दो जानकारियाँ तकरीबन साथ-साथ प्राप्त हुईं। दोनों में कोई सीधा सम्बन्ध नहीं, सिवाय मूल्यों और मर्यादाओं के जो एक कर्म से जुड़ी हैं, जिसे पत्रकारिता कहते हैं। तहलका पत्रिका के पत्रकार तरुण सहरावत का देहांत हो गया। उनकी उम्र मात्र 22 साल थी। अबूझमाड़ के आदिवासियों के साथ सरकारी संघर्षों की रिपोर्टिंग करने तरुण सहरावत बस्तर गए थे। जंगल में मच्छरों के काटने और तालाब का संक्रमित पानी पीने के कारण उन्हें टाइफाइड और सेरिब्रल मलेरिया हुआ और वे बच नहीं पाए। दूसरी खबर यह कि मुम्बई प्रेस क्लब ‘पब्लिक रिलेशनशिप और मीडिया मैनेजमेंट’ पर एक सर्टिफिकेट कोर्स शुरू करने जा रहा है। 23 जून से शुरू हो रहे तीन महीने के इस कोर्स के विज्ञापन में प्लेसमेंट का आश्वासन दिया गया है। साथ ही फीस में डिसकाउंट की व्यवस्था है। यह विज्ञापन प्राइम कॉर्प के लोगो के साथ लगाया गया है, जो मीडिया रिलेशंस और कंसलटेंसी की बड़ी कम्पनी है। पहली खबर की जानकारी और दूसरी को लेकर परेशानी शायद बहुत कम लोगों को है।
पत्रकारों के क्लब को पब्लिक रिलेशंस पर कोर्स करने की ज़रूरत क्यों आ पड़ी? सम्भव है क्लब को चलाए रखने के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती हो। ऐसा कोर्स चलाने से दो काम हो जाते हैं। पैसा भी मिलता है और कुछ नौजवानों को दिशा-निर्देश भी मिल जाता है। पर पत्रकारिता और पब्लिक रिलेशंस एक चीज़ नहीं है। पब्लिक रिलेशंस और मीडिया मैनेजमेंट का व्यावहारिक मतलब है मीडिया का इस्तेमाल किस तरह किया जाए। इस अर्थ में उसका पत्रकारिता से टकराव है। वह पत्रकारिता का हिस्सा नहीं है। पत्रकारों को ट्रेनिंग देते समय यह बताने की ज़रूरत है कि वे पब्लिक रिलेशंस के महारथियों से किस तरह बचें और अपने काम पर फोकस करें। पिछले साल हम लॉबीइंग के खेल में फँसे रहे। हमने सारी तोहमत नीरा राडिया पर लगाई, पर वह तो अपना काम कर रही थीं। पत्रकारों को यह समझने की ज़रूरत थी कि उनका उद्देश्य क्या है। लगता है बहुत से पत्रकारों की समझ भी अपने कर्म को लेकर साफ नहीं है। मीडिया माने कुछ भी प्रकाशित और प्रसारित करना नहीं है। बिजनेस की बात करें तो वही माल बेचना चाहिए जिसकी डिमांड हो। और चूंकि डिमांड क्रिएट करना भी अब हमारे हाथ में है, इसलिए सारी बातें गड्ड-मड्ड हो गईं हैं।
जब हम अपने कंटेंट पर नज़र डालते हैं तो बात साफ होती है। पत्रकारिता पब्लिक रिलेशंस है, मनोरंजन है प्रचार भी। तीनों में पैसा है। सबसे ज्यादा पैसा तो विज्ञापन की कॉपी लिखने में है। वास्तव में यह पाठक को तय करना है कि उसे बेहतरीन कॉपी लिखने वाले विज्ञापन लेखक चाहिए या जीवन और समाज की विसंगतियों को उजागर करने वाले पत्रकार। पर पत्रकारिता का काम जन सम्पर्क नहीं है। ज़रूरत पड़े तो उसे जन भावनाओं के खिलाफ भी लिखना चाहिए। सच यह है कि समाज को प्रभावित करने वाले पत्रकार इस समय नज़र नहीं आते। राजनेताओं या कॉरपोरेट वर्ल्ड को पसंद आने वाले कुछ लोग हमारे बीच ज़रूर हैं, पर उनके प्रसिद्ध होने के कारण कुछ और हैं। पर जिसे नोबल प्रफेशन या श्रेष्ठ कर्म कहते थे वह पत्रकारिता अपने आप को जन सम्पर्क कहलाना पसंद करती है। दूसरी ओर हमें गर्व है कि तरुण सहरावत जैसे साहसी तरुण हमारे पास हैं जो इस कर्म को श्रेष्ठ कर्म साबित करने के लिए जान की बाजी लगा सकते हैं।
