Saturday, 27 December 2014

बिल ब्राइसन का एक इंटरव्यू / डगलस शुल्ज़


(कबाड़खाना से साभार अशोक पांडेय की प्रस्तुति)

बिल ब्राइसन का मैं फैन हूँ. आज से दो साल पहले उनका एक इंटरव्यू मैंने इस ब्लॉग पर पोस्ट किया था. उसी को दोबारा से पेश कर रहा हूँ - (अशोक पांडेय)

स्टैनफोर्ड के सालाना यात्रा सम्भाषण सत्र 2001 के विशिष्ट मेहमान के तौर पर बिल ब्राइसन अपने लेखन और यात्राओं के बारे में अपने ढाई हज़ार प्रशंसकों से बात करने को लंदन पधारे थे. डगलस शुल्ज़ द्वारा लिए गए इस साक्षात्कार की पूरी ट्रान्सक्रिप्ट प्रस्तुत है –

परिचय
ज़ाहिर है, बात घिसी पिटी है कि हमारे मेहमानों का परिचय दिए जाने की ज़रुरत नहीं पड़ती, लेकिन आप में से जो भी तुरंत किसी और नक्षत्र से यहाँ पहुँच कर इस रात इस हॉल में आ पहुंचे हैं उनकी जानकारी के लिए मैं पुष्टि कर सकता हूँ कि हमारे वक्ता जनाब बिल ब्राइसन इस ग्रह के सबसे पसंदीदा यात्रावृत्त लेखक हैं.
यह न सिर्फ उनकी छः यात्रा-पुस्तकों की स्तब्धकारी बिक्री है जिसने उन्हें यह सम्मान दिया है, तथ्य यह भी है कि उनकी किताबें इतनी सुगम्य, सचेतन और सबसे ऊपर आश्चर्यजनक रूप से मजाकिया हैं. यात्रावृत्तों में उनका वही स्थान है जो पाकविद्या में डेलिया स्मिथ और बच्चों की किताबों में जे. के. राउलिंग का. दूसरे शब्दों में कहूं तो वे सर्वश्रेष्ठ हैं.
आप लोगों में जो चौकस हैं उन्होंने गौर किया होगा कि हालाँकि हमने इस का प्रचार एक यात्रा सम्भाषण के रूप में किया था, बिल किसी स्क्रीन के सामने तीखी नोंक वाली छड़ी लिए नहीं खड़े हैं. इसके बजाय हमारी योजना यह है कि बिल और मैं करीब एक घंटे आपस में गपशप करेंगे और यह दिखाने की कोशिश करेंगे कि दो हज़ार लोग हमारी बातें नहीं सुन रहे हैं, और बीच बीच में मैं बिल से अपनी किताबों से कुछ हिस्से पढ़कर सुनाने का निवेदन भी करूंगा ताकि सिर्फ मुझे ही न बोलना पड़े. और आखिर में हम कुछ समय आपके उन प्रश्नों के लिए रखेंगे जिन्हें पूछने से मैं रह गया होऊं.
बिल ब्राइसन - ... और उस के बाद मैं एक ड्रिंक के लिए जा रहा हूँ!
जब मैंने बिल को इस प्लान के बारे में बताया था कि वे मेरे हर सवाल का जवाब हाँ या न में देंगे ताकि आपको मेरी मदद करनी पड़े, बिल ने मुझ से इस का वायदा किया था.

ठीक है बिल, मैं बिलकुल शुरू से शुरू करने जा रहा हूँ, जैसे पार्किन्संस करती है, देस मोइनेस, आयोवा में आपके बचपन से. क्या आपका बचपन सुखी था?
दर असल हाँ. मेरा बचपन बेहद सुखी था. मेरे ख्याल से इसका बड़ा हिस्सा इस बात पर निर्भर था कि मैं पचास के दशक में बड़ा हुआ. अमेरिका में पचास के दशक में बड़ा होना एक तरह से स्वर्णयुग में जीने जैसा था. अभी एक दिन मैं सोच रह था कि उन दिनों में ऐसा क्या ख़ास था, तो वह महान आशावाद का समय था. युद्ध बीत चुका था,अर्थव्यवस्था चढ़ाव पर थी. स्पष्टतः अमेरिका उस तरह की बहाली नहीं करनी पडी जैसे यूरोप के लोगों को करनी पडी सो जब अमेरिका युद्ध से बाहर आया तो उसकी स्थिति बहुत मज़बूत थी और उसके सारे उद्योग तब भी सुरक्षित थे. बस हमने टैंक बनाने बंद कर दिए और टेलीविजन और फ्रिज बनाना चालू कर दिया. सो यह अमेरिका में एक महान विकास का दौर था.
लेकिन वह उस वक्त भी एक ख़ासा सादगीभरा समय था. दो लेन वाले राजमार्गों का समय. और मेरे ख्याल से तब प्रवृत्तियाँ भी फ़र्क़ थीं. आयोवा, जहां मैं बड़ा हुआ, वहां लोग एक ख़ास अंदाज़ में लातीफागोई करते थे जैसा अब नहीं करते, और वे उसकी कद्र करते थे, जिस तरह मैं समझता हूँ ब्रिटिश लोग अब भी करते हैं. हाज़िरजवाबी और ठठ्ठे और इस तरह की चीज़ें.

