जब से मैंने मुरारका कॉलेज, सुलतानगंज में अध्यापन कार्य शुरू किया, तब से मैं चाहता रहा कि बाबा सुलतानगंज आयें और वे स्वयं भी यह कहते रहे कि तुम्हारे यहां आना है। लेकिन ऐसा सुयोग बैठा नहीं। नागार्जुन जैसे क्रांतिकारी कवि के आने का सुयोग क्या होता? एक तो नौकरी शुरू करने के बाद चार वर्षों तक मैं जीवन में अकेला था। मैं खुद होटलापेक्षी, ऐसे में बाबा आकर क्या करते। सन् ’63 में शादी हुई, बाबा न आ सके, मुरली बाबू सहित अनेक मित्रा आये थे। सन् ’64 से स्वागत-सत्कार की परिस्थिति बनी। लेकिन ’64-65 के बिहार में राजनीतिक उथल-पुथल मची हुई थी। ’65 में मुझ पर भारत रक्षा कानून के अनुसार वारंट जारी हुआ। मैं गिरफ़्तार नहीं किया जा सका, लेकिन भाग-दौड़ तो बढ़ ही गयी। यह परिस्थति बाबा के लिए अनुकूल ही थी। सन् ’65 में तो नहीं लेकिन ’66 में जनवरी का महीना था। बाबा का एक पत्रा मिला, एक कार्ड थाμमैं अमुक तारीख़ को आ रहा हूं। एक-दो दिन तुम्हारे साथ रहूंगा। मौसम जाड़े का ही था। बाबा के स्वागत में सबसे पहले हमने खादी भंडार से एक कंबल खरीदा। तब तक घर में एक ही रजाई थी जो हम दो प्राणियों के लिए काफ़ी थी। ’66 की जनवरी में देश में भारी परिवर्तन हो गया, प्रधानमंत्राी लाल बहादुर शास्त्री का ताशकंद में ही पाकिस्तान से समझौते के बाद देहावसान हो गया और उसके बाद 9 जनवरी को इंदिरा गांधी प्रधानमंत्राी चुनी गयीं। बाबा के सुलतानगंज आने से इस परिवर्तन का संबंध है। बाबा आ गये, मैं उन्हें स्टेशन से अपने आवास पर ले गया।
अपने अध्यापक मित्रों को बाबा के आने की सूचना भेजी। शाम को कई अध्यापक बंधु बाबा को देखने-सुनने आये। तय हुआ कि दसरे दिन कॉलेज में बाबा का कविता-पाठ होगा। तो यह आयोजन हुआ, प्राचार्य ने अनुमति दे दी। शहर के विभिन्न तबकों के सामाजिक, राजनीतिक नेताओं और कार्यकत्ताओं को ख़बर दी गयी। भारी संख्या में लोग जुटे। यह तारीख़ मेरी स्मृति के अनुसार जनवरी के अंतिम सप्ताह में थी। बाबा ने देशकाल का ध्यान रखते हुए कविताएं सुनायीं, लेकिन बाबा आखि़र कहां तक बचते-बचाते। पंडित नेहरू पर एक छोटी-सी कविता उन्होंने सुनायी जिसमें कहा गया है: तुमने तोड़े दनुजों के नखदंत हेमंती ठिठुरन पर विजयी हुआ वसंत। इसी कविता में नेहरू के सीेने पर गुलाब के शोभने का जिक्र है। यह सुनाते हुए बाबा कह गयेμदेखिए, गुलाब गया, गुलबिया आ गयी।। श्रोताओं ने ठहाका लगाया। मैं समझ रहा था कि आयोजन बहुत सफल 62 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 हुआ। श्रोताओं की उपस्थिति और प्रतिकिया देख कर बाबा बहुत खुश थे। इसी दिन पता चला कि कांग्रेसी लोग बहुत नाराज़ थे, क्योंकि बाबा ने इंदिरा गांधी को गुलबिया कह दिया था, और गुलबिया को उन्होंने गाली के रूप में लिया था। बाबा तो चले गये, लेकिन कांग्रेसी लोग मेरे खि़लाफ़ अभियान चलाने लगे। यों वह दौर कांग्रेस-विरोधी जन उभार का था, अतः मेरे खि़लाफ़ अभियान ठप पड़ गया। मैं खुद कांग्रेस विरोधी अभियान चला रहा था। बाबा के अचानक आ जाने और कविताएं सुनाने से कांग्रेस विरोधी अभियान को बल ही मिला। मैंने सुलतानगंज में कई बार कवि सम्मेलनों का आयोजन किया कराया जिनमें भागलपुर से मुंगेर तक के कविगण और शायर भाग लेते थे। एक नयी साहित्यिक सांस्कृतिक चेतना अंकुरित हो रही थी। सन् ’30 का सुलतानगंज याद आ रहा था, जब यहां से ‘गंगा’ नाम की पत्रिका बनेली प्रेस से निकलती थी, और शिवपूजन सहाय, रामगोविद त्रिवेदी, जगदीश झा विमल, जनार्दन प्रसाद झा द्विज आदि उसके संपादन से जुड़े थे। महापंडित राहुल सांकृत्यायन सन ’33 में ‘गंगा’ के पुरातत्त्वांक के संपादन के लिए तीन महीने यहां रहे थे। शायद इस स्मृति को उकेरने और नये जागरण को बल पहुंचाने बाबा सन ’67 में फिर सुलतानगंज पहुंचे। यह गर्मी का समय था, शायद अगस्त का महीना। कांग्रेस नौ राज्यों में हार चुकी थी, बिहार में भी और गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी। एक दिन मैं कॉलेज से लौट कर डेरा पहुंचा ही था कि एक छात्रा दौड़ा हुआ आया, और मेरे हाथ में एक पुर्जा दे गया। पुर्जे में लिखा था। मैं तुम्हारे कॉलेज के सामने खड़ा हूं
नागार्जुन। प्रो. कृष्ण कुमार झा अर्थशास्त्रा के अध्यापक लेकिन साहित्यप्रेमी, विद्या-प्रेमी, मेरे आवास की बगल में थे। मैं उन्हें यह सूचना देकर दौड़ा हुआ कॉलेज गया। बाबा एक झोला कंधे से टांगे गेट पर खड़े थे। उन्हें लेकर डेरा पहुंचा। धीरे-धीरे लोग पहुंचने लगे, मेरे अध्यापक बंधु। दूसरे दिन संध्या नया दुर्गा स्थान में फिर बाबा के कविता पाठ के लिए एक समारोही आयोजन किया हमने। शहर और कॉलेज के लोगों का हर तरह से सहयोग मिला। बाबा ने नयी कविताएं सुनायीं और फिर नयी राजनीतिक परिस्थिति का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि कांग्रेस के दिन लद गये, अब कांग्रेस का पूरा सिंगार नहीं लौटने वाला है। सिंगार शब्द का उपयोग बाबा अपनी राजनीतिक कविताओं में करते रहे हैं। मुझे याद आया।