एक-डेढ़ साल पहले आईबीएन सीएनएन ने राडिया लीक्स और विकी लीक्स के बाद अपने दर्शकों से सवाल किया कि क्या पुराने स्टाइल के जर्नलिज्म को नए स्टाइल के मीडिया ने हरा दिया हैं? यह सवाल अपने पैनल से था और दर्शकों दर्शकों से भी। पर सोचने की बात तो पत्रकारों के लिए थी और उनके लिए भी जो इसका कारोबार करते हैं। क्या होता है पुराने स्टाइल का जर्नलिज्म? और क्या होती है नए स्टाइल की पत्रकारिता? सागरिका घोष का आशय नए मीडिया से था। सोशल मीडिया फेसबुक, ब्लॉग, ट्विटर वगैरह। पर ये तो मीडियम हैं, पत्रकारिता तो कंटेंट की होती है।
लगता है कि पुरानी पत्रकारिता को सबसे नए मीडिया यानी नेट ने सहारा दिया और परम्परागत प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने बिसरा दिया। क्या वजह है इसकी? एक बड़ी वजह कारोबार है। नेट पर जो कुछ लिखा जा रहा है उसके पीछे ध्येय कमाई करने का नहीं है। बेशक छोटा-मोटा प्रभाव और मामूली बिजनेस भी इसमें है, पर बड़े क़रपोरेट हित इससे नहीं जुड़े हैं। इसका मतलब यह कि सूचना की आज़ादी को बनाए रखने के लिए उसे कारोबारी हितों से बचाने की ज़रूरत होगी। और वह कारोबार है भी तो वह प्रत्यक्ष रूप से पत्रकारीय साख का कारोबार है, साख गिराने का कारोबार नहीं। यह भी सच है कि नए मीडिया की पत्रकारिता में जिम्मेदारी का भाव कम है, व्यक्तिगत आक्षेप लगाने की कामनाएं हैं, क्योंकि कानूनी पकड़ कम है।
नया मीडिया और उसकी तकनीक समझ में आती है, पर नई स्टाइल क्या? नई स्टाइल में दो बातें एकसाथ हो रहीं हैं। एक ओर पता लग रहा है कि पत्रकार और स्वार्थी तत्वों की दोस्ती है। दूसरी ओर ह्विसिल ब्लोवर हैं, नेट पर गम्भीर सवाल उठाने वाले हैं। दोनों में ओल्ड स्टाइल और न्यू स्टाइल क्या है? दोनों बातें अतीत में हो चुकी हैं। हमने बोफोर्स का मामला देखा। हर्षद मेहता और केतन मेहता के मामले देखे। कमला का मामला देखा, भागलपुर आँखफोड़ मामला देखा। यह भारत में हिकीज़ जर्नल से लेकर अब तक पत्रकारिता की भूमिका यही थी। नयापन यह आया कि मुख्यधारा का मीडिया यह सब भूल गया। कम से कम नए मीडिया ने यह बात उठाई। ओल्ड स्टाइल जर्नलिज्म को न्यू मीडिया ने सहारा दिया है।