अब क्यों नहीं करते?
मेरे ख्याल से लोग अब पैसा कमाने और ज़िन्दगी में आगे बढ़ने में ही संतुष्ट हो चुके हैं, और अमेरिका में हाज़िरजवाबी एक तरह की बाधा बन चुकी है. मिसाल के लिए मैं सचमुच सोचता हूँ कि अगर मैं किसी ब्रिटिश कम्पनी में काम कर रहा होता तो मेरे बारे में इस तरह बातें होतीं – “अरे डग, सही बन्दा है यार. क्या चीज़ है. ऑफिस के बाद उसके साथ एक एक बीयर खींचने का मज़ा अलग है,” लेकिन अमेरिकी कम्पनी में यह इस तरह होगा – “डग का पता नहीं. मुझे नहीं मालूम वो इस प्रोग्राम में हमारे साथ है भी या नहीं. और वो उतना सीरियस भी नहीं है.” और मुझे लगता है यह कितने शर्म की बात है.
जब मैं बच्चा था, खूब हंसी ठठ्ठा हुआ करता था. मेरे पिताजी शब्दों के साथ खेलने में माहिर थे.

तो अब हमें पता लग रहा है कि आप में वो बात आई कहाँ से! क्या आपके बचपन में ऐसे कोई संकेत थे कि आप बड़े होकर यात्रावृत्त लेखक बनने वाले हैं? मिसाल के लिए क्या आप कसम खाकर कहेंगे कि अपनी हाईस्कूल ईयर बुक में आपने लिखा था कि आप दुनिया के सर्वप्रिय यात्रावृत्त लेखक बनने जा रहे हैं?
नहीं, मैंने यात्रावृत्त लेखक बनने की कभी सोची ही नहीं और मैं अपने आप को अब भी यात्रावृत्त लेखक नहीं समझता.
मैं तो एक आदमी हूँ जो किताबें लिखता है. मैंने अपने को हमेशा किराये में ली गयी एक कलम समझा है, जो इस बात पर खुश है कि लोग मुझे लिखने के एवज में पैसा देंगे. बस यह हुआ कि मैं यात्राओं की दिशा में निकल पड़ा. मैंने ‘द लॉस्ट कंटीनेंट’ लिखी जो तकनीकी रूप से एक यात्रावृत्त है पर मैंने उसे एक संस्मरण की तरह अधिक देखा. वह अमेरिका में बड़े होने के बारे में थी. मैंने उसे कभी भी यात्रावृत्तों की श्रृंखला की शुरुआत के तौर पर नहीं देखा,लेकिन हुआ यह कि उस पर अच्छी बातें कही गईं और प्रकाशकों ने मुझे उत्साहित किया कि मैं उसी धारा में चलता जाऊं और यात्रावृत्त लिखूं. शुरू में मैं और तरह की किताबें भी लिख रहा था, जैसे कि भाषा पर. वो हाशिये में चली गईं लेकिन मुझे उम्मीद है मैं उन तक वापस लौटूंगा.

क्या आपको काफी पहले पता चल गया था कि आप लेखक बनने वाले हैं?
मुझे पता था कि संभवतः मैं किसी न किसी तरह से शब्दों के साथ काम करने वाला हूं. अंग्रेज़ी इकलौती चीज़ थी जिसमें मैं ठीकठाक था और हमारा पुश्तैनी अखबार हमारा पुश्तैनी धंधा था. मेरे माता-पिता दोनों स्थानीय अखबार के लिए काम करते थे. मेरा भाए जो मुझसे नौ साल बड़ा और इस लिहाज़ से मेरे जीवन में एक स्थानापन्न वयस्क था, भी स्थानीय अखबारों में काम करता था. सो रात को खाने की मेज़ पर यही बातें होती थीं और मुझे किसी और चीज़ का ख़याल ही नहीं आया. तय था कि मैं कोई न्यूक्लियर साइंटिस्ट या जानवरों का डाक्टर नहीं बनने जा रहा था. मुझे अपने बिलकुल शुरुआती क्षणों से बस पता था कि मैं शब्दों के साथ काम करूंगा.

मेरा दूसरा सवाल यह है कि आप ने देस मोइनेस छोड़ क्यों दिया? ‘द लॉस्ट कंटीनेंट’ की विख्यात शुरुआती पंक्तियों को उद्धृत करें तो –
“जब आप देस मोइनेस के रहनेवाले होते हैं तो आप या तो इस तथ्य को बिना कोई सवाल किये स्वीकार कर लेते हैं और बॉबी नाम की किसी लडकी के साथ शादी कर के फायरस्टोन फैक्ट्री में नौकरी पाकर हमेशा हमेशा के लिए वहीं रहें या आप अपना लड़कपन लम्बे समय तक इस बात का रोना रोते हुए गुजारें कि यह क्या कूड़ा जगह है और आप इस जगह को छोड़ कर जाने तक का इंतज़ार नहीं कर सकते और तब आप बॉबी नाम की किसी लडकी के साथ शादी कर के फायरस्टोन फैक्ट्री में नौकरी पाकर हमेशा हमेशा के लिए वहीं रहें.”

