बजरंग बिहारी तिवारी
सन् 1857 इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों, राजनीतिशास्त्रियों के साथ साहित्यकारों का भी प्रिय विषय रहा है. कई उपन्यास व तमाम कहानियां प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के इर्द-गिर्द बुनी गई हैं. वरिष्ठ कथाकार सूर्यपाल सिंह का उपन्यास आंच इसी कड़ी को आगे बढ़ाने का काम करता है. सृजन की एक परंपरा में होते हुए भी आंच के सरोकार नए हैं.
अवध में अंग्रेजी राज कायम होना, नवाब वाजिद अली शाह की बेदखली, दिल्ली में बहादुरशाह जफर को बंदी बना कर रंगून भिजवाना उपन्यास के पूर्वपरिचित कथा-पड़ाव हैं. उपन्यास में दोनों चरित्रों को ऐसे पेश कि या गया है कि उनकी हालत करुणा उपजाती है. स्थापित साक्ष्यों को बरकरार रखना ऐतिहासिक उपन्यास लेखन की शर्तों में शामिल है. पहले से ज्ञात घटनाक्रम सृजनात्मक कल्पना के अवसर क्षीण कर देते हैं. ऐसे में साहित्य और इतिहास की रचनाधर्मी संगति बना पाना खासा कठिन होता है. सूर्यपाल ने इसके लिए पूरी कोशिश की है. तथ्यों से छेड़छाड़ किए बगैर. उपन्यास में बद्री, हम्जा, ईमान और मौलवी फखरुद्दीन जैसे पात्र सूर्यपाल की ही सृष्टि हैं.
पर उपन्यास का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष बेगम हजरत महल का जीवन है. नवाब वाजिद अली शाह के अंतःपुर की इस अज्ञातकुल औरत के साथ उपन्यासकार ने भरसक न्याय किया है. तवायफों के एक कोठे की मालकिन अमामन को कहीं से एक लड़की मिली. उन्होंने उसे नाम दिया आयशा. कोठे की रस्म के मुताबिक नाचना-गाना सिखाया. उसकी आवाज और घुंघरू की लय नवाब के कानों तक पहुंची. शाही महल पर बुलावा हुआ. वाजिद अली उसकी कलादक्षता और खूबसूरती पर रीझ गए और नाम दिया महकपरी. नवाब ने उससे निकाह भी कर लिया.
फिर नाम बदला इफ्तिखारुन्निसा बेगम. कोठे से छूटी आयशा परीखाने में कैद हो गई. उसने बेगमों की ‘घाघरा पलटन’ बनाई. इफ्तिखारुन्निसा ने मल्लिका-ए-आलिया से वचन ले लिया कि नवाब नई शादी नहीं करेंगे. नवाब का मन फिर एक बांदी पर आया. मलिका से उन्हें अनुमति न मिली. खैर, इफ्तिखारुन्निसा ने नवाब के बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम पड़ा बिर्जीस कद्र. मां बनने के बाद इफ्तिखारुन्निसा को नया नाम मिला-हजरत महल. पहले ही महल से निकाली जा चुकीं हजरत महल ने परीखाने में वापसी से इनकार कर दिया. लखनऊ में विद्रोहियों और अंग्रेजी फौज में युद्ध चल पड़ा. पंचायत बैठी और हजरत महल की हिम्मत ने उनके बेटे बिर्जीस कद्र को गद्दीनशीन किया. नाबालिग बिर्जीस की संरक्षिका हजरत महल को बनाया गया. उन्होंने शासन अपने हाथ में लिया. अवध के सभी राजाओं और बागियों को इकट्ठा कर अंग्रेजी सेना को भरपूर टक्कर दी.
इस उपन्यास में सूचनाएं और विवरण खूब हैं. कई बार लगता है कि यह कोई कथा-कृति नहीं है. लेकिन उपन्यासकार कथा-अन्विति को फिर-फिर जोड़ देता है. आजमगढ़ से लेकर कानपुर तक हजरत महल की सघन सक्रियता आंच का प्राणतत्व है. अवाम के बीच से राजमहल तक पहुंची इस स्त्री का रेखांकन भारतीय इतिहास में युगांतर की सूचना है. हजरत महल की यह कहानी क्षेपक की तरह जोड़े गए पहले अध्याय ‘अथ जिज्ञासा’ की अनु नामक पात्र की जबानी पेश की गई है. नाना की बेटी, महिला सेना की प्रमुख नैना, स्वतंत्रता सेनानियों की मदद करने वाली अजीजन बाई, ऊदा देवी, झलकारी बाई, लक्ष्मी बाई आदि चरित्रों को जोड़ दें तो यह उपन्यास 1857 को स्त्री-दृष्टि से, स्त्री-चरित्रों के माध्यम से रचता है. (आजतक से साभार)
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