Saturday, 29 June 2013

प्रकाशक एक अनोखा


योगेन्द्र नागपाल

इवान सीतिन का नाम रूसी संस्कृति के इतिहास में एक पूरे युग का प्रतीक है| उन्नीसवीं-बीसवीं सदियों के संधिकाल में रूस में बच्चा-बच्चा उनका नाम जानता था| आप पूछेंगे क्यों? इसलिए कि कोई घर ऐसा नहीं था जहाँ वह मौजूद न रहे हों! कैसे? पुस्तकों, पत्रिकाओं, पंचांग-कैलंडरों के रूप में! आज भी अनेक रूसी घरों में इवान सीतिन की छापी पुस्तकें आपको देखने को मिल सकती हैं| आखिर 19वीं सदी के हर रूसी कालजयी लेखक की रचनाएँ उन्होंने प्रकाशित की थीं| यों प्रकाशक तो एक से एक बढ़कर हुए हैं लेकिन इवान सीतिन के सर पर तो ज्ञान-प्रसार की धुन सवार थी| उनकी सबसे बड़ी मनोकामना यह थी कि उनके देश का बच्चा-बच्चा साक्षर हो और अपनी इसी इच्छा की पूर्ति को उन्होंने अपना सारा जीवन समर्पित किया|
बीसवीं सदी के आरम्भ में मक्सीम गोर्की नेइवान सीतिन को लिखा था: “एक अच्छा रूसी इंसान, एक ऐसा रूसी जिसे अपनी जन्मभूमि से सच्चा लगाव हो, एक ऐसा मनुष्य जो अपने विशाल देश को जानता और समझता हो, एक ऐसा व्यक्ति जो अपनी मातृभूमि की यथाशक्ति सेवा करने को तत्पर हो – ऐसे लोग बहुत कम ही मिलते हैं| और जब मिलते हैं तो मन गदगद हो उठता है, आदर भाव से भर उठता है| मैं आपसे बस इतना कहना चाहता हूँ: आप अद्वितीय हैं!”
गोर्की जब साहित्य-जगत में पहले कदम ही भर रहे थे, उन्हीं दिनों इवान सीतिन ने उन्हें मिलने के लिए बुलाया - सेंट पीटर्सबर्ग के उस होटल में, जहां वह तब रहा करते थे| गोर्की ने देखा - बड़ा मामूली-सा होटल है, सादा-सा कमरा, जिस आदमी ने उनका स्वागत किया वह भी देखने में मामूली-सा ही लग रहा है, न चेहरे में कोई दबदबा, न पहनावा रौबीला; खाना-पीना भी एकदम साधारण-सा ही| क्या यही है वह मशहूर लखपति प्रकाशक जिसका चारों ओर बोलबाला है?! हां, एक बात बरबस ध्यान खींचती है – इस आदमी की आँखें! उनकी चमक में छिपी है उसकी तीक्ष्ण बुद्धि!
पिछले बार हमने आपको पावेल त्रेत्याकोव के बारे में बताया था जो चित्रकला के पारखी थे| इवान सीतिन भी एक बेजोड़ पारखी थे, बेशक न हीरे-जवाहरातों के, न चित्रकला के| वह तो पारखी थे पांडुलिपियों के, पुस्तकों के| अक्सर ऐसा होता: उन्हें कोई पांडुलिपि मिलती, वह बड़े ध्यान से पन्ने पलटते, और अपना फैसला सुना देते: “भेज दो छापने| इतने हज़ार का ऑर्डर!” “जी, बहुत ज्यादा तो नहीं?” “कहा न, छपवाओ| किताब चलेगी नहीं, दौड़ेगी!” कभी उनका कोई फैसला गलत नहीं निकला| कमाल की बात यह है कि खुद वह मुश्किल से तीन साल स्कूल में पढ़े थे|