1957 में जमशेदपुर से कम्युनिस्ट विधायक चुने गये मशहूर मजदूर नेता केदार दास। इस पर बाबा ने एक कविता लिखी थी: छेद हो गया लोहे की दीवार में खलल पड़ गयी बूढी दुलहन के शृंगार में। यहां तो खलल ही पड़ी थी, 1967 में राज ही उलट गया। बाबा उन दिनों बहुत खुश थे। 1967 के ग्रीष्म काल में मैं पटना गया और हिंदी-साहित्य सम्मेलन के हॉल के उत्तर किनारे वाले कमरे में ठहरा था। मुझे अपना शोध कार्य पूरा करना था। बाबा पहले से सम्मेलन में मंच के पीछे वाले कमरे में ठहरे थे। उन्हीं दिनों कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह भी कलकत्ता से आकर सम्मेलन में ही थे। इस दरम्यान बाबा के साथ कई तरह के अनुभव हुए। कुमारेंद्र रात में चौकी बरामदे पर निकाल कर बाहर ही सोते थे। और देर से उठते थे। उठ जाने के बाद भी बिछावन पड़ा रहता था। एक दिन बाबा ने उनका बिछावन समेट कर हटा दिया और कहा, देखो तो यह आलसी नज़रिया है या विलासी। कुमारेंद्र झेंप गये। एक दोपहर मैं भोजन करके अपने कमरे में लेटा हुआ था, फिर नींद आ गयी, इतने में कुछ खटपट सुन कर मैं जाग गया, तो देखा बाबा मेरी गंजी अपने हाथ में लेकर खड़े थे। मैं उठ बैठा और बाबा से पूछाμक्या कर रहे हैं? बाबा इस पर बोले, सोचा तुम्हारी गंजी साफ़ कर दूं, गंदी हो गयी है। मैंने झट से उठ कर उनके हाथ से गंजी ले ली और कहा, यह क्या कर रहे हैं बाबा, मैंने इसे रखा ही है साफ़ करने के लिए, फिर मैंने कहा, चलिए चाय पीने। सम्मेलन की बगल में एक बहुत ही रोचक चाय वाला था, वह नेपाल के राज भवन में रहे होने का दावा करता था, चाय बड़ी अच्छी बनाता था। एक दिन शाम को बाबा मेरे पास आये और बोले, चलो घूमने-टहलने। तैयार होकर मैं उनके साथ हो गया।
रास्ते में बोले- अरे भाई आज सबेरे हरिनंदन ठाकुर आये थे। जानते हो न वे अभी राज्य सरकार के राहत-सचिव हैं। मैंने कहा, जानता हूं, उनके पुत्रा तुषारकांत ठाकुर मेरे सहपाठी रहे हैं। अच्छा तो सुनो, वे कह रहे थे कि अकाल की स्थिति है। उसको देखते हुए घूमते-फिरते यह देखें कि राहत कार्य कितना हो रहा है और महीने में एक या दो रिपोर्ट सरकार को दे दें। आपको कहीं कार्यालय में नहीं बैठना है। कहीं कोई हाज़री नहीं बनानी है। घूमने-फिरने के लिए गाड़ी, ड्राइवर, तेल आदि के साथ ही माहवारी मानदेय का भी प्रबंध हम करेंगे। मैंने सोचने का समय मांगा है, अब तुम बोलो क्या किया जाये? मैंने कुछ देर सोच कर बाबा से कहा, देखिए, यह नौकरी नहीं है। अभी जो अकाल की भयानकता है, उसे तो आप देखना चाहते होंगे। आप यह भी देखना चाहेंगे कि सरकार राहत का इंतज़ाम किस तरह कर रही है। आप अकालग्रस्त इलाक़ों में घूमें और अपने निरीक्षण के आधार पर अपने ही अनुभव के अनुसार रिपोर्ट दे दें, तो शायद अकाल पीड़ितों को लाभ मिल जाये। इन सब बातों को ध्यान में रख कर आप श्री हरिनंदन ठाकुर का प्रस्ताव मान लें तो अच्छा ही होगा। यह भी देखा जाना चाहिए कि राहत कार्य-विभाग कम्युनिस्ट मिनिस्टर के हाथों में है। ठीक कहते हो तुम। बाबा ने श्री हरिनंदन ठाकुर का प्रस्ताव मान लिया। मैं नहीं कह सकता कि उन्होंने कोई रिपोर्ट दी या नहीं। लेकिन तीन महीनों के बाद वे इस जवाबदेही से मुक्त हो गये।
उन्होंने कहा- अरे भाई, मैंने छोड़ दिया। तीन महीनों से बिहार से बाहर नहीं जा सका हूं। यह तो बिना नौकरी के नौकरी हो गयी। उन्हीं दिनों अमृत राय पटना आये और अकालग्रस्त इलाक़ों में जा कर घूमे। मैं ग्रीष्मावकाश में अपने शोधकार्य की ज़रूरत से पटना में ही था। बाबा ने कहा, अमृत अकाल क्षेत्रा घूम आये हैं, उनके लिए एक प्रेस कांफ्रेंस करा दो। उन्होंने पैट्रियट के पटना-प्रतिनिधि विश्वनाथ लाल से भी कहा। विश्वनाथ लाल की मदद से सी.पी.आई. के कार्यालय में जगह मिल गयी और कुछ बीस रुपये के खर्च में प्रेस-कांफ्रेंस हो गयी। उसमें बाबा थे, मैं भी था। प्रेस कांफ्रेंस के बाद अमृत जी ने कहा, भाई, नयी सरकार में अपने लोग मंत्राी बने हैं, उन से मिलवाओ। मैंने राजस्व और राहत मंत्राी कॉमरेड इंद्रदीप सिंह से संपर्क किया, उन्होंने दस बजे रात में समय दिया। मैं बाबा और अमृत जी को लेकर कॉमरेड इंद्रदीप के आवास पर पहुंचा। कॉमरेड इंद्रदीप के सरकारी आवास की बैठक में कई अफ़सर थे और मंत्राी स्वयं। हमलोग पहुंचे तो उन्होंने खड़े होकर स्वागत किया। हमने देखा, दीवार पर राज्य का बड़ा-सा नक़्शा टंगा था, उसमें अकाल क्षेत्रा को ख़ास तौर से उभारा गया था। राहत केंद्रों को दिखाया गया था। राज्य के अन्न भंडारों की स्थिति और राहत की स्थिति का भी जिक्ऱ था। कॉमरेड इंद्रदीप के हाथ में एक लंबी पतली और नुकीली छड़ी थी जिससे वे नक्शे पर सारी अंकित बातों की ओर इशारा करते थे। चाय आदि लेकर हम लोग वहां से निकले तो बाबा और अमृत जी कॉमरेड इंद्रदीप की कार्य पद्धति और क्षमता की तारीफ़ कर रहे थे। बात 1967 की ही है। मैं और बाबा सम्मेलन भवन में ही ठहरे थे; तभी एक दिन मेरा पहला कविता संग्रह परिमल प्रकाशन से प्रकाशित होकर आया। मैंने उसकी पहली प्रति बाबा को दी। यह बात तो ध्यान में ही नहीं आयी कि बाबा से उसका लोकार्पण करा लिया जाये। खैर, संग्रह की कविताएं पढ़ लेने के बाद बाबा मेरे कमरे में आये।
