भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणाम होंगे। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप कृषि उत्पादन में गिरावट के कारण मुद्रास्फिति की दर बढ़ेगी परिणामस्वरुप गरीबी, भूखमरी तथा बेरोजगारी में वृद्धि के कारण अपराधिक घटनाओं में अभूतपूर्व वृद्धि होगी। फसलों की असफलता से किसान आत्महत्या को मजबूर होंगे। संक्रामक बिमारियों का प्रकोप बढ़ने से इन बिमारियों से होने वाली मृत्यु दर में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी होगी। जलवायु परिवर्तन का अप्रत्यक्ष प्रभाव देश की आंतरिक सुरक्षा तथा सामरिक क्षेत्र पर भी पड़ेगा।
क्या है जलवायु परिवर्तन?
जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण वैश्विक तपन है जो हरित गृह प्रभाव (Green house effect) का परिणाम है। हरित गृह प्रभाव वह प्रक्रिया जिसमें पृथ्वी से टकराकर लौटने वाली सूर्य की किरणों को वातावरण में उपस्थित कुछ गैसें अवशोषित कर लेती हैं जिसके परिणामस्वरुप पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है। वह गैसें जो हरित गृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी हैं को हरितगृह गैस के नाम से जाना जाता है। कार्बन डाईऑक्साइड
(CO2), मीथेन (CH4), क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स (CFCs), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) तथा क्षोभमण्डलीय ओजोन
(O3) मुख्य हरित गृह गैसें हैं जो हरित गृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी हैं। विभिन्न कारणों से वातावरण में इनकी निरन्तर बढ़ती मात्रा से वैश्विक जलवायु परिवर्तन का खतरा दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।
पृथ्वी के सतह का औसत तापमान लगभग 15 डिग्री सेल्सियस है। यह तापमान हरित गृह प्रभाव के न होने पर जो तापमान होता उससे तकरीबन 33डिग्री सेल्सियस अधिक है। हरित गृह गैसों के अभाव में पृथ्वी सतह का अधिकांश भाग -18डिग्री सेल्सियस के औसत वायु तापमान पर जमा हुआ होता। अतः हरित गृह गैसों का एक सीमा में पृथ्वी के वातावरण में उपस्थिति जीवन के उद्भव, विकास एवं निवास हेतु अनिवार्य है।
जलवायु परिवर्तन के कारण:
नगरीकरण, औद्योगीकरण, कोयले पर आधारित विद्युत तापगृह, तकनीकी तथा परिवहन क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन, कोयला खनन, मानव जीवन के रहन-सहन में परिवर्तन (विलासितापूर्ण जीवनशैली के कारण रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीश्नर तथा परफ्यूम का वृहद पैमाने पर उपयोग), धान की खेती के क्षेत्रफल में अभूतपूर्व विस्तार, शाकभक्षी पशुओं की जनसंख्या में वृद्धि, आधुनिक कृषि में रासायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग आदि कुछ ऐसे प्रमुख कारण हैं जो हरित गृह गैसों के वातावरण में उत्सर्जन के लिए उत्तरदायी हैं।
हरित गृह गैसें
कार्बन डॉईऑक्साइड: हरित गृह गैसों में कार्बन डाईऑक्साइड सबसे प्रमुख गैस है जो आमतौर से जीवाश्म ईधनों के जलने से उत्सर्जित होती है। वातावरण में यह गैस 0.5 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ रही है तथा इसकी तपन क्षमता 1 है। जैव ईधनों के जलने से प्रति वर्ष 5 बिलियन टन से भी ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड का जुड़ाव वातावरण में होता है जिसमें उत्तरी तथा मध्य अमेरिका, एशिया, यूरोप तथा मध्य एशियन गणतंत्रों का योगदान 90 प्रतिशत से भी ज्यादा का होता है। पूर्व-औद्योगीकरण काल की तुलना में वायु में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर आज 31 प्रतिशत तक बढ़ गया है। चूँकि वन कार्बन डाईऑक्साइड के प्रमुख अवशोषक होते हैं अतः वन-विनाश भी इस गैस की वातावरण में निरन्तर वृद्धि का एक प्रमुख कारण है।