उस नियति से आप कैसे बच सके?
मैं, बस ऐसे ही चला आया. और यह वाक़ई अजीब था क्योंकि सारे हाईस्कूल भर जैसा कि मेरे ख्याल से उस समय हाईस्कूल में सारे ही लोग कहा करते थे “हे भगवान, मैं ग्रेजुएट होकर यहाँ से बाहर जाने का इंतज़ार नहीं कर सकता.” और जब ऐसा हो गया हो मैं निकल पड़ा और मैंने यह तक सोचा कि हर कोई मेरे साथ आ रहा है मगर सारे वहीं रहे और सब ने फायरस्टोन फैक्ट्री में नौकरी पा ली.
मैं बाहर निकलने का इंतज़ार नहीं कर सकता था क्योंकि देस मोइनेस इस कदर हैबतनाक था, लेकिन मुझे हमेशा यह सघन होश रहता था कि मैं बड़ा हो रहा हूँ और असल संसार कहीं और है. अपने बचपन के शुरुआती दिनों से ही मैं ‘नेशनल जियोग्राफ़िक’ की तस्वीरें देखकर बहुत प्रभावित होता था. हर जगह इतनी अच्छी और इतनी दिलचस्प और भरपूर और सुन्दर दिखती थी और ऐसा लगता था कि लोग काफी रोमांचक जीवन जी रहे हैं और मैं भी बाहर निकलकर वैसा थोड़ा कुछ करना चाहता था. सो जैसे ही मुझे मौका मिला मैं निकल आया और संयोगवश यहाँ पहुँच गया. ब्रिटेन में.

आप ने यहाँ ब्रिटेन में पत्रकारिता का काम किया और तब आपके जीवन में वह महत्वपूर्ण क्षण आया था जब आप नौकरी छोड़कर अपने बच्चों के साथ उत्तरी यॉर्कशायर जा बसे थे और वह भी उन तीन हज़ार पाउंड्स की हिम्मत पर जो आपको एक किताब लिखने के लिए मिलने वाले थे, और उसके बाद आप अपने बच्चों की परवरिश के अलावा ‘द लॉस्ट कंटीनेंट’ लिखने को यात्रा पर निकलने वाले थे. यह सुनना ही डरावना लगता है?
मेरे लिए भी वह डरावना ही था और इस का पूरा श्रेय मेरी पत्नी को जाता है कि मैं वैसा कर सका. हुआ ये कि मैं फ्लीट स्ट्रीट में काम कर रहा था और अखबारों में उपसंपादक के तौर पर मेरा करियर खासा सुखद था. एक बार छुट्टियों में हम यॉर्कशायर गए हुए थे और मेरे ख्याल से मैं रोज़ के काम पर आने-जाने के क्रम से सामान्य से कहीं ज्यादा उकताया हुआ था. रोज़ गाड़ी लेकर लंदन में प्रवेश करने और वहां से बाहर निकलने से मैं ऊब चुका था और मैं लिखना भी चाहता था. यह मेरी हमेशा से ख्वाहिश रही थी कि मैं लिख कर अपना पेट पालूँ. यॉर्कशायर से वापस आते समय मैं कुछ ज्यादा ही झींकता रहा होऊँगा क्योंकि वापस काम पर जाने के बाद एक दिन मेरी पत्नी ने मुझे फोन किया, जो वह आम तौर पर नहीं करती और बोली – “मैं तुम्हें यह बताना चाहती हूँ कि मैंने मकान को बिक्री के लिए बाज़ार में लगा दिया है.” और मैंने कहा – “तुम ने क्या ...?” तो वह बोली “और बड़ी बात यह है कि कुछ लोग कल उसे देखने आ रहे हैं.” तो उन लोगों ने  अगले दिन आकर मुंहमांगी कीमत अदा की और मकान खरीद लिया, तो एक तरह से मुझे जबरन ऐसा करने को धकेला गया. मैं भयाक्रांत था क्योंकि वयस्क होने के बाद से कभी भी मैं बगैर तनख्वाह के नहीं रहा था.

आपकी किताब का विचार वापस अमेरिका जाकर वहां की छोटी छोटी जगहों की यात्रा करने का था और नतीजे में जो सामने आया वह ‘द लॉस्ट कंटीनेंट’ था. आप के यात्रा लेखन में बार बार आने वाली इस चीज़ ने मुझे बहुत मुग्ध किया है कि आप एक साथ आउटसाइडर भी हो जाते दीखते हैं और इनसाइडर भी. इस मामले में आप एक अमेरिकी थे जो वापस जाकर अमेरिका के बारे में लिखने जा रहा था. जब आप अपने घर के बारे में लिख रहे थे तब क्या आप को किसी आउटसाइडर जैसा महसूस हुआ था?
मेरे ख्याल से मुझे एक हद तक हमेशा ऐसा लगता रहा. बाकी और लोगों से कहीं ज्यादा मैं असल में आयोवा से बाहर निकला कर कहीं और बस जाना चाहता था. मुझे बस यह लगता था कि मैं दूसरों की तरह उसके भीतर ठीक से फिट नहीं हो पाता था. तब मैं यहाँ आया और मैंने पाया कि एक विदेशी के रूप में ब्रिटेन में रहना कितना आह्लादकारी होता है. यह एक बेहतरीन स्थिति होती है. जब सब कुछ ठीक ठाक चल रहा हो तो आप आगे बढ़कर समारोहों वगैरह में हिस्सेदारी कर सकते हैं और हर चीज़ बहुत अच्छी होती है. और जब सब कुछ ठीक न चल रहा हो, जो यहाँ के मामले में पूरी तरह एक परिकल्पित स्थिति होती है, जैसे कि मान लीजिये आपकी राष्ट्रीय फ़ुटबाल टीम जर्मनी से हार गयी तो आप पीछे खड़े रहते हुए कह सकते हैं कि क्या शर्म की बात है.

