Thursday 20 June 2013

‘वह भी कोई देस है महाराज’


किताबों की बहुरंगी दुनिया में एक किताब है-वह भी कोई देस है महाराज। अनिल यादव की यह किताब पूर्वोत्तर राज्यों के जीवन, जंगल, वहां की पीड़ा एवं संस्कृति से रूबरू कराती है। असल में यह यात्रा वृतांत है जिसे लेखक ने बहुत शिद्दत के साथ लिखी है। साथ ही उन राज्यों की संवेदना को भावनात्मक एवं रागात्मक रूप में पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।

पुरानी दिल्ली के भयानक गंदगी, बदबू और भीड़ से भरे प्लेटफार्म नंबर नौ पर खड़ी मटमैली ब्रह्मपुत्र मेल को देखकर एकबारगी लगा कि यह ट्रेन एक जमाने से इसी तरह खड़ी है। अब कभी नहीं चलेगी। अंधेरे डिब्बों की टूटी खिड़कियों पर उल्टियों से बनी धारियां झिलमिला रही थीं जो सूख कर पपड़ी हो गईं थीं। रेलवे ट्रैक पर नेवले और बिल्ली के बीच के आकार के चूहे बेखौफ घूम रहे थे। 29 नवंबर की उस रात भी शरीर के खुले हिस्से मच्छरों के डंक से चुनचुना रहे थे। इस ट्रेन को देखकर सहज निष्कर्ष चला आता था कि चूंकि वह देश के सबसे रहस्यमय और उपेक्षित हिस्से की ओर जा रही थी इसलिए अंधेरे में उदास खडी थी।
इसी पस्त ट्रेन को पकड़ने के लिए आधे घंटे पहले, हम दोनों यानि शाश्वत और मैं तीर की तरह पूर्वी दिल्ली की एक कोठरी से उठकर भागे थे। ट्रेन छूट न जाए, इसलिए मैं रास्ते भर टैक्सी ड्राइवर पर चिल्ला रहा था। हड़बड़ी में मेरे हैवरसैक का पट्टा टूट गया, अब गांठ लगाकर काम चलाना पड़ रहा था। यह हैवरसैक और एक सस्ता सा स्लीपिंग बैग उसी दिन सुबह मेरे दोस्त शाहिद रजा ने अपने किसी पत्रकार दोस्त लक्ष्मी पंत के साथ ढूंढकर, किसी फुटपाथ से खरीद कर मुझे दिया था। मैं पूर्वोत्तर के बारे में लगभग कुछ नहीं जानता था। कभी मेरे पिता डिब्रूगढ़ के एयरबेस पर तैनात रहे थे। वहाँ व्यापार करने गए एक रिश्तेदार की मौत ब्रह्मपुत्र में डूबकर हो गई थी। उनका रूपयों से भरा बैग हाथ से छूटकर नदी में गिर पड़ा था और उसे उठाने की कोशिश में स्टीमर का ट्यूब उनके हाथ से छूट गया था। मेरे ननिहाल के गाँव के कुछ लोग असम के किसी जिले में खेती करते थे। इन लोगों से और बचपन में पढ़ी सामाजिक जीवन या भूगोल की किताब में छपे चित्रों से मुझे मालूम था कि वहाँ आदमी को केला कहते हैं। चाय के बगान हैं जिनमें औरतें पत्तियां तोड़ती हैं। पहले वहाँ की औरतें जादू से बाहरी लोगों को भेड़ा बनाकर, अपने घरों में पाल लेती थी, चेरापूंजी नाम की कोई जगह हैं जहाँ दुनिया में सबसे अधिक बारिश होती है।
इसके अलावा मुझे थोड़ा बहुत असम के छात्र आंदोलन के बारे में पता था। खास तौर पर यह कि अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में बनारस में तेज-तर्रार समझे जाने वाले एक-दो छात्रनेता फटे गले से माइक पर चीखते थे, गौहाटी के अलाने छात्रावास के कमरा नंबर फलाने में रहने वाला प्रफुल्ल कुमार मंहतो जब असम का मुख्यमंत्री बन सकता है तो यहाँ का छात्र अपने खून से अपनी तकदीर क्यों नहीं लिख सकता। इन सभाओं से पहले भीड़ जुटाने के लिए कुछ लड़के, लड़कियां भूपेन हजारिका के एक गीत का हिंदी तर्जुमा गंगा तुम बहती हो क्यों गाया करते थे।