यह सवाल अब बार-बार पूछा जाने लगा है कि पत्रकारिता क्या खत्म हो जाएगी? इसके मूल्य, सिद्धांत और विचार कूड़ेदान में चले जाएंगे? मनी और मसल पावर की ही जीत होगी? काफी लोगों को लगता है कि पत्रकारिता के सामने संकट है और इससे निकलने का रास्ता कोई खोज नहीं पा रहा है। इस कर्म से जुड़े ज्यादातर लोग यों किसी भी दौर में व्यवस्था को लेकर संतुष्ट नहीं रहे, पर इस वक्त वे सबसे ज्यादा व्यथित लगते हैं। खबरों को बेचना सारी बात का एक संदर्भ बिन्दु है, पर घूम-फिरकर हम इस बिजनेस के व्यापक परिप्रेक्ष्य को छूने लगते हैं। फिर बातें पूँजी, कॉरपोरेट कंट्रोल और राजनैतिक-व्यवसायिक हितों के इर्द-गिर्द घूमने लगती हैं। ऐसा भी लगता है कि हम बहुत सी बातें जानते हैं, पर उन्हें खुलकर व्यक्त कर नहीं पाते या करना नहीं चाहते। भारतीय भाषाओं का मीडिया पिछले तीन दशक में काफी ताकतवर हुआ है। यह ताकत राजनीति-समाज और बिजनेस तीनों क्षेत्रों में उसके बढ़ते असर के कारण है। पर तीनों क्षेत्रों में हालात तीन दशक पहले बाले नहीं हैं।
राजनीति-बिजनेस और पत्रकारिता तीनों में नए लोगों, नए विचारों और नई प्रवृत्तियों का प्रवेश हुआ है। राजनीति में अपराध और बिजनेस के प्रतिनिधि बढ़े हैं। अपराध का एक रूप यूपी और बिहार में नज़र आता है। इसमें अपहरण, हत्या, फिरौती वगैरह हैं। दूसरा रूप आर्थिक है। यह नज़र नहीं आता, पर यह हत्याकारी अपराध से ज्यादा खतरनाक है। यह गुलाबजल और चांदी के वर्क से पगा है। राजनीति में अपराधी का प्रवेश सहज है। वह सत्ता का सिंहासन लेकर चलती है। ऐसा ही मीडिया के साथ है। वह भी व्यक्ति के सामाजिक रुतबे और रसूख को बनाता है। पुराने पत्रकार को पाँच-सौ या हज़ार के नोट दिखाने के बजाय आज बेहतर तरीके मौज़ूद हैं। चैनल शुरू किया जा सकता है। अखबार निकाला जा सकता है।
पत्रकारिता नोबल प्रफेशन है। नब्बे फीसदी या उससे भी ज्यादा पत्रकार इसे अपने ऊपर लागू करते हैं। इसीलिए वे व्यथित हैं। और उनकी व्यथा ही इसे भटकाव से रोकेगी। पेड न्यूज़ पर पूरी तरह रोक लग पाएगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता, पर वह उस तरीके से ताल ठोककर जारी भी नहीं रह पाएगी। जिस पेड न्यूज़ पर हम चर्चा कर रहे हैं वह पत्रकारों की ईज़ाद नहीं है। यह पैसा उन्हें नहीं मिला। मिला भी तो कुछ कमीशन। एक या दो संवाददाता अपने स्तर पर ऐसा काफी पहले से करते रहे होंगे। पर इस बार मामला इंस्टीट्यूशनलाइज़ होने का था। इसका इलाज़ इंस्टीट्यूशनल लेवल पर ही होना चाहिए। यानी सरकार, इंडियन न्यूज़पेपर सोसायटी और पत्रकारों की संस्थाओं को मिलकर इस पर विचार करना चाहिए। सार्वजनिक चर्चा या पब्लिक स्क्रूटनी से इस मंतव्य पर प्रहार हुआ ज़रूर है, पर कोई हल नहीं निकला है। एक विडंबना ज़रूर है कि मीडिया जो पब्लिक स्क्रूटनी का सबसे महत्वपूर्ण मंच होता था, इस सवाल पर चर्चा करना नहीं चाहता। एक-दो अखबारों को छोड़ दें तो, ज्यादातर चर्चा मीडिया के बाहर हुई है। इस मामले के असली प्लेयर अभी तक सामने नहीं आए हैं। शायद आएंगे भी नहीं।
