पाकिस्तान के सिंध राज्य में रहने वाली तरक्की पसंद अदीबा, शायरा फहमीदा रियाज 'गुफ्तगू' से बातचीत में बताती हैं- 'जो मन में आता है लिख देती हूं. बाद में कई बार लोग बुरा-भला भी कहते हैं जिससे तकलीफ़ होती है. एक लड़की होना हमारे समाज में एक ऐसी चीज़ है जो समझ से परे है. लड़कियों को इंजॉय करने की समाज इजाज़त नहीं देता. हिन्दोस्तान में जितनी आज़ादी औरतों को हासिल है, पाकिस्तान में नहीं है.
मैं तो कुछ लिख भी देती हूं, लेकिन समाज अभी भी दकियानूसी दौर में जी रहा है. ... मैं हिन्दोस्तान इसलिए आयी थी कि यह एक सेक्युलर मुल्क है, लेकिन यह सब ख्वाब था. मैंने यहां के सांप्रदायिक माहौल पर एक नज़्म ‘नया भारत’ लिखा. इस पर इतना बड़ा हंगामा हुआ कि पूछिये मत. दो दिन बाद मेरी फ्लाइट थी. मैं सोच नहीं पा रही थी कि क्या करूं. फिर मैं पाकिस्तान वापस चली गयी. वह नज़्म हमें कुछ कुछ याद आ रहा है.....नया भारत
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले/अब तक कहां छुपे थे भाई।
वह मुरखता वह घामड़पन,/जिसमें हमने सदियां गंवायी।
आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे,/अरे बधाई, बहुत बधाई।
प्रेत धर्म का नाच रहा है, कायम हिन्दू राज करोगे।
सारे उलटे काज करोगे, अपना चमन ताराज़ करोगे।
तुम भी बैठे राज करोगे,/सोचा कौन है हिन्दू कौन नहीं है।
तुम भी करोगे फतवा जारी,/अरे बधाई बहुत बधाई।
एक जाप सा करते जाओ,/बारम-बार यही दुहराओ।
कितना वीर महान था भारत/कैसा आलीशान था भारत।
प्रेत धर्म का नाच रहा है/अरे बधाई बहुत बधाई
'कुछ लोग है जिन्हें असल मज़हब के मायने नहीं पता है. इन लोगों को कौन बताये कि मज़हब लोगों को अलम करने के लिए नहीं है, बल्कि लोगों को जोड़ने के लिए आया है. यही सोच मार्क्स का भी है सांप्रदायिक सदभाव और मार्क्सवाद असल में एक ही चीज़ है. दोनों इन्सान को इन्सान बनाना सिखाता है और समाजी बराबरी की सीख देता है.
'अफगानिस्तान में तालिबान की ज़ालिमाना हरक़त को पूरी दुनिया जानती है. उन्होंने वहां के तारीख को मिटाना चाहा. ‘बुद्ध’ जो शान्ति की अलामह है, उनकी मूर्ति को खाक में मिला दिया. इस पर मैंने एक नज़्म लिखी थी. मोजस्सेमा गिरा मगर ये दास्तां अभी तमाम तो नहीं हुयी दिया कई बरस तैय हुये. लिखेगा दिन को आदमी/बरंगे आबो जुस्तजू/ वह हुस्न की तलाश में/वह मुन्सफ़ी की आस में/खुली है सड़क खुल गयी दुकां में कितना माल है/दुकां में दिलबरी नहीं/मकां में मुन्सिफ़ी नहीं/ अभी तो हर बला नयी/अभी है काफ़ले रवां/गुलों मे नस्ब है निशा।/मुजस्सेमा गिरा मगर/जमीं पे ज़िन्दगी दुकां के नाम पर नहीं हुयी/हमारी दास्तान अभी तमाम पर नहीं हुयी.'
मैं तो कुछ लिख भी देती हूं, लेकिन समाज अभी भी दकियानूसी दौर में जी रहा है. ... मैं हिन्दोस्तान इसलिए आयी थी कि यह एक सेक्युलर मुल्क है, लेकिन यह सब ख्वाब था. मैंने यहां के सांप्रदायिक माहौल पर एक नज़्म ‘नया भारत’ लिखा. इस पर इतना बड़ा हंगामा हुआ कि पूछिये मत. दो दिन बाद मेरी फ्लाइट थी. मैं सोच नहीं पा रही थी कि क्या करूं. फिर मैं पाकिस्तान वापस चली गयी. वह नज़्म हमें कुछ कुछ याद आ रहा है.....नया भारत
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले/अब तक कहां छुपे थे भाई।
वह मुरखता वह घामड़पन,/जिसमें हमने सदियां गंवायी।
आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे,/अरे बधाई, बहुत बधाई।
प्रेत धर्म का नाच रहा है, कायम हिन्दू राज करोगे।
सारे उलटे काज करोगे, अपना चमन ताराज़ करोगे।
तुम भी बैठे राज करोगे,/सोचा कौन है हिन्दू कौन नहीं है।
तुम भी करोगे फतवा जारी,/अरे बधाई बहुत बधाई।
एक जाप सा करते जाओ,/बारम-बार यही दुहराओ।
कितना वीर महान था भारत/कैसा आलीशान था भारत।
प्रेत धर्म का नाच रहा है/अरे बधाई बहुत बधाई
'कुछ लोग है जिन्हें असल मज़हब के मायने नहीं पता है. इन लोगों को कौन बताये कि मज़हब लोगों को अलम करने के लिए नहीं है, बल्कि लोगों को जोड़ने के लिए आया है. यही सोच मार्क्स का भी है सांप्रदायिक सदभाव और मार्क्सवाद असल में एक ही चीज़ है. दोनों इन्सान को इन्सान बनाना सिखाता है और समाजी बराबरी की सीख देता है.
'अफगानिस्तान में तालिबान की ज़ालिमाना हरक़त को पूरी दुनिया जानती है. उन्होंने वहां के तारीख को मिटाना चाहा. ‘बुद्ध’ जो शान्ति की अलामह है, उनकी मूर्ति को खाक में मिला दिया. इस पर मैंने एक नज़्म लिखी थी. मोजस्सेमा गिरा मगर ये दास्तां अभी तमाम तो नहीं हुयी दिया कई बरस तैय हुये. लिखेगा दिन को आदमी/बरंगे आबो जुस्तजू/ वह हुस्न की तलाश में/वह मुन्सफ़ी की आस में/खुली है सड़क खुल गयी दुकां में कितना माल है/दुकां में दिलबरी नहीं/मकां में मुन्सिफ़ी नहीं/ अभी तो हर बला नयी/अभी है काफ़ले रवां/गुलों मे नस्ब है निशा।/मुजस्सेमा गिरा मगर/जमीं पे ज़िन्दगी दुकां के नाम पर नहीं हुयी/हमारी दास्तान अभी तमाम पर नहीं हुयी.'
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