Tuesday, 16 July 2013

जब फूट-फूट कर रोये थे हरिवंश राय बच्चन


जयप्रकाश त्रिपाठी

मैंने एक बार महाकवि हरिवंश राय बच्चन को सिसकियां भरते हुए देखा-सुना है तो उनकी एक मधुर आपबीती आंसुओं से सराबोर सुनी है हल्दीघाटी के रचनाकार श्यामनारायण पांडेय से।

उन दिनो मंचों पर पांडेय और बच्चन बड़े लोकप्रिय हुआ करते थे। साथ-साथ जाते थे। कालांतर में यह सिलसिला तब टूट गया था जब दोनो महाकवियों ने उम्र के दबाव में अपने-अपने जीवन के रास्ते मंचों से दूर कर लिये थे। पांडेय फिर भी उम्र के अंतिम पड़ाव  तक मंचों के निकट रहे लेकिन बच्चन अपने अभिनेता पुत्र के साथ हो लिये थे।

पांडेय जी के साथ मैं भी अक्सर कविमंचों पर जाया करता था। उनसे घरेलू परस्परता का भी अवसर मिला था, इसलिए वह मुझे अक्सर राह चलते, अपने घर में बैठे हुए, खेतों की मेड़ों पर टहलते हुए या सुदूर के सफर में अपने अतीत के रोचक-रोमांचक प्रसंग सुनाया करते थे।

एक दिन उन्होंने बच्चनजी के साथ की वह रोचक आपबीती कुछ इस तरह साझा की थी...

देवरिया में कविसम्मेलन हो रहा था। दोनो (बच्चन और पांडेय) मंचासीन थे। पहले बच्चनजी को काव्यपाठ करने अवसर मिला। उन्होंने कविता पढ़ी- ' महुआ के नीचे फूल झरे, महुआ....'।

उऩके बाद पांडेयजी ने काव्यपाठ के लिए जैसे ही माइक संभाला, बच्चनजी के लिए अत्यंत अप्रिय टिप्पणी बोल गये- 'अभी तक आप लोग गौनहरियों के गीत सुन रहे थे, अब कविता सुनिए...'

इतना सुनते ही बच्चनजी अत्यंत रुआंसे मन से मंच से उठकर अतिथिगृह चले गये। अपनी कविता समाप्त करने के बाद जब पांडेयजी माइक से हटे तो सबसे पहले उनकी निगाहें बच्चनजी को खोजन लगीं। वह मंच पर थे नहीं। अन्य कवि से उन्हें जानकारी मिली कि बच्चन जी तो आपकी टिप्पणी से दुखी होकर उसी समय मंच छोड़ गये। उसी क्षण पांडेय जी भी मंच से चले गये बच्चनजी के पास अतिथिगृह। जाड़े का मौसम था। बच्चनजी रजाई ओढ़ कर जोर-जोर से रोते हुए मिले। पांडेय जी समझ गये कि यह व्यथा उन्हीं की दी हुई है। बमुश्किल उन्होंने बच्चन जी को सहज किया। खुद पानी लाकर उनकर मुंह धोये। रो-रोकर आंखें सूज-सी गयी थीं।
 
बच्चनजी बोले- पांडेय मेरे इतने अच्छे गीत पर कवियों और श्रोताओं के सामने इतनी घटिया टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थे।

पांडेयजी के मन से वह टीस जीवन भर नहीं गयी। लगभग तीन दशक बाद उस दिन संस्मरण सुनाते हुए वह भी गमछे से अपनी भरी-भरी आंखें पोछने लगे थे।


पांडेय-बच्चन का दूसरा संस्मरण उस समय का जब अमिताभ बच्चन कुली फिल्म की शूटिंग के दौरान घायल हो गये थे। दो दिन पहले अस्पताल से अपने मुंबई स्थित आवास पर स्वास्थ्य लाभ के लिए लौटे थे।

