Saturday, 31 January 2015

मेरी पाठशाला एक : जिनको पढ़ता रहता हूं

एक है दुनिया रंग-विरंगी, द्वारिका प्रसाद अग्रवाल की। जैसा लिखते हैं, बोल-चाल में भी उतने ही स्वादिष्ट। फेसबुक पर तो प्रतिदिन रहते ही हैं, उनका एक सुपठनीय ब्लॉग भी है - atmkatha3.blogspot.in, जिसे अक्सर पढ़ता रहता हूं, भले अपनी कोई टिप्पणी करूं-न-करूं। इन दिनो वह 'प्यारी दुल्हनियाँ चली' की कड़ियां बुन रहे हैं। उससे पहले चार कड़ियों वाली श्रृंखला ('ये क्या हुआ') 'स्वस्थ होने की कीमत बीमार होने पर ही समझ में आती है' वाक्य से प्रारंभ कर, 'सब जानते हैं कि यदि जेब भरी हो तो 'सब सम्भव हो जाता..' पर पूरी पठनीयता के साथ सम्पन्न कर चुके हैं। उससे पूर्व वर्ष 2014 से प्रारंभ 'ये जीवन है' की पांच कड़ियां वर्ष 2015 में पांचवें सोपान तक आ गयीं। ... लेकिन 'समझो इशारे' के वे चोखे-चौपदे पढ़ने की बात ही कुछ और थी। उनकी रचनाओं के प्रिय पाठक अमित कुमार नेमा लिखते हैं- आपको पढ़ना हमेशा ही रोचक होता है, इसलिए मैं भी उनको अक्सर पढ़ता रहता हूं। फोटो : बनारस में उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ  के ज्येष्ठ पुत्र नय्यर हुसैन खां के साथ उनका एक चित्र, और दूसरे चित्र में अपनी धर्मपत्नी माधुरीजी के साथ।
(क्रमशः)

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