Wednesday, 17 July 2013

इस बगीची में बार-बार



जयप्रकाश त्रिपाठी

महान होने की पाठशाला तो हर मन में खुली होती है, प्रश्न ये घेरे रहता है कि वह मन किस किस्म की महानता का कायल है, खुद के लिए तथा बाकी सबके लिए। वह रचना का क्षेत्र हो, राजनीति का, समाज के किसी भी पक्ष-विपक्ष का। महान हिटलर भी होना चाहता था। कातिल के महान होने के अभिप्राय और कविता की गुनगुनी पंक्तियों के अर्थ का जो अंतर हमारे जीवन और विचारों की राह सुझाता है, वही से हम अलग-अलग चल पड़ते हैं। यहां फेस बुक पर रोजाना जितने किस्म की सामग्रियां परोसी जाती हैं, एक दिन उन्हीं पर निगाह गड़ा लें तो कई चीजें स्वयं साफ होती चली जाती हैं। एक कामना तो सामान्यतः सभी किस्म की रचनाओं में अंतरनिहित होती है कि उसका ही परोसा हर कोई   सरपोटे, जैसा कि संभव नहीं रहता हैं। हमे कविताएं भी ललचाती हैं, क्षणिकाएं और बहुरंगी चित्र भी, जिस प्रस्तुति में, जिसके हिस्से की चासनी जितनी सघन होती है, वह उतना उसमें लिप्त हो लेता है। अपने हिस्से की मिठास लूट ले जाता है, दूसरे के हिस्से का कसैलापन छोड़ जाता है।
हर तरह की विचार विथिकाओं में, हर तरह के मंचों पर, समूहों में जीवन इसी तरह के विविध रंग लेकर उतरता है, डोलता-थिरकता है और शब्दों-संवादों का आदान-प्रदान हमे आह्लादित-आंदोलित करता रहता है। ये बातें प्रसंगवश हैं, अनायास नहीं। जैसे हम कविताओं की रेलमपेल मचाये रहते हैं, नरेंद्र मोदी का जिक्र होते ही लिखने के लिए बेकाबू हो लेते हैं, एक-दूसरे की वाह-वाह करते, बाकी को हाशिये का कीड़ा-मकोड़ा जानते हुए आगे सरक लेते हैं, यह चाल बड़ी संदिग्ध-सी लगती है लेकिन जिजीविषा का क्रंदन ब़ड़ा बेहया होता है, उसका ताप किसी को भी अपनी लक्ष्मण रेखा से यूं सलामत नहीं निकल जाने देता है, क्योकि उसका एक लक्ष्य होता है। स्वांतः सुखाय हो तो कोई बात ही नहीं। आप क्यों अपने किस्म-किस्म के चेहरों, वस्त्रों, परिस्थियों के बेढंगेपन सामूहिक रूप से यहां साझा करना चाहते हैं, बेतुके बलगम परोसते हुए अपना समय जाया करते रहते हैं, और किंचित अन्यों का भी।
खैर, सबका अपना-अपना मन, अपनी-अपनी जीवन जीने की कला, अपनी-अपनी आदत, जैसा जी में आये करे, उन्हें और कोई रोकने वाला होता कौन है, लेकिन सच को उसके चेहरे की रंगिमा-भंगिमा में उतर आने देना, सार्वजनिक हो लेने देना भी कोई अन्यथा का उपक्रम नहीं। टालस्टॉय और गोर्की हर समय उपन्यास और कहानियां ही नहीं  लिखते थे, न ब्लॉग, फेसबुक और ट्विटर के दुनियादार चौबीसो घंटे यहीं पर मंडराते रहते हैं। मनजौक भी हो, लेकिन दाल में नमक जैसी। सब लार-पोटा यही बरसा देने का इरादा इस मंच को भी अभिशप्त सा करने लगता है, शायद!    

No comments:

Post a Comment