हैवरसैक में कभी यह गीत गाने वाले दोस्त, पंकज श्रीवास्तव की दी हुई (जो उसे किसी प्रेस कांफ्रेस में मिली होगी) एक साल पुरानी सादी डायरी थी जिस पर मुझे संस्मरण लिखने थे। आधा किलो से थोड़ा ज्यादा अखबारी कतरनें थी, दो किताबें (वीजी वर्गीज की नार्थ ईस्ट रिसर्जेंट और संजय हजारिका की स्ट्रेंजर्स इन द मिस्ट) थीं जिन्हें तीन दिन की यात्रा में पढ़ा जाना था। किताबें एक दिन ही पहले कनाट प्लेस के एक चमाचम बुक मॉल से बिना कन्सेशन का आग्रह किए शाश्वत के क्रेडिट कार्ड पर खरीदी गई थीं। कुछ गरम कपड़े थे वहीं बगल में जनपथ के फुटपाथ से छांटे गए थे। वहीं से खरीद कर मैने शाश्वत को एक चटख लाल रंग की ओवरकोटनुमा जैकेट, ड्राई क्लीन कराने के बाद शानदार पैकेजिंग में भेंट कर दी थी। बड़ी जिद झेलने के बाद मैने जैकेट की कीमत नौ हजार कुछ रूपये बताई थी जबकि वह सिर्फ तीन सौ रूपये में ली गई थी। वही पहने, स्टेशन की बेंच पर बैठा वह बच्चों को दिया जाने वाला नेजल ड्राप ऑट्रिविन अपनी नाक में डाल रहा था। उसकी नाक सर्दी में अक्सर बंद हो जाया करती थी। बीच-बीच में वह जेब से निकाल कर गुड़ और मूंगफली की पट्टी खा रहा था। उसे पूरा विश्वास था कि पूर्वोत्तर जाकर हम लोग जो रपटें और फोटो यहाँ के अखबारों, पत्रिकाओं को भेजेंगे, उससे हम दोनों धूमकेतु की तरह चमक उठेगे और तब चिरकुट संपादकों के यहाँ फेरा लगाकर नौकरी मांगने की जलालत से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाएगा।
शाश्वत की अटैची में यमुना पार की कोठरी की सहृदय मालकिन के दिए पराठे, तली मछली और अचार था, तीन फुलस्केप साइज की सादी कापियां थीं।
अपनी-अपनी करनी से मैं पिछले एक साल से और वह पांच महीनों से बेरोजगार था। कई बार वह सुबह-सुबह नौकरी का चक्कर चलाने किसी अखबार मालिक या संपादक से मिलने हेतु जिस समय तैयार होकर दबे पाँव निकलने को होता, मैं रजाई फेंक कर सामने आ जाता। मैं साभिनय बताता था कि छोटी सी नौकरी के लिए डीटीसी की बस के पीछे लपकता हुआ वह कैसे किसी अनाथ कुत्ते की तरह लगता है। खोखली हंसी के साथ उसका एकांत में संजोया हौसला टूट जाता, नौकरी की तलाश स्थगित हो जाती और मैं वापस रजाई में दुबक जाता। मैं खुद भी अवसाद का शिकार था। उस साल मैने कई महीने एक पीली चादर फिर रजाई ओढ़कर अठारह-अठारह घंटे सोने का रिकार्ड बनाया था। इसी मनःस्थिति में हताशा से छूटने, खुद को फिर से समझने और अनिश्चय में एक धुंधली सी उम्मीद के साथ यह यात्रा शुरू हो रही थी।
उत्तर-पूर्व जाकर मैं करुंगा क्या, इसका मुझे बिल्कुल अंदाज नहीं था। इसलिए मैने खुशवंत सिंह, राजेंद्र यादव, प्रभाष जोशी, मंगलेश डबराल, आनंद स्वरूप वर्मा, राजेंद्र घोड़पकर, अभय कुमार दुबे, यशवंत व्यास, रामशरण जोशी, रामबहादुर राय, अरविंद जैनादि के पास जाकर एक काल्पनिक सवाल पूछा था और उनके जवाब एक कागज पर लिख लिए थे। सवाल था- “जनाब। फर्ज कीजिए कि आप इन दिनों उत्तर-पूर्व जाते तो क्या देखते और क्या लिखते?”
