Thursday, 20 June 2013

किताबों से प्यार, जैसे परमात्मा से आत्मा का मिलन

मंगलेश डबराल की प्रिय किताबें

वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल कहते हैं कि किताबें पढ़ना अपने वक्त को सही तरीके से पढ़ना है। बर्तोल्त ब्रेख्त की कविताएं अपने वक्त की निर्मम चीड़-फाड़ हैं। उन्होंने बीसवीं शताब्दी में मनुष्य होने की तकलीफ को अपनी कविताओं में बहुत शिद्दत से दर्ज किया है। बीसवीं शताब्दी की बड़ी सचाइयों में से एक शहर का होना है। शहरों में जितने लोग इन सौ बरसों में गए, वह मानवीय इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। उन्होंने शहरों पर एक से बढ़कर एक कविताएं लिखीं। ये कविताएं इन मायनों में हमारा आईना हैं। महान स्पैनिश कवि पाब्लो नेरुदा की कविताओं का संग्रह (रसिडेंस ऑन अर्थ) बड़ी कविता को पढ़ने के अहसास से भर देता है।  इसलिए इसकी तरफ मेरा मन बार-बार लौटता है। इसे पढ़कर ही मैंने कविता लिखना सीखा था। इसमें जज्ब गहरी रूमानियत के असर में मैं जितना युवा दिनों में था, उतना अब भी हूं। नेरुदा के राजनीतिक सरोकार, जो बहुत गहरे मानवीय हैं, इस किताब के जरिए मुखर हुए। मैं (कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो) को बेहद जरूरी मानता हूं, अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी। 40 पेज की इस छोटी-सी किताब में कार्ल मार्क्स ने पूंजीवादी व्यवस्था के कारनामों के बारे में जो लिखा था, वह आज अक्षर-अक्षर सच साबित हो रहा है। मेरे खयाल में, इस किताब की जरूरत आज और आगे भी इन्हीं वजहों से बनी रहेगी। हम इसे पढ़कर अपना पक्ष चुन सकेंगे। मशहूर रूसी लेखक लियो टॉलस्टॉय का नॉवल 'रेसरेक्शन' जारकालीन सामंती रूस का उपहास करता है। इस नॉवल में टॉलस्टॉय ने रूस का एक जेल सरीखा चित्र खींचा है, जिसमें गरीब और मजलूम रूसी कैद हैं। यह बहुत दूर तक हमारे देश में जो गरीब, आदिवासी और वंचित तबका है, उसकी सचाइयों के साथ जुड़ता है, क्योंकि ये भी मौजूदा हालात में एक तरह से व्यवस्था की कैद में ही हैं। इनका भी रेसरेक्शन यानी फिर से उत्थान होना जरूरी है। सन साठ के बाद हिंदी कहानी में उभरे सबसे चर्चित कहानीकार ज्ञानरंजन की किताब 'सपना नहीं' में शामिल कहानियां उस दौर से हमारा सबसे प्रामाणिक ढंग से परिचय कराती हैं। लोअर-मिडल क्लास परिवारों के अंदरूनी बदलाव, संबंधों में टकराव और मोहभंग की जो कहानी ज्ञानरंजन तब कह रहे थे, वह उनके बाद खत्म नहीं हो गई, लेकिन जिस विलक्षण भाषा में उन्होंने इन्हें लिखा है, वह आज भी ताजा-सा है।

शेखर जोशी की प्रिय किताबें

मैक्सिम गोर्की सरीखे लेखक की आत्मकथा से गुजरना मेरे लिए एक प्रेरक अनुभव रहा। तीन हिस्सों में छपी गोर्की की आत्मकथा उन दुर्लभ किताबों में से एक है, जिससे एक जीवन-दृष्टि मिलती है। चूंकि मैंने इसे काफी कम उम्र में पढ़ा था, इसलिए कह सकता हूं कि मेरे मन में इसकी छाप अब तक बनी है। आत्मकथा भले गोर्की की थी, लेकिन जीवन के मायने मेरे लिए बदल गए। मैंने जीवन को उसकी तमाम रंगत में इसके जरिए ही जीना सीखा। राहुल सांकृत्यायन की किताब 'दर्शन-दिग्दर्शन' मुझे एक गंभीर विषय पर सहज लेखन की वजह से पसंद आती है। इस किताब को मैं इसलिए भी महत्वपूर्ण मानता हूं क्योंकि इसने मेरे मन में विचारों के प्रति एक रुझान बनाया। मेरे मन में जो बातें संस्कार के तौर पर जगह बना रही थीं, उसे इस किताब ने ताकिर्क ढंग से दूर किया और मुझे नए विचारों को अपनाने के लिए तैयार किया। हिंदी में ऐसी किताबें दुर्लभ हैं, जो निरा ज्ञान न देकर कुछ नई प्रेरणाओं के लिए भी उकसाएं। चेखव की कहानियों से मेरा जुड़ाव मेरे कहानीकार बनने से भी बहुत दूर तक जुड़ा हुआ है। चेखव के लेखन में मनुष्य मात्र के लिए जो करुणा है, उसने मुझे अपनी ओर खींचा और मैं उनकी कहानियां एक-के-बाद-एक पढ़ता गया। यहां मुझे कहानी का आदर्श शिल्प मिला और कहानी लिखने की इच्छा ने जोर पकड़ा। आज भी चेखव की कहानियां एक चमकदार इबारत की तरह मेरी याद में ताजा है ओर मैं उनकी तरफ बार-बार लौटता हूं। प्रेमचंद हिंदी के सबसे बड़े कहानीकार हैं। उन्होंने हिंदी को कई यादगार कहानियां दी हैं। शुरुआती दिनों में पढ़ी गईं उनकी ईदगाह, कफन, बड़े भाई साहब और गमी जैसी कहानियां मुझे बहुत पसंद आती हैं। प्रेमचंद का लेखन अंतर्दृष्टिसंपन्न है। उनकी निगाह प्रगतिशील। इस वजह से उनकी कहानियां एक दौर की कहानी भर नहीं रह जाती हैं। कहानी पढ़ने में रुचि रखने वाले आज भी उन कहानियों में अपने लिए बहुत-सी रोशनी पाते हैं। हिंदी के महाकवियों में से एक निराला को राम की शक्तिपूजा, जूही की कली, सरोज-स्मृति सरीखी कविताओं से याद करता हूं। निराला की ये कविताएं 'अनामिका' में संकलित हैं। निराला ने इन कविताओं में इंसानी अहसास की जितनी परतें खोली हैं, वे कविता मात्र की उपलब्धि कही जा सकती हैं। निराला की कविता वक्त की चौखट में कैद कविता नहीं है। निराला कई मायनों में कबीर और तुलसीदास की तरह ही हमारी आज की चेतना में हमारे साथ चल रहे हैं। 

