Monday, 12 January 2015

थोथे मुद्दे छोड़े समाज/प्रीतीश नंदी

आप ऐसे कितने हिंदुओं से रोज मिलते हैं, जो बाहर जाकर मुस्लिमों और ईसाइयों का धर्मांतरण करना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ये लोग भारत को लेकर उनके मन जो तस्वीर है उसके लिए खतरा हैं? आप ऐसे कितने मुस्लिमों को जानते हैं, जो पाकिस्तान के प्रति वफादारी का दावा करते हैं और आतंकी हमलों का समर्थन करते हैं? मैं मोहमेडन स्पोर्टिंग फुटबॉल टीम को समर्थन देने या पाकिस्तानी पॉप गायक व अभिनेता आतिफ असलम का प्रशंसक होने की बात नहीं कर रहा हूं.

धर्म परिवर्तन : आप ऐसे कितने सिखों को जानते हैं, जो 1984 के दंगों को लेकर अब भी इतने नाराज हैं कि वे अलग होकर नया खालिस्तान बनाना चाहते हैं, भारत से खूनी बदला लेना चाहते हैं? हां, वे न्याय जरूर चाहते हैं. वे दोषियों को दंडित होते देखना चाहते हैं, लेकिन ये दोनों समान बातें नहीं हैं. आप विदेशी मिशनरियों सहित ऐसे कितने ईसाइयों से मिले हैं, जिन्होंने पैसे या अन्य किसी चीज का लालच देकर आपको ईसाई बनाना चाहा? हां, यदि आप किसी ईसाई स्कूल में पढ़ें हों तो आपको नैतिक शिक्षा की कक्षा में हाजिर रहना पड़ता है, जिसमें बाइबल की कहानियां सुनाई जाती हैं. हालांकि, आपके सामने ऐसे स्कूल में न जाने का विकल्प हमेशा खुला होता है. ठीक वैसे जैसे मुस्लिमों के सामने मदरसे में न पढ़ने का विकल्प मौजूद होता है.
भारत में धर्म हमेशा से व्यक्तिगत चुनाव का विषय रहा है. इस देश में रहने की सर्वश्रेष्ठ खासियतों में से एक यह है. यदि आप किसी चीज का चुनाव नहीं करते तो किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह आपको उन चीजों में भरोसा करने पर मजबूर करे. जिन लोगों को मैं या आप जानते हैं अथवा रोज की जिंदगी में मिलते हैं, अपने चुनने के अधिकार का उपयोग करते हैं. जहां तक आस्था की बात है और ऐसा वे बहुत नामालूम तरीके से, सरलता और पूरी गरिमा के साथ करते हैं. उन्होंने हमेशा से ऐसा ही किया है. मेरे जैसे कुछ लोगों ने आस्था से मुक्त रहने का चुनाव किया, क्योंकि धर्म कोई ऐसी चीज नहीं है कि जिससे हम अपने आप को परिभाषित करते हैं.
हम तो अपने विचारों, अपने सपनों या अपनी उम्मीदों से परिभाषित होते हैं. हम जो होना चाहते हैं, उसी से परिभाषित होते हैं. मैं कोलकाता में पला-बढ़ा हूं, जहां क्रिसमस की शाम को हर कोई सेंट पॉल कैथेड्रल में जाता था. हिंदू, मुस्लिम, सिख, यहूदी, कभी-कभार कोई पारसी या आर्मेनियाई. चीनी लोग भी सर्विस में शामिल होते थे, इसलिए नहीं कि उन्हें कोई लालच दिया जाता था बल्कि वे इसलिए जाते थे, क्योंकि वहां दिए जाने वाले शांति और सद्‌भावना के संदेश का अनुभव उन्हें आनंदित करता था. ठीक वैसे जैसे पश्चिम बंगाल में हर कोई दुर्गा पूजा मनाता है और फिर धर्म कोई भी क्यों न हो माता के पैरो में गिर जाता है. कुछ महान शास्त्रीय संगीतकारों व गायकों को निकट से जानने का सौभाग्य मुझे मिला है. वे काली माता के भक्त थे, फिर चाहे वे धर्म से निष्ठावान मुस्लिम ही क्यों न हों. यह उस समय का जादू था. आपने चाहे किसी भी धर्म में जन्म लिया हो या आप किसी भी धर्म के क्यों न हो, लेकिन आप जिस चीज में विश्वास करते थे, वह आपका अपना चुनाव होता था. अपनी पसंद होती थी.