जैसा हवाई सवाल था, वैसे ही कागज के जहाजों जैसे लहराते जवाब भी मुझे मिले। इन्हीं जवाबों को गुनते-धुनते मैं अपना और शाश्वत का मनोबल ट्रेन में बैठने लायक बना पाया था। हंस के संपादक राजेंद्र यादव का कहना था कि इस यात्रा में कोई लड़की मेरे साथ होती तो ज्यादा अच्छा होता। इससे वहाँ के समाज को समझने में ज्यादा सहूलियत होती और मीडिया में हाईप भी बढिया मिलती। सबसे व्यावहारिक सुझाव, रियलिस्टक स्टाइल में खुशवंत सिंह ने दिया था। मिलने के लिए निर्धारित समय से बस आधे घंटे लेट उनके घर पहुंचा तो बताया गया कि मुलाकात संभव नहीं है। पड़ोस के एक पीसीओ से फोन किया तो व्हिस्की पी रहे बुड्ढे सरदार ने कहा,
“पुत्तर तुम नार्थ-ईस्ट जाओ या कहीं और, मुझसे क्या मतलब।”
अपने कागज पर मैने खुशवंत सिंह के नाम के आगे लिखा,
“जरूर जाओ बेटा। बहुत कम लोग ऐसा साहस करते हैं। मैं तुम लोगों का यात्रा-वृत्तांत अंग्रेजी में पेंग्विन या वाइकिंग जैसे किसी प्रकाशन में छपवाने में मदद करूंगा।”
यह शाश्वत को पढ़वाने के लिए था क्योंकि पैसा उसी का लग रहा था। खुशवंत सिंह के आशीर्वचन का पाठ करते हुए मुझे अपने छोटे भाई सुनील की याद आई। छुटपन में उसे साइकिल पर खींचते-खींचते जब मैं थक जाता था, इसे भांप कर वह कहता था कि बगल से गुजर रहे दो आदमी आपस में बातें कर रहे थे यह लड़का हवाई जहाज की तरह साइकिल चलाता है। मैं उसका चेहरा नहीं देख पाता था क्योंकि वह डंडे पर बैठा होता था।
ब्रह्मपुत्र मेल की पहली सीटी और धकमपेल के बीच हम लोग भीतर घुसे तो कूपे में असम राइफल्स के मंगोल चेहरे वाले सैनिक अपना सामान जमा रहे थे। निर्लिप्त, तटस्थ, खामोश कुशलता से कूपे के खाली कोनों-अंतरों में वे अपने ट्रंक, होल्डाल, किटबैग, हैवरसैक रखे जा रहे थे। अंदाजा इतना सटीक कि जैसे वे खाली जगहें खासतौर पर उन्हीं सामानों के आकार-प्रकार के हिसाब से बनाई गईं थीं।
ऊपर की एक बर्थ पर लेटने की तैयारी कर चुके एक युवा सरदार जी, विदा करने आए एक परिजन को बता रहे थे कि उन्हें सीट तो बगल के डिब्बे में मिली थी लेकिन वहाँ सामने एक नगा बंदा था जो बहुत तेज बास मार रहा था। इसलिए कंडक्टर से कह कर डिब्बा बदलवा लिया। पता नहीं उन्हें, उस नगा बंदे से क्या परेशानी थी। शायद उसकी आधी ढकी, भीतर भेदती आँखों ने उनके मन के परदे पर हेड-हंटिंग, कुकुर भात और आतंकवाद की कोई हॉरर फिल्म चला दी होगी और दिल्ली से कमा कर देस लौटते निरीह और भुक्खड़ बिहारियों के सुरक्षित दलदल में आ धंसे। दिल्ली की बस में वे उन्हें अपने शरीर से छूने भी नहीं देते होंगे, क्योंकि बिहारी यहाँ एक गाली है।