सम्पादक वह छोर है, जहाँ से प्रबंधन और पत्रकारिता की रेखा विभाजित होती है। सम्पादक कुछ व्यक्तिगत साहसी होते हैं, कुछ व्यवस्था उन्हें बनाती है। बहुत से तथ्य शायद अभी सामने आएंगे या शायद न भी आएं। पर इतना साफ है कि मीडिया की साख बनाने की जिम्मेदारी समूचे प्रबंधतंत्र की है। इनमें मालिक भी शामिल हैं। यह बात कारोबार की रक्षा के लिए ज़रूरी है। सामान्य पत्रकार कभी नहीं चाहेगा कि उसकी साख पर बट्टा लगे। इसमें व्यक्तिगत राग-द्वेष, महत्वाकांक्षाएं और दूसरे को पीछे धकेलने की प्रवृत्तियाँ भी काम करती हैं। पैराडाइम बदलता है, तब ऐसे व्यक्ति आगे आते हैं, जो खुद को संस्थान और बिजनेस के बेहतर हितैषी के रूप में पेश करते हैं। ऐसे अनेक अंतर्विरोध और विसंगतियां हैं।
इस मामले के दो प्रमुख सूत्रधारों की ओर हम ध्यान नहीं देते। एक मीडिया ओनरिशप और दूसरा पाठक या ग्राहक। देश के पहले प्रेस कमीशन ने मीडिया ओनरशिप का सवाल उठाया था। हम प्रायः दुनिया के दूसरे देशों का इंतज़ार करते हैं। या नकल करते हैं। कहा जाता है कि यही एक मॉडल है, हम क्या करें। पर हमें कुछ करना होगा। जो हालात हैं वे ऐसे ही नहीं रहेंगे। या तो वे सुधरेंगे या बिगड़ेंगे। तत्व की बात यह है कि यह सब किसी कारोबार का मसला नहीं है। यह काम हम पाठक-जनता या लोकतंत्र के लिए करते हैं।
चूंकि सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर पहल स्टेट और सिविल सोसायटी को लेनी होती है, इसलिए यह राजनेताओं और जन-प्रतिनिधियों के लिए भी महत्वपूर्ण विषय है। इसके कानूनी और सांस्कृतिक पहलू भी हैं। कानूनी व्यवस्था से भी सारी बातें ठीक नहीं हो जातीं। सार्वजनिक व्यवस्था में बीबीसी और जापान के एनएचके काम कर सकते हैं, पर हमारे यहां तमाम कानूनी बदलाव के बावजूद प्रसार भारती कॉरपोरेशन नहीं कर पाता। हमारा लोकतंत्र और व्यवस्थाएं इवॉल्व कर रहीं हैं। उसके भीतर से नई बातें निकलेंगी। नई प्रोसेस, नए चैक्स एंड बैलेंसेज़ और मॉनीटरिंग आएगी। शायद पाठक भी हस्तक्षेप करेगा, जो अभी तक मूक दर्शक है।
फिलहाल कंटेंट माने खबर या पत्रकारीय सामग्री नहीं है। उसकी जगह विज्ञापन ने ले ली है। खबरें फिलर बन गई हैं। यानी महत्वपूर्ण हैं ब्रेक। ब्रेक और ब्रेक के बीच क्या दिखाया जाय ताकि दर्शक अगले ब्रेक तक रुका रहे। स्वाभाविक है कि इसकी जिम्मेदारी जिन लोगों पर है उनके जेहन में बाजीगरी आती है। अखबारों में महत्वपूर्ण चीज़ होती है डमी। डमी यानी वह नक्शा जो बताता है कि विज्ञापन लगने के बाद एडिटोरियल कंटेट कहाँ लगेगा। यहाँ भी खबरें फिलर बन गईं। दूसरी ओर ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो मीडिया पर विश्वास नहीं करते।
हमने बात की शुरूआत तरुण सहरावत से की थी। व्यक्तिगत रूप से तरुण के साहस की तारीफ की जा सकती है, पर यह काम जोखिम का है। दुनिया के तमाम पत्रकार जोखिम उठाकर काम करते हैं, पर उनके पीछे संस्थाएं होती हैं। जोखिम के असाइनमेंट पूरे करने की ट्रेनिंग और जंगलों में ताम करने के किट होते हैं। सारी बातें केवल भावनाओं और आवेशों से पूरी नहीं होतीं। पत्रकारिता से जुड़ी व्यावसायिक संस्थाओं को इसके लिए साधन मुहैया कराने होते हैं। हमारी पत्रकारिता के प्रफेशनल लेवल को ऊपर लाने की ज़रूरत है। चैनल की एंकर का जबर्दस्त मेकप, वॉर्डरोब या शानदार सैट और वर्च्युअल बैकड्रॉप प्रफेशनलिज्म नहीं होता। अखबारों का रूपांकन, रंगीन छपाई और चमकदार कागज भी नहीं। ये बातें पब्लिक रिलेशंस में काम आती होंगी। अच्छी पत्रकारिता में तमाम काम सादगी से हो सकते हैं। उनमें व्यावसायिक सफलता भी सम्भव है।
