वाकांक्षा के तहत लेखक बनने का निर्णय नहीं लिया था, बल्कि आजीविका के लिए इस पेशे को अपनाया था। उनके उपन्यास उस दौर की पत्रिकाओं में धारावाहिक छपते थे और देखते-देखते लोकप्रिय हो जाते थे। डेविड कॉपरफील्ड समेत उनके लगभग सभी उपन्यासों के बारे में कहा जाता है कि वे आत्मकथात्मक थे। उनके उपन्यासों के पात्र इतने विश्वसनीय लगते हैं कि वास्तविक जीवन के लोगों से उनके मिलान के लिए शोध होते रहे। उनके जीवनीकारों ने लिखा है कि निम्न-मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे इस लेखक का बचपन इतना अभावों भरा, इतना संघर्षपूर्ण था कि उसी ने उनको समाज के निचले तबकों के प्रति करुणाशील बनाया, पूंजी पर आधारित समाज के प्रति विद्वेषपूर्ण बनाया, जिसकी बुनियाद ही शोषण पर आधारित होती है। उनके लेखन में आजीवन यह भाव बना रहा। तब भी जब वे उच्च वर्ग के कुलीन बन गए, तब भी जब अभावों के कारण ठीक से शिक्षा प्राप्त न कर पाने वाले इस लेखक के बच्चे इंग्लैंड के मशहूर विद्यालयों में पढ़ने लगे। टेरी इगलटन ने अपने लेख में उनके जीवन के इस विरोधाभास की तरफ ध्यान दिलाया है। जिस यथार्थवाद की करुणा ने विश्व के अंग्रेजी भाषी समाज को उनके लेखन की तरफ सहज भाव से आकर्षित किया, वह बाद में उनके लिए एक फॉर्मूला मात्र रह गया था, जिसके आधार पर वे सफलता के कीर्तिमान गढ़ते रहे। (हिंदुस्तान से साभार संपादित अंश)
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