ट्रेन थोड़ा-सा खिसक कर रूक गई। तभी गूंजे धरती आसमान-राम विलास पासवान का नारा लगाती, जवानी की धुंधली फोटो कापी, बिहारी नौजवानों की भीड़ डिब्बे में आ घुसी। वे सबसे किनारे की सीटों पर सस्ती अटैचियों, दिल्ली मॉडल के टू-इन-वन और फुटपाथों से खरीदे रंग-बिरंगे कपड़ो के ढेर के साथ काबिज होने लगे और रिजर्वेशन वाले यात्री अपने सामानों से अपनी बर्थों की किलेबंदी करते हुए पसरने लगे। वे अपनी देह भाषा में रैली से लौट रहे इन बेटिकट, दलित कार्यकर्ताओं का विरोध कर रहे थे।
डिब्बे में दो कंडक्टर घुसे। उन्होंने लुंगी पहने एक मरियल से लड़के से टिकट मांगा। लड़का सहमी, पीली आंखों से उन्हें ताकता ही रह गया। कुछ बोल पाता इससे पहले ही उनमें से एक ने उसे कसकर तमाचा जड़ दिया और सबको नीचे उतारने लगा। एक दढ़ियल युवक ने प्रतिवाद किया, पासवान जी की रैली में आए हैं जी टिकठ काहे लेंगे। जैसे आए थे, वैसे ही जाएंगे।
इनसे पूछिए कि इस डिब्बे में आने की इन सबों की हिम्मत कैसे पड़ी। पीछे किसी बर्थ से आवाज आई।
चलो हमारा घर भी खाली पड़ा है, वहाँ भी कब्जा कर लोगे। जाओ पासवान से पैसा लेकर आओ, रिजर्वेशन कराओ, तब यहाँ बैठो। दोनों कंडक्टर अब तक रैली वाले युवकों पर हावी हो चुके थे, पासवान जब रेल मंत्री था, तब था। अब वह हमारा कुछ नहीं कर सकता। बेटा, ट्रेड यूनियन के लीडर हैं, एक-एक को पटक के यहीं मारेंगे। पब्लिक भी अभी बताने लगेगी कि तुम्हारे पासवान की क्या औकात है। चलो चुपचाप उतरो।
दलित युवक चुपचाप उतर कर जनरल डिब्बों की ओर बढ़ गए। जैसे वे किसी शवयात्रा में जा रहे हों। जिस राजनीति और संगठन की शक्ति ने उन्हें ट्रेन में बिना टिकट सवार होने की हिम्मत दी थी, उसी संगठन का डर दिखाकर दो कंडक्टरों ने उन्हें नीचे उतार दिया। कंडक्टरों का हाथ भी दलित कार्यकर्ताओं पर ही छूटता है। महेंद्र सिंह टिकैत के साथ रैलियों में जाने वाले मुजफ्फर नगर, बागपत के जाट वातानुकूलित डिब्बों के परदे तक नोंच कर चिलम पर तमाखू के साथ पी जाते हैं तब ये टिकट बाबू किसी कोने में सिमटे हुए अपनी जान और नौकरी की खैर मनाते रहते हैं।
ट्रेन चली कि असम राइफल्स के सैनिकों ने बोतल खोल ली। वे अपने मगों और प्लास्टिक के डिस्पोजेबल गिलासों में रम पीने लगे। थोड़ी ही देर में उनकी खामोशी टूटी। किसी अबूझ भाषा में एक दूसरे से उलझी, लंबी, उछलती रस्सियों की तरह उनकी बातें डिब्बे में फैलने लगीं। जिनके साथ परिवार थे चौकन्ने हो गए और जो करीब की बर्थों पर थे, कुछ इंच ही विपरीत दिशाओं में सरकने लगे। जीआरपी के एक अधेड़ सिपाही ने फौजियों की तरफ हाथ उठाकर कुछ कहने की कोशिश की लेकिन उनकी तरह कोई प्रतिक्रिया न पाकर, बड़बड़ाता हुआ आगे बढ़ गया। यह मंगोल भारत था जिसका गंगा के मैदान वाले आर्य सिपाही से संवाद कठिन था।