वातावरण में 20 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड जुड़ाव के लिए वन:विनाश जिम्मेदार है। वन-विनाश के फलस्वरूप 1850 से 1950 के बीच लगभग 120 बिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड का वातावरण में जुड़ाव हुआ है। पिछले 100 वर्षों में कार्बन डाईऑक्साइड की वातावरण में 20 प्रतिशत बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। वर्ष 1880 से 1890 के बीच कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा लगभग 290 पीपीएम (Parts of per million), वर्ष 1980 में इसकी मात्रा 315 पीपीएम, वर्ष 1990 में 340 पीपीएम तथा वर्ष 2000 में 400 पीपीएम तक बढ़ गई है। ऐसी संभावना है कि वर्ष 2040 तक वातावरण में इस गैस की सान्द्रता 450 पीपीएम तक बढ़ जायेगी। कार्बन डाईऑक्साइड का वैश्विक तपन वृद्धि में 55 प्रतिशत का योगदान है। औद्योगीकृत विकसित देश वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड वृद्धि के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।
मीथेन: मीथेन भी एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हरितगृह गैस है जो 1 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से वातावरण में बढ़ रही है। मीथेन की तपन क्षमता 36 है। यह गैस कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में 20 गुना ज्यादा प्रभावी होती है। पिछले 100 वर्षों में वातावरण में मीथेन की दुगुनी वृद्धि हुई है। धान के खेत, दलदली भूमि तथा अन्य प्रकार की नमभूमियाँ मीथेन गैस के उत्सर्जन के प्रमुख स्रोत है।
एक अनुमान के अनुसार वातावरण में 20 प्रतिशत मीथेन की वृद्धि का कारण धान की खेती तथा 6 प्रतिशत कोयला खनन है। इसके अतिरिक्त, शाकभक्षी पशुओं तथा दीमकों में आंतरिक किण्वन (ईन्टरिक फरमेन्टेशन) भी मीथेन उत्सर्जन के स्रोत हैं। वर्ष 1750 की तुलना में मीथेन की मात्रा में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक मीथेन एक प्रमुख हरितगृह गैस होगी। इस गैस का वैश्विक तपन में 20 प्रतिशत का योगदान है। विकासशील देश विकसित देशों की तुलना में मीथेन उत्सर्जन के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।
क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स: क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स (Chlorofluorocarbons) रसायन भी हरितगृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी होते हैं। क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स रसायनों का इस्तेमाल आमतौर से प्रशीतक, उत्प्रेरक तथा ठोस प्लास्टिक झाग के रुप में होता है। इस समूह के रसायन वातावरण में काफी स्थायी होते हैं और यह दो प्रकार के होते हैं- हाइड्रो फ्लोरो कार्बन तथा पर फ्लोरो कार्बन। हाइड्रो फ्लोरो कार्बन की वातावरण में वृद्धि दर 0.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष है तथा इसकी तपन क्षमता 14600 है। पर फ्लोरो कार्बन की भी वार्षिक वृद्धि दर 0.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष है जबकि इसकी तपन क्षमता 17000 है।
हाइड्रो फ्लोरो कार्बन का वैश्विक तपन में 6 प्रतिशत का योगदान है जबकि पर फ्लोरो कार्बन का वैश्विक तपन में 12 प्रतिशत का योगदान है। औद्योगीकरण के कारण क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स की वातावरण में 25 प्रतिशत वृद्धि हुई है। अतः विकासशील देशों की तुलना में औद्योगीकृत विकसित देश क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स के उत्सर्जन के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।
नाइट्रस ऑक्साइड: नाइट्रस ऑक्साइड गैस 0.3 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से वातावरण में बढ़ रही है तथा इसकी तपन क्षमता 140 है। जैव ईधन, जीवाश्म ईधन तथा रासायनिक खादों का कृषि में अंधाधुंध प्रयोग इसके उत्सर्जन के प्रमुख कारक हैं। मृदा में रासायनिक खादों पर सूक्ष्मजीवों की प्रतिक्रिया के फलस्वरुप नाइट्रस ऑक्साइड का निर्माण होता है तत्पश्चात् यह गैस वातावरण में उत्सर्जित होती है। वातावरण में इस गैस की वृद्धि के लिए 70 से 80 प्रतिशत तक रासायनिक खाद तथा 20 से 30 प्रतिशत तक जीवाश्म ईधन जिम्मेदार हैं। इस गैस का वैश्विक तपन में 5 प्रतिशत का योगदान है। नाइट्ªस ऑक्साइड समतापमण्डलीय ओजोन पट्टी के क्षरण के लिए भी उत्तरदायी है। ओजोन पट्टी क्षरण से भी वैश्विक तपन में वृद्धि होगी।