(शीर्ष पत्रकार वर्तिका नंदा के ब्लॉग vartikananda.blogspot.in से साभार)
पत्रकारों के क्लब को पब्लिक रिलेशंस पर कोर्स करने की ज़रूरत क्यों आ पड़ी? सम्भव है क्लब को चलाए रखने के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती हो। ऐसा कोर्स चलाने से दो काम हो जाते हैं। पैसा भी मिलता है और कुछ नौजवानों को दिशा-निर्देश भी मिल जाता है। पर पत्रकारिता और पब्लिक रिलेशंस एक चीज़ नहीं है। पब्लिक रिलेशंस और मीडिया मैनेजमेंट का व्यावहारिक मतलब है मीडिया का इस्तेमाल किस तरह किया जाए। इस अर्थ में उसका पत्रकारिता से टकराव है। वह पत्रकारिता का हिस्सा नहीं है। पत्रकारों को ट्रेनिंग देते समय यह बताने की ज़रूरत है कि वे पब्लिक रिलेशंस के महारथियों से किस तरह बचें और अपने काम पर फोकस करें। पिछले साल हम लॉबीइंग के खेल में फँसे रहे। हमने सारी तोहमत नीरा राडिया पर लगाई, पर वह तो अपना काम कर रही थीं। पत्रकारों को यह समझने की ज़रूरत थी कि उनका उद्देश्य क्या है। लगता है बहुत से पत्रकारों की समझ भी अपने कर्म को लेकर साफ नहीं है। मीडिया माने कुछ भी प्रकाशित और प्रसारित करना नहीं है। बिजनेस की बात करें तो वही माल बेचना चाहिए जिसकी डिमांड हो। और चूंकि डिमांड क्रिएट करना भी अब हमारे हाथ में है, इसलिए सारी बातें गड्ड-मड्ड हो गईं हैं।
जब हम अपने कंटेंट पर नज़र डालते हैं तो बात साफ होती है। पत्रकारिता पब्लिक रिलेशंस है, मनोरंजन है प्रचार भी। तीनों में पैसा है। सबसे ज्यादा पैसा तो विज्ञापन की कॉपी लिखने में है। वास्तव में यह पाठक को तय करना है कि उसे बेहतरीन कॉपी लिखने वाले विज्ञापन लेखक चाहिए या जीवन और समाज की विसंगतियों को उजागर करने वाले पत्रकार। पर पत्रकारिता का काम जन सम्पर्क नहीं है। ज़रूरत पड़े तो उसे जन भावनाओं के खिलाफ भी लिखना चाहिए। सच यह है कि समाज को प्रभावित करने वाले पत्रकार इस समय नज़र नहीं आते। राजनेताओं या कॉरपोरेट वर्ल्ड को पसंद आने वाले कुछ लोग हमारे बीच ज़रूर हैं, पर उनके प्रसिद्ध होने के कारण कुछ और हैं। पर जिसे नोबल प्रफेशन या श्रेष्ठ कर्म कहते थे वह पत्रकारिता अपने आप को जन सम्पर्क कहलाना पसंद करती है। दूसरी ओर हमें गर्व है कि तरुण सहरावत जैसे साहसी तरुण हमारे पास हैं जो इस कर्म को श्रेष्ठ कर्म साबित करने के लिए जान की बाजी लगा सकते हैं।