वाकई, उन्हें पढ़ने-लिखने का मौका नहीं मिला| सन् 1851 में एक छोटे से कस्बे में उनका जन्म हुआ| उनके पिता तहसील में लिपिकार थे| मानसिक रोग से ग्रस्त होने के कारण वह अक्सर घरबार और नौकरी छोड़ कर न जाने कहाँ निकल जाते थे, इधर-उधर भटकते रहते, फिर आखिर लौट आते| एक दिन नौकरी से भी हाथ धोना ही पड़ा| वैसे जब नौकरी करते थे तब भी उनकी कमाई बच्चों को दो जून की रोटी दिलाने के लिए काफी नहीं पड़ती थी| इवान को कस्बे के स्कूल में पढ़ने डाला गया था| पढ़ाई में उसका मन ज़रा भी नहीं लगता था| कालांतर में इवान सीतिन ने अपने संस्मरणों में लिखा: “स्कूल से निकला तो पढ़ाई के नाम से ही नफरत होती थी, तीन साल तक रट्टेबाज़ी के अलावा और कुछ सीखा ही नहीं, इतना तंग आ गया था इससे कि कुछ भी करना नहीं चाहता था| स्कूल ने मुझे निरा आलसी बना दिया था|”
यों स्वभाव से वह बड़े जिज्ञासु थे और एकदम व्यवहार-कुशल भी| छोटी उम्र में ही शरीर में खूब ताकत थी और सहनशक्ति भी| मास्को में एक दुकान में बालक को लगवा दिया गया| यह किताबों-तस्वीरों की थोक की दुकान थी| यह नौकरी पाकर इवान सीतिन की जिंदगी एक नए ढर्रे पर चल निकली| अब किस्मत ने उनका साथ देना शुरू किया और सारी उम्र देती रही| 18 साल का होने तक वह दुकान में छुटपुट काम ही करते रहे| फिर माल बेचने का काम भी उन्हें सौंपा जाने लगा, हालांकि इस काम में भी शारीरिक मेहनत ही अधिक थी, बेशक, कुछ काम सीखने का मौका भी मिल रहा था|
थोक की दुकान दूसरे फुटकर दुकानदारों को मुख्यतः धार्मिक तस्वीरें, कहानियां, गीतों-भजनों की किताबें, पत्र-लेखन पुस्तकें आदि बेचती थी| यह सब धड़ाधड़ बिकने वाला माल था| इसे बेचते हुए इवान सीतिन यह महसूस कर रहे थे कि रूस में प्रकाशन के धंधे में आगे बढ़ने के कितने बेशुमार मौके हैं| उन्होंने अपना धंधा शुरू करने का फैसला किया, लेकिन इसके लिए छपाई मशीन चाहिए थी| तब उन्होंने पैसे उधार लेकर फ़्रांस से लिथोग्राफ छापाखाना खरीद लिया और उसमें काम करने के लिए कुछेक अनुभवी छपाई कर्मी नौकरी पर रख लिए| पच्चीस साल की उम्र में इवान सीतिन ने अपना छापाखाना चालू कर दिया| आम जनता में जिन चीज़ों की मांग थी – पंचांग-कैलंडर, जादुई और जोखिमभरी कहानियां, प्यार-मोहब्बत के किस्से - ये सब उन्होंने लोक-शैली के चित्रों से सजाकर, लिथोग्राफ पर उम्दा छपाई के साथ पेश कीं| जन-साधारण क्या चाहता है इसे वह सबसे पहले पहचान और समझ जाते थे| उदाहरण के लिए 1877-1878 में जब रूस और तुर्की की लड़ाई चल रही थी तो उन्होंने “लड़ाई के नक्शों” और “रणभूमि के नज़ारों” की पूरी मालाएं छापीं जो हाथोंहाथ बिक जाती थीं|
वैसे इसका यह अर्थ निकालना सही नहीं होगा कि इवान सीतिन ने अपने हुनर का फायदा आम लोगों की पसंद पूरी करते हुए पैसे कमाने के लिए किया| धीरे-धीरे वह रूसी लेखकों की रचनाएं, इतिहास और भूगोल के ग्रंथ, ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं की पुस्तकें, सन्दर्भ-ग्रंथ, कैटलॉग, शिक्षकों और लाइब्रेरियनों के लिए आवश्यक पुस्तकें, पत्रिकाएँ, पोस्टर और प्रसिद्ध कलाकारों के चित्रों की अनुकृतियाँ छापने लगे| एक बार इवान सीतिन से कृषि विश्वकोश के कुछ खंड पाकर गोर्की उल्लसित हो उठे: “वाह! अनुपम है यह ग्रंथ! कमाल का काम किया है आपने| बस, सदा ऐसा ही होता रहे!” सो, इवान सीतिन ने