ओजोन: क्षोभमण्डलीय ओजोन भी एक महत्वपूर्ण हरित गृह गैस है जो वातावरण में 0.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। इस गैस की तपन क्षमता 430 है। ओजोन का निर्माण आमतौर से सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में नाइट्रोजन डाईऑक्साइड तथा हाइड्रोकार्बन्स की प्रतिक्रिया स्वरूप होता है। ओजोन गैस का वैश्विक तपन में 2 प्रतिशत का योगदान है।
वैश्विक स्तर पर हरित गृह गैसौं का उत्सर्जन:
जहाँ तक हरित गृह गैसों के उत्सर्जन का सवाल है वैश्विक स्तर पर भारत मात्र 1.2 टन प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष :हरित गृह गैसों का उत्सर्जन करता है। वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका प्रति वर्ष 20 टन से भी अधिक प्रति व्यक्ति हरित गृह गैसों का उत्सर्जन करता है। रूस 11.71 टन, जापान 9.87, यूरोपीय संघ 9.4 तथा चीन 3.6 प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष हरित गृह गैसों का उत्सर्जन करते हैं।
अतः विकासशील देशों की तुलना में विकसित देश हरित गृह गैसों का ज्यादा उत्सर्जन करते हैं जिसका खामियाजा भारत सहित दुनिया के अन्य विकासशील देशों को भुगतना होगा।
जलवायु परिवर्तन का भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर दुष्प्रभाव
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (United Nations Environment Programme (UNEP)) की 2009 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पिछले 100 वर्षों में विश्व के तापमान में 0.74 सेल्सियस की बढ़ोत्तरी हुई है। इस शताब्दी का पहला दशक (2000-2009) अब तक का सबसे उष्ण दशक रहा है। वर्ष 2010 में भारत के विभिन्न राज्यों जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश के अनेक जिलों तथा राजधानी दिल्ली में मार्च के महीने में 40 डिग्री सेल्सियस तक तापमान रिकार्ड किया गया, जबकि महाराष्ट्र राज्य के अनेक जिलों (जलगांव, नासिक, शोलापुर आदि) में अप्रैल के प्रथम सप्ताह में 43 डिग्री सेल्सियस तक तापमान रिकार्ड किया गया। हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में मार्च के महीने में औसत से 10 डिग्री सेल्सियस ज्यादा तापमान रिकार्ड किया गया जिससे पिछले 109 वर्ष पुराना रिकार्ड टूट गया।
उक्त आंकड़ों से यह साबित होता है कि हरित गृह प्रभाव के कारण जलवायु परिवर्तन का दौर आरम्भ हो चुका है। भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में जलवायु परिवर्तन के निसंदेह गंभीर परिणाम होगें। देश में जलवायु परिवर्तन के विभिन्न क्षेत्रों पर संभावित दुष्प्रभाव निम्नलिखित हैं।
पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन के कारण बंगाल की खाड़ी में जल स्तर में वृद्धि होगी जिसके परिणामस्वरुप जैव-विविधता सम्पन्न मैन्ग्रुव पारितन्त्र (Mangrove ecosystem) नष्ट हो जायेंगे। जलस्तर में वृद्धि के कारण अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह भी जल में डूब जायेंगे परिणामस्वरुप जैव-विविधता की वृहद पैमाने पर क्षति होगी क्योंकि ये द्वीप समूह जैव-विविधता सम्पन्न हैं तथा बहुत से पौधों तथा जन्तुओं की प्रजातियाँ यहां के लिए स्थानिक (वह प्रजातियाँ जो देश के किसी अन्य हिस्से में नहीं पायी जाती हैं) हैं।
सागर जल की तपन के कारण मूंगे का द्वीप लक्षद्वीप मूंगा विरंजन (Coral bleaching) का शिकार होकर नष्ट हो जायेगा। बाद में समुद्री जलस्तर बढ़ने से यह द्वीप पूरी तरह से डूबकर समाप्त हो जायेगा। वैश्विक तपन से हिमालय की वनस्पतियाँ विशेष रुप से प्रभावित होगी जिससे जैव-विविधता क्षय का खतरा बढ़ेगा।
जलवायु परिवर्तन के कारण कीटों, खरपतवारों तथा रोगाणुओं की जनसंख्या बढ़ेगी जिनके नियन्त्रण के लिए वृहद पैमाने पर रासायनिक नाशिजीवनाशकों (Pesticides) के प्रयोग के कारण पर्यावरण प्रदूषित होगा। कीटनाशकों तथा शाकनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से गैर-लक्षित उपयोगी कीट, फसलों की जंगली प्रजातियाँ तथा पौधों की अन्य उपयोगी प्रजातियाँ भी प्रभावित होंगी, जिससे जैव-विविधता का क्षरण होगा।
रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता के कारण मृदा की सूक्ष्मजीवी जैव-विविधता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसके अतिरिक्त उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग से मृदा की संरचना नष्ट होगी जिससे मृदा क्षरण को बढ़ावा मिलेगा परिणामस्वरूप बंजर भूमि के क्षेत्रफल में इजाफा होगा। रासायनिक कीटनाशकों तथा उर्वरकों से जल प्रदूषित होगा। सतही तथा भूमिगत जल के प्रदूषण का गंभीर खतरा होगा। सुपोषण (Eutrophication) से प्रभावित नमभूमियाँ (जो जैव-विविधता की संवाहक होती हैं) स्थलीय पारितन्त्र में परिवर्तित हो जायेंगी जिससे जैव-विविधता का क्षय होगा।
जलवायु की तपन के परिणामस्वरुप वनों में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि होगी फलस्वरूप वन क्षेत्रफल में गिरावट के कारण पारिस्थितिक असंतुलन का गंभीर खतरा पैदा होगा। वनों के क्षरण के परिणामस्वरुप जैव-विविधता क्षय की दर में भी अभूतपूर्व वृद्धि होगी।
स्वास्थ्य क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में तापमान वृद्धि के कारण मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। जलवायु की उष्णता के कारण ग्रीष्म ऋतु में लू तथा गर्मी से होनेवाली मौतों में अभूतपूर्व वृद्धि होगी। जलवायु परिवर्तन के कारण देश में श्वास तथा हृदय-संबंधी बिमारियों की दर में इजाफा होगा। जलवायु की तपन के कारण उच्च रक्तचाप, मिर्गी तथा माइग्रेन जैसी बिमारियों की बारम्बारता में वृद्धि होगी साथ ही मानसिक बिमारियों जैसे अवसाद (Depression) तथा साइजोफ्रेनिया (Schizophrenia) से पड़ने वाले दौरों के बारम्बारता में भी बढ़ोत्तरी होगी।
उष्णता तथा नमी के कारण घाव के उपचार हेतु ‘प्रतिजैविक’ (Antibiotics) पर निर्भरता में वृद्धि होगी। रोगाणुओं की नई प्रजातियों के उद्भव से पुराने ‘प्रतिजैविक’ असरहीन हो जायेंगे। स्वाइन फ्लू (Swine flu) के विषाणु में उत्परिवर्तन के कारण टेमीफ्लू नामक ‘प्रतिजैविक’ अब इस बिमारी के उपचार में असरहीन साबित हो रहा है जिससे बिमारी का प्रकोप घटने के बजाय दिनोदिन बढ़ता जा रहा है। इसके अतिरिक्त संक्रामक बिमारियों जैसे दस्त, पेचिश, हैजा, क्षयरोग, आंत्रशोथ, पीलिया आदि की बारम्बारता में वृद्धि के फलस्वरुप इन बिमारियों से होने वाले मौतों में कई गुना की वृद्धि होगी। बच्चों में खसरे तथा निमोनिया के प्रकोप में वृद्धि के कारण इन बिमारियों से मृत्युदर में इजाफा होगा।
चूंकि तापमान तथा नमी बिमारी फैलाने वाले वाहकों के गुणन में सहायक होते हैं। अतः भारत में मच्छरों से फैलने वाली बिमारियों जैसे मलेरिया, फ्रील पॉव, डेंगू ज्वर, चिकनगुनिया, जापानी मस्तिष्क ज्वर तथा बेस्ट नाइल ज्वर के प्रकोप में वृद्धि होगी। पिछले कुछ वर्षों से डेंगू ज्वर, चिकनगुनिया तथा जापानी मस्तिष्क ज्वर के प्रकोप में वृद्धि दर्ज की गयी है। डेंगू ज्वर जहां उत्तर भारत के शहरी क्षेत्रों में आज प्रमुख स्वास्थ्य समस्या के रुप में उभरा है वही देश का पूर्वी उत्तर प्रदेश जापानी मस्तिष्क ज्वर का प्रमुख केन्द्र बन गया है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के 35 जिले मस्तिष्क ज्वर से प्रभावित हैं। उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त मस्तिष्क ज्वर बीमारी का प्रकोप देश के बिहार, झारखण्ड एवं असम राज्यों में भी है।
मच्छरों से फैलनेवाली बीमारियों के अतिरिक्त, अन्य वाहकों जैसे सी-सी मक्खी तथा बालू मक्खी से फैलनेवाली बिमारियाँ क्रमशः निद्रा रोग (Sleeping sickness) तथा काला-अजार (Black fever) के बारम्बारता में वृद्धि होगी। जहाँ काला-अजार असम, पश्चिम बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा, में प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है वही निद्रा रोग मुख्यतः बिहार तथा पश्चिम बंगाल की स्वास्थ्य समस्या है। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप न सिर्फ उक्त बिमारियों का प्रकोप बढ़ेगा अपितु इनका विस्तार देश के अन्य राज्यों में भी होगा।