एक-डेढ़ साल पहले आईबीएन सीएनएन ने राडिया लीक्स और विकी लीक्स के बाद अपने दर्शकों से सवाल किया कि क्या पुराने स्टाइल के जर्नलिज्म को नए स्टाइल के मीडिया ने हरा दिया हैं? यह सवाल अपने पैनल से था और दर्शकों दर्शकों से भी। पर सोचने की बात तो पत्रकारों के लिए थी और उनके लिए भी जो इसका कारोबार करते हैं। क्या होता है पुराने स्टाइल का जर्नलिज्म? और क्या होती है नए स्टाइल की पत्रकारिता? सागरिका घोष का आशय नए मीडिया से था। सोशल मीडिया फेसबुक, ब्लॉग, ट्विटर वगैरह। पर ये तो मीडियम हैं, पत्रकारिता तो कंटेंट की होती है।
लगता है कि पुरानी पत्रकारिता को सबसे नए मीडिया यानी नेट ने सहारा दिया और परम्परागत प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने बिसरा दिया। क्या वजह है इसकी? एक बड़ी वजह कारोबार है। नेट पर जो कुछ लिखा जा रहा है उसके पीछे ध्येय कमाई करने का नहीं है। बेशक छोटा-मोटा प्रभाव और मामूली बिजनेस भी इसमें है, पर बड़े क़रपोरेट हित इससे नहीं जुड़े हैं। इसका मतलब यह कि सूचना की आज़ादी को बनाए रखने के लिए उसे कारोबारी हितों से बचाने की ज़रूरत होगी। और वह कारोबार है भी तो वह प्रत्यक्ष रूप से पत्रकारीय साख का कारोबार है, साख गिराने का कारोबार नहीं। यह भी सच है कि नए मीडिया की पत्रकारिता में जिम्मेदारी का भाव कम है, व्यक्तिगत आक्षेप लगाने की कामनाएं हैं, क्योंकि कानूनी पकड़ कम है।
नया मीडिया और उसकी तकनीक समझ में आती है, पर नई स्टाइल क्या? नई स्टाइल में दो बातें एकसाथ हो रहीं हैं। एक ओर पता लग रहा है कि पत्रकार और स्वार्थी तत्वों की दोस्ती है। दूसरी ओर ह्विसिल ब्लोवर हैं, नेट पर गम्भीर सवाल उठाने वाले हैं। दोनों में ओल्ड स्टाइल और न्यू स्टाइल क्या है? दोनों बातें अतीत में हो चुकी हैं। हमने बोफोर्स का मामला देखा। हर्षद मेहता और केतन मेहता के मामले देखे। कमला का मामला देखा, भागलपुर आँखफोड़ मामला देखा। यह भारत में हिकीज़ जर्नल से लेकर अब तक पत्रकारिता की भूमिका यही थी। नयापन यह आया कि मुख्यधारा का मीडिया यह सब भूल गया। कम से कम नए मीडिया ने यह बात उठाई। ओल्ड स्टाइल जर्नलिज्म को न्यू मीडिया ने सहारा दिया है।
यह सवाल अब बार-बार पूछा जाने लगा है कि पत्रकारिता क्या खत्म हो जाएगी? इसके मूल्य, सिद्धांत और विचार कूड़ेदान में चले जाएंगे? मनी और मसल पावर की ही जीत होगी? काफी लोगों को लगता है कि पत्रकारिता के सामने संकट है और इससे निकलने का रास्ता कोई खोज नहीं पा रहा है। इस कर्म से जुड़े ज्यादातर लोग यों किसी भी दौर में व्यवस्था को लेकर संतुष्ट नहीं रहे, पर इस वक्त वे सबसे ज्यादा व्यथित लगते हैं। खबरों को बेचना सारी बात का एक संदर्भ बिन्दु है, पर घूम-फिरकर हम इस बिजनेस के व्यापक परिप्रेक्ष्य को छूने लगते हैं। फिर बातें पूँजी, कॉरपोरेट कंट्रोल और राजनैतिक-व्यवसायिक हितों के इर्द-गिर्द घूमने लगती हैं। ऐसा भी लगता है कि हम बहुत सी बातें जानते हैं, पर उन्हें खुलकर व्यक्त कर नहीं पाते या करना नहीं चाहते। भारतीय भाषाओं का मीडिया पिछले तीन दशक में काफी ताकतवर हुआ है। यह ताकत राजनीति-समाज और बिजनेस तीनों क्षेत्रों में उसके बढ़ते असर के कारण है। पर तीनों क्षेत्रों में हालात तीन दशक पहले बाले नहीं हैं।