बोले अरे भाई, यह तो प्रगतिशील कविताओं का अच्छा संग्रह है। चलो, इस पर कम-स-कम चाय तो पी लें। चाय तो उस दिन उन्होंने मुझे पिलायी, लेकिन कविताओं के बारे में ज़्यादा बोलते रहे। दूसरे दिन सबेरे मुझे कह गये, देखो जी, आज दिन का खाना मेरे साथ खाना। मैंने कहा, ठीक है, बाबा। एक बजे दिन में मैं उनके कमरे में आया, तो बोले, बस तैयार ही है समझो, नये ढंग का खाना बनाया है मैंने मीट और चावल एक साथ मिला कर बनाये गये हैं। मसाला, प्रायः नहीं, मसाले के नाम पर प्याज भर। तो बाबा ने थाली में निकाला और हम लोग खाने लगे न पुलाव, न बिरयानी, दोनों से अलग और दूर, लेकिन खाने में स्वादिष्ट। उस दिन बाबा ने दही का भी इंतज़ाम कर रखा था। बोले दही खाना चाहिए, इससे पेट का विकार दूर होता है। बाबा की पाक कला का स्वाद तो मैं पहले भी ले चुका था, लेकिन ऐसी सादगी में ऐसा बढ़िया स्वाद! एक दिन आरा जाना था। सबेरे क़रीब दस बजे डा. चद्रभूषण तिवारी आये। मुझे लेकर बाबा के कमरे में गये और पूछा बाबा, आज तो आरा चल रहे हैं न? बाबा ने कहा, तुम तो यही हो? मैं भी आपके साथ ही लौटूंगा। साढ़े बारह वाली ट्रेन से चल रहे हैं न? हां, उसी से चलंेगे। तो मैं एक काम से निबट कर आता हूं। यह कह कर वे चले गये। हमलोग, यानी मैं और बाबा स्टेशन पहुंचे। टिकट लेकर आरा चले गये। चंद्रभूषण जी नहीं मिले। हम लोग रात में आरा में ही ठहरे। शाम को चंद्रभूषण जी आये बाबा से मिलने। बोले, बाबा गाड़ी छूट गयी। अरे भई स्लोगन होगा नक्सलबाड़ी का और प्रोग्राम होगा राइटर्स बिल्डिंग का, तो गाड़ी छूटेगी ही। यह सुन कर उपस्थित लोग हंसने लगे। एक दिन बाबा ने कहा, अरे आज डॉ. ए.के. सेन की बेटी की शादी है, चलोगे न। मुझे तो निमंत्रण नहीं है, मैंने कहा। इस पर बाबा बोले, अरे निमंत्राण कैसे नहीं होगा। तुम लौट कर सुल्तानगंज जाओगे, तो वहां पड़ा मिलेगा। सच में वहां जाने पर निमंत्राण पड़ा मिला।
सन सड़सठ में एक गंभीर बात यह हुई कि राजकमल चौधरी का देहांत हो गया। सिर्फ़ तीस साल की उम्र में। मैं और बाबा साहित्य सम्मेलन में आयोजित शोक-सभा में शामिल हुए। मेंने कहा एक संभावनाशील प्रतिभा का निधन हो गया। बाबा ने भी इस प्रतिक्रिया से सहमति जतायी। वे बहुत दुखी थे। बाबा मैथिली कविता के इतिहास में युगांतर के प्रवर्तक हैं। राजकमल चौधरी युगांतर को आगे बढ़ाते हैं। उन्हीं दिनों प्रसिद्ध कथाकार राधाकृष्ण ने बाबा को लंबा पत्रा लिखा था, जिसमें उन्होंने लिखा कि राजकमल चौधरी प्रतिभाशाली लेखक थे, उन्होंने हिंदी कविता और कहानी में हलचल तो पैदा की, लेकिन अराजकतापूर्ण जीवन पद्धति ने उस प्रतिभा की संभावना को नष्ट कर दिया। बाबा ने यह पत्रा मुझे पढ़ कर सुनाया था। 1967 में ही एक बात और हुई और नहीं भी हुई। मैं सुलतानगंज में था, तो बाबा का एक पत्रा मुझे मिला, जिसमें उन्होंने लिखा था कि एक साप्ताहिक पत्रा निकालने की योजना बना रहा हूं। उसका नाम होगा ‘जनरुचि’। ज़ाहिर है कि उसका प्रकाशक-संपादक सब कुछ नागार्जुन को ही होना था।
मुझे उन्होंने लिखा कि तुम्हें ‘जनरुचि’ में नियमित लिखना है। मैंने तुरंत जबाव देकर बाबा को बताया, ‘जनरुचि’ बहुत अच्छा नाम है। चौथे आम चुनाव में जन-चेतना का जो राजनीतिक इजहार हुआ, उसने देश की राजनीति को बदल दिया है, अब ‘जनरुचि’ या जन-चेतना को ठोस पूंजीवाद-विरोधी रुख़ देने का काम तत्परता से करना चाहिए, ताकि जनचेतना पीछे न लौटे।’ बाबा ने फिर लिखा, तुम्हारा पत्रा अच्छा लगा। उसके अनुसार ही ‘जनरुचि’ का प्रकाशन होगा। लेकिन हुआ यह कि जनरुचि का जन्म हुआ ही नहीं। इसी वर्ष हम और बाबा एक साथ मुजफ्फरपुर गये थे, रामचंद्र भारद्वाज की शादी थी, हमलोग उनकी बारात में गये थे। बारात में चलते हुए बाबा ने कहा अरे भाई सुनो, रामचंद्र ने धनुष तोड़ने के बाद विवाह करने में बड़ी देर कर दी। समझने वाले खूब हंसे, नहीं समझने वाले ताकते रहे। विवाह के बाद दूसरे दिन सुबह का नाश्ता करने के बाद बाबा ने कहाμचलो जरा जानकीवल्लभ जी से मिल आयें। तुम उनसे कभी मिले हो? मैंने कहा, देखा-सुना है कई बार, मिला हूं। आमने सामने बैठ कर। एक बार देवघर में संथाल परगना हिंदी साहित्य सम्मेलन के कवि सम्मेलन में। ख़ैर, रिक्शे पर बैठ कर हम लोग चले। रिक्शा चतुर्भुज स्थान होकर गुज़र रहा था, तो बाबा ने कहा, देखो शास्त्राी जी ने, चतुर्भुज स्थान के पास अपना निराला निकेतन बनाया है, जहां भुजाएं चार होती हैं।
शास्त्री जी के यहां पहुंचे देखा तो उनके कमरे में लगभग सारी जगहें उनके प्रिय कुत्तों और बिल्लियों ने छेक रखी थीं। किसी तरह हमलोग बैठे; बाबा ने कहा देखिए खगेंद्र को लेता आया हूं, आप से मिलाने। शास्त्राी जी ने कहा, बड़ा अच्छा किया आपने और फिर मेरी ओर मुख़ातिब होकर शास्त्राी जी बोले, खगेंद्र जी, नागार्जुन जी को बचाकर जुगाकर रखिए, बड़े काम की कविताएं लिख रहे हैं ये। हमें मिठाई नमकीन और चाय मिली वहां प्रेम से। यह सब ग्रहण करके हमलोग वहां से विदा हुए। निराला-निकेतन मैं पहली बार गया था। बाबा के साथ जाना ख़ास तौर से अच्छा लगा। मैंने यहां भी अनुभव किया कि शास्त्राी जी के मन में बाबा के लिए बहुत आदर था, ख़ास कर उनकी कविताओं के लिए। 1967 में हमलोग साहित्य-सम्मेलन भवन में थे, तभी कुछ दिनों के लिए बाबा का दूसरा पुत्रा सुकांत पटना आया और बाबा के साथ रहा था। मैंने एक दिन पूछ दिया, ये लड़का क्या कर रहा है। बाबा कुछ देर चुप रहे। सोचने लगे, फिर बोले, अरे क्या करेगा, इंटर का इम्तिहान देना था। मैं परीक्षा-फीस नहीं दे सका तो यह परीक्षा नहीं दे सका, अब अगले साल देगा। अब मैं सोचने लगा, कुछ देर सोचता ही रहा। लेकिन सिर्फ़ सोचने से क्या फायदा। किस काम का। मेरे मन में कोई कांटा गड़ने लगा, हिंदी का इतना बड़ा क्रांतिकारी कवि दोनों काम कैसे करेगा। क्रांति भी करे और बेटे की परीक्षा-पीस भी जमा करे, यह कैसे होगा? यह क्यों कर होगा? बाबा के ज्येष्ठ पुत्रा शोभाकांत ने ‘मेरे बाबू जी’ नाम की किताब में आगे चल कर लिखा, ‘हमने जब-जब बाबू जी की खोज की तो हमें बाबू जी की जगह नागार्जुन मिले।’