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप खाद्यान्न उत्पादन में कमी से भारत जैसे विकासशील देश में गरीबी में वृद्धि होगी। गरीबी के कारण वेश्यावृत्ति में वृद्धि होगी परिणामस्वरुप एड्स जैसी लाइलाज यौन संचारी संक्रामक बीमारी का प्रसार होगा जिससे इस घातक बिमारी के प्रकोप में बढ़ोत्तरी के कारण मृत्यु दर में कई गुना वृद्धि होगी। एक अनुमान के अनुसार देश में आज लगभग 50 लाख (5 मिलियन) से भी ज्यादा व्यक्ति इस विषाणु रोग से ग्रसित हैं। असुरक्षित यौन संबंध इस बिमारी के प्रसार का प्रमुख कारण है। एड्स के अतिरिक्त हेपेटाइटिस बी, सूजाक तथा सिफलिस जैसी यौन संचारी बिमारियों के संचार तथा प्रकोप में भी वृद्धि होगी।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप खाद्यान्न में कमी के कारण देश में कुपोषण की समस्या होगी परिणामस्वरुप, रक्तअल्पता (Anemia), रतौंधी, रिकेट्स, मेरेस्मस, क्वासिरकोर, पेलाग्रा, बांझपन आदि जैसी गैर-संक्रामक बिमारियों की दर में वृद्धि होगी। कुपोषण के कारण बच्चों की मृत्यु दर में अभूतपूर्व वृद्धि होगी। कुपोषण से प्रभावित जनसंख्या संक्रामक बिमारी क्षयरोग के प्रति संवेदनशील होगी परिणामस्वरुप क्षयरोग के प्रकोप मेें अभूतपूर्व वृद्धि होगी। वर्तमान में भारत में लगभग 1.5 करोड़ क्षयरोगी हैं जो दुनिया में क्षयरोगियों की संख्या के एक तिहाई से भी ज्यादा है। प्रत्येक वर्ष 20,000 से 25,000 भारतीय क्षयरोग से पीड़ित होते हैं और इस बिमारी से 1,500 से भी ज्यादा लोगों की मृत्यु होती है।
कृषि क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप मुख्य फसलों जैसे गेहूँ (Triticum aestivum) तथा धान (Oryza sativa) के पैदावार में अभूतपूर्व कमी आयेगी। जलवायु की तपन के परिणामस्वरूप देश के वर्षा सिंचित क्षेत्रों (Rainfed areas) में मुख्य फसलों के उत्पादन में लगभग 125-130 मिलियन टन तक की कमी आयेगी।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में कीटों तथा रोगाणुओं की जनसंख्या में अभूतपूर्व वृद्धि होगी तथा साथ ही कीटों तथा रोगाणुओं की नई प्रजातियाँ भी विकसित होगी। इन कीटों तथा रोगाणुओं द्वारा फसलों पर आक्रमण के फलस्वरुप उत्पादन में गिरावट आयेगी। कीट संक्रमण के प्रति संवेदनशील कपास (Gossypium hirsutum, Gossypium arboreum तथा Gossypium barbadense) जैसी नकदी फसल पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ेगा। फसल उत्पादन में बढ़ोत्तरी हेतु कीटनाशकों पर निर्भरता बढ़ेगी।
जलवायु परिवर्तन तथा वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की वृद्धि के कारण खरपतवारों की जनसंख्या में वृद्धि होगी जिससे फसल उत्पादकता प्रभावित होगी। पौधों के पुष्पीय कुलों विशेषकर पोयेसी, साइप्रेसी, फैबेसी, यूफोर्बिएसी, एपोसायनेसी, अमरेन्थेसी, क्रैसुलेसी तथा पार्टुलैकेसी से संबद्ध खरपतवारों का प्रकोप औरों की तुलना में ज्यादा होगा। फसलों की खरपतावारों से सुरक्षा के लिए खरपतवारनाशकों अथवा शाकनाशकों पर निर्भरता में अभूतपूर्व वृद्धि होगी।
भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की वृद्धि के फलस्वरुप पौधों में कार्बन स्थिरीकरण की दर में भी वृद्धि होगी जिसके कारण मृदा से पोषक तत्वों के अवशोषण की दर में भी वृद्धि होगी परिणामस्वरुप मृदा की उर्वरा शक्ति में कमी आयेगी। मृदा की उर्वरा शक्ति को बनाये रखने के लिए रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता में अभूतपूर्व वृद्धि होगी।
जलवायु की तपन के कारण मृदा में जीवांश पदार्थो की विघटन की दर में भी वृद्धि होगी लेकिन वाष्पीकरण की दर में वृद्धि के फलस्वरुप मृदा में नमी की कमी के कारण परिणाम उल्टा भी हो सकता है। दोनों ही स्थितियों में पोषक चक्र की दर प्रभावित होगी जिससे मृदा की उर्वरा शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
