लिखने की छटपटाहट ने आज से 150 साल पहले रसोई घर की दीवारों पर अपना स्पेस बनाया. बांग्ला की पहली आत्मकथा (अमार जीबॉन -1876) की लेखिका राससुन्दरी देवी ने 12 साल की छोटी उम्र में अपने विवाह के बाद लिखने की अपनी तीव्र कामना को रसोईघर की दीवारों पर पूरा किया. उसी पर खड़िया से उन्होंने वर्णमाला उकेरी और सीखी.
समय बदल गया है आज स्त्रियों के लिखने के लिए मार्क ज़करबर्ग ने आभासी दुनिया में एक बड़ी दीवार बना दी है, जहां सबकी अपनी–अपनी वॉल हैं- फ़ेसबुक की अपनी वॉल. पुरुषों के साथ स्त्रियां भी बड़ी संख्या में वहाँ अभिव्यक्त हो रही हैं. साहित्य के पारंपरिक गढ़ टूट रहे हैं, संपादक और आलोचक लेखक और पाठक के बीच अनिवार्य उपस्थिति से बेदखल हुए हैं. जारी है "सुल्ताना का सपना" रुकैया शखावत हुसैन की चर्चित रचना "सुल्तानाज़ ड्रीम" 1905 में पहली बार प्रकाशित हुई. रुकैया ने मर्दों के वर्चस्व को उलट देने का सपना देखा– यूटोपिया पेश किया. इस सपने में हर मर्द क़िरदार औरतों के लिए तय की गई भूमिका में ख़ुद क़ैद है, परदेदारी और आज्ञाकारिता के लिए बाध्य.
"सुल्ताना के सपने" की तरह स्त्री की अभिव्यक्ति हर दौर में अपने ऊपर नियंत्रण और संसाधनों से अपने वंचन के ख़िलाफ़ विद्रोह और संघर्ष को अभिव्यक्त करती रही है.
प्रसिद्ध हिन्दी रचनाकार और आलोचक अर्चना वर्मा के अनुसार स्त्रियां इन नियंत्रणों और संघर्षों से मुक्ति के आह्लाद में लिखती हैं– अपने दुखों की अभिव्यक्ति में भी साक्षी भाव में होती हैं, आनंदित होती हैं. साहित्यकार पूनम सिंह कहती हैं, "हम अपने होने की तलाश में लिखती हैं, वजूद की खोज में अन्यथा हमारा होना दूसरों के लिए होने की विवशता और ज़िम्मेवारी से भरा है." लेखिका अनिता भारती कहती हैं, "मैं एक दलित लेखिका के तौर पर लिखती हूं. उत्पीड़न के दोनों ही केंद्र- जेंडर और जाति मेरे लेखन का विषय हैं, इसलिए हम जैसे लोग दोतरफ़ा प्रहार झेलते हैं- दलितेतर पुरुषों से और दलित पुरुषों से भी, कभी–कभी सवर्ण स्त्रियां भी हमारे विरुद्ध हो जाती हैं." बौद्धकालीन स्त्रियां प्रव्रज्या लेकर बौद्ध संघों में रहने लगीं, मुक्ति के इस आनंद की अभिव्यक्ति उन्होंने अपने पदों में की. 'थेरीगाथा' के नाम से जाने जाने वाले उनके पदों में पुरुष वर्चस्व के ख़िलाफ़ आक्रोश और उससे मुक्ति के आह्लाद दर्ज हैं.