राजनीति-बिजनेस और पत्रकारिता तीनों में नए लोगों, नए विचारों और नई प्रवृत्तियों का प्रवेश हुआ है। राजनीति में अपराध और बिजनेस के प्रतिनिधि बढ़े हैं। अपराध का एक रूप यूपी और बिहार में नज़र आता है। इसमें अपहरण, हत्या, फिरौती वगैरह हैं। दूसरा रूप आर्थिक है। यह नज़र नहीं आता, पर यह हत्याकारी अपराध से ज्यादा खतरनाक है। यह गुलाबजल और चांदी के वर्क से पगा है। राजनीति में अपराधी का प्रवेश सहज है। वह सत्ता का सिंहासन लेकर चलती है। ऐसा ही मीडिया के साथ है। वह भी व्यक्ति के सामाजिक रुतबे और रसूख को बनाता है। पुराने पत्रकार को पाँच-सौ या हज़ार के नोट दिखाने के बजाय आज बेहतर तरीके मौज़ूद हैं। चैनल शुरू किया जा सकता है। अखबार निकाला जा सकता है।
पत्रकारिता नोबल प्रफेशन है। नब्बे फीसदी या उससे भी ज्यादा पत्रकार इसे अपने ऊपर लागू करते हैं। इसीलिए वे व्यथित हैं। और उनकी व्यथा ही इसे भटकाव से रोकेगी। पेड न्यूज़ पर पूरी तरह रोक लग पाएगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता, पर वह उस तरीके से ताल ठोककर जारी भी नहीं रह पाएगी। जिस पेड न्यूज़ पर हम चर्चा कर रहे हैं वह पत्रकारों की ईज़ाद नहीं है। यह पैसा उन्हें नहीं मिला। मिला भी तो कुछ कमीशन। एक या दो संवाददाता अपने स्तर पर ऐसा काफी पहले से करते रहे होंगे। पर इस बार मामला इंस्टीट्यूशनलाइज़ होने का था। इसका इलाज़ इंस्टीट्यूशनल लेवल पर ही होना चाहिए। यानी सरकार, इंडियन न्यूज़पेपर सोसायटी और पत्रकारों की संस्थाओं को मिलकर इस पर विचार करना चाहिए। सार्वजनिक चर्चा या पब्लिक स्क्रूटनी से इस मंतव्य पर प्रहार हुआ ज़रूर है, पर कोई हल नहीं निकला है। एक विडंबना ज़रूर है कि मीडिया जो पब्लिक स्क्रूटनी का सबसे महत्वपूर्ण मंच होता था, इस सवाल पर चर्चा करना नहीं चाहता। एक-दो अखबारों को छोड़ दें तो, ज्यादातर चर्चा मीडिया के बाहर हुई है। इस मामले के असली प्लेयर अभी तक सामने नहीं आए हैं। शायद आएंगे भी नहीं।
सम्पादक वह छोर है, जहाँ से प्रबंधन और पत्रकारिता की रेखा विभाजित होती है। सम्पादक कुछ व्यक्तिगत साहसी होते हैं, कुछ व्यवस्था उन्हें बनाती है। बहुत से तथ्य शायद अभी सामने आएंगे या शायद न भी आएं। पर इतना साफ है कि मीडिया की साख बनाने की जिम्मेदारी समूचे प्रबंधतंत्र की है। इनमें मालिक भी शामिल हैं। यह बात कारोबार की रक्षा के लिए ज़रूरी है। सामान्य पत्रकार कभी नहीं चाहेगा कि उसकी साख पर बट्टा लगे। इसमें व्यक्तिगत राग-द्वेष, महत्वाकांक्षाएं और दूसरे को पीछे धकेलने की प्रवृत्तियाँ भी काम करती हैं। पैराडाइम बदलता है, तब ऐसे व्यक्ति आगे आते हैं, जो खुद को संस्थान और बिजनेस के बेहतर हितैषी के रूप में पेश करते हैं। ऐसे अनेक अंतर्विरोध और विसंगतियां हैं।