जलवायु परिवर्तन का प्रत्यक्ष प्रभाव वर्षा के वितरण पर भी पड़ेगा। उत्तरी तथा मध्य भारत में कम वर्षा होगी जबकि इसके विपरीत देश के पूर्वोतर तथा दक्षिण-पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा होगी परिणामस्वरुप वर्षा जल की कमी से उत्तरी तथा मध्य भारत में लगभग सूखे जैसी स्थिति होगी जबकि देश के पूर्वोत्तर तथा दक्षिण पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा के कारण बाढ़ जैसी समस्या होगी। दोनों ही स्थितियों में फसल की पैदावार प्रभावित होगी। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में जल-जमाव तथा मृदा की लवणता जैसी समस्यायें भी पैदा होगी।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप ध्रुवीय बर्फ तथा हिमनदियों (Glaciers) के पिघलने से समुद्री जलस्तर में वृद्धि होगी जिसके कारण उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात तथा पश्चिम बंगाल राज्यों के तटीय क्षेत्र प्रभावित होंगे परिणामस्वरुप जल-जमाव, मृदा की लवणता तथा क्षारीयता जैसी समस्यायें पैदा होगी जिससे तटीय क्षेत्र बंजर भूमि में तब्दील हो जायेंगे जिसका सीधा प्रभाव फसल उत्पादन पर पड़ेगा।
जलवायु परिवर्तन के कारण वाष्पीकरण तथा पौधों में वाष्पोत्सर्जन की दर में अभूतपूर्व वृद्धि होगी परिणामस्वरुप जलस्रोतों तथा मिट्टी में जल की कमी होगी। जल की कमी के कारण फसल उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। जल की कमी का धान जैसी मुख्य फसल पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ेगा। तालाबों में जल की कमी के कारण सिंघाड़ा (Trapa bispinosa) तथा मखाना (Euryale ferox) जैसी फसलों की खेती प्रभावित होगी। मीठे जल स्रोतों में जल की कमी के कारण मत्स्य पालन तथा उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव देश की फसल पद्धति पर भी पड़ेगा। उत्तर तथा मध्य भारत का ज्यादातर क्षेत्रफल दलहनी फसलों तथा मिलेट्स (मोटे अनाज वाली फसलें जैसे- ज्वार, बाजरा तथा रागी) के अधीन होगा। उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में गेहूँ के क्षेत्रफल में अभूतपूर्व गिरावट आयेगी। धान उगाने वाले देश के पूर्वोत्तर तथा दक्षिणी-पश्चिमी राज्यों में इस फसल के क्षेत्रफल में वृद्धि होगी।
जलवायु की तपन के फलस्वरुप फसलों की कुछ चुनिन्दा तापरोधी, सूखारोधी, रोगरोधी तथा कीटरोधी किस्मों की वृहद पैमाने पर खेती के कारण फसल विविधता पर प्रभाव पड़ेगा जिससे पौष्टिक देसी किस्में विलुप्त हो जायेंगी परिणामस्वरुप आनुवांशिक क्षय की प्रक्रिया में वृद्धि होगी। खरपतवारों के वर्चस्व के कारण फसलों की जंगली प्रजातियां भी विस्थापित हो जायेंगी जिससे फसल सुधार कार्यक्रम पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप हिमालय की हिमनदियों के पिघलने के कारण, गंगा, ब्रह्मपुत्र, सतलज, रावी, व्यास आदि नदियों का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा परिणामस्वरुप जल की कमी होगी जिसके कारण फसल उत्पादन पर प्रभाव पड़ेगा।
जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं जैसे आंधी, समुद्री तूफान, अल निनों तथा सूखा के प्रकोप में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी के फलस्वरुप फसल उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पडेगा।
तपन के परिणामस्वरुप रोगाणुओं की जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ नयी प्रजातियों के उद्भव के कारण देश के पशुधन आबादी पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। हरे तथा सूखे चारे की कमी के कारण भी पशुधन प्रभावित होगा। पशुधन किसानों की अतिरिक्त आय के स्रोत के साथ कृषि कार्यों जैसे जुताई, दवाई में भी उपयोगी होते हैं।
सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र पर भी पड़ेगा। कृषि में कीटनाशकों, शाकनाशकों तथा रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता के कारण छोटे अथवा गरीब किसान और गरीब होगें जबकि सम्पन्न किसान भी गरीब होंगे। कृषि धंधों में हानि के परिणामस्वरुप ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन होगा जिससे शहरी क्षेत्रों में भीड़-भाड़ वाली स्थिति होगी फलस्वरुप सामाजिक ताना-बाना नष्ट होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में संयुक्त परिवार बिखरकर एकल परिवार में परिवर्तित हो जायेंगे। एड्स जैसी बिमारी के प्रकोप के कारण भी समाज के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा।
अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह में भारत की आदिम जनजातियाँ जैसे ग्रेट अण्डमानीस, सेण्टेनलीज, ओन्जे तथा जारवा (निग्रोटो समूह) निकोबारीज तथा शाम्पेन (मंगोलायड समूह) निवास करती हैं। यह आदिम जनजातियाँ यहाँ के घने वनों में रहती हैं तथा अपने भोजन की पूर्ती हेतु शिकार तथा मछली पकड़ने पर निर्भर होती हैं। समुद्र के जलस्तर में वृद्धि के कारण द्वीप समूह के डूबने से इन आदिम जनजातियों का अस्तित्व सदैव के लिए समाप्त हो जायेगा।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप समुद्री जलस्तर में बढ़ोत्तरी के कारण देश के तटीय क्षेत्रों से लगभग 10 करोड़ (100 मिलियन) लोग विस्थापित होंगे। इन विस्थापित लोगों का शहरी क्षेत्रों की तरफ पलायन होगा जिसके परिणामस्वरुप शहरी क्षेत्रों में झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि होगी। शहरी क्षेत्रों में झुग्गी-झोपड़ियों के विस्तार के कारण मूलभूत सुविधायें (बिजली, पानी आदि) प्रभावित होंगी। इसके अतिरिक्त गंदगी के साथ अपराधिक घटनाओं में भी वृद्धि होगी।
तपन के कारण वनों में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि के परिणामस्वरूप वनों में रहने वाली जनजातियाँ विस्थापित होगीं। चूंकि जनजातियों की पहचान उनके संस्कृति, रहन-सहन तथा खान-पान से होती है अतः मुख्य जीवनधारा में आने के बाद उनमें बदलाव आयेगा जिससे उनकी पहचान स्वतः ही समाप्त हो जायेगी।
भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में उष्णता में वृद्धि के फलस्वरुप मानव प्रजनन दर में बढ़ोत्तरी होगी जिसके कारण जनसंख्या की विकास दर में भी वृद्धि होगी। जनसंख्या की विकास दर में वृद्धि के कारण संसाधनों पर दबाव बढ़ेगा जिससे संसाधनों का क्षय होगा। जनसंख्या वृद्धि के कारण गरीबी तथा बेरोजगारी जैसी समस्याओं में अभूतपूर्व वृद्धि होगी।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप कीटों तथा रोगाणुओं की जनसंख्या में बढ़ोत्तरी के कारण फसल उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा जिससे आर्थिक तंगी या ऋण बोझ के कारण किसान आत्महत्या को मजबूर होंगे। देश के महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं तेलंगाना जैसे राज्यों में किसानों की आत्महत्या की दर में कई गुना वृद्धि होगी।
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव आर्थिक जगत पर पड़ेगा। फसल पैदावार में गिरावट के कारण देश की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा जिससे मुद्रास्फिति की दर बढ़ेगी। मुद्रास्फिति की दर बढ़ने के कारण गरीबी तथा भूखमरी के साथ-साथ बेरोजगारी भी बढ़ेगी। गरीबी के कारण बालश्रम तथा वेश्यावृत्ति सहित अन्य अपराधों में अभूतपूर्व वृद्धि होगी जो देश की कानून व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती होगी। गरीबी में वृद्धि के कारण माओवाद तथा नक्सलवाद जैसी समस्याओं में भारी वृद्धि होगी।
मुद्रास्फीति बढ़ने के कारण उद्योग जगत भी प्रभावित होगा। कृषि पर आधारित उद्योगों में उत्पादन की कमी के कारण उद्योग-धन्धे बंद हो जायेंगे परिणामस्वरुप बेरोजगारी की समस्या पैदा होगी। ग्रामीण क्षेत्रों के साथ-साथ शहरी क्षेत्रों में भी आत्महत्या की घटनाओं में अभूतपूर्व इजाफा होगा।
संसाधन क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन का देश के संसाधनों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। वैश्विक तपन से वनों में आग लगने के कारण वन जैसे महत्वपूर्ण जैविक संसाधन नष्ट हो जायेगें। रासायनिक खादों पर निर्भरता के कारण मृदा अपरदन की दर में वृद्धि होगी जिसके फलस्वरूप मृदा जैसे महत्वपूर्ण संसाधन का क्षय होगा। जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप हिमनदियों के पिघलने के कारण हिमालय से निकलने वाली नदियों का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा फलस्वरूप जल संसाधन में अभूतपूर्व कमी होगी। शीतलन हेतु अधिक उर्जा की मांग के कारण कोयले जैसा महत्वपूर्ण खनिज संसाधन समाप्त हो जायेगा।