तो जब आप ब्रिटेन में बीस साल रहने के बाद ‘नोट्स फ्रॉम अ स्मॉल आइलैंड’ लिखने जा रहे थे क्या ब्रिटेन में तब भी आप अपने को एक आउटसाइडर महसूस करते थे?
मैं यहाँ हमेशा बहुत सुकून से रहा हूँ. यहाँ आकर मुझे बहुत जल्दी ही घर जैसा लगने लगा था और मैं यहाँ वाकई बस गया और खुश था. विदेशी होना मेरी खुसूसियत थी. मैं एक अमेरिकी हूँ. मैं हमेशा था भी और यही मेरा पहचान चिन्ह था और एक तरह से अच्छा था. मैंने उसका बड़ा लुत्फ़ उठाया. इस आप कुछ अलग और ख़ास बन जाते हैं. मेरे लिए यह समस्या तब बनी जब मैं वापस अमेरिका गया और मेरे पास अचानक यह विशिष्टता नहीं रही थी. वहां जो मैं था एक अमेरिकी था जिसकी आवाज़ मजेदार सी थी और लोगों को सही सही पता ही नहीं रहता था कि वे मेरे बारे में किस तरह सोचा करें.

‘नोट्स फ्रॉम अ स्मॉल आइलैंड’ के बाद आप वापस अमेरिका चले गए और मैं जानता हूँ कि ऐसा करना आपके लिए कोई आसान सांस्कृतिक फ़ैसला नहीं रहा था. सच यह है कि आपने एक दफा कहा था कि आप जीवन में तीन काम नहीं कर सकते – पहला, आप टेलीफोन कम्पनी को हरा नहीं सकते, दूसरा आप किसी वेटर की निगाह में तब तक नहीं आ सकते जब तक कि वह आपको देखने को तैयार न हो और तीसरा यह कि आप कभी घर वापस नहीं जा सकते. तो क्या आप वापस घर जा पाए?
बहुत मुश्किल था. मेरी उम्मीदों से कहीं ज्यादा मुश्किल. मैंने सोचा था कि मैं बस वहां जा रहा हूँ जो मेरे लिए बहुत परिचित था, लेकिन दिक्कतें तमाम तरह की थीं. पहली यह कि मैं काफी लम्बे समय से बाहर रह रहा था, और मैं अपनी कई आदतों और सोचने के तरीकों में ‘अँगरेज़’ बन चुका था. सो यह एक बड़ी समस्या थी. और अमेरिका भी बहुत बदल गया था. और आख़िरी यह कि मैं वयस्क होने के बाद अमेरिका में रहा ही नहीं था; मैं हमेशा किसी न किसी का बच्चा रहा था. सो वे सारी चीज़ें जो आप बड़े होने पर ही करते हैं – पेंशन लेना, चीज़ें गिरवी रखना वगैरह, वे सब मैंने ब्रिटेन में की थीं. अमेरिका में मेरे पिताजी ने यह सब किया था. सो मैं अपने ही देश में एक तरह से असहाय था. मुझे किसी हार्डवेयर स्टोर में सामान तक मांगना नहीं आता था. मुझे चीज़ों के नाम याद ही नहीं रह गए थे. मेरे वार्तालाप अक्षरशः इस तरह के हुआ करते थे – “मुझे थोड़ी सी वो अजीब सी चीज़ चाहिए जिनसे दीवारों के छेड़ भरे जाते हैं.” मेरी पत्नी के देश के लोग उसे ‘पौलीफीलिया’ कहते हैं, वहां वे उसे ‘स्पेकल’ कहते थे. बचपन से ही इतनी अंतरंगता से परिचित ऐसी जगह पर अलग-थलग पड़ जाना बेहद अटपटा था.
मुझे इस बात की भी आदत पद गयी थी कि यहाँ ब्रिटेन में आप बात बात पर लतीफे गढ़ सकते हैं पर अमेरिका में ऐसा करना बहुत खतरनाक होता. इस बारे में मैंने अपनी एक किताब में लिखा है. एक बार मैं बोस्टन में कस्टम और इमीग्रेशन से गुज़र रहा था तो वहां पर मौजूद आदमी ने मुझ से पूछा “कोई फल या सब्जियां?” तो मैंने जवाब दिया “ठीक है, चार किलो आलू दे दीजिये.” उस वक्त मुझे ऐसा लगा था कि वह मुझे दबोच कर फर्श से चिपका देने वाला था.
आपने अक्सर अमेरिका में एक अलग तरह के सेन्स ऑफ़ आइरनी की बात की है. मिसाल के लिए मुझे आपके उस पड़ोसी का वो किस्सा बहुत पसंद आया था जो अपने बगीचे में एक पेड़ काट रहा था और उसे अपनी कार की छत पर लाद रहा था ...
हाँ, एक तूफ़ान में उसके बगीचे में एक पेड़ गिर गया था और एक दिन घर के बाहर आकर मैंने देखा कि वह पेड़ को छोटे हिस्सों में काट कर उसे निबटाने की नीयत से अपनी कार की छत पर लाद रहा था. पेड़ खासा झाड़ीदार था और कार के अगल बगल झूल रहा था. मैंने बिना सोचे जल्दीबाजी में कह दिया – ‘अच्छा तो आप कार को छिपाकर ले जा रहे हैं” और उसने मुझे देख कर कहा “नहीं, नहीं. रक रात तूफ़ान में यह पेड़ गिर गया था.” सो यह ऐसे ही चलता रहा. ऐसी घटनाएं होती रहीं. मैं पाता था कि मैं उन सज्जन के साथ खूब लतीफेबाजी कर रहा हूँ. एक दफा मुझे एक हवाई यात्रा का दुस्वप्न सरीखा अनुभव हुआ – फ्लाईट छूट गयी वगैरह वगैरह, तो उन साहब ने मुझ से पूछा “आप किस कम्पनी के साथ यात्रा कर रहे थे?” तो मैंने जवाब दिया “पता नहीं सारी ही कम्पनी अजनबी थी.” इस बात से उसे बहुत असुविधा हुई.