पैंट्री कार से डिब्बे में बार-बार आते एक रेखियाउठान बेयरे का नाम बड़ा काव्यात्मक था। उसकी लाल रंग की सूती वर्दी पर काले रंग की नेम प्लेट लगी थी जिस पर सफेद अक्षरों में लिखा था, सजल बैशाख। उसकी मिचमिची आँखों और उजले दांतो को देखते हुए ख्याल आया कि बरसात तो आषाढ़ में शुरू होती है, बैसाख कैसे सजल हो सकता है। कहीं चकित करने के लिए ही तो उसका नाम नही रखा गया है। अगले दिन नाश्ते के समय मैने उससे पूछा कि बैशाख कैसे सजल हो गया है। वह इत्मीनान से देर तक हंसता रहा। पहले भी उससे यह सवाल कइयों ने पूछा होगा। प्रतिप्रश्न आया, आप पहली बार आसाम जा रहा है क्या। मेरे सिर हिलाने पर उसने कहा, जब थोड़ा दिन उधर बैठेगा तो अपने ही जान जाएगा कि वहाँ बैशाख मे मानसून ही नहीं आता, बाढ़ भी आ जाती है। य़ह पूर्वोत्तर की पहली झलक थी जो मुझे मुगलसराय से बिहार के बीच कहीं मिली।
दिन में जिस, पहले रोबीले मुच्छड़ ने मेरी बर्थ पर अतिक्रमण किया, मेरे जिले गाजीपुर के निकले, गहमर गांव के वीरेंद्र सिंह। पंद्रह दिन छुट्टी बिता कर निचले असम के बोंगाई गांव जा रहे थे जहाँ वे बीएसएफ की बटालियन में तैनात थे। गांव-जवार का होने के कारण या फिर अपने अतिक्रमण को वैधता देने के लिए मेरी तरफ खैनी बढ़ाते हुए उन्होंने सलाह दी कि जा रहे हैं तो वहाँ जरा मच्छड़ और छोकड़ी से बचिएगा, तब गाजीपुर लौट पाइएगा।
मारिए वह भी कोई देश है महाराज। यह उनका तकिया कलाम था।
वह बता रहे थे कि कुनैन की गोली, बीएसएफ में जवान को कतार में खड़ा कर, मुँह पर मुक्का मार कर खिलाता है और मच्छरदानी में सोने का सख्त आर्डर है। नहीं मानने पर फाइन होता है। जान हमेशा पत्ते पर टंगी रहती है कि न जाने किधर से आल्फा या बोडो वाला आकर टिपटिपाने लगेगा। उग्रवादी भीड़ में ऐसे घूमते हैं जैसे पानी में मछली। उनके होने का तभी पता चलता है जब दो-चार आदमी गिरा दिए जाते हैं।
जैसे पानी में मछली- मैं मोंछू की उपमा पर चकित था। यही तो शिलाँग के सेंट एडमंडस कालेज से अंग्रेजी और लंदन से पत्रकारिता पढ़े संजय हजारिका की किताब में भी लिखा था। यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम (उल्फा) का कमांडर परेश बरूआ एक बार तिनसुकिया में कालेज के लड़कों की टीम में शामिल होकर असम पुलिस की टीम के साथ फुटबाल मैच खेल कर निकल गया। तीन दिन बाद पुलिस को पता चला तब तक करीब के जंगल से उल्फा के कैंप उखड़ चुके थे।
सामने की बर्थ पर बारह-पंद्रह एयरबैगों, बोरियों, पालीथिनों से घिरी सहुआईन बैठी थीं। उनके पति को दूसरे डिब्बे में सीट मिली है इसलिए हर दो घंटे बाद कहती हैं, भइया देखे रहिएगा साथ में दो लड़कियां हैं। उनकी मणिपुर और बर्मा के बीच भारत के आखिरी कस्बे मोरे में परचून की दुकान है। गोरखपुर से मोरे कैसे पहुंच गए। कहती हैं, किस्मत भइय़ा।
