मँजी हुई शर्म का जनतंत्र, आलोचना : साहित्य, समाज और जनतंत्र, बाजारवाद और जनतंत्र, आजादी और राष्ट्रीयता का मतलब, छूटे हुए क्षण, बुधराम, नवोन्मेष की चुनौती के सामने हिंदी समाज और साहित्य आदि के सुपरिचित कवि-आलोचक प्रफुल्ल कोलख्यान के शब्दों में हाशिये का वंचित जनजीवन धड़कता है। वह तो इसे पूरी साफगोई और बेबाकी से स्वीकारते भी हैं कि 'जी हाँ, मैं लिखता हूँ... दुख पर काबू पाने के लिए। मेरा जन्म न तो महानता की किसी चोटी पर हुआ और न विकास ही किसी महर्षि के अशीर्वाद के कोमल, सुरक्षित, हितकारी प्रकाशवलय की दिव्य परिधि में हुआ। दुख यह नहीं है कि आज भी जिधर अन्याय है, उधर ही शक्ति है; बल्कि यह है कि जहाँ शक्ति है वहीं अन्याय है। दुख है कि जीवन शक्ति के बिना चल नहीं सकता और अन्याय को झेल नहीं पाता। दुख है कि आज भी अंधेरे में ब्रह्मराक्षस दनदनाता हुआ अपने विकास की सीढ़ियाँ चढ़ रहा है।' प्रफुल्ल कोलख्यान फेसबुक पर भी सक्रिय रहते हैं। उनका हिंदी ब्लॉग भी है - prafullakolkhyan.blogspot.in. तरह तरह की सुपठनीय टिप्पणियों और साहित्यिकी से भरा-पूरा। उनकी कुछ पंक्तियां-
सूरज चाँद तारे हैं बुझा-बुझा-सा आसमान क्यों है?
फसलें लहराई बहुत फिर! उदास खलिहान क्यों है?
भूख, अ-भाव से इतनी गहरी हमारी पहचान क्यों है?
आदमी का मन, मन का कोना अब सुसान क्यों है?
कहा, सुना तो बहुत पर बेमानी हर बयान क्यों है!
देवता मुस्कुरा रहे, पूजा का फूल लहुलुहान क्यों है?
यह कौन-सी हवा, आदमी से सभी परेशान क्यों है!
अद्भुत काव्य संवेदन...
ReplyDeleteअद्भुत काव्य संवेदन...
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