सुमंगला थेरी लिखती हैं, "अहा, मैं मुक्त हुई तीन टेढ़ी चीजों से/ ओखली से, मूसल से/ अपने कुबड़े पति से/ गया मेरा निर्लज्ज पति गया/ जो मुझे उन छातों से भी तुच्छ समझता था/ जिन्हें वह बनाता था अपनी जीविका के लिए." अपना वजूद तलाशती, परिवार, पुरुष वर्चस्व, जाति उत्पीड़न के ख़िलाफ़ अभिव्यक्त होती स्त्रियां विद्रोह और आनंद के सम्मिलित भाव में लिखती हैं. पिछले दिनों फ़ेसबुक पर "चालीस साल की स्त्रियां" कविता का विषय बनीं, संयोग से इन्हें लिखने वाली कवयित्रियां भी प्रायः चालीस साल की उम्र जी चुकी हैं. आधा दर्जन से अधिक की संख्या में इन कविताओं में अपने व्यक्तित्व के आकार लेने और 'निर्धारित लक्ष्मण रेखा' से मुक्ति की अभिव्यक्ति है. कलावंती की कविता की पंक्तियां हैं, "कभी-कभी बड़ी ख़तरनाक होती है/ यह चालीस पार की औरत/ वह तुम्हें ठीक ठीक पहचानती है/ जिसे तुम नहीं पढ़ा सकते चालीस का पहाड़ा".अंजू शर्मा की कविता की पंक्तियां भी ग़ौरतलब हैं, "अपनी पूर्ववर्तियों से ठीक अलग/ वे नहीं ढूंढ़ती हैं देवालयों में/ देह की अनसुनी पुकार का समाधान/ अपनी कामनाओं के ज्वार पर अब वे हँस देती हैं ठठाकर". इन कविताओं ने एक बेचैनी पैदा की. हिन्दी के एक साहित्यिक मासिक के सम्पादक प्रेम भारद्वाज ने फ़ेसबुक को एक दरीचे के खुलने जैसा बताते हुए अपने सम्पादकीय में इन्हें नसीहत दी. उन्हें सावधान किया, "उनकी कविताओं को मिलने वाली लाइक की संख्या उनके शब्दों की गहराई से नहीं उनकी ख़ूबसूरती से बढ़ती है."
उम्मीद के अनुरूप स्त्रियों ने इस साहित्यिक पुलिसिंग का प्रतिवाद भी किया. कवयित्री निवेदिता ने लिखा, "जिस फ़ेसबुक को स्त्री के लिए किसी दरीचे के खुलने जैसा मान रहे हैं उसके खुलेपन से इतने आहत क्यों? फ़ेसबुक पुरुषों की भी चरागाह है, जहां वे शिकारियों की तरह ताक में बैठे रहते हैं कि जाने कौन किस चाल में फंसे." युवा आलोचक धर्मवीर के अनुसार यह समय "स्त्रियों की अभिव्यक्ति के लिए बढ़े स्पेस से घबराए सत्ता संस्थानों की बेचैनी का समय है, अपने अप्रासंगिक होने के भयबोध से उपजी बेचैनी." मध्यकालीन भक्त कवयित्री मीरा इसी बेचैनी का उपहास उड़ाते हुए लिखती हैं, "लोकलाज कुल कानी जगत की दई बहाय, जस पानी, अपने घर का परदा कर लो मैं अबला बौरानी". (बीबीसी से साभार)
समय बदल गया है आज स्त्रियों के लिखने के लिए मार्क ज़करबर्ग ने आभासी दुनिया में एक बड़ी दीवार बना दी है, जहां सबकी अपनी–अपनी वॉल हैं- फ़ेसबुक की अपनी वॉल. पुरुषों के साथ स्त्रियां भी बड़ी संख्या में वहाँ अभिव्यक्त हो रही हैं. साहित्य के पारंपरिक गढ़ टूट रहे हैं, संपादक और आलोचक लेखक और पाठक के बीच अनिवार्य उपस्थिति से बेदखल हुए हैं. जारी है "सुल्ताना का सपना" रुकैया शखावत हुसैन की चर्चित रचना "सुल्तानाज़ ड्रीम" 1905 में पहली बार प्रकाशित हुई. रुकैया ने मर्दों के वर्चस्व को उलट देने का सपना देखा– यूटोपिया पेश किया. इस सपने में हर मर्द क़िरदार औरतों के लिए तय की गई भूमिका में ख़ुद क़ैद है, परदेदारी और आज्ञाकारिता के लिए बाध्य.
"सुल्ताना के सपने" की तरह स्त्री की अभिव्यक्ति हर दौर में अपने ऊपर नियंत्रण और संसाधनों से अपने वंचन के ख़िलाफ़ विद्रोह और संघर्ष को अभिव्यक्त करती रही है.