आठ और ग्यारह साल की उनकी दो लड़कियां एक सरकारी स्कूल में पढ़ती हैं और निराली अंग्रेजी बोलती हैं। वे एक दूसरे को मैन कहती हैं। सहुआइन अपनी निःशब्द भाषा में उन्हें प्रोत्साहित करती हैं और फिर संतुष्ट भाव से डिब्बे में पड़े प्रभाव का मुआयना करती हैं।
“मम्मा गेभ मी ओनली तीन टाका टू टेक झालमूड़ी। भ्हाई शुड आई गिभ दैट टू यू। टेक फ्राम योर मनी मैन।”
सहुआइन मोंछी को बता रही हैं। बिना दाढ़ी-मोंछ वाला, छोटा-छोटा लड़का मलेटरी-पुलिस सबके सामने आता है। टैक्स मांगता है। देना पड़ता है। नहीं तो जान से मार देगा।
हमारी दुकान के आगे एक मास्टर को मार दिया। बहुत शरीफ मास्टर था। सबसे प्रेम से बोलता था लेकिन तीन महीना से टैक्स नहीं दिया था। हम लोगों की भाषा बोलने पर रोक लगा दिया है। कहता है कोई भाषा बोलो हिंदी मत बोलो। भूल से जबान फिसल जाए तो टोकता है गाली देता है।
………तो यह निराली अंग्रेजी भारत और बर्मा की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर रह रहे बाहर के बच्चों की भाषा है जिसका आविष्कार उन्होंने जीवित रहने के लिए किया है।
तो छोड़ दीजिए, “आकर गोरखपुर में परचून की दुकान चलाइए।” शाश्वत स्लीपिंग बैग की भीतर से निंदियाई आवाज में सलाह देता है।
“नहीं भईया। जो मजा मोरे में है वह आल इंडिया में भी नहीं मिलेगा।”
“मारिए, वह भी कोई देस है महाराज।”
मोंछू का देस वह नहीं है जो बचपन में हम लोगों को भूगोल की किताब में राजनीतिक नक्शे के जरिए पहचनवाया गया था। वह भी नहीं है जिसे प्रधानमंत्री पंद्रह अगस्त को लालकिले से संबोधित करते हैं। दरअसल वह अपने देश से जाकर परदेस में नौकरी कर रहा है। हैवरसैक में रखे अखबारों की कतरनों के फोटोग्राफ्स मेरी आँखो के सामने घूम गए जिनमें कलात्मक लिखावट में नारे लिखे हुए थे- इंडियन डॉग्स गो बैक। ये कहाँ के कुत्ते हैं जो भारतीय कुत्तों को अपने इलाके से खदेड़ रहे हैं। डेल्ही इज स्टेप मदर टू सेवन सिस्टर्स। ये सात बहनें दूसरी किन लड़कियों को ताना दे रही हैं। एज क्रो फ्लाइज, इट इज क्लोजर टू हनोई दैन टू न्यू डेल्ही। यह क्यों बताया जा रहा है कि हम डेल्ही वालों के मुहल्ले में आकर गल्ती से बस गए हैं। अचानक लगा कि उस देस वाले, इधर के देस को लगातार गाली दे रहे हैं तो वहाँ जाती ट्रेन भी कुछ न कुछ जरूर कह रही होगी। मैं आँख बंद कर सारी आवाजों को सुनने को कोशिश करने लगा। सरसराती ठंडी हवा और अनवरत धचक-धक-धचक के बीच कल से व्यर्थ, रूटीन लगती बातों के टुकड़े डिब्बे में भटक रहे हैं। उन्हें बार-बार दोहराया जा रहा है। इतनी भावनाओं के साथ अलग-अलग ढंग से बोले जाने वाले इन वाक्यों के पीछे मंशा क्या है।