आपको अमेरिका वापस गए हुए पांच साल हो चुके हैं. ब्रिटेन के बारे में आपके आउटसाइडर का नजरिया अब क्या है? क्या आप संपर्क में रहते हैं?
मैं हर साल छः या सात बार वापस आता हूँ. जितना भी परिस्थियां अनुमति दें. अब लन्दन में हमारे पास एक फ़्लैट है, सो हम एक परिवार के तौर पर आया करते हैं और मैं संपर्क बनाए रखता हूँ. मैं अब भी टेलीफोन पर बहुत सारे लोगों के साथ बात करता हूँ और घटनाओं के बारे में जानकारियाँ लेता रहता हूँ. सो ब्रिटेन विदेश नहीं बना है.

वे ब्रिटिश जड़ें कितनी स्थाई हैं? मिसाल के लिए क्या आप यह जान सके कि लोगों देश को गणराज्य बनाने के लिए अच्छा समर्थन देते हैं?
अफ़सोस, देश को गणराज्य बनाने के लिए अच्छा समर्थन तो ख़ास अच्छा नहीं है. मेरा मानना है कि उनकी स्थिति खासी असुविधापूर्ण है, वे लम्बे समय तक ब्रिटेन का उपनिवेश रहे थे और वे जैसे भी हैं पिछले पचास सालों से एक अलग पहचान बनाने में लगे हैं और उसमें समय लगता है. ऐसा करना मुश्किल होता है पर वे लोग धीरे धीरे वहां पहुँच रहे हैं. मेरा ख्याल है ओलिम्पिक्स ने काफी मदद की. वह एक आखिरी कदम था जिसे लिया ही जाना था ताकि एक मुक्त आत्मनिर्भर समाज के रूप में उनकी पहचान बने और उनके भीतर वह आत्मविश्वास आए.
ऑस्ट्रेलिया में बच गई ब्रिटिश विशिष्टताओं में एक क्रिकेट है. ऑस्ट्रेलिया में रेडियो पर क्रिकेट कमेंट्री सुनने पर ‘डाउन अंडर’ में एक बढ़िया टुकड़ा है जिसे हम बिल से पढ़कर सुनाने को कहेंगे.
एक और चीज़ जिसने आपको बाँधा वह भौतिक तौर पर अपने अलग थलग पड़े होने के कारण ऑस्ट्रेलियाई महाद्वीप की उल्लेखनीय जैव और वन्य विविधता है. आपने किताब में ऐसी ऐसी और इतनी सारी प्रजातियों को दर्ज किया है जिन्हें इस ग्रह पर और कहीं नहीं पाया जाता.
हाँ, और हर वक़्त नई नई प्रजातियाँ खोजी जा रही हैं. वे जानते ही नहीं वहां और क्या क्या है. ऑस्ट्रेलिया के बारे में एक और शानदार बात यह है कि यह अब भी एक न खोजा गया मुल्क है. मुझे संख्या ठीक से याद नहीं लेकिन कोइ एक लाख कीट पतंगों की प्रजातियाँ वहां ऐसी हैं जिनका किसी वैज्ञानिक ने न निरीक्षण किया है, न उन्हें कोई नाम दिया गया है न उनका कोई कैटलोग तैयार हुआ है. यही बात वनस्पतियों के बारे में सच है. इस तरह की करीब पचास हज़ार प्रजातियाँ हैं. ऐसी ऐसी चीज़ें भी हैं जो कैंसर का इलाज कर सकती हैं. संभावनाएं अविश्वसनीय हैं. कोई भी असल में नहीं जानता वहां क्या क्या है.
और वह एक ऐसा देश है जिसके ढंग से नक्शे तक नहीं बनाए गए हैं.
बमुश्किल. ऑस्ट्रेलिया के नक़्शे वैसे तो बनाए जा चुके हैं जैसे हवाई जहाज़ से लैंडस्केप के काफी नज़दीक से गुजरते वक्त दीखते हैं पर वास्तविक ज़मीनी स्तर पर एक विशाल भूखंड के नक़्शे अभी बनने बाकी हैं. आप एक ऐसी जगह के बारे में बात कर रहे हैं जो संयुक्त राज्य अमेरिका महाद्वीप यानी निचले ४८ राज्यों जितना बड़ा है और जिसकी आबादी न्यूयॉर्क जितनी है. उसका इतना सारा हिस्सा अभी खाली पड़ा है. आप ऑस्ट्रेलियामें ऐसी जगहों पर भी अपने को पा सकते हैं जहां आप सड़क किनारे खड़े होकर एक तरफ देखें तो संभवतः अगले फुटपाथ को देखने आपको १५०० किलोमीटर आगे जाना पड़े. मुझे यह सब बहुत अचरजकारी लगता है.