अपना काम जारी रखा| उनकी प्रतिभा पूरी तरह निखरकर सामने आई| उनका नीति-वाक्य था: “मनुष्य में अथाह शक्ति निहित है, किंतु ज्ञान, विज्ञान और अनुभव से ही वह कल्याण पा सकता है! इस ज्ञान-विज्ञान के प्रसार की खातिर वह प्रकाशन-कार्य में लगे रहे| यूरोप के सभी नामी लेखकों – जोनाथन स्विफ्ट(गुलिवर की यात्राएं) और डेनियल डेफो (रोबिंसन क्रूज़ो), डीक्कंस, वाल्टर स्कॉट, जूल वेर्न, कोनन डॉयल, वेल्स – की पुस्तकों के रूसी अनुवाद उन्होंने प्रकाशित किए| बच्चों के लिए ग्रीम बंधुओं की बाल-कथाएँ, शार्ल पेरो और एंडरसन की कहानियाँ छपवाईं| उनके प्रयासों से ही “दुनिया के गिर्द” पत्रिका रूस की एक सबसे लोकप्रिय पत्रिका बन गई| “बालसुलभ विश्वकोश” उन्होंने निकाला| महान तोल्स्तोय के देहांत के बाद उनकी रचनाओं का 90 खण्डों में पूर्ण संग्रह इवान सीतिन ने ही सबसे पहले प्रकाशित किया| ‘रूस्स्कोये स्लोवो’ (रूसी शब्द) समाचारपत्र के प्रकाशन का कार्यभार उन्होंने संभाला| सन् 1917 के आरम्भ में वार्षिक चंदा देकर इसे मंगवाने वालों की ही संख्या दस लाख से अधिक हो गई थी|
इतना कुछ करते हुए इससे भी कहीं अधिक कामों की योजनाएं उन्होंने बना रखी थीं| उदाहरण के लिए वह “स्कूल और ज्ञान” नाम से एक समाज बनाना चाहते थे, जो सारे रूस में स्कूलों का जाल बिछा दे, हर स्कूल में अपना पुस्तकालय हो| वह देश को निरक्षरता से निजात दिलाना चाहते थे, चाहते थे कि पुस्तकें और पाठ्य-पुस्तकें हर बच्चे को उपलब्ध हों| किंतु ज़ारशाही रूस में सरकार ने इस योजना को कोई समर्थन नहीं दिया| परन्तु वह अपने सपनों से पीछे नहीं हटे| उनका एक लक्ष्य यह था कि बच्चों को ठीक से पढ़ना-लिखना सिखाया जाए, कि स्कूल में बच्चों का चहुंमुखी विकास हो| न केवल बच्चों, बल्कि बड़ों के लिए भी ऐसी सुविधाएं हों, क्योंकि देश की वयस्क आबादी में भी निरक्षर लोगों की संख्या कम नहीं थी| वह मात्र स्वप्नदृष्टा नहीं थे| जहाँ तक उनसे बन पड़ता था अपने सपनों को व्यावहारिक रूप देने के लिए ठोस प्रयास करते थे| उदाहरण के लिए, उनकी मुद्रण, प्रकाशन और पुस्तक-विक्रय कंपनी में (इसका नाम ही उन्होंने “भाईचारा” रखा था) काम के आधुनिकतम तरीके अपनाए गए थे| अपने कर्मचारियों के लिए उन्होंने ड्राइंग का स्कूल खोला था, उत्तम पुस्तकालय बनवाया था, उनके लिए सस्ता किंतु अच्छा खाना देने वाली कैंटीन खुलवाई थी, यही नहीं खाने-पीने के सामान की सहकारी दुकान भी उनकी कंपनी वालों के लिए थी|
अपने सभी कर्मियों का सीतिन बहुत ख्याल रखते थे| काम वह कस कर लेते थे, लेकिन साथ ही कभी कोई यह नहीं कह सकता था कि उन्होंने किसी भी छोटे या बड़े कर्मी से कोई बेइंसाफी की है या ज़रूरत होने पर उसकी मदद नहीं की| वह यह मानते थे कि छपाई के काम में उनके कर्मचारी यूरोप के किसी भी देश के कर्मचारियों से कम नहीं हैं| अक्सर कहते थे: “इनके तो हाथों में जादू है!” साथ ही सपना देखते थे: “काश, ये पढ़े-लिखे होते!” कुछ हद तक वह अपना यह सपना साकार कर पाए थे| समय के साथ रूस के सबसे अच्छे शिक्षक उनसे सहयोग करने लगे थे| इस तरह उन्होंने वह “अक्षरमाला” निकाली जिसके तीस से अधिक वर्षों में 118 संस्करण छपे| यह इतनी सस्ती थी कि गरीब से गरीब लोग भी इसे खरीद सकते थे|
