अब सार्वजनिक जीवन में भाषा की मर्यादा का कोई मतलब ही नहीं रहा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव प्रचार अभियान में जिस भाषा-शैली का इस्तेमाल किया, वैसी भाषा-शैली का इस्तेमाल इससे पहले किसी भी प्रधानमंत्री ने नहीं किया. खासकर, राजनीति में अपने साथियों के चुनाव क्षेत्र में भले ही वे किसी भी पार्टी के राजनेता रहे हों, इस तरह की भाषा-शैली का इस्तेमाल पहले किसी प्रधानमंत्री ने नहीं किया.हमें यह मानना चाहिए कि केंद्र में नई सत्ता के आने के बाद नई भाषा और नई शब्दावली का भी अभ्यस्त हो जाना पड़ेगा. दो बड़े व्यापारिक घराने टेलीविजन चैनलों के माध्यम से लड़ रहे हैं. जी न्यूज के प्रमुख सुभाष चंद्रा और मशहूर उद्योगपति नवीन जिंदल कभी आपस में बहुत गहरे दोस्त हुआ करते थे और दोनों का परिवार दोस्ती की मिसाल माना जाता था. आज दोनों आमने-सामने खड़े हैं. कारणों की तह में जाने का कोई मतलब नहीं है. इन दोनों घरानों के दो टेलीविजन चैनल हैं. एक जी मीडिया के रूप में देश के सबसे बड़े मीडिया समूह का स्वामित्व रखता है और दूसरे ने एक नए टेलीविजन में निवेश करके उसके ऊपर अपना आधिपत्य कर लिया है. इस चुनाव में इन दोनों टेलीविजन चैनलों ने भाषा की मर्यादा समाप्त कर दी है. सुभाष चंद्रा गाली-गलौज कर रहा है, सुभाष चंद्रा गुंडागर्दी कर रहा है, सुभाष चंद्रा लोगों को धमका रहा है, जैसी सभ्यता के स्तर से नीचे उतरी भाषा का इस्तेमाल सुभाष चंद्रा के लिए फोकस टीवी ने किया. सुभाष चंद्रा के चैनल जी मीडिया ने भी तुर्की-ब-तुर्की, नवीन जिंदल कोयला घोटाले का आरोपी है, नवीन जिंदल अपराधी है, नवीन जिंदल गले में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह लगा मफलर डालकर घूम रहा है, जैसी भाषा का इस्तेमाल किया. इससे थोड़ी-सी और नीचे गिरी भाषा-शैली का भी इस्तेमाल हुआ. दोनों टेलीविजन चैनल इस भाषा युद्ध में एक-दूसरे को नीचा दिखाने और अपने-अपने घरानों का प्रतिनिधित्व करने में बस एक महत्वपूर्ण बात भूल गए. वह महत्वपूर्ण बात मीडिया की अपनी साख है.
हम जब टेलीविजन या अख़बार में होते हैं, तो लोग हमारे ऊपर वैसे ही विश्वास करते हैं, जैसे वे किसी न्यायाधीश के ऊपर विश्वास करते हैं. आज भी मीडिया के ऊपर, वह चाहे प्रिंट हो या टेलीविजन चैनल हों, देश के अधिकांश लोग बिना किसी तर्क के उनकी कही हुई बातों पर विश्वास कर लेते हैं. यह साख अभी मीडिया की ख़त्म नहीं हुई है. हालांकि, बहुत सारे लोगों के मन में ख़बरों के दिखाने के तरीके को लेकर शंकाएं उत्पन्न हो गई हैं और वे मीडिया के एक हिस्से को मनोरंजन का पर्याय भी मानने लगे हैं. पर इसके बावजूद साख अभी ख़त्म नहीं हुई है.