मुझे ऑस्ट्रेलिया के तटीय इलाकों से काफी दूर के इलाकों के शुरुआती खोजियों के किस्से बहुत पसंद हैं. वो कहानी क्या थी अपना खुद का मूत्र पीने के बारे में? या किसी दूसरे का?
नहीं, मेरा अपना नहीं!
होता यह था कि खोजी लोग ऑस्ट्रेलिया जाया करते थे और चूंकि उनमें से ज़्यादातर ब्रिटेन और आयरलैंड जैसे मुलायम और समशीतोष्ण देशों से जाते थे, उन्हें कतई पता नहीं होता था कि वे जा कहाँ रहे हैं, न तो वहां के आकार के बारे में उन्हें बहुत मालूमात होते थे न वहां के पर्यावरण की मुश्किलों के. उनके जीवन की किसी भी चीज़ ने उन्हें इस के लिए तैयार नहीं किया होता था. सो वे समूचे महाद्वीप को आरपार कर लेने के बड़े मंसूबों के साथ सफ़र शुरू करते थे जो आज के मोटरगाड़ियों के ज़माने में भी ख़ासा बड़ा काम होता है.सो उन्नीसवीं शताब्दी में ऐसा करना बेहद मुश्किल होता था और निरपवाद रूप से उन सब का सामना ऐसी परिस्थितियों से होता था जब उनके पास पीने को पानी की एक बूँद तक नहीं होती थी और उन्हें अपना या अपने घोड़े का मूत्र पीने को विवश होना पड़ता था. ऐसा आम तौर पर उल्टा असर करने वाला होता है क्योंकि मूत्र में उपस्थित लवण प्यास को और बढ़ा दिया करते थे. ऐसा मैंने पढ़ा है – कभी जांचकर नहीं देखा.

कुछ समय के लिए आपका एक साथी भी था – आपका दोस्त एलन – जो आपके साथ कुछ समय के लिए आया था और जिसे आप ऑस्ट्रेलिया में उसके साथ घट सकने वाली हैबतनाक बातों की कहानियाँ सुनाकर डराया करते थे. क्या आप एलन के साथ क्वींसलैंड वाला हिस्सा पढ़कर सुनाएंगे?
उस हिस्से की पृष्ठभूमि समझाना चाहूँगा पहले. मैं क्वींसलैंड के उत्तरी विषुवतीय इलाके में हूँ एक बीच पर टहलता हुआ और मेरे साथ मेरे ब्रिटिश दोस्त एलन शेर्विन है जो कुछ दिन मेरे साथ घूमने के लिए पहुंचा है. तब तक मैं इस तथ्य से भली भाँती परिचित हो चुका था कि सैद्धांतिक रूप से हालांकि जानवर बहुत खतरनाक होते हैं, वास्तविकता में वे नहीं होते, लेकिन एलन को यह मालूम नहीं था और यह सब उसके लिए नया था. और मैं स्वीकार करना चाहूँगा कि मैंने उसके इस अज्ञान का फायदा उठाया. आपको यह भी पता होना चाहिए कि वह क्वींसलैंड में बॉक्स जेलीफिश का सीज़न था. बॉक्स जेलीफिश अंडे देने के लिए इन दिनों भीतरी तटों तक आया करती थीं और यह भी कि यह धरती पर सबसे ज़हरीली प्रजातियों में एक होती है.