हालत बहुत खराब है।
वहाँ पोजीशन ठीक नहीं है।
माहौल ठीक नहीं है।
चारो तरफ गड़बड़ है।
आजकल फिर मामला गंडोगोल है।
जैसे लोग किसी विक्षिप्त और हिंसक मरीज की तबीयत के बारे में बात कर रहे हैं जिसके साथ, उन्हें उसी वार्ड में जैसे-तैसे गुजर करना है।
बिहार बीत चुका था। खिड़की के बाहर सत्यजीत रे की कोई फिल्म चल रही थी। मालदा के बंगाल के गांव गुजर रहे थे। सादे से घरो के आगे हरियाली से घिरा पुखुर और धान के कटे, अनकटे खेतों पर क्षितिज तक छाया नीलछौंहा विस्तार। ट्रेन में मिष्टीदोई, झालमुडी और हथकरघे पर बने कपड़े बिक रहे थे।
थोड़ी ही देर बाद न्यू जलपाईगुड़ी यानि एनजेपी आते ही हम लोग ग्राम बाँग्ला से उड़कर चीनी सामानों से भरी किसी विदेशी गली में आ गिरे। एक के पीछे एक सैकड़ो वेंडर जो चीनी कैमरे, टेलीविजन, कैलकुलेटर, मोबाइल, फोन, घड़ियां, टेपरिकार्डर, इलेक्ट्रानिक खिलौने, कंबल, बाम चीखते हुए बेच रहे थे। ऊपर से नीचे से तक सामानों से लदे वे चीन के व्यापारिक दूत लग रहे थे। प्लेटफार्म पर बिक रही सारी सिगरेटें विदेशी थी। यहाँ की सिगरेटों से लंबी और बेहद सस्ती। चीनी दूतों की तादात इतनी ज्यादा थी कि सारंगी और इकतारा लिए भिखारी ट्रेन में नहीं घुस पा रहे थे।
राजनीति की भाषा में एनजेपी को चिकेन्स नेक कॉरिडोर कहा जाता है। यह मुर्गे की गर्दन जितना दुबला यानि सिर्फ इक्कीस किलोमीटर चौड़ा गलियारा है जहाँ से पूर्वोत्तर से आती तेल और गैस की पाइपलाइनें गुजरती हैं। अक्सर पूर्वोत्तर के आंदोलनकारी इस मुर्गे की गरदन मरोड़ देने की धमकी देते रहते हैं। ऐसा हो जाए तो गैस और तेल की सप्लाई ही नहीं बंद होगी, पूर्वोत्तर का शेष देश से संपर्क भी कट जाएगा। तब कलकत्ता से गौहाटी के लिए हवाई जहाज पकड़ना होगा।
वेंडरों, अखबारों और जहाँ-तहां नेटवर्क पकड़ते मोबाइल फोनों के जरिए ट्रेन में खबरें आ रही थीं कि असम हिंदी भाषियों को मारा जा रहा है। बिहारियों के घर जलाए जा रहे हैं। तिनसुकिया और अरूणाचल के बीच कहीं सादिया कुकुरमारा में दो दिन पहले उल्फा ने तीस बिहारियों को भून डाला। उनकी लाशें अब भी वहीं सड़ रही हैं। इनमें से सभी मजदूर थे जो तेजू में लगने वाली साप्ताहिक हाट से राशन खरीद कर एक ट्रक में सवार होकर लौट रहे थे। उन्हें जंगल में ट्रक रोक कर उतारा गया, कतार में खड़ा कर नाम पूछे गए और फिर गोली से उड़ा दिया गया। लौटती ट्रेनों में जगह नहीं है क्योंकि बिहारी अपने घर, जमीनें छोड़ कर असम से भाग रहे हैं। पिछले एक हफ्ते में पचपन से अधिक बिहारी मारे गए हैं।