क्रांतिकारी कवि के बच्चों के लिए यह मार्मिक कथन है। इस दृष्टि से भी नागार्जुन हिंदी के अकेले कवि हैं। सुकांत ने अभी तक बाबा के बारे में कुछ कहां लिखा। ख़ैर, मैंने सोचा, तय किया और कहा, ‘बाबा, इसे मेरे साथ जाने दीजिए।’ बाबा ने कहा, ‘ले जाओ।’ और सुकांत मेरे साथ सुलतानगंज आ गया। उस समय मैं परिवार के साथ श्याम बाग मुहल्ले में एक मकान किराये पर लेकर रह रहा था। उस समय हमारा वेतन मात्रा 220 रुपये था। दो सौ वेतन और बीस रुपये मंहगाई भत्ता। वेतन ज़रूर नियमित मिल जाता था, लेकिन वार्षिक वृद्धि नहीं मिल रही थी और महंगाई भत्ता सबसे कम हमारे कॉलेज में था। तब भी मैं सुलतानगंज गया सुकांत को लेकर और अपनी जीवन संगिनी इंदिरा ठाकुर से कहा, देखो, यह तुम्हारा देवर है, बाबा नागार्जुन का पुत्रा सुकांत। यह यहां रह कर पढे़गा। और इंटर की परीक्षा देगा। इंदिरा ने उसे देवर के रूप में ही रखा और सुकांत निःसंकोच भाभी से घुलमिल गया। उस समय मेरी बच्चियां जन्म ले चुकी थीं। इंदिरा ने मेरे सामाजिक दायित्व को अपना दायित्व मान लिया, मैं बेहद खुश था, क्योंकि उसके बिना मैं क्या कर सकता था। बाद में सन सड़सठ की राजनीतिक परिस्थिति का लाभ उठा कर हमने शिक्षकों की हड़ताल संगठित की। फिर भूख हड़ताल भी की और राज्य की संविद सरकार से हस्तक्षेप कराया तो मंहगाई भत्ता बढ़कर साढ़े सत्राह प्रतिशत हो गया और सालाना वृद्धि भी मिली, तो थोड़ी राहत मिली। लेकिन यह दौर मंहगाई बढ़ने का भी था। सुकांत अनियमित छात्रा हो गये थे।
हमारे कॉलेज से परीक्षा का प्रबंध नहीं हो सका। वहीं पर गंगा के उस पार परबत्ता में एक कॉलेज था और उसके प्राचार्य मेरे कनिष्ठ मित्रा। यह मित्राता तो कृष्ण कुमार झा के कारण हुई थी। तो उन्होंने सुकांत को नियमित छात्रा बना लिया और 1969 में वहीं से इंटर का इम्तहान दिला दिया। सुकांत इंटर कर गये, फिर आगे मेरी स्थिति समझ कर वे सहरसा चले गये और वहां बी.ए. ऑनर्स (अर्थशास्त्रा) पढ़ने लगे। और समय पर बी.ए. कर भी गये। जहां तक मुझे याद है, भागलपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें कुछ आर्थिक मदद दी थी। मैं उन दिनों यूनिवर्सिटी का सिनेटर था और भागलपुर विश्वविद्यालय शिक्षक संघ का महासचिव था। इसका क्षेत्रा पुराने भागलपुर प्रमंडल तक था। 1969 में भागलपुर के भगवान पुस्तकालय में एक गोष्ठी हो रही थी नागार्जुन के सम्मान में। संयोजक थे बेचन जी। श्रोताओं में मैं तो था ही, भागवत झा आज़ाद भी थे। और भी बहुत से लोग थे। बाबा ने अपनी ताज़ा लिखी कविताएं सुनायीं, जिनमें इंदिरा गांधी की प्रशंसा में लिखी दो-तीन कविताएं भी थीं। असल में वे कविताएं बैंक राष्ट्रीयकरण के पक्ष में लिखी गयी थीं और इदिंरा गांधी को कवि ने ‘छोटी बहन हमारी’ या ‘लक्ष्मी’ आदि कहा था। गोष्ठी के बाद बाबा तो वहीं पुस्तकालय में रहे। मुझे सुलतानगंज लौटना था और आज़ाद जी को सर्किट हाउस जाना था। उन्होंने मुझे अपनी गाड़ी में बिठाया और रेलवे स्टेशन में छोड़ दिया। रास्ते में वे बोले, बाबा को जल्द ही इंदिरा गांधी पर दूसरी कविता लिखनी पड़ेगी, उनके खि़लाफ़। ऐसा हुआ भी। 1972 के विधानसभा चुनाव के बाद बाबा ने लंबी कविता लिखी थी: ‘अब तो बंद करो हे देवि, यह चुनाव का प्रहसन!’ यह पश्चिम बंगाल के प्रसंग में लिखा गया था। हम वामपंथी अध्यापकों ने सुलतानगंज में एक नया मुहल्ला बसाया। उसमें एक छोटा सा मकान अपना भी था।
23 फरवरी 1970 से हमलोग वहां रहने लगे थे। मुहल्ले का नाम रखा राहुल नगर। 1971 की जनवरी के आरंभ में बाबा सुलतानंगज आ गये, हमलोगों ने राहुलनगर का उद्घाटन उनसे कराया। एक सार्वजनिक कवि-सम्मेलन भी कराया। बाबा ने अपनी कई राजनीतिक कविताएं सुनायीं। कांग्रेसी लोग फिर नाराज़ हुए। लेकिन खादी भंडार वालों ने आग्रह किया मुझसे कि बाबा को एक बार फिर बुलाइए, तीस जनवरी को गांधी शहादत दिवस मनायेंगे। मेंने बाबा तक यह आग्रह पहुंचाया, वे आने को राज़ी हो गये। कांग्रेसियों ने आम लोगों के बीच यह प्रचार करना शुरू किया कि वे कवि-सम्मेलन में न आवें। लेकिन मैंने भी गांवों तक अपने लोगों को कहवाया कि जुटकर उन्हें आना है। कॉलेज के छात्रों से भी कहा। भागलपुर से बेचन जी की मंडली कवियों को लेकर आयी, मुंगेर से कई लोग आये। तारापुर से प्रवासी जी थे। जाड़े की शाम थी, फिर भी कम-से-कम पांच हज़ार लोग जुटे, खादी भंडार के लिए यह अनोखी बात थी, उन दिनों गांधी जी के लिए भी। अतः गांधी शहादत दिवस की अद्भुत सफलता चर्चा का विषय बनी। बाबा भी भीड़ देख कर बेहद खुश थे। यह उस संघर्ष का फल था, जो कांग्रेसियों की संकीर्णता ने छेड़ दिया था। 1973 के संभवतः मार्च महीने में बांदा में केदारनाथ अग्रवाल ने एक विराट ‘प्रगतिशील साहित्यकार सम्मेलन’ का आयोजन किया-कराया।