मुंबई में जुहू-चौपाटी पर अखिल भारतीय कविसम्मेलन आयोजित किया गया था। पांडेयजी के साथ मैं भी गया था। कविसम्मेलन के अगले दिन होटल में कवियत्री माया गोविंद पांडेय जिसे मिलने पहुंचीं। उनका आग्रह था कि वह अपने मंचों के साथी बच्चनजी से अवश्य मिल लें। इस समय उनका बेटा घायल है। पांडेयजी अपने बूढ़े शरीर से लाचार थे। किसी तरह तो बंबई पहुंच पाये थे। वह जाने के कत्तई मूड में  नहीं थे। उन्होंने निर्विकार भाव से जाने से इनकार कर दिया। जिस समय माया गोविंद आग्रह कर रही थीं, अंदर-ही-अंदर मेरा भी मन बच्चनजी को देखने के लिए मचल उठा था। सो, इसलिए भी कि पांडयेजी से उनके संबंध में मैंने अनेकशः कथाएं सुन रखी थीं। पांडेय जी से आग्रह के बाद माया गोविंद एक-दो मिनट के लिए वहां से कहीं इधर-उधर हो गयीं। उसी बीच मैंने उनसे बच्चनजी से मिल लेने का यह कहते हुए आग्रह किया कि दोबारा आप का बंबई आना नहीं हो सकेगा। मायाजी ने कार का भी इंतजाम कर दिया है। पांडेय जी पता नहीं क्या सोचकर तुरंत चलने के लिए तैयार हो गये। इस बीच माया गोविंद भी आ गयीं।

दरअसल, माया गोविंद का मुख्य उद्देश्य कृष्ण-सुदामा में मुलाकात करना नहीं, अपने प्रवासी दामाद (जैसाकि उन्होंने बाद में विचलित होकर भेद खोल दिया था) को अमिताभ बच्चन के दर्शन कराना चाहती थीं।

बच्चनजी से तुरंत फोन पर उन्होंने संपर्क किया। तुरंत के लिए मुलाकात तय हो गयी। चटपट कार से पांडेयजी के साथ मैं, माया गोविंद और उनके दामाद अमिताभ बच्चन के घर पहुंचे। बच्चनजी खाना खा रहे थे। गेट के अंदर कार से उतरते ही बच्चनजी दायी हथेली पर जूठन लपटे पांडेय जी से लिपट गये। जूठन की भरपूर छाप पांडेयजी के जैकेट पर। उन्हें क्या पता! सब लोग बच्चनजी के पीछे-पीछे उनके ड्राइंग रूम में पहुंचे।

उस दौरान भी माया गोविंद की आंखें अचकचा-अचकचा कर अमिताभ के दर्शन के लिए बेचैन हो रही थीं। मैने उनके दामाद की विकलता का एहसास नहीं किया था। तब तक मुझे पता भी नहीं था कि साथ आये सज्जन उनके दामाद हैं। खैर, उस समय अमिताभ बच्चन अपने लान में स्थित छोटे से मंदिर में टंगा घंटा बजा कर पूजा कर रहे थे। मैंने बड़े गौर से देख लिया था कि वह हम लोगो के ड्राइंग रूम की ओर बढ़ते समय आहिस्ते से अपने शीशे की दीवारों के पार सीढ़ियों तक पहुंच कर अंदर जा चुके थे।

चाय-नाश्ते के दौरान माया गोविंद ने कई बार स्वयं उतावलेपन में बच्चनजी से अमिताभ तक पहुंचने की इच्छा जतायी लेकिन दोनो बुजुर्ग कविमित्र उन्हें अंत तक अनसुना करते रहे और बात इतने पर खत्म हो गयी कि 'अमिताभ अब ठीक है..'। मायाजी मन मसोस कर रह गयीं। शायद मैं भी। अमिताभ को देखने की ललक तो थी ही, लेकिन मेरे लिए बच्चनजी और पांडेयजी की मुलाकात ज्यादा सुखद और अकल्पनीय सी लग रही थी।

बाहर निकलते समय कार में बैठने से पहले बच्चनजी एक बार फिर एक अविस्मरणीय बात कहते हुए लिपट गये कि 'अच्छा तो पांडेय, चलो अब ऊपर ही मुलाकात होगी।' दोनो फिर आंखें भर कर खूब उदास हो गये थे। उस समय अमिताभ शीशे की दीवार के पीछे दुबके हुए से ये देखने की कोशिश कर रहे थे कि बाबूजी इतनी आत्मीयता से जिससे लिपट रहे हैं, वह आखिर है कौन!

उस दिन बच्चनजी ने पांडेयजी से अमिताभ बच्चन और अपने परिवार के संबंध में कई बातें साझा की थीं।

उनके और भी संस्मरण फिर कभी.......

3 comments:

  1. बहुत बेहतरीन संस्मरण !

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  2. इतना शानदार और भावप्रवण संस्मरण लिखने के लिए आपको बहुत बधाई त्रिपाठी जी।

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