इस मामले के दो प्रमुख सूत्रधारों की ओर हम ध्यान नहीं देते। एक मीडिया ओनरिशप और दूसरा पाठक या ग्राहक। देश के पहले प्रेस कमीशन ने मीडिया ओनरशिप का सवाल उठाया था। हम प्रायः दुनिया के दूसरे देशों का इंतज़ार करते हैं। या नकल करते हैं। कहा जाता है कि यही एक मॉडल है, हम क्या करें। पर हमें कुछ करना होगा। जो हालात हैं वे ऐसे ही नहीं रहेंगे। या तो वे सुधरेंगे या बिगड़ेंगे। तत्व की बात यह है कि यह सब किसी कारोबार का मसला नहीं है। यह काम हम पाठक-जनता या लोकतंत्र के लिए करते हैं।
चूंकि सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर पहल स्टेट और सिविल सोसायटी को लेनी होती है, इसलिए यह राजनेताओं और जन-प्रतिनिधियों के लिए भी महत्वपूर्ण विषय है। इसके कानूनी और सांस्कृतिक पहलू भी हैं। कानूनी व्यवस्था से भी सारी बातें ठीक नहीं हो जातीं। सार्वजनिक व्यवस्था में बीबीसी और जापान के एनएचके काम कर सकते हैं, पर हमारे यहां तमाम कानूनी बदलाव के बावजूद प्रसार भारती कॉरपोरेशन नहीं कर पाता। हमारा लोकतंत्र और व्यवस्थाएं इवॉल्व कर रहीं हैं। उसके भीतर से नई बातें निकलेंगी। नई प्रोसेस, नए चैक्स एंड बैलेंसेज़ और मॉनीटरिंग आएगी। शायद पाठक भी हस्तक्षेप करेगा, जो अभी तक मूक दर्शक है।
फिलहाल कंटेंट माने खबर या पत्रकारीय सामग्री नहीं है। उसकी जगह विज्ञापन ने ले ली है। खबरें फिलर बन गई हैं। यानी महत्वपूर्ण हैं ब्रेक। ब्रेक और ब्रेक के बीच क्या दिखाया जाय ताकि दर्शक अगले ब्रेक तक रुका रहे। स्वाभाविक है कि इसकी जिम्मेदारी जिन लोगों पर है उनके जेहन में बाजीगरी आती है। अखबारों में महत्वपूर्ण चीज़ होती है डमी। डमी यानी वह नक्शा जो बताता है कि विज्ञापन लगने के बाद एडिटोरियल कंटेट कहाँ लगेगा। यहाँ भी खबरें फिलर बन गईं। दूसरी ओर ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो मीडिया पर विश्वास नहीं करते।
हमने बात की शुरूआत तरुण सहरावत से की थी। व्यक्तिगत रूप से तरुण के साहस की तारीफ की जा सकती है, पर यह काम जोखिम का है। दुनिया के तमाम पत्रकार जोखिम उठाकर काम करते हैं, पर उनके पीछे संस्थाएं होती हैं। जोखिम के असाइनमेंट पूरे करने की ट्रेनिंग और जंगलों में ताम करने के किट होते हैं। सारी बातें केवल भावनाओं और आवेशों से पूरी नहीं होतीं। पत्रकारिता से जुड़ी व्यावसायिक संस्थाओं को इसके लिए साधन मुहैया कराने होते हैं। हमारी पत्रकारिता के प्रफेशनल लेवल को ऊपर लाने की ज़रूरत है। चैनल की एंकर का जबर्दस्त मेकप, वॉर्डरोब या शानदार सैट और वर्च्युअल बैकड्रॉप प्रफेशनलिज्म नहीं होता। अखबारों का रूपांकन, रंगीन छपाई और चमकदार कागज भी नहीं। ये बातें पब्लिक रिलेशंस में काम आती होंगी। अच्छी पत्रकारिता में तमाम काम सादगी से हो सकते हैं। उनमें व्यावसायिक सफलता भी सम्भव है।
(शीर्ष पत्रकार वर्तिका नंदा के ब्लॉग vartikananda.blogspot.in से साभार)
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