बिहार से हमलोग गये थे। कन्हैया जी, प्रवासी जी, ब्रजकुमार पांडेय, राजनंदन सिंह राजन, चंद्रभूषण तिवारी, श्याम सुंदर घोष, अंकिमचंद्र, रामकृष्ण पांडेय आदि। वहां बाबा भी आये थे, शायद दिल्ली से। त्रिलोचन जी भी थे। शमशेर भी। युवा लेखकों भी संख्या बहुत ज़्यादा थी। सज्जाद ज़हीर भी दूसरे दिन पहुंचे थे। मन्नथनाथ गुप्त भी थे। एक गोष्ठी में विचारधारा और कविता के संबंध पर बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि यह संबंध बड़ा जटिल है। कविता में विचारधारा होती है, लेकिन जीवन उससे अधिक महत्वपूर्ण है। बोलते-बोलते सज्जाद ज़हीर ने कहा, देखिए, नागार्जुन जी एक बड़े कवि हैं, लेकिन विचारधारा की दृष्टि से उनका हाल यह है कि छह महीने इधर रहते हैं तो छह महीने उधर। कहने का मतलब यह कि वामपंथ में ही कई टुकड़े थे और बाबा कभी इस टुकडे़ का साथ देते, कभी उस टुकड़े का साथ देते। बात तीखी थी। लेकिन बाबा के चेहरे पर कोई गुस्सा नहीं था। गोष्ठी समाप्त होने पर उन्होंने इतना ही कहा, आज तो बन्ने भाई ने दीक्षांत भाषण करके मुझे डिग्री दे दी। बाबा से संबंधित एक महत्वपूर्ण प्रसंग संपूर्ण क्रांति का है। संपूर्ण क्रांति में जयप्रकाश नारायण कूदे और उन्होंने ही उसे पहले दलहीन जनतंत्रा और बाद में संपूर्ण क्रांति कहा। ऊपरी मध्यवर्ग, व्यापारियों, अधिकारियों और गैरवामपंथी, गैरकांग्रेसी राजनीतिक दलों का भरपूर समर्थन उसे मिला। अचानक यह चर्चा सुनने को मिली कि नागार्जुन कुछ साहित्यकारों के साथ संपूर्ण क्रांति के पक्ष में अनशन करेंगे।
मैं और कन्हैया जी उनसे मिलने गये। उस समय गुलाबीघाट रोड के उनके आवास पर। वे कई दिनों से आवास में नहीं थे। बहुत पूछने पर हमें भनक मिली कि वे उमाशंकर श्रीवास्तव के यहां हैं। हमलोग वहां गये और वे वहां मिल गये। हमने बात छेड़ी। उन दिनों कविता की दो पंक्तियां उनके नाम से खूब उद्धृत की जा रही थीं: होंगे दक्षिण, होंगे वाम जनता को रोटी से काम! मैंने पूछा, बाबा ये पंक्तियां आपकी हैं? बाबा चुप रहे। फिर हमलोगों ने आग्रह किया कि वे अनशन पर नहीं बैठें। तब उन्होंने मौन तोड़ाμतुम लोग भी तो कुछ नहीं कर रहे हो, मतलब यह कि कोई आंदोलन छिड़े। खैर, अंततः रेणुजी, मधुकर सिंह आदि के साथ बाबा भी डाक बंगला चौराहे पर एक दिन बैठ गये अनशन पर। फिर तो वे सभाओं में, नुक्कड़ों पर कविताएं सुनाने लगे। उन दिनों यह कविता बहुत लोकप्रिय थी, दूसरे लोग भी सुनाते थे: 68 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 इंदु जी, इंदु जी, क्या हुआ आपको सत्ता के मद में भूल गयीं बाप को छात्रों के खून का चस्का लगा आपको उन दिनों हम जैसे लोगों से उनका संपर्क लगभग टूट गया था। मैंने एक लंबा पत्रा उनको लिखा था। उन्होंने कार्ड पर उत्तर दिया, तुम्हारा लंबा पत्रा मिला है, समय निकाल कर कभी उत्तर दूंगा। ऐसा समय कभी नहीं आया। सन् 1975 के मार्च महीने में बाबा जनता सरकार का उद्घाटन करने गये और वहीं गिरफ़्तार करके जेल भेज दिये गये। काफ़ी दिनों तक जेल में रहे।
पटना उच्च न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दाखि़ल की गयी और उच्च न्यायालय के आदेश पर बाबा को रिहा कर दिया गया। इस तरह ध्यान देने की बात यह है कि वे आपातकाल लागू किये जाने से पहले ही गिरफ़्तार किये गये थे और आपातकाल के रहते हुए वे रिहा कर दिये गये थे। जेल से छूटे तो वे मेरे पटना आवास पर आये। बोले, देखो, मैंने जेल में ये कविताएं लिखी हैं, तुम सुनो! मैंने कहाμसुनाइए और बैठ गया सुनने। कविताएं संपूर्ण क्रांति के खि़लाफ़ थीं। वे फिर बोलेμअब और लोगों को सुनवाओ, तो मैंने एक गोष्ठी आयोजित की, पच्चीस-तीस लोग जुटे, जिनमें चतुरानन मिश्र और प्रभुनारायण राय भी थे। पूरा एक संग्रह था कविताओं का जिसका नाम उन्होंने दिया, ‘खिचड़ी विप्लव देखा हमने।’ क्रांति एकदम नहीं, विप्लव, वह भी खिचड़ी। विप्लव यदि खिचड़ी हो, तो वह जन विरोधी और जनतंत्रा विरोधी होता है। वैसी ही उसकी गति आगे चल कर हुई। फिर बाबा के बहुत कहने पर एक इंटरव्यू लिया गया, जनशक्ति दैनिक के लिए। उन दिनों, नंदकिशोर नवल प्रगतिशील लेखक संघ में थे और बाबा की प्रशंसा कुछ आगे बढ़ कर करते थे। तो मैंने उनसे आग्रह किया कि वे बाबा का इंटरव्यू ले लें। उन्होंने मुझसे कहा, आप भी उपस्थित रहिए। तो यह काम संपन्न हुआ, नवल जी के आवास पर ही। उसमें बाबा ने शुरू में ही कहाμ मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि मैं वेश्याओं और भड़ुओं की गली से निकल आया हूं। मैंने कहा, बाबा ऐसा न कहिए, भाषा बदल दीजिए। इस पर उन्होंने कहा, नहीं, रहने दो इसे। बात यह है कि इतने दिन मैं उस आंदोलन में रहा, उनके साथ जेल में भी रहा, तो बहुत से नये दोस्त और साथी बन गये, जिनकी संगति से मैं मुक्त होना चाहता हूं। यह छप जायेगा, तो वे मुझे गाली देंगे और उनसे मेरा साथ छूटेगा।
