Wednesday, 24 July 2013

तुर्गनेव के दो बूँद आँसू


वह कैदी था। उसे आजन्म कैद की सजा मिली थी। एक दिन मौका पाकर वह जेल से भाग निकला। बड़ी तेजी से वह भागे जा रहा था। वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर दौड़ रहा था। दौड़ते-दौड़ते वह इतना थक गया कि बार-बार भूमि पर गिर पड़ता था।
सामने एक चौड़ी नदी थी। नदी अधिक गहरी न थी, लेकिन उसे तैरना जरा भी न आता था। लकड़ी का एक चौरस टुकड़ा किनारे पर तैर रहा था। सिपाहियों से भयभीत उस बेचैन व्यक्ति ने उसी पर अपना एक पैर रखने की कोशिश की। तभी किनारे पर दो व्यक्ति आ पहुँचे। उनमें एक व्यक्ति उसका दोस्त था और दूसरा दुश्मन। जो दुश्मन था, वह सबकुछ देखते हुए भी कुछ न बोला, मौन खड़ा रहा। पर उसका मित्र अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर जोर-जोर से चिल्लाने लगा, “यह क्या करता है? तेरा दिमाग तो खराब नहीं हो गया? पगला गया है क्या? देखता नहीं, यह लकड़ी का टुकड़ा बिलकुल सड़ा और निकम्मा है। तेरा बोझ इससे नहीं उठाया जाएगा। यह बीच में ही टूट जाएगा। फिर तेरी मृत्यु निश्चित है।”
“पर नदी पार करने का दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं! देखते नहीं, सिपाही मेरा पीछा कर रहे हैं?” यह कहते हुए वह अभागा व्यक्ति पुनः लकड़ी के टुकड़े की ओर बढ़ा।
“किन्तु मैं तेरा इस तरह सर्वनाश नहीं होने दूँगा!” उसका वह मित्र जोर से चिल्लाया और लकड़ी के टुकड़े को उसने दूर फेंक दिया। प्राणों के भय ने कैदी को उस लकड़ी के टुकड़े को पाने के लिए मजबूर कर दिया - उसके बचाव का वही एकमात्र साधन था। अपने मित्र का हाथ झटकता हुआ वह उस टुकड़े के लिए पानी में कूद पड़ा। एक बार... दो बार... वह ऊपर आया और फिर उसने सदा के लिए जल-समाधि ले ली।
उसका दुश्मन दिल खोलकर जोर-जोर से कहकहे लगाकर वापस चला गया, पर उसका मित्र अपने अभागे मित्र के लिए फूट-फूटकर विलाप करने लगा।
उसके मस्तिष्क में एक क्षण के लिए भी यह विचार न आया कि अपने मित्र की मृत्यु का वह स्वयं उत्तरदायी है।
वह रो-रोकर कह रहा था - "उसने मेरी बात न मानी - मेरी एक न सुनी।”
लोगों ने उसे समझाया-बुझाया, तो उसने स्वयं को तसल्ली देने का रास्ता खोज निकाला - “यदि वह जीवित रहता, तो भी उसे आजीवन कैद में ही सड़ना पड़ता, अब कम-से-कम उसकी यातना तो खत्म हुई। हो सकता है, उसके भाग्य में यही लिखा हो।”
फिर भी लोगों के बीच जब उस कैदी की चर्चा चलती, तो उसकी आँखें डबडबा आतीं। सच तो यह है कि अपने बदनसीब दोस्त के लिए वह भला आदमी सदा दो बूँद आँसू बहाता रहा!

दाता और दाता
मैं सड़क के किनारे-किनारे जा रहा था कि एक बूढ़े मुझे टोका। लाल सुर्ख़ और आँसुओं में डूबी आँखें, नीले होंठ, गंदे हाथ और सड़ते हुए घाव... 'ओह! ग़रीबी ने कितने भयानक रूप से इसे खा डाला है।'
उसने अपना सूजा हुआ गंदा हाथ मेरे सामने फैला दिया।
एक-एक कर मैंने अपनी सारी जेबें टटोलीं, लेकिन मुझे न तो अपना बटुआ मिला और न ही घड़ी हाथ लगी, यहाँ तक कि रूमाल भी नदारद था। मैं अपने साथ कुछ भी नहीं लाया था और भिखारी का फैला हुआ हाथ इंतज़ार करते हुए बुरी तरह काँप रहा था।
लज्जित होकर मैंने उसका वह गंदा, काँपता हुआ हाथ पकड़ लिया, "नाराज़ मत होना मेरे दोस्त, इस समय मेरे पास कुछ भी नहीं है।"
भिखारी अपनी सुर्ख आँखों से मेरी ओर देखता रह गया। उसके नीले होंठ मुस्करा उठे और उसने मेरी ठंडी उंगलियाँ थाम लीं, "तो क्या हुआ भाई।" वह धीरे से बोला, "इसके लिए शुक्रिया, यह भी तो मुझे कुछ मिला ही है न !" और मुझे लगा, मानो मैंने भी अपने उस भाई से कुछ पा लिया है।

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