आपने ऑस्ट्रेलिया को एक भाग्यशाली देश कहा है, लेकिन जो एक हिस्सा इस तस्वीर में फिट नहीं बैठता वह वहां के आदिवासियों का कष्ट है. आधुनिक समाज में इन आदिवासियों की स्थिति को लेकर आपने जो आंकड़े उद्धृत किये हैं वे तबाहकुन हैं और ऐसा लगता ही कि इसके लिए सतही उत्तर यही दिया जाता है कि बीसवीं सदी और आदिवासी आपस में मेल नहीं खाते. आपकी किताब में सबसे दुखी करने वाला हिस्सा वह है जिसमें आप इन दो संसारों के बीच की खाई पाटने के लिए की जा रही सोशल इंजीनियरिंग का वर्णन करते हैं. क्या आप हमें थोड़े से में बता सकेंगे कि वह प्रयोग क्या था और उन तथाकथित “चुरा ली गयी पीढ़ियों” का क्या हुआ?
उसे ही “चुरा ली गयी पीढ़ियाँ” कहा जाता था और यह सारे ऑस्ट्रेलिया में सबको मालूम है और सभी को उस की वजह से बेहद ग्लानि महसूस होती है.
जैसा कि आप कह रहे हैं यह सोशल इंजीनियरिंग की एक प्रक्रिया थी जिसे सदी के शुरू में लागू किया गया और हाल के समय तक यानी साठ के दशक तक चालू थी. आदिवासी बच्चों को उनके माँ-बाप से अलग कर के – हालांकि इसके पीछे भलमनसाहत की भावना होती थी - सरकारी स्कूलों – एक तरह के सरकारी अनाथालयों में ले जाया जाता था – या शहरों में रह रहे शहरी यूरोपियनों को गोद दे दिया जाता था ताकि वे गरीबी और अज्ञान के चक्र से बाहर आ सकें. इस नीति को इन लोगों के मोक्ष की तरह देखा गया जो मूलतः जंगली थे, कि उन्हें उनकी गरीबी से बाहर लाकर एक बेहतर वातावरण में रखा जाए. लेकिन सच यह था कि इस वजह से परिवार तबाह हो रहे थे. परिवार टूटते जा रहे थे. एक माता-पिता के तौर पर आप को कैसा लगेगा अगर एक दिन आपके घर के बाहर आकर एक सरकारी वैन रुके और उसमें से लोग उतर कर आपसे कहें “माफ़ कीजिये, हम आपके चार बच्चों को ले जा रहे हैं. हम उन्हें आपसे दूर ले जा रहे हैं. इसमें आप कोई भी विरोध नहीं कर सकते. किसी बच्चे को जन्म देने वाला आदिवासी अपने बच्चे का कानूनी अभिभावक नहीं था - यह सरकार का काम था. सरकार के पास बच्चे को उठा ले जाने की कानूनी अनुमति थी. इस मामले की सुनवाई के लिए कोर्ट कचहरी जैसा भी कुछ नहीं था. सरकार अपने “बच्चों” की कस्टडी खुद ले सकती थी, जैसा की उस समय का कानून कहता था. वे बच्चों को उठा ले जाते थे. आप कल्पना कीजिये इस से बच्चों पर क्या असर पड़ा होगा. आप कल्पना कीजिये इस से माता-पिताओं पर क्या असर पड़ा होगा. कुछ मामलों में यह कई सालों तक चलता रहा. कभी कभी एक ही परिवार के चार बच्चे देश के चार बिलकुल अलग-अलग हिस्सों में पहुंचा दिए जाते थे. तो आप के देश में छेद दिए गए परिवार थे. आप ने हर तरह की समस्या जैसे अपने बच्चों से बिछड़ गए माता-पिताओं की आत्महत्या और अल्कोहोलिज्म के लिए ज़मीनी काम तो कर ही दिया था. और उन बच्चों के लिए नई जगहों पर खुद को ढालने की समस्या? – किस कदर गहरे ट्रौमा से गुजरना पड़ता था उन्हें. कभी कभी तो वे चार और पांच की आयु में उठा लिए जाते थे.
क्या उन्हें उठाये जाने के बाद किसी तरह का आपसी संपर्क हो पाता था?
नहीं, क्योंकि माना जाता था कि ऐसा करना एक कदम पीछे हटना होगा. इसे परोपकार की भावना से किया गया कार्य कहा जाता था. लेकिन जिस तरह से उसका कार्यान्वयन होता था वह खौफनाक था. मुल्क उस बात की कीमत आज भी चुका रहा है क्योंकि इस सारे तमाशे ने आदिवासियों और सरकार के लिए उनकी भावनाओं के बीच बड़ी खाई बना दी थी. बहुट से परिवार तहस नहस हुए और अल्कोहोलिज्म का एक भयानक चक्र शुरू हो गया
तो वर्तमान एकीकरण नीति को लेकर आप क्या सोचते हैं?
ज़ाहिर है, अब वे जो कर रहे हैं उसमें विवेक का इस्तेमाल ज्यादा होता है. यह अब भी एक बड़ी समस्या है. सामाजिक अभाव के किसी भी इंडैक्स में आदिवासी हमेशा सबसे नीचे आते हैं. अगर आप गिरफ्तारियों, नशीली दवाओं, गरीबी, स्वास्थ्य, शिशु मृत्यु जैसी चीज़ों के आंकड़े देखें तो तो वे सबसे नीचे होते हैं. साफ़ है उन्हें बेहतर जीवन देने के लिए बहुत कुछ और किया जाना है. इस समस्या का सबसे बड़ा हिस्सा यह है कि उनमें से अधिकतर सुदूर इलाकों में रहते हैं. सो उनके पास शिक्षा और रोज़गार के वैसे अवसर नहीं हैं जैसे उन्हें शहरों में रहते हुए मिलते. यह एक्बहुत बड़ी समस्या है और कोई भी आज तक किसी ठोस समाधान के साथ आगे नहीं आया.
ओलिम्पिक्स की बात करते हैं. आप सिडनी मॉर्निंग हैरल्ड और द टाइम्स के लिए रिपोर्टिंग करने ओलिम्पिक्स में मौजूद थे. दर असल मैंने आप का लिखा तलवारबाजी और टेबल टेनिस जैसे कम चर्चित खेलों पर लिखा हुआ एक टुकड़ा पढ़ा था. मुझे बताया गया है कि वहां कुछ लोग थे जो टेबल टेनिस में आप से बेहतर थे?