अंततः वह इंटरव्यू 18 जुलाई 1976 को जनशक्ति दैनिक के साप्ताहिक परिशिष्ट में छपा। मुझे मालूम हुआ कि वह इंटरव्यू जब जय प्रकाश बाबू को लोगों ने दिखाया तो उन्होंने पढ़ कर कहा, नागार्जुन से तो ऐसी उम्मीद थी ही। 1976 के 24-25 दिसंबर को मढ़ौरा में बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का राज्य सम्मेलन था। उसमें बाबा हमारे साथ गये थे। वहां एक सरकारी अधिकारी लेखक आये थे सम्मेलन में शामिल होने, लेकिन उन्होंने मुझसे कहा, भाई सम्मेलन-स्थल के इर्दगिर्द खुफिया तंत्रा के लोग भरे पड़े हैं, मैं तो भाग नहीं ले सकूंगा। मैंने कहा, आप चले ही जाइए। बड़ी संख्या में राज्य भर से लेखक प्रतिनिधि आये थे और स्थानीय लोग तो कई हज़ार थे। सम्मेलन में बोलते हुए बाबा ने कहा, मेरा मनोद्रव्य कमजोर पड़ गया था, असल में जनता से ही लगाव कमजोर पड़ गया था। मनोद्रव्य तो जनता से ही मिलता है। यही कारण है कि मैं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रभुत्व वाले जनविरोधी आंदोलन को जनआंदोलन समझ कर शामिल हो गया था। जेल में जाकर मुझे यह अनुभव हुआ। ऐसा कहते हुए बाबा रो पड़े, आंखों से आंसू छलक नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 69 पड़े। सम्मेलन का वातावरण भी गीला हो गया। आत्मालोचन के गंगाजल में स्नान कर निकले हुए नये नागार्जुन को हम देख रहे थे, यह भी एक नया तत्व उनके व्यक्तित्व का हमें प्रेरित कर रहा था। 26 दिसंबर को हमलोग लौटती यात्रा में छपरा पहुंचे तो मालूम हुआ कि यशपाल जी नहीं रहे। वहीं छपरा में बाबा की अध्यक्षता में हमने यशपाल जी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए शोक-सभा की।
‘आत्मालोचन’ से धुले नागार्जुन भी कई बार हमें अपनी आस्था-चिंता का झटका देते रहते थे। एक बार जब वे हमारे विधायक क्लव वाले आवास में ठहरे थे, तो राकेश चौधरी नामक एक पत्राकार आकर कुछ सवालों के जवाब ले गये और एक दैनिक पत्रा में छपा दिया। उसमें एक जगह कहा गया था, प्रगतिशील लेखक संघ को धनाढ्य लोगों से पैसा मिलता है। यह पढ़ कर मैं बड़ा दुखी हुआ। बाबा तो हमारे ही यहां थे। मैंने उन्हें अखबार दिखाया और पूछा, बाबा क्या सचमुच आप ऐसा समझते हैं! बाबा बहुत देर तक कुछ नहीं बोले, फिर गमगीन स्वर में बोले, ऐसा मैं बोल सकता हूं क्या? मैंने कहा आप बोल नहीं सकते, लेकिन आपके नाम से ऐसा छप गया है। बाबा बोले, ‘मै राकेश को डाटूंगा।’ लेकिन उसके बाद राकेश कभी दिखा नहीं। एक बार जब बाबा मेरे आवास में थे, तो मैंने सुनील मुखर्जी से कहा, नागार्जुन मेरे आवास में हैं इन दिनों, मैं चाहता हूं कि आप उनसे मिलें। उन्होंने कहा, ठीक है। कल सबेरे साढ़े नौ बजे के क़रीब डॉ. सुनील मुखर्जी बाबा से मिलने आ गये। दोनों ने एक दूसरे का अभिवादन किया, हाल-चाल पूछा, स्वास्थ्य की जानकारी ली। सुनील मुखर्जी का स्वास्थ्य तो लंबे समय से ख़राब था। बाबा ने उनके स्वास्थ्य का हाल पूछा, जबाब मिला, बहुत ठीक नहीं। डाक्टर ने गतिविधि सीमित कही है। ज़्यादा झोल-झाल वाली यात्रा करने से मना किया है। बाद में मैंने बाबा से कहा, आप यह जानते हैं कि लंबे जेल जीवन ने उनका स्वास्थ्य तोड़ दिया है, फिर भी आपने उनको व्यंग्य का पात्रा बना दिया और विरोधियों ने टेप भी किया है; आपके कथन का वे इस्तेमाल करेंगे।
बाबा बोले, अरे, यह तो मैंने सोचा भी नहीं था, गलती हो गयी, मैं उन लोगों को मना कर दूंगा। ख़ैर, यह वक्तव्य कहीं नहीं छपा। एक उदाहरण और देना चाहता हूं। 1982 में बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का राज्य सम्मेलन था बेगूसराय में। बाबा वहां पटना से मेरे साथ ही गये। कार्यक्रम ऐसा बना था कि बेगूसराय से वे सुलतानगंज जायेंगे। वहां मुरारका कालेज में कविता सुनायेंगे। बेगूसराय सम्मेलन में उन्होंने जम के पूरे मन से भाग लिया। उद्घाटन सत्रा को उन्होंने संबोधित भी किया। अपने वक्तव्य में उन्होंने प्रगतिशील आंदोलन की ज़रूरत पर बल दिया। याद आता है कि इस सम्मेलन के ठीक पहले बाबा ने डेहरी ऑन सोन में प्रलेस के समारोह में भाग लिया था। उसमें सुरेंद्र चौधरी भी उपस्थित थे। बाबा ने डेहरी ऑन सोन में कहा, बिहार में साहित्यिक जागरण फैलाने में प्रगतिशील आंदोलन की बड़ी भूमिका है। बेगूसराय सम्मेलन में उन्होंने यह बात और भी ज़ोर से कही। लेकिन वहीं कुछ अतिवाम वालों ने बाबा से देश की वाम राजनीति के हाल के बारे में पूछ दिया, तो बाबा ने कह दिया आई.पी.एफ. (यह माले नेता विनोद मिश्र का बाहरी संगठन था) को मेरा सलाम बोलो। उसी शीर्षक से उनका बयान दिनमान में छपा था। पढ़ कर हम चकित और दुखी भी हुए, लेकिन हमने उनसे कुछ नहीं कहा। असल में बाबा की चेतना में कहीं यह बात थी कि क्रांतिकारी परिवर्तन हथियारबंद संघर्ष से ही होगा। एक घटना याद आती है। बेगूसराय जिले के मटिहानी क्षेत्रा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक सीताराम मिश्र की हत्या कर दी गयी। वे इससे बड़े दुखी थे। बोले, यह क्या हो रहा 70 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 है, सीताराम मिश्र जैसे नेता मार दिये जाते हैं। और कुछ नहीं होता। उसी दिन मैंने उन्हें कहा, बाबा, आप जानते हैं, सीताराम मिश्र के हत्यारे भी मारे गये। यह सुनते ही वे मेरी बैठक में कुर्सी से उठ कर नाचने और ताली बजाने लगे। मैं उन्हें देखता रहा। खैर, दिनमान वाले वक्तव्य के बाद भी हमलोग उनको बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का अध्यक्ष बनाये रहे और वे भी बने रहे। बेगूसराय से हम उन्हें लेकर सुलतानगंज गये। मेरी भतीजी डॉ. पुष्पा उन दिनों वहां महिला अस्पताल में चिकित्सक थी। हमलोग वहीं ठहरे। दिन में कॉलेज में बाबा का काव्यपाठ हुआ। छात्रा और शिक्षक बड़ी तादाद में उपस्थित थे। छात्रों ने आग्रह करके कविताएं सुनीं। रात में हमारी भतीजी के आवास में रहे। उसी रात उनकी तबीयत थोड़ी खराब हुई, उल्टी हुई, लेकिन सुबह तक तबीयत ठीक हो गयी। रात में उन्होंने मुझे बताया नहीं। मैंने उनसे कहा, तो बोले, अरे तुम्हें कितना कष्ट देते। 