इवान सीतिन के प्रकाशनगृह की स्वर्ण जयंती के अवसर पर समाचारपत्रों ने उनके बारे में लिखा था: “व्यापर उनके लिए लक्ष्य नहीं एक साधन मात्र था”| वह सदा अपनी पुस्तकें न्यूनतम दामों पर बेचते थे ताकि अधिक से अधिक लोग उन्हें खरीद सकें| साथ ही उन्हें इस बात का भी ख्याल रखना होता था कि उनका धंधा चलता रहे| इसलिए वह विदेशों में आधुनिक छपाई मशीनें खरीदते थे जिनकी बदौलत वह अपनी पुस्तकों की कहीं अधिक प्रतियाँ छाप सकते थे| “मेरी किताबें दूसरों से सस्ती क्यों होती थीं? क्योंकि मैं खुद कागज़ खरीदता था और उसे अपने ढंग से सबसे सस्ते तरीके से बनवाता था| रूस की सारी कागज़ मिलें कहीं ऊंचे दामों पर कागज़ देती थीं| मैं फिनलैंड में कागज खरीदता था| इसके अलावा जिन मिलों से मैं कागज़ लेता थे उनमें मेरा एक तिहाई हिस्सा था| सो मेरे हिस्से का कागज़ वे उन शर्तों पर बनाती थीं जो सिर्फ मेरे लिए थीं|”
सन् 1917 की समाजवादी क्रांति के बाद सीतिन ने अपना सारा कारोबार सोवियत सत्ता को सौंप दिया| उसका राष्ट्रीयकरण कर लिया गया| अनुभवी प्रकाशक इवान सीतिन ने नई सत्ता को स्वीकार कर लिया और उससे सहयोग करने लगे| सोवियत सत्ता के वर्षों में जो पहली पुस्तकें और पर्चे उन्होंने प्रकाशित किये वे उनके पुराने मित्र मक्सीम गोर्की ने ही लिखे थे| खेदवश इवान सीतिन के सभी विचारों, सभी योजनाओं को सोवियत सरकार का समर्थन नहीं मिला, तो भी अनेक वर्षों तक देश के नेता जहां उन्हें भेजते रहे वहां-वहां जाकर वह काम करते रहे| यह काम करते हुए वह देख रहे थे कि हज़ारों छपाई मशीनें चल रही हैं, और हज़ारों लोग ज्ञान-प्रसार का काम कर रहे हैं| यह देखकर उनके मन को बड़ा संतोष होता था – हां, आखिर उनका जीवन व्यर्थ ही नहीं गया| उन्होंने जो सपना देखा था कि सभी बच्चे स्कूल जाएँ, सभी स्कूलों में पाठ्य-पुस्तकें हों और सभी आम पाठकों के लिए पुस्तकें उनकी पहुँच से बाहर न हों – यह सपना अब साकार हो रहा था|
वह यह देखकर सुखी थे कि निरक्षरता का ज़माना गुज़र रहा है| वह अपने को सौभाग्यशाली मानते थे| अंतिम समय पर उन्होंने अपने स्वजनों से कहा: “मेरा तो सारा जीवन ही एक उत्सव रहा है| मेरे जीवन का हर दिन मेरे मन को खुशियों से भरता था|” सन् 1934 में 83 वर्ष की आयु में मास्को में उनका देहांत हुआ| उनके प्रकाशनगृह से निकली पुस्तकों का आज भी भारी संख्या में पुनर्मुद्रण होता है| उनके छापेखाने आज भी काम कर रहे हैं औ उन्होंने जो दुकानें और इमारतें बनवाई थीं वे अब मास्को के केंद्र में स्थापत्य कला के दर्शनीय स्थल बन गई हैं|(hindi.ruvr.ru से साभार)

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