ये दोनों टेलीविजन समूह इस बात को भूल गए कि उनकी इस असभ्य अंत्याक्षरी में इन दोनों का कोई नुक़सान नहीं होने वाला, क्योंकि दोनों ही धन में और ताकत में एक-दूसरे का कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे. अगर कुछ बिगड़ेगा, तो मीडिया का बिगड़ेगा. और मीडिया का मतलब स़िर्फ जी और फोकस से जुड़े हुए या उनके दर्शकों का नहीं, बल्कि उन सारे लोगों का, जो मीडिया में काम करते हैं. जब दो लोग एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं, तो न केवल राजनीतिक दल, बल्कि जनता भी इसे एक तमाशा मान लेती है. और उस तमाशे में सारे पत्रकार, वे चाहे किसी भी विधा से जुड़े हों, एक हास्यास्पद भूमिका में जोकरों की तरह खड़े दिखाई देते हैं. वैसे ही मीडिया की साख समाप्त हो रही है. मीडिया खुद अपनी साख समाप्त कर रहा है. ऐसे में अगर टेलीविजन चैनल और अख़बारों के माध्यम से आपसी युद्ध सार्वजनिक चर्चा का विषय बन जाए, तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति दूसरी नहीं हो सकती.
मेरी चिंता सुभाष चंद्रा और नवीन जिंदल में नहीं है. मेरी चिंता मीडिया में है. और मैं इन दोनों (सुभाष चंद्रा और नवीन जिंदल) से विनम्र अनुरोध करना चाहता हूं कि आप दोनों लड़ें, आपके पास लड़ने के बहुत सारे माध्यम हैं. उसमें टेलीविजन चैनलों और अख़बारों को, जो आपके पैसे की वजह से चलते हैं, उन्हें न घसीटें. क्योंकि, जब आप अपने टेलीविजन चैनलों और अख़बारों को घसीटते हैं, तो आप पत्रकारिता को वहां खड़ा कर देते हैं, जहां पत्रकारिता अपनी साख खो देती है और पत्रकारिता हास्यास्पद नाटक मंडली का प्रहसन बन जाती है.
लोग भले अपने मुंह से कुछ न कहें, लेकिन लोग इसे अपने दिल से उतार देते हैं. मुझे नहीं मालूम, ये दोनों महान व्यक्ति, सुभाष चंद्रा और नवीन जिंदल हमारे इस छोटे-से अनुरोध को स्वीकार करेंगे या नहीं. लेकिन अगर वे स्वीकार करेंगे, तो न केवल अपने चैनलों और अख़बारों में काम करने वाले पत्रकारों पर कृपा करेंगे, बल्कि पत्रकारिता के पेशे में लगे हुए तमाम उन लोगों पर भी उपकार करेंगे, जो अपनी जान हथेली पर रखकर अभी भी सच की तलाश में जुटे हुए हैं. क्योंकि, जो चीजें आज हो रही हैं, वे दीमक की तरह हैं. और दीमक जब कहीं लग जाती है, तो वह किसी को नहीं छोड़ती. कोशिश करनी चाहिए कि पत्रकारिता के पेशे में दीमक न लगे, क्योंकि पत्रकारिता का पेशा लोकतंत्र की सलामती के लिए बहुत अहम स्थान रखता है. इसलिए आख़िर में श्री सुभाष चंद्रा और श्री नवीन जिंदल से एक बार फिर अनुरोध है कि वे अपना युद्ध लड़ें, जिस स्तर पर चाहें लड़ें, जितना चाहें एक-दूसरे को ऩुकसान पहुंचाएं, उनकी मर्जी. बस अपने टेलीविजन चैनलों और अख़बारों को इस युद्ध से दूर रखें, तो उनकी पत्रकारिता के ऊपर और दूसरे शब्दों में, लोकतंत्र के ऊपर बहुत बड़ी कृपा होगी. -
हम जब टेलीविजन या अख़बार में होते हैं, तो लोग हमारे ऊपर वैसे ही विश्वास करते हैं, जैसे वे किसी न्यायाधीश के ऊपर विश्वास करते हैं. आज भी मीडिया के ऊपर, वह चाहे प्रिंट हो या टेलीविजन चैनल हों, देश के अधिकांश लोग बिना किसी तर्क के उनकी कही हुई बातों पर विश्वास कर लेते हैं. यह साख अभी मीडिया की ख़त्म नहीं हुई है. हालांकि, बहुत सारे लोगों के मन में ख़बरों के दिखाने के तरीके को लेकर शंकाएं उत्पन्न हो गई हैं और वे मीडिया के एक हिस्से को मनोरंजन का पर्याय भी मानने लगे हैं. पर इसके बावजूद साख अभी ख़त्म नहीं हुई है.
