Thursday, 8 January 2015

नई सरकार, अच्छे दिन और मुगालते / कुलदीप कुमार

जिन लोगों को यह मुगालता था कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े अनेक संगठन हाशिये पर चले जाएंगे क्योंकि मोदी को पता है कि आर्थिक विकास तभी संभव है जब समाज में शांति हो, अब उनका यह मुगालता दूर हो जाना चाहिए। अरुण शौरी और मधु किश्वार जैसे मोदी के प्रशंसकों का कुछ अन्य कारणों से मोहभंग हो रहा है और ‘मोदीनामा’ लिखकर और मोदी के पक्ष में धुआंधार प्रचार करके (कु)ख्याति अर्जित करने वाली मधु किश्वार को अब यह संदेह होने लगा है कि मोदी पर काला जादू कर दिया गया है। जब विकासशील समाज अध्ययन केंद्र जैसे प्रतिष्ठित शोध संस्थान में प्रोफेसर के पद पर आसीन व्यक्ति काले जादू की बात करे तो स्वाभाविक तौर पर आश्चर्य तो होता ही है।
इस समय मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी में ज़िम्मेदारी के पदों पर बैठे लोग रोज जिस तरह के बयान दे रहे हैं, वे इस बात का प्रमाण हैं कि ‘सामाजिक समरसता’ और ‘सांप्रदायिक सद्भाव’ की बातें करने वाले इन लोगों के असली उद्देश्य इनसे ठीक उल्टे हैं। अगर देश की विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ‘गीता’ को ‘राष्ट्रीय ग्रंथ’ घोषित कराना चाहती हैं और कह रही हैं कि इस बारे में केवल औपचारिक घोषणा होना ही बाकी है, तो इसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि आज भी देश में संविधान का शासन है और संविधान भारत को एक “प्रभुसत्तासंपन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणतन्त्र” के रूप में परिभाषित करता है। भले ही आरएसएस और विश्व हिन्दू परिषद का लक्ष्य भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना है, लेकिन अभी वह बना नहीं है। संविधान का पालन करने की शपथ लेकर मंत्री बनने वालों को इस बुनियादी सचाई को भूलना नहीं चाहिए। लेकिन हकीकत यह है कि पिछली मई में सत्ता में आने के बाद से भारतीय जनता पार्टी के नेता और समर्थक कुछ इस तरह का बर्ताव कर रहे हैं जैसे इतिहास में पहली बार किसी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत मिला हो। इन दिनों नरेंद्र मोदी की आलोचना करने को प्रधानमंत्री पद का अपमान बताया जाता है। ये लोग भूल जाते हैं कि भारतीय संसदीय लोकतन्त्र के इतिहास में जैसा जनादेश राजीव गांधी को मिला था, वैसा आज तक किसी को नहीं मिला। लेकिन जब भाजपा नेता संसद में और संसद के बाहर ‘गली-गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है’ के नारे लगाते थे, तब किसी को यह ख्याल नहीं आया कि यह प्रधानमंत्री पद का अपमान है। न तब जब लालकृष्ण आडवाणी मनमोहन सिंह को देश का सबसे ‘निकम्मा प्रधानमंत्री’ बताया करते थे।
बहरहाल, संविधान के अनुसार देश के सभी नागरिक समान हैं चाहे उनके धर्म, जाति, क्षेत्र, लिंग और समुदाय कुछ भी क्यों न हों। अस्पृश्यता कानूनन अपराध है क्योंकि उसका आधार जन्म के आधार पर किसी जातिविशेष को नीच और अछूत मानना है। इसी तरह लिंग के आधार पर भी किसी को श्रेष्ठ या हीन नहीं माना जा सकता। लेकिन ‘गीता’ में कृष्ण अर्जुन से क्या कहते हैं? “मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः। स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्‌।।” (हे अर्जुन, मेरा आश्रय करके स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र अथवा अंत्यज आदि जो पापयोनि वाले हैं, वे भी परम गति को प्राप्त होते हैं।) यह कहने से पहले वे अर्जुन को यह बता चुके होते हैं:  "चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः" (गुण कर्म के विभाग से मैंने ही चारों वर्णों को उत्पन्न  किया है). तो क्या हम अब मान लें कि  वर्णव्यवस्था ईश्वरीय विधान है और स्त्रियां, वैश्य एवं शूद्र पापयोनि में जन्मे हीन  लोग हैं?