1977 में हुए आम चुनाव में संपूर्ण क्रांति की हवा चल रही थी। अतः बाबा के अनुसार उस संपूर्ण क्रांति-संपूर्ण भ्रांति से उपजी जनता पार्टी ने बहुतायत राज्यों और केंद्र में भी पूरी जीत हासिल करके सरकार बनायी। बिहार में भी कर्पूरी जी के मुख्यमंत्रित्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। बाबा उन दिनों पटना में ही थे। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा, अजी सुनो, मैंने संपूर्ण क्रांति आंदोलन के समय राज्य-सरकार से मिल रही वृत्ति को ठुकरा दिया था। अब तो वह सरकार नहीं है, वह वृत्ति फिर से ली जा सकती है। मैंने कहाμबाबा सरकार तो बदल ही गयी है, हालांकि क्या फ़र्क़ पड़ा है, संपूर्ण भ्रांति लेकर आयी है; फिर भी सरकार का पैसा तो जनता का होता है। उसे लेने में कभी हिचक नहीं होती। कोशिश करता हूं। उस समय बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक थे श्रुति देव शास्त्राी। उनसे मिला और बाबा की बात उनके सामने रखी। शास्त्राी जी ने बताया कि नागार्जुन और रेणुजी ने सरकारी वृत्ति छोड़ने का एलान तो कर दिया। लेकिन लिखित कुछ दिया नहीं। फिर भी जब उन्होंने छोड़ने की सार्वजनिक घोषणा की, तो सरकार ने अखबार के आधार पर उन्हें वृत्ति देना बंद कर दिया। अब यदि बाबा लेना चाहते हैं, तो उन्हें यह बात लिख कर देनी चाहिए। मैंने बाबा से यह बात बतायी और फिर एक दिन अजय भवन (पटना) में निदेशक शास्त्राी जी को बुला कर बाबा से भेंट करायी। बाबा लिख कर देने को राज़ी हो गये। बाबा और शास्त्राी जी दोनों ने मुझसे प्रारूप तैयार कर देने का आग्रह किया। असल समस्या यह थी कि ऐसा लिखा जाये कि बाबा की मर्यादा रह जाय और वृत्ति भी मिल जाय। तो सोच-विचार कर मैंने इस तरह लिखा कि एक ख़ास राजनीतिक परिस्थिति में वृत्ति छोड़ने की घोषणा की गयी थी, अब राजनीतिक परिस्थिति बदल चुकी है। दूसरी बात यह कि सरकार ने किसी दस्तावेजी आधार के बिना ही वृत्ति बंद कर दी थी। अतः अब फिर से वृत्ति का भुगतान सरकार कर दे, तो वे उसे स्वीकार कर लेंगे। तो संचिका बना कर निदेशक ने प्रस्ताव आगे बढ़ाया। शिक्षा-सचिव से होते हुए बात राज्यपाल तक जानी थी तो मैंने कहा चतुरानन मिश्र से। शिक्षा-सचिव और राज्यपाल को कहलाया और प्रस्ताव मंजूर हो गया। बाबा को वृत्ति मिलने लगी। आगे चलकर उसकी रकम बढ़ाकर एक हजार रुपये प्रति माह कर दी गयी। एक हजार भी क्या था, ऊंट के मुंह में जीरे का फ़ोरन। बाबा ऊंट नहीं थे, अतः जीरे से थोड़ी ज़्यादा मदद मिली। एक बार बाबा जब मेरे यहां ठहरे थे, तो भागवत झा आज़ाद उनसे मिलने आये। उस समय तक आज़ाद जी पूर्व मुख्यमंत्राी हो चुके थे और विधान परिषद के सदस्य थे। उन्होंने बाबा से आग्रह किया नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 71 कि चलिए, मेरे साथ मेरे आवास पर। शाम को यहां पहुंचा दूंगा। कहकर उन्होंने मेरी ओर देखा। आज़ाद जी बाबा को ले गये और शाम को पांच बजे पहुंचा भी गये। मैंने बाबा से पूछा, क्या हुआ दिन भर? तो बोले, अरे गपशप हुआ, खाना-पीना हुआ और आज़ाद जी ने अपनी कविताएं सुनायीं। पूछने लगे, कैसी हैं ये कविताएं, तो मैंने कहा, अरे, अब बुढ़ापे में नाती-पोता खेलाइए। देखिए, ऐसी गहरी व्यंजनाधर्मी बात बाबा के सिवा और कौन कह सकता था। आज़ाद जी ने एक लंबी आध्यात्मिक कविता लिखी थी, वही कविता उन्होंने बाबा को सुनायी और बाबा ने ऐसी कविता के बदले नाती पोता खेलाने की सलाह दी। शायद बाबा की सलाह का फल है कि आज़ाद जी की कविता पुस्तक नहीं छपी। अगले दिन उनको लेकर मैं भागलपुर गया। बेचन जी को मैंने पहले ही ख़बर दे दी थी। वे उस समय मारवाड़ी कॉलेज के प्रभारी प्राचार्य थे। मारवाड़ी कॉलेज में भी उनका काव्यपाठ हुआ। दोनों कार्यक्रम से उन्हें मानदेय मिला। बाबा खुश थे। पटना लौटते समय बोले भीμइस बार तुमने अच्छा प्रबंध किया। 1985 में पटना प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से ‘नागार्जुन की राजनीति’ नाम से एक पुस्तिका छपायी गयी, जिसे अपूर्वानंद ने लिखा और नंदकिशोर नवल ने उसकी भूमिका लिखी। यह संकीर्णतावादी, आक्रामक और उद्दंड आलोचना का अच्छा नमूना था। हमने उसका विरोध किया। कई जगह अतिवाम वालों ने गोष्ठी कर के विरोध किया। बाबा धनबाद में थे, तो उनके सामने ही कुछ लोगों ने कहा, बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का विरोध किया जाना चाहिए इस प्रकाशन के लिए। इस पर बाबा ने कहा, यह प्रकाशन पटना प्रलेस का है और बिहार प्रलेस ने उसका विरोध किया है, यह ध्यान में रखो। तो कोई प्रस्ताव पारित नहीं हुआ। उसके बाद ही जमशेदपुर में बिहार प्रगतिशील लेखक संघ का राज्य सम्मेलन था, उसमें बाबा नहीं पहुंचे। उनका संदेश मेरे पास ज़रूर पहुंचा कि अब मुझे अध्यक्ष प्रद से मुक्त कर दो, बहुत दिन रह चुका हूं। उनका आग्रह मान लिया गया। लेकिन बाबा क्या अपने सम्मान से मुक्त हो पाये? 