.....और क्या कहती हैं जारा खान

ज़ारा खान लिखती हैं कि किताबें मानवजाति की सबसे बेहतरीन खोज हैं। सभ्यताओं को दिया गया सबसे बेहतरीन तोहफा हैं, ऐसा मेरा दृढ विश्वास है। जितना सब कुछ हम पढने की आदत डालकर सीख सकते हैं उतना सिखाना तो किसी भी संस्थान के बस का नहीं। मेरी अपनी ज़िन्दगी में किताबों का बड़ा ही महत्वपूर्ण रोल रहा हैं। अगर आज मैं कुछ लिखने का और उसे दोस्तों के सामने पेश करने का हौसला कर पा रही हूँ तो ये किताबों की देन है। ये हुनर, ये हौसला, ये अंदाजेबयां सबकुछ पढ़ पढ़ कर आया है। वरना मेरी ऐसी औकात कहां? अपनी अब तक की छोटी सी ज़िन्दगी में मैंने बहुत कुछ पढ़ा है। फिर भी लगता है कुछ भी नहीं पढ़ा। ऐसा लगता हैं जैसे महासागर से सिर्फ चुल्लू भर पानी ही निकाल कर पी पाई हूं। पढने के बारे में एक बात ख़ास तौर से कहना चाहूंगी। जरुरी नहीं की आप बड़े बड़े ग्रन्थ ही पढ़ें। ऐसा करने पर ही आपका पढ़ा लिखा होना सार्थक होता हो। सुगम और मनोरंजक साहित्य पढना भी एक जीवन बदल देने वाला अनुभव साबित हो सकता हैं। प्रेमचंद से बढ़कर और क्या मिसाल हो सकती हैं? प्रेम, दया, घृणा, विश्वास, धोखा, वास्तल्य आदि सारी भावनाएं किरदारों में ढलकर हमारे सामने एक पूरी दुनिया का निर्माण करती हैं। कैसी विडम्बना है की दो सौ रुपए का पिज़्ज़ा हमे महंगा नहीं लगता पर सौ रुपए की किताब खरीदना हमारी नज़रों में फिजूलखर्ची है। हमारे यहाँ के सो कॉल्ड जागरूक माता-पिता अपने बच्चों के लिए क्या नहीं करते? उन्हें मॉल में ले जाते हैं, मल्टीप्लेक्स में महंगी टिकट खरीदकर उलजलूल फिल्में दिखाते हैं, मैकडोनाल्ड का कूड़ा महंगे दामों में खरीदकर खिलाते हैं, महंगे विडियो गेम्स खरीदकर उन्हें चारदीवारी में कैद करने का खुद ही प्रयास करते हैं, एक शाम में हंसते-हंसते सैंकड़ो रुपए फूंक डालते हैं पर अफ़सोस की उन्हें कभी कोई किताब नहीं दिलवाते। हिंदी लेखकों के अलावा मराठी, बंगाली, पंजाबी (उर्दू) में साहित्य की अद्भुत परंपरा रही है। मैं जब बंकिम दा को पढ़ती हूँ तो मुझे अफ़सोस होने लगता है की क्यूँ उनकी सारी रचनाओं का हिंदी अनुवाद उपलब्ध नहीं? या क्यूँ मुझे बंगाली नहीं आती? इसी तरह जब दोस्तोवस्की, चेखव, गोर्की, शेक्सपियर या ऐसे ही किसी जगतप्रसिद्ध लेखक की कृतियों का हिंदी अनुवाद पढ़ती हूँ तो दिल उसे उपलब्ध कराने वाले के लिए दुआएं देने लगता है। कितना दुख होता है कि आज का युवा रात को बेड पर सोने से पहले किसी अच्छी किताब को पढने की बजाय मोबाइल पर एसएमएस भेजने में और पाने में व्यस्त रहता है। किसी भी घर में, किसी युवा की अलमारी में किताबों की बजाय सीडी, डीवीडी के लगे ढेर चिंताजनक है। इसे रोकना बेहद जरुरी है। महान विचारक सिसरो ने यूं ही नहीं कहा की पुस्तकों के बिना घर जैसे आत्मा बिना शरीर।

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