Saturday, 27 December 2014

एक स्त्री और एक पुरुष / अदूनिस

“कौन हो तुम?”
“निर्वासित कर दिया गया मसखरा समझ लो,
समय और शैतान के कबीले का एक बेटा.”
“क्या तुम थे जिसने सुलझाया था मेरी देह को?”
“बस यूं ही गुज़रते हुए.”
“तुम्हें क्या हासिल हुआ?”
“मेरी मृत्यु.”
“क्या इसीलिये तुम हड़बड़ी में रहते थे नहाने और तैयार होने को?
जब तुम निर्वस्त्र लेटे रहते थे, मैंने अपना चेहरा पढ़ा था तुम्हारे चेहरे में.
मैं तुम्हारी आँखों में सूरज और छाँव थी,
सूरज और छाँव. मैंने तुम्हें कंठस्थ कर लेने दिया अपने अपने आप को
जैसे एक छिपा हुआ आदमी करता है.”
“तुम जानती थीं मैं तुम्हें देखा करता था?”
“लेकिन तुमने मेरे बारे में क्या जाना?
क्या अब तुम मुझे समझते हो?”
“नहीं.”
“क्या मैं तुम्हें खुश कर सकी, क्या बना सकी तुम्हें कम भयभीत?”
“हाँ.”
“तो क्या मुझे नहीं जानते तुम?”
“नहीं. तुम जानती हो?”

2 comments:

  1. भीतर का झंझावात ... मन की उलझन ....
    अर्थपूर्ण है बहुत रचना ...

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    1. अदूनिस की रचना पर प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार

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