1988 में बिहार में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने एक बड़ा सत्याग्रह आंदोलन संगठित किया। बाबा उन दिनों पटना में थे। सत्याग्रह आर ब्लॉक चौराहे पर होता था। बाबा रोज़ उस चौराहे पर जाते थे और सत्याग्रहियों में बैठ जाते थे। सत्याग्रही दिन में गिरफ़्तार किये जाते और शाम को छोड़ दिये जाते। बाबा को किसी दिन गिरफ़्तार नहीं किया गया। वे चाहते थे कि उग्र आंदोलन हो। एक दिन शाम को उन्होंने जनशक्ति में आकर कहा भी। भाकपा की इस गतिविधि से वे खुश थे। 1988 में वी.पी. सिंह ने कांग्रेस और लोकसभा से इस्तीफा दे दिया। लोकसभा का चुनाव हुआ, वी.पी. सिंह निर्दलीय खड़े हुए। बाबा चले गये इलाहाबाद वी.पी. सिंह के पक्ष में प्रचार करने। एक धर्मशाला में ठहर गये थे। किसी ने वी.पी. सिंह को इसकी जानकारी दी, तो वी.पी. सिंह चले आये धर्मशाला में और बाबा से कहा, आप यहां क्यों! मैं किसी होटल में आपके ठहरने का प्रबंध किये देता हूं। इस पर बाबा ने कहा, मैं यहीं ठीक हूं, आप मेरी चिंता न करें। यह सुन कर वी.पी. सिंह चकित थे। 1988 के जून महीने में मेरी बड़ी बेटी निशिप्रभा की शादी हुई। बाबा उसमें सपरिवार, अपराजिता देवी सहित सम्मिलित हुए। उन दिनों वे सुकांत के कंकड़ बाग स्थित आवास में रुके हुए थे। सुकांत पत्नी और बच्चों के साथ शादी में शामिल थे। बाबा देर रात तक पंडाल में बैठे रहे। संभवतः उसी वर्ष एक बार वे इलाहाबाद से पटना आ रहे थे। उन्होंने मुझे ख़बर कर दी थी। मैं 72 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 उन्हें लिवा लाने स्टेशन गया। लेकिन बाबा मिले नहीं। मैं निराश लौट आया। थोड़ी देर के बाद मैं फिर घर से निकल कर जनशक्ति की ओर जा रहा था, तो देखा बाबा कंधे पर कोई गठरी लिये चले आ रहे हैं। उस दिन वामपंथी दलों के आह्नान पर पटना बंद था। मैं दौड़ कर उनके पास पहुंचा। देखा, कंधे पर गमछा में तरबूज लपेटे लिये हुए थे। मैंने उनके कंधे पर से उसे ले लिया। तरबूज फट गया था, रस चू रहा था। मैं कुछ पूछता, उसके पहले ही उन्होंने कहा, चलो घर में बैठ कर जरा सुस्ता लेंगे, तब कहीं सुनायेंगे। मैंने उन्हें बताया कि मैं स्टेशन गया था। ख़ैर, आवास में पहुंचे, चाय-पानी लेकर, कुछ सुस्ता कर बोले, भीड़ इतनी थी कि मैं प्लैटफार्म पर उतर नहीं सका। गाड़ी खुल गयी, थोड़ा ही आगे जाने पर किसी ने चेन खींची तो गाड़ी रुक गयी और मैं उतरा। उतरने के क्रम में ही तरबूज नीचे गिर कर फट गया। मैंने उठाकर गमछे में बांधा, तभी टी.टी आ गया और बोला क्यों बूढ़े, बिना टिकट चल कर यहां उतरे! इस पर मैंने खीझ कर कहा, आपको लगता है कि मैं बिना टिकट हूं। टिकट क्या मैं अपने ललाट पर साट कर चलूं? इतना सुन कर टी.टी. खिसक गया, मैं वहां से, फिर प्लेटफार्म पर आकर गेट से बाहर निकला, रिक्शा तो मिला नहीं। आपको बड़ा कष्ट हो गया, आज पटना बंद है बाबा! मैंने कहा। कोई बात नहीं, मुझे खुशी है कि बच्चों के लिए इलाहाबादी तरबूज ले ही आया। कह कर बाबा हंसने लगे। एक बहुत रोचक प्रसंग है। मैंने एक बार कहा, बाबा उत्तरशती के लिए कविता दीजिए न! इस पर बोले, कोई ताज़ा कविता लिख कर दूंगा। और दूसरे दिन सबेरे ही चाय-वाय लेने के बाद बोले, कविता तैयार है, सुनो! और सुनाने लगे: किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है? कौन यहां पस्त है, कौन यहां मस्त है? कविता सुनाते हुए बाबा खड़े होकर नाचने लगे। इतने में भीतर से मेरा पुत्रा भास्कर आ गया। तब वह दस-ग्यारह साल का रहा होगा। बाबा ने उससे कहा, जाओ भीतर! वह बोलते चला गया, मैं कविता सुनने थोड़े ही आया हूं। और दिन भर वह बैठक में नहीं आया। शाम को बाबा गये काफ़ी हाउस! तब वह बालक बाहर आया और बोला: बाबू जी, किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है कौन है पस्त यहां, कौन है मस्त यहां कौन है बुझा-बुझा, कौन है खिला-खिला! जबाब सुनिए: बाबा की है जनवरी, बाबा का अगस्त है हम यहां पस्त हैं, बाबा यहां मस्त है मैं हूं बुझा-बुझा, बाबा है खिला-खिला। मैं सुनकर चकित हो गया। दिन भर बालक जिस मनोदशा में रहा उसका इज़हार वह कर रहा था। बाबा काफ़ी हाउस से लौटे, तो वह सो गया था। मैंने बाबा को सुना दिया। बाबा बोले, अरे बड़ी भूल हो गयी है, कहां है वह! मैंने कहा, सो गया। अगली सुबह बाबा ने उसे बुलाया, पुचकारा और विधायक कैन्टीन ले गये, उधर से गुलाब जामुन खिला लौटे तो वह भी खिला-खिला हो गया था। कविता उन्हीं दिनों उत्तरशती में छपी थी। प्रसंग और भी बहुत से हैं। उन्हें यहां छोड़ता हूं। अंतिम वर्षों में वे बीमार रहे और लहेरियासराय के पंडासराय में किराये के मकान में रहते थे। शोभाकांत (ज्येष्ठ पुत्रा) अपने परिवार के साथ उनकी सेवा में लगे थे। इसके बाद वे किसी यात्रा पर नहीं निकल सके। यात्राी का अभियान अब बंद होने के लक्षण दिखने लगे थे। बाबा ने एक कविता में लिखा: क्या कर लेगा मेरा मन इंद्रियां साथ नहीं देंगी तो! और वह अंत पांच नवंबर 1998 को आ गया। हम जो समझते थे कि यह यात्राी कभी हमारा साथ नहीं छोड़ेगा, वह छोड़ गया। हम क्या कर सकते थे, क्या कर सकते हैं? बाबा अक्षय जीवनी शक्ति और जिजीविषा के स्रष्टा थे। डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार डेढ़ हड्डी की काठी थी उनकी, लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि डेढ़ हड्डी को लेकर उन्होंने सत्तासी वर्षों तक काल को चुनौती दी।
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