Sunday, 11 January 2015

महिला का अपने शरीर पर कितना अधिकार/उमा चक्रवर्ती

इस साल की शुरुआत में कुछ लोगों ने एक महिला के उस अधिकार पर कुछ देर के लिए सोचा जो विरोध जताने के लिए खाना नहीं खा रही हैं.
जीवन के हक़ के लिए लड़ रही मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता शर्मिला इरोम पिछले 14 साल से भूख हड़ताल पर हैं.
लेकिन खाने से इनकार कर एक महिला अपने समाज, देश और राज्य को क्या संदेश देना चाहती हैं?
इरोम शर्मिला ने पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में सशस्त्र सेनाओं के विशेषाधिकारों से संबंधित विवादास्पद क़ानून के ख़िलाफ़ वर्ष 2000 में भूख हड़ताल शुरू की थी.
इन अधिकारों के तहत सैन्यबल बग़ैर किसी वारंट के किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार कर सकते हैं और कुछ विशेष हालात में तो उन्हें गोली मारने का भी अधिकार है.
मणिपुर लंबे समय से चरमपंथी हिंसा और अलगाववादियों से प्रभावित रहा है. अलगाववादी निश्चित तौर पर मौत के लिए ज़िम्मेदार हैं, लेकिन यह क़ानून भारत के एक हिस्से को युद्ध प्रभावित क्षेत्र की तरह दिखाता है.
भूख हड़ताल शुरू करने के साथ ही उन्हें गिरफ़्तार कर अस्पताल में ले जाया गया और पिछले 14 सालों से हिरासत में रखते हुए उन्हें नाक में पाइप के रास्ते तरल भोजन दिया जा रहा है.
पिछले साल अदालत ने उन पर लगे ‘ख़ुदकुशी की कोशिश के आरोपों’ को ख़ारिज़ कर दिया और उनकी रिहाई के आदेश दिए. लेकिन उन्हें कुछ ही देर बाद फिर से गिरफ़्तार कर लिया गया.
हर साल जनवरी में उनकी रिहाई और फिर गिरफ़्तारी का खेल खेला जाता है. इसी हफ़्ते एक बार फिर यही रस्म दोहराई गई.
ख़बरों में इसका ज़िक्र हुआ और फिर बहुत जल्द ही भुला भी दिया गया. लेकिन मैं इसे नहीं भूली, ख़ासकर नवंबर 2010 में शर्मिला की मां से मुलाक़ात के बाद.
शर्मिला की मां का दुख समझने के लिए उनके मुझसे कहे ये शब्द काफ़ी हैं, ‘‘एक दिन मैं बैठकर ख़बरें सुन रही थी और एक अधिकारी ने कहा कि वे सैन्यबल विशेषाधिकार क़ानून को कभी नहीं हटाएंगे. उस दिन मुझे बहुत बुरा लगा और मैं बहुत निराश हुई. मैंने ख़ुद से कहा कि इसका मतलब हुआ कि मेरी बेटी कभी नहीं खा पाएगी.’’
मेरे लिए वो विशेष महिला हैं, जो अपनी बेटी से इसलिए नहीं मिलतीं, क्योंकि वो जानती हैं ऐसा करने पर शर्मिला रोएगी. और वो नहीं चाहतीं कि उनकी बेटी किसी तरह से कमज़ोर हो.
इरोम शर्मिला का विरोध उनके साहस का अविश्वसनीय नमूना है. उन्हें जीवन की मूलभूत चीजों से वंचित किया जा रहा है, लेकिन सरकार का मानना है कि कोई संकट नहीं है, क्योंकि वे उन्हें ज़बरन खाना दे रहे हैं और उन्हें ज़िंदा रखे हुए हैं.
लेकिन शर्मिला के शरीर को तरल भोजन के इंजेक्शनों के सहारे चलाया जा रहा है और हर कोई जानता है कि ज़िंदा रहने का ये कोई तरीक़ा नहीं है.
शर्मिला उन सिद्धांतों की प्रतिमूर्ति बन गई हैं जिनके लिए वह संघर्ष कर रही हैं. शर्मिला का कहना है कि लोगों को सैन्य विशेषाधिकार क़ानून के तहत जीवन जीने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए.
सरकारों का ध्यान आकर्षित करने के लिए वह अपने शरीर का इस्तेमाल कर रही हैं. अगर आप इस तरह की व्यवस्था में रह रहे हैं तो आप वास्तव में अपने मानव होने का आधार खो देते हैं, अपने देश में स्वतंत्रता और सुरक्षा का अधिकार.
मीडिया में महिलाओं को पुरुषों के बराबर हक़ दिए जाने पर ज़ोरदार बहस होती है. कहा जाता है कि सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के साथ पुरुषों जैसा ही बर्ताव किया जाना चाहिए, उनके अधिकार एक जैसे होने चाहिए.
लेकिन अगर महिलाओं को एक जैसी तवज्जो दी जाएगी तब किसी भी तरह की हिंसा बर्दाश्त नहीं होगी और बहस तक की ज़रूरत नहीं होगी.
महिला सुरक्षा में सरकार की भी अहम भूमिका है. सरकार का मतलब सिर्फ़ अंतरराष्ट्रीय समझौते और राष्ट्रीय संसाधनों का उपयोग करना ही नहीं है.
उसका उत्तरदायित्व घर के अंदर, बाहर, दफ़्तरों, फैक्ट्रियों, स्कूल और कॉलेज में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना भी होना चाहिए.
हाल ही में नसबंदी शिविरों में महिलाओं की मौत की घटना को ही लीजिए. बड़े पैमाने पर हुए नसबंदी ऑपरेशनों में कई महिलाओं की जान चली गई. वहाँ क्या ग़लत हुआ?
सरकार कह रही है कि दवाएं नकली थी या सवाल उठाए जा रहे हैं इतने ऑपरेशन एक दिन में कैसे किए गए.
लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं पर कोई बात नहीं कर रहा? कोई नहीं पूछ रहा कि आबादी नियंत्रण का एकमात्र हल नसबंदी ही क्यों है और वह भी सिर्फ़ महिलाओं के शरीर पर ही क्यों?
फिर से बहस शर्मिला के तर्क़ पर आकर ठहर गई. महिला का अपने शरीर पर अधिकार है या नहीं और क्या वह इसे विरोध प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल कर सकती है.
(बीबीसी से साभार)

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