प्रायः याद किया करता हूं, किसको-किसको सुख पहुंचाया ।
किसे-किसे, क्यों भूल गया, किसको पल भर भी भूल न पाया ।
पूरा घर खंडहर हो गया, गांव रह गया पूर्व जन्म-सा,
छिन्न-भिन्न रिश्ते-नातों में वक्त बह गया पूर्व जन्म-सा,
डूब गये सीवान, जिन्हें हर दम थी दुलराती पगडंडी
सुनता हूं कि नहीं रही वो खेत-खेत जाती पगडंडी,
पोखर, कुआं, घाट, पिछवारे,
जिनके संग था नाचा-गाया,
किसे-किसे, क्यों भूल गया,
किसको पल भर भी भूल न पाया ।
शेष रह गयी राम-कहानी इनकी-उनकी, यहां-वहां की,
मित्र-मित्र दिन गुजर गये, दुश्मन-दुश्मन दिन जैसे बाकी,
जिसके बिना न जी सकता था, कैसी-कैसी बात कह गया,
उतना अपनापन देकर भी खाली-खाली हाथ रह गया,
फूल और अक्षत की गठरी वाला
गीत नहीं फिर गाया,
किसे-किसे, क्यों भूल गया,
किसको पल भर भी भूल न पाया ।
सफर कहां थम गया, कहां से भरीं उड़ानें जीवन ने,
कहां सुबह से शाम हो गयी, कहां बुने सपने मन ने,
लोरी-लोरी रातों वाले वे सारे दिन कहां गये,
बार-बार वे चेहरे आंखों की गंगा में नहा गये,
कितने कोस, गये युग कितने,
गिनते-गिनते याद न आया,
किसे-किसे, क्यों भूल गया,
किसको पल भर भी भूल न पाया ।
हर दिन, एक-एक दिन लगती थीं जो सौ-सौ सदी किताबें,
जब वर्षों ढोया करता था माथ-पीठ पर लदी किताबें,
पत्ती-पत्ती, फूल-फूल से हर पल बोझिल ऊपर-नीचे,
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द से हरे-भरे अनगिनत बगीचे,
गिरते-पड़ते, गिरते-पड़ते
सबको साथ नहीं रख पाया,
किसे-किसे, क्यों भूल गया,
किसको पल भर भी भूल न पाया ।
ऐसे ही सबके दिन होंगे, रही-सही स्मृतियां होंगी,
सौ-सौ बातों वाली बातें मन में तन्हा-तन्हा होंगी
जिनके अपने साथ न होंगे, जो खुद नैया खेते होंगे
चोरी से हंस लेते होंगे, चोरी से रो लेते होंगे,
जब भी कुछ कहने-सुनने को
चाहा तो क्यों मन भर आया,
किसे-किसे, क्यों भूल गया,
किसको पल भर भी भूल न पाया ।
किसे-किसे, क्यों भूल गया, किसको पल भर भी भूल न पाया ।
पूरा घर खंडहर हो गया, गांव रह गया पूर्व जन्म-सा,
छिन्न-भिन्न रिश्ते-नातों में वक्त बह गया पूर्व जन्म-सा,
डूब गये सीवान, जिन्हें हर दम थी दुलराती पगडंडी
सुनता हूं कि नहीं रही वो खेत-खेत जाती पगडंडी,
पोखर, कुआं, घाट, पिछवारे,
जिनके संग था नाचा-गाया,
किसे-किसे, क्यों भूल गया,
किसको पल भर भी भूल न पाया ।
शेष रह गयी राम-कहानी इनकी-उनकी, यहां-वहां की,
मित्र-मित्र दिन गुजर गये, दुश्मन-दुश्मन दिन जैसे बाकी,
जिसके बिना न जी सकता था, कैसी-कैसी बात कह गया,
उतना अपनापन देकर भी खाली-खाली हाथ रह गया,
फूल और अक्षत की गठरी वाला
गीत नहीं फिर गाया,
किसे-किसे, क्यों भूल गया,
किसको पल भर भी भूल न पाया ।
सफर कहां थम गया, कहां से भरीं उड़ानें जीवन ने,
कहां सुबह से शाम हो गयी, कहां बुने सपने मन ने,
लोरी-लोरी रातों वाले वे सारे दिन कहां गये,
बार-बार वे चेहरे आंखों की गंगा में नहा गये,
कितने कोस, गये युग कितने,
गिनते-गिनते याद न आया,
किसे-किसे, क्यों भूल गया,
किसको पल भर भी भूल न पाया ।
हर दिन, एक-एक दिन लगती थीं जो सौ-सौ सदी किताबें,
जब वर्षों ढोया करता था माथ-पीठ पर लदी किताबें,
पत्ती-पत्ती, फूल-फूल से हर पल बोझिल ऊपर-नीचे,
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द से हरे-भरे अनगिनत बगीचे,
गिरते-पड़ते, गिरते-पड़ते
सबको साथ नहीं रख पाया,
किसे-किसे, क्यों भूल गया,
किसको पल भर भी भूल न पाया ।
ऐसे ही सबके दिन होंगे, रही-सही स्मृतियां होंगी,
सौ-सौ बातों वाली बातें मन में तन्हा-तन्हा होंगी
जिनके अपने साथ न होंगे, जो खुद नैया खेते होंगे
चोरी से हंस लेते होंगे, चोरी से रो लेते होंगे,
जब भी कुछ कहने-सुनने को
चाहा तो क्यों मन भर आया,
किसे-किसे, क्यों भूल गया,
किसको पल भर भी भूल न पाया ।
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