ये दोनों टेलीविजन समूह इस बात को भूल गए कि उनकी इस असभ्य अंत्याक्षरी में इन दोनों का कोई नुक़सान नहीं होने वाला, क्योंकि दोनों ही धन में और ताकत में एक-दूसरे का कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे. अगर कुछ बिगड़ेगा, तो मीडिया का बिगड़ेगा. और मीडिया का मतलब स़िर्फ जी और फोकस से जुड़े हुए या उनके दर्शकों का नहीं, बल्कि उन सारे लोगों का, जो मीडिया में काम करते हैं. जब दो लोग एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं, तो न केवल राजनीतिक दल, बल्कि जनता भी इसे एक तमाशा मान लेती है. और उस तमाशे में सारे पत्रकार, वे चाहे किसी भी विधा से जुड़े हों, एक हास्यास्पद भूमिका में जोकरों की तरह खड़े दिखाई देते हैं. वैसे ही मीडिया की साख समाप्त हो रही है. मीडिया खुद अपनी साख समाप्त कर रहा है. ऐसे में अगर टेलीविजन चैनल और अख़बारों के माध्यम से आपसी युद्ध सार्वजनिक चर्चा का विषय बन जाए, तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति दूसरी नहीं हो सकती.
मेरी चिंता सुभाष चंद्रा और नवीन जिंदल में नहीं है. मेरी चिंता मीडिया में है. और मैं इन दोनों (सुभाष चंद्रा और नवीन जिंदल) से विनम्र अनुरोध करना चाहता हूं कि आप दोनों लड़ें, आपके पास लड़ने के बहुत सारे माध्यम हैं. उसमें टेलीविजन चैनलों और अख़बारों को, जो आपके पैसे की वजह से चलते हैं, उन्हें न घसीटें. क्योंकि, जब आप अपने टेलीविजन चैनलों और अख़बारों को घसीटते हैं, तो आप पत्रकारिता को वहां खड़ा कर देते हैं, जहां पत्रकारिता अपनी साख खो देती है और पत्रकारिता हास्यास्पद नाटक मंडली का प्रहसन बन जाती है.
लोग भले अपने मुंह से कुछ न कहें, लेकिन लोग इसे अपने दिल से उतार देते हैं. मुझे नहीं मालूम, ये दोनों महान व्यक्ति, सुभाष चंद्रा और नवीन जिंदल हमारे इस छोटे-से अनुरोध को स्वीकार करेंगे या नहीं. लेकिन अगर वे स्वीकार करेंगे, तो न केवल अपने चैनलों और अख़बारों में काम करने वाले पत्रकारों पर कृपा करेंगे, बल्कि पत्रकारिता के पेशे में लगे हुए तमाम उन लोगों पर भी उपकार करेंगे, जो अपनी जान हथेली पर रखकर अभी भी सच की तलाश में जुटे हुए हैं. क्योंकि, जो चीजें आज हो रही हैं, वे दीमक की तरह हैं. और दीमक जब कहीं लग जाती है, तो वह किसी को नहीं छोड़ती. कोशिश करनी चाहिए कि पत्रकारिता के पेशे में दीमक न लगे, क्योंकि पत्रकारिता का पेशा लोकतंत्र की सलामती के लिए बहुत अहम स्थान रखता है. इसलिए आख़िर में श्री सुभाष चंद्रा और श्री नवीन जिंदल से एक बार फिर अनुरोध है कि वे अपना युद्ध लड़ें, जिस स्तर पर चाहें लड़ें, जितना चाहें एक-दूसरे को ऩुकसान पहुंचाएं, उनकी मर्जी. बस अपने टेलीविजन चैनलों और अख़बारों को इस युद्ध से दूर रखें, तो उनकी पत्रकारिता के ऊपर और दूसरे शब्दों में, लोकतंत्र के ऊपर बहुत बड़ी कृपा होगी. -
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