कोलकाता में सांप्रदायिक दंगे दुर्लभ ही थे. एक बार ऐसे ही दंगों के दौरान डागर बंधु (यदि मुझे सही याद  रहा है) ठुमरी गाने के लिए जा रहे थे. जैसा कि उन दिनों प्रचलन था, संगीतकार (चाहे कितने ही प्रसिद्ध, कितने ही खास क्यों न हो) अपने वाद्य साथ ले जाते थे, तो वे भी ले जा रहे थे. जल्दी ही उन्होंने खुद को दो हिंसक गुटों के बीच पाया. दोनों पक्षों ने जैसे ही उन्हें वाद्य-यंत्रों के साथ देखा वे थम गए व अलग हो गए और उन्हें संगीत सम्मेलन में जाने के लिए रास्ता दे दिया. कलाकारों के प्रति लोग ऐसा सम्मान व्यक्त करते थे. धर्म तो टकराव का कोई फौरी कारण हुआ करता था, जो यह देखते हुए असामान्य भी नहीं कहा जा सकता कि विभाजन में बंगाल के दो टुकड़े हुए थे पर धर्म आधारित विभाजन से गुजरने के बाद भी दोनों समुदायों में धर्म के मामले में शायद ही कभी संघर्ष हुआ हो.
बांग्लादेश, पाकिस्तान से अलग हो गया. धार्मिक समानता उन्हें जोड़कर नहीं रख सकी. नए राज्य को जिस चीज ने एकजुट रखा, वह था बांग्ला भाषा से उनका प्रेम. इसी प्रेम ने हिंदू और मुस्लिमों को एक रखा. यदि आप उथल-पुथलभरे उन दिनों का काव्य पढ़ें, आप इस्लाम को वहां नदारद पाएंगे. केवल आज़ादी के लिए अभिभूत कर देने वाला प्रेम वहां मौजूद था. आज़ादी की इसी तलाश ने पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांटकर बांग्लादेश का निर्माण किया. धर्म, जिसके आधार पर पाकिस्तान बना था, हाशिये पर रह गया. मेरे माता-पिता विभाजन के भयावह दंगों के साक्षी बने थे, लेकिन मैंने कभी अपने बचपन में उन पर उन्हें चर्चा करते नहीं सुना. वे इसे लब्जों पर न लाई जा सकने वाली ऐसी त्रासदी समझते थे, जिसमें न तो कोई हीरो था न कोई विलैन. उस जमाने के सारे बंगाली साहित्य का यही रुख था.
न तो हिंदुओं ने और न मुस्लिमों ने ऐसा कुछ लिखा, जिसमें हिंसा के लिए दूसरे समुदाय को जिम्मेदार ठहराया हों. दोष दिया हों. उन्होंने त्रासदी को त्रासदी की तरह देखा. धर्म की इसमें कोई भूमिका नहीं थी. यही वजह रही कि जब बांग्लादेश जन्म ले रहा था तो सीमा के इस तरफ हर बंगाली ने फिर चाहे हिंदू हो या मुस्लिम, संघर्ष को समर्थन दिया. आज़ादी बड़ा उद्‌देश्य था. ठीक वैसे जैसे आज हममें उम्मीद होनी चाहिए जब आज हम भारत को उस भ्रष्टाचार व अपराध से मुक्त करने के निर्माण-पथ पर आगे बढ़ रहे हैं, जिसका कांग्रेस प्रतीक बन गई थी. क्या वाकई इसका कोई महत्व है कि निर्माण कौन कर रहा है?
क्या हमें मूर्खतापूर्ण, अप्रासंगिक मुद्‌दों को लेकर रास्ते से भटकने की बजाय इस व्यापक बहस पर केंद्रित नहीं होना चाहिए कि भारत के लिए वास्तविक बदलाव किस चीज से आएगा? ये निरर्थक मुद्‌दे हमारा भविष्य परिभाषित करने में कोई भूमिका निभाने से तो रहे. किसे परवाह है कि हमारे स्कूलों में संस्कृत पढ़ाई जाती है या नहीं. कोई मूर्ख यदि आईएसआईएस के साथ संघर्ष में शामिल होने विदेश जाता है तो कैसी चिंता? इसकी बजाय आइए, हम यहां आतंकवाद से लड़ने पर ध्यान केंद्रित करें.
इससे भी महत्वपूर्ण बात तो यह है कि हम महिलाओं के साथ सद‌व्यवहार करना सीखें. आइए, हम अपने बच्चों की तस्करी होने से रोकें. घोर भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए संघर्ष करें. आइए, हमारे सपनों के ऐसे भारत का निर्माण करें, जहां लोग गरीबी और पिछड़ेपन से मुक्त हों, जहां पर्यावरण का सम्मान किया जाता हो और उसी तरह प्रतिभाओं का भी, फिर वह कहीं से भी क्यों न आती हों. तो आइए, अधिक वृहद विचार-विमर्श पर ध्यान केंद्रित रखें. सच्चा बदलाव तो वही है. धर्म अपनी परवाह खुद कर लेगा.
('रविवार' से साभार)

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