संजय हजारिका की किताब में खून, बारूद, गुरिल्ला, मैमनसिंघिया मुसलमान, शरणार्थी और घुसपैठिये थे। वर्गीज की किताब में संधिया, समझौते, राजनीति के दांव-पेंच, प्रशासनिक सुधार और इतिहास थे। दोनों को पढ़ते और ऊंघते हुए मुझे लगा कि यह ट्रेन मजबूर लोगों से भरी हुई है। उन्हें वहाँ लिए जा रही है जहाँ वे जाना नहीं चाहते। रोजी, व्यापार, रिश्तों की हथकड़ियों से जकड़ कर वे बिठा दिए गए हैं। वे जानते हैं कि वहाँ मौत नाच रही है फिर भी जा रहे हैं। तभी अचानक लंबी यात्रा की के बेफिक्र आलस की जगह डिब्बों चौकन्नापन पंजो के बल चलता महसूस होने लगा। तीन को छोड़ कर बाकी भाषाएँ और बोलियां भयभीत, फुसफुसाने लगीं। ये तीन नई भाषाएँ थीं असमिया, अंग्रेजी और यदा-कदा बांग्ला। मैने स्लीपिंग के भीतर नाखून चबा रहे शाश्वत की ओर देखा। थोड़ी देर बाद उसने कहा, अबे जब दुर्भाग्य यहाँ तक ले ही आया है तो आगे जो होगा देखा जाएगा।
असम में प्रवेश करते ही हरियाली का जैसे विस्फोट होता है। सूरज की रोशनी में कौंधती, काले रंग को छूती हरियाली। खिड़कियों, मकानों की दरारों, पेड़ो के खोखलों से कचनार लताएं झूलती मिलती है जो हर खाली जगह को नाप चुकी होती हैं।
बाँस, नारियल, तामुल, केले के बीच काई ढके ललछौंहे पानी के डबरों और पोखरों से घिरे गांव। घरों और खेतों के चारों और बांस की खपच्चियों का घेरा। सीवान में हर तरफ नीली धुंध। छोटे-छोटे स्टेशन और हाल्ट गुजर रहे थे- न्यू बंगाई गांव, नलबाड़ी, बारपेटा, रंगिया….अखबारों में छपी रपटें, तस्वीरें बता रही थीं कि ये वही जगहें हैं जहाँ पिछले दिनों हिंदीभाषियों की हत्याएं की गईं हैं। एक वेंडर से लाल सा और कोई लोकल नमकीन लेते हुए मुझे धक से लगा कि मेरे बोलने में खासा बिहारी टोन है जो जरा सा असावधान होते ही उछल आता है।
हमारा नाम अनील यादव है।
मैं पता नहीं अपने सिवा किन और लोगों को अपने भीतर शामिल करते हुए अपने नाम को खींचता हूं। मैने पहली बार गजब आदमी देखा जो बांस की बडी अनगढ़ बांसुरी लिए था। यात्रियों से कहता था, गान सुनेगा गान। अच्छा लगे तब टका देगा। अपने संगीत पर ऐसा आत्मविश्वास। बहुत मन होते हुए भी उसे नहीं रोक पाया। शायद सोच रहा था कि क्या पता वे लोग इन तरीकों से हिंदी बोलने वाले लोगों की ट्रेनों में शिनाख्त कर रहे हों। मे आई सिट हियर ऑनली फॉर थ्री मिनिटस, छाता और बैग लिए एक अधेड़ ने मुझसे पूछा। मैं एक तरफ खिसक गया। उन्होंने बताया कि ब्रह्मपुत्र पार करने में ट्रेन को तीन मिनट लगते हैं, उसके बाद गौहाटी है। सारी खिड़कियाँ पीठों से ढंक गईं। लोग खासतौर पर महिलाएं जान-माल की सलामती की कामना बुदबुदाते हुए, नीली धुंध में पसरी दानवाकार नदी में सिक्के फेंक रहे थे।

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