Thursday, 15 January 2015

जंगल-मंगल/जयप्रकाश त्रिपाठी

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जो कुछ है, इतना बस है, लगता है, ये भी बरबस है
सब झूठे-झूठे शब्दों-सा अब भी वो क्यों जस-का-तस है
जैसे हर कोई घिरा हुआ, जो बचा हुआ, क्यों गिरा हुआ
जंगल-जंगल जन दुखियारे, बस मंगल-मंगल सर्कस है
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