प्रसिद्ध हिन्दी रचनाकार और आलोचक अर्चना वर्मा के अनुसार स्त्रियां इन नियंत्रणों और संघर्षों से मुक्ति के आह्लाद में लिखती हैं– अपने दुखों की अभिव्यक्ति में भी साक्षी भाव में होती हैं, आनंदित होती हैं. साहित्यकार पूनम सिंह कहती हैं, "हम अपने होने की तलाश में लिखती हैं, वजूद की खोज में अन्यथा हमारा होना दूसरों के लिए होने की विवशता और ज़िम्मेवारी से भरा है." लेखिका अनिता भारती कहती हैं, "मैं एक दलित लेखिका के तौर पर लिखती हूं. उत्पीड़न के दोनों ही केंद्र- जेंडर और जाति मेरे लेखन का विषय हैं, इसलिए हम जैसे लोग दोतरफ़ा प्रहार झेलते हैं- दलितेतर पुरुषों से और दलित पुरुषों से भी, कभी–कभी सवर्ण स्त्रियां भी हमारे विरुद्ध हो जाती हैं." बौद्धकालीन स्त्रियां प्रव्रज्या लेकर बौद्ध संघों में रहने लगीं, मुक्ति के इस आनंद की अभिव्यक्ति उन्होंने अपने पदों में की. 'थेरीगाथा' के नाम से जाने जाने वाले उनके पदों में पुरुष वर्चस्व के ख़िलाफ़ आक्रोश और उससे मुक्ति के आह्लाद दर्ज हैं.
सुमंगला थेरी लिखती हैं, "अहा, मैं मुक्त हुई तीन टेढ़ी चीजों से/ ओखली से, मूसल से/ अपने कुबड़े पति से/ गया मेरा निर्लज्ज पति गया/ जो मुझे उन छातों से भी तुच्छ समझता था/ जिन्हें वह बनाता था अपनी जीविका के लिए." अपना वजूद तलाशती, परिवार, पुरुष वर्चस्व, जाति उत्पीड़न के ख़िलाफ़ अभिव्यक्त होती स्त्रियां विद्रोह और आनंद के सम्मिलित भाव में लिखती हैं. पिछले दिनों फ़ेसबुक पर "चालीस साल की स्त्रियां" कविता का विषय बनीं, संयोग से इन्हें लिखने वाली कवयित्रियां भी प्रायः चालीस साल की उम्र जी चुकी हैं. आधा दर्जन से अधिक की संख्या में इन कविताओं में अपने व्यक्तित्व के आकार लेने और 'निर्धारित लक्ष्मण रेखा' से मुक्ति की अभिव्यक्ति है. कलावंती की कविता की पंक्तियां हैं, "कभी-कभी बड़ी ख़तरनाक होती है/ यह चालीस पार की औरत/ वह तुम्हें ठीक ठीक पहचानती है/ जिसे तुम नहीं पढ़ा सकते चालीस का पहाड़ा".अंजू शर्मा की कविता की पंक्तियां भी ग़ौरतलब हैं, "अपनी पूर्ववर्तियों से ठीक अलग/ वे नहीं ढूंढ़ती हैं देवालयों में/ देह की अनसुनी पुकार का समाधान/ अपनी कामनाओं के ज्वार पर अब वे हँस देती हैं ठठाकर". इन कविताओं ने एक बेचैनी पैदा की. हिन्दी के एक साहित्यिक मासिक के सम्पादक प्रेम भारद्वाज ने फ़ेसबुक को एक दरीचे के खुलने जैसा बताते हुए अपने सम्पादकीय में इन्हें नसीहत दी. उन्हें सावधान किया, "उनकी कविताओं को मिलने वाली लाइक की संख्या उनके शब्दों की गहराई से नहीं उनकी ख़ूबसूरती से बढ़ती है."
उम्मीद के अनुरूप स्त्रियों ने इस साहित्यिक पुलिसिंग का प्रतिवाद भी किया. कवयित्री निवेदिता ने लिखा, "जिस फ़ेसबुक को स्त्री के लिए किसी दरीचे के खुलने जैसा मान रहे हैं उसके खुलेपन से इतने आहत क्यों? फ़ेसबुक पुरुषों की भी चरागाह है, जहां वे शिकारियों की तरह ताक में बैठे रहते हैं कि जाने कौन किस चाल में फंसे." युवा आलोचक धर्मवीर के अनुसार यह समय "स्त्रियों की अभिव्यक्ति के लिए बढ़े स्पेस से घबराए सत्ता संस्थानों की बेचैनी का समय है, अपने अप्रासंगिक होने के भयबोध से उपजी बेचैनी." मध्यकालीन भक्त कवयित्री मीरा इसी बेचैनी का उपहास उड़ाते हुए लिखती हैं, "लोकलाज कुल कानी जगत की दई बहाय, जस पानी, अपने घर का परदा कर लो मैं अबला बौरानी". (बीबीसी से साभार)
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