भारत का राष्ट्रीय ग्रन्थ उसका संविधान है, किसी अन्य ग्रन्थ को उसकी जगह लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती। शब्दछल का सहारा लेने में माहिर भाजपा के नेता अब यह दावा भी कर रहे हैं कि ‘गीता’ किसी एक धर्म से जुड़ी पुस्तक नहीं है। वह तो सार्वजनीन है और दर्शन एवं कर्मयोग का ग्रंथ है। सुषमा स्वराज तो उसके जरिये अनेक मानसिक परेशानियों का इलाज करने की वकालत भी करती हैं। लेकिन क्या कोई बताएगा कि यदि ‘गीता’ हिन्दू धर्म से जुड़ा ग्रंथ नहीं है तो फिर अदालतों में सिर्फ हिन्दू ही उस पर हाथ रख कर कसम क्यों खाते हैं, किसी और धर्म के अनुयायी क्यों नहीं?
शब्दछल के सहारे का एक और उदाहरण है धर्मपरिवर्तन को ‘पुरखों के घर वापसी’ का नाम देना। एक समय था जब विश्व हिन्दू परिषद इसे ‘परावर्तन’ कहा करती थी। आरएसएस के इस संगठन की भारत के अलावा लगभग नब्बे देशों में शाखाएँ हैं। संघ की तरह ही इसका अंतिम लक्ष्य भी भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ में तब्दील करना है। आगरा में जिस तरह से स्लम में रहने वाले गरीब मुसलमानों को लोभ-लालच देकर उनकी ‘घर वापसी’ का नाटक किया गया, वह उन सभी नाटकों की एक कड़ी भर है जो पिछले दो साल से उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर, मेरठ, हापुड़ और अलीगढ़ जैसे अनेक जिलों में खेले जा रहे हैं। इन सबका उद्देश्य विधानसभा चुनाव के पहले राज्य में सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण है। वरना ईसाइयों के पवित्र त्यौहार क्रिसमस के दिन अलीगढ़ जैसे सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील शहर में बड़े पैमाने पर मुसलमानों के सामूहिक धर्मपरिवर्तन का कार्यक्रम बनाने का मतलब क्या है?
यहाँ यह याद दिलाना अप्रासंगिक न होगा कि जनवरी 1989 में हुए धर्म संसद के अधिवेशन में पारित प्रस्ताव में विस्तार से उन कदमों की चर्चा की गई थी जो भारत में ‘हिन्दू राष्ट्र’ की ‘पुनर्स्थापना’के लिए उठाए जाने आवश्यक हैं। इस प्रस्ताव का अंतिम बिन्दु था: “राष्ट्रीय शिक्षा नीति में नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा के साथ-साथ संस्कृत और योग की अनिवार्य शिक्षा और प्रशिक्षण शामिल किए जाएँ।” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सुझाव पर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया है। इस  पर किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती, लेकिन यह संयोगवश नहीं है कि इसी के साथ-साथ केन्द्रीय विद्यालयों से जर्मन हटाकर संस्कृत को ले आया गया है।
यह भी अकारण नहीं है कि मोदी सरकार की एक मंत्री  उन लोगों के लिए गाली का प्रयोग करती हैं जो ‘रामजादों’ के श्रेणी में नहीं आते। यह भी अकारण नहीं है कि भाजपा के सांसद साक्षी महाराज अपने दिल की बात जुबान पर ले आते हैं और महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को ‘राष्ट्रभक्त’ बताते हैं। आज संघ कुछ भी कहे, वह अपने उस इतिहास को मिटा नहीं सकता जो महात्मा गांधी के प्रति घृणा से भरा हुआ है। यह भी अकारण नहीं है कि भाजपा की उत्तर प्रदेश राज्य इकाई के अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन लक्ष्मीकांत वाजपेयी ताजमहल को हिन्दू राजा का महल बताते हैं और वही (कु)तर्क दुहराते हैं जो लगभग छह दशक पहले पुरुषोत्तम नागेश ओक ने दिये थे और जिन्हें हिंदुत्ववादियों के अलावा दुनिया में कोई नहीं मानता। ओक अपने नाम के साथ प्रोफेसर लगाया करते थे और अपना परिचय विश्व इतिहास पुनर्लेखन संस्थान के अध्यक्ष के रूप में देते थे। उनके अनुसार कुतुब मीनार विष्णुध्वज है और लालकिला एवं जामा मस्जिद जैसी सभी इमारतें हिंदुओं द्वारा बनवाई हुई हैं।
इन ‘अच्छे दिनों’ में जब देश का प्रधानमंत्री स्वयं प्राचीन भारत में आज से भी अधिक उन्नत विज्ञान और चिकित्सा होने का दावा कर रहा है, जब भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का अध्यक्ष कह रहा है कि रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों में वर्णित सभी घटनाएँ वास्तव में ठीक वैसे ही घटी थीं, तब यदि ओक की मान्यताओं को एक वरिष्ठ राजनीतिक नेता साम्प्रादायिक राजनीति करने के लिए इस्तेमाल करना चाहता है तो इसमें आश्चर्य कैसा?
(जनपक्ष से साभार)

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