मैं उन सारे ‘अल्पसंख्यक’ खेलों को देखने गया लेकिन कोई भी मुझे भाया नहीं. जैसे तलवारबाजी - सिर्फ ‘क्लिक क्लिक क्लिक’ और हो गया. फिर वे आराम करते हैं. दोबारा गार्ड लिया और ‘क्लिक क्लिक क्लिक’ और फिर हो गया. आप बस सोचते रह जाते हैं “ये खेल है क्या चीज़ यार?” मुझे वह बेहद उबाऊ लगा और मैंने जूडो पर ध्यान लगाया. वह भी ऐसा ही था. अब ये दो बन्दे हैं लगातार एक दुसरे के गिर्द चक्कर लगा रहे हैं जैसे कि दूसरे के जाने बिना उसकी कमीज़ उतार देने की जुगत में लगे हुए हैं. मैंने सोचा – ‘ये है क्या? मेरी समझ में कुछ नहीं आया.” फिर मैं टेबल टेनिस पर गया जो मेरी समझ में आ गया क्योंकि मैं उसे खेल चुका था – ओलिम्पिक के स्तर पर नहीं – पर मेरी समझ में आता था वह. मेरी समझ में आया कि ये लोग उस सब से कहीं आगे पहुँच चुके लोग हैं जिसका मैं सपना देख सकता हूँ. मुझे बड़ा खराब लग रहा था कि मैं तलवारबाजों की कला की तारीफ करने लायक न था. वे मेरी समझ में इस वजह से नहीं आटे थे कि वे इस कदर शानदार थे, इस कदर फुर्तीले कि मैं देख ही नहीं पा रहा था कि वे कर क्या रहे थे.
तलवारबाजी को लोकप्रिय बनाने के लिए आपके पास कुछ विचार थे ...
हाँ, कुछ सुझाव थे. मुझे लगा कि आप सरप्राइज़ अटैक जैसे दाँवों को प्रोत्साहित कर सकते थे . मुझे लगा कि ऐसा अच्छा रहेगा. मुझे यह विचार भी भाया कि एक खिलाड़ी पारंपरिक तलवार लिए हो और दूसरा बरछी. सबसे प्रिय मुझे यह विचार लगा कि दोनों ही की आँखों पर पट्टी बाँध दी जाए और दोनों को  थोड़ा गोल गोल घुमाकर अचानक एक दूसरे की तरफ धकेल दिया जाए. इस से खेल लम्बा खींचेगा ...
खासी गंभीर खेल पत्रकारिता है जनाब! ... खैर. ‘डाउन अंडर’ में आपके एक वाक्य ने मुझे हैरत में डाला था जब आपने तनिक निराशा के साथ कहा था कि आज के समय में यात्रा का बड़ा हिस्सा चीज़ों को देख लेना होता है, जब तक कि वे बची हुई हैं. कौन सी चीज़ गायब हो रही है?
स्पष्टतः दुनिया में आप जहां भी जाएं हर जगह एक सी में बदल रही है, और यह मुझे हतोत्साहित करने वाला लगता है. अमेरिका के किसी भी शहर में अगर आपने कॉफ़ी पीनी है तो स्टारबक्स कप हर जगह मिलता है. दुनिया का मैक्डोनाल्डीकरण. और ऐसा हर जगह और और ज्यादा होता दीखता है. यह सिर्फ अमेरिकी फिनोमेना नहीं है – बॉडी शॉप और एनी संस्थाएं भी इस में सहयोग कर रही हैं, जैसा कि व्यावसायिक संसार के साथ होना ही होता है, अमेरिका पथप्रदर्शक है. यह भी हतोत्साहित करने वाला है. जब मैं एलिस स्प्रिंग्स पहुंचा तो मुझे बहुत निराशा हुई थी. मैं डार्विन से हज़ार किलोमीटर गाड़ी चलाकर इस खाली रेगिस्तान में पहुंचा था. में होटल के कमरे में घुसा और जैसे ही मैंने परदे खोले सड़क के उस पर के-मार्ट दिख गया. मैं इतनी दूर के-मार्ट देखने नहीं आया था.
आप ने एलिस स्प्रिंग्स को ऐसे समुदाय के तौर पर वर्णित किया है जो एक ज़माने में सुदूर होने की वजह से विख्यात था और अब वहां हज़ारों लोग सिर्फ यह देखने आते हैं कि अब वह कितना सुदूर नहीं रह गया है. यह आधुनिक यात्रा की एक विडम्बना है कि आप किसी ख़ास जगह को ढूंढते हैं, जो इस वजह से भी ख़ास है कि काफी दूर है और वहां पहुँचने के लिए काफी मशक्कत करनी होती है और यह कि आप भी ख़ास होने जा रहे हैं क्योंकि आपने वहां पहुँचने के लिए मशक्कत की है और जब आप वहां पहुँचते हैं आप पाते हैं कि वहां आप ही जैसी सोच वाले असंख्य लोग जमा हैं और यही नहीं वह जगह आपका इंतज़ार कर रही है. यह सब दर असल आपके स्वागत के लिए तैयार किया गया होता है. जब आप एलिस स्प्रिंग्स जैसी जगह पहुँचते हैं जहां बाकी असंख्य लोग भी उसी वजह से पहुंचे हैं तो क्या आपको निराशा होती है?
माफ़ कीजिये, क्या मैं एक बात कह सकता हूँ. क्या हम लोग एक ड्रिंक के लिए अभी जाएंगे या नहीं?
बस पांच मिनट! आप सवाल का जवाब दे दीजिये.
मैं निराश हुआ था. इस से कोई बचाव भी नहीं था. मेरी उम्मीदें काफी ज्यादा थीं. एलिस स्प्रिंग्स टिम्बकटू किस्म की जगह है. बाहर से आने वाले ज़्यादातर लोग इस बारे में जानते ही नहीं सो आप अपने दिमाग में कुछ छवियों का निर्माण करने लगते हैं. मैंने सोचा था कि वह कोई धूलभर गायों वाला शहर होगा जहां पोस्टों से घोड़े बंधे हुए होंगे वगैरह. वहां जाकर मैं पाता हूँ कि वह बिलकुल आधुनिक नगर है जो मेलबर्न या ऐसे ही किसी महानगर से सटा हुआ उपनगर भी हो सकता था. इस लिहाज़ से मैं निराश हुआ था. पर असल में वह अच्छा था. एलिस स्प्रिंग्स में कुछ भी गलत नहीं. बस वह उतना एक्ज़ोटिक नहीं था जैसे मैंने सोच रखा था
यह कह चुकने के बाद भी, यात्रा करने से हतोत्साहित होने के बजाय, ‘डाउन अंडर’ के आखीर में मुझे ऐसा लगा कि आप वापस वहां जाना चाहेंगे. कि अभी वहां बहुत कुछ है जिसे आपने देखना बाकी है. यह कहता हुआ मैं खोटेपन का प्रदर्शन कर रहा हूँ पर क्या आप वाकई निराश हुए थे क्योंकि ‘डाउन अंडर’ खत्म करने के बाद मुझे ऑस्ट्रेलिया जाने की प्रेरणा मिलने लगी थी और मैं उन सब जगहों पर जाना चाहता था जिनके बारे में आपने बताया है. सो मैं तो बेशर्मी से हर किसी को ‘डाउन अंडर’ पढने की सिफारिश करूंगा क्योंकि यह श्रेष्ठतम कोटि का यात्रावृत्त है क्योंकि इस को पढ़कर आप का मनोरंजन होता है, आप बहुत कुछ सीखते हैं, और यह आपको यात्रा करने की प्रेरणा भी देता है.
फिलहाल मैं बिल को मुक्त करता हूँ.

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