ऊर्जा क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव उर्जा क्षेत्र पर पड़ेगा। वातावरण में तपन के कारण शीतलन हेतु ज्यादा उर्जा की आवश्यकता होगी। ग्रीष्म ऋतु में गर्मी से बचने के लिए उर्जा खपत में अभूतपूर्व वृद्धि होगी जिससे उर्जा की समस्या पैदा होगी। तपन के परिणामस्वरुप जल स्रोतों में जल की कमी के कारण पनबिजली परियोजनाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा जिससे उर्जा उत्पादन में गिरावट आयेगी। उर्जा की कमी के कारण देश के उद्योग-धंधे, परिवहन, शोध, चिकित्सा आदि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
राजनैतिक क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन का अप्रत्यक्ष प्रभाव देश के राजनैतिक क्षेत्र पर भी पड़ेगा। खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट के कारण गरीबी तथा भूखमरी में अभूतपूर्व वृद्धि होगी जिससे गृह युद्ध जैसे हालात होंगे। ऐसे में राजनैतिक दलों के लिए राजनीति अथवा शासन को सुचारु रुप से चलाना दुष्कर कार्य होगा। गरीबी, भूखमरी, अकाल तथा बेरोजगारी के चलते आम जनता में आक्रोश के कारण देश में राजनैतिक अव्यवस्था तथा अस्थिरता का बोलबाला होगा।
आंतरिक सुरक्षा तथा सामरिक क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन का अप्रत्यक्ष प्रभाव देश की आंतरिक सुरक्षा तथा सामरिक क्षेत्र पर भी पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर्राष्ट्रीय अंतःसरकारी दल (IPCC) के अनुसार वर्ष 2050 तक बांग्लादेश की 17 प्रतिशत भूमि और 30 प्रतिशत खाद्यान्न उत्पादन समुद्र की भेट चढ़ जायेगें। ऐसे में खाद्यान्न उत्पादन घटने तथा समुद्र जलस्तर बढ़ने के कारण पड़ोसी देश बांग्लादेश से घुसपैठ की समस्या में कई गुना वृद्धि होगी जिससे देश के पूर्वोत्तर राज्यों जैसे असम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल आदि में बांग्लादेशी घुसपैठियों का प्रभुत्व होगा। घुसपैठ की समस्या के कारण देश की आंतरिक सुरक्षा प्रभावित होगी। घुसपैठियों के प्रभुत्व के कारण पूर्वी भारत का हिस्सा कटकर अलग देश में परिवर्तित हो सकता है।
पड़ोसी देश पाकिस्तान भी स्थितियों का फायदा उठाते हुए बांग्लादेश के माध्यम से आतंकवादियों की घुसपैठ कराकर देश के समक्ष गंभीर आंतरिक सुरक्षा का खतरा पैदा कर सकता है। इसके अतिरिक्त जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप कश्मीर घाटी के द्रास में बर्फ पिघलने से पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर घुसपैठ होगी जिससे देश के कश्मीर राज्य के साथ-साथ अन्य राज्यों में आतंकवादी गतिविधियों में अभूतपूर्व इजाफा होगा। उक्त स्थितियों में भारत तथा पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ेगा जिससे दोनों देशों के बीच युद्ध की स्थिति होगी।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप सियाचिन हिमनदी के पिघलने के कारण पड़ोसी देश चीन से भी सैनिकों की घुसपैठ होगी जिसके कारण भारत के भूभाग पर चीनी कब्जे का और विस्तार होगा परिणामस्वरूप दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ेगा जो अंततः युद्ध का कारण साबित हो सकता है।
पर्यटन क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन का भारत के पर्यटन क्षेत्र पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। गोवा जैसा महत्वपूर्ण पर्यटक राज्य समुद्र जलस्तर में वृद्धि के कारण डूबकर समाप्त हो जायेगा। इसके अतिरिक्त स्वच्छ जल की अनुपलब्धता, संक्रामक बिमारियों के प्रकोप, राजनीतिक अस्थिरता तथा आतंकवादी घटनाओं में वृद्धि के कारण भारत विदेशी पर्यटकों के भ्रमण के अनुकूल नहीं होगा। वैश्विक तपन के कारण भारत के मैदानी क्षेत्रों से पहाड़ो पर बड़े पैमाने पर पलायन होगा फलस्वरूप पहाड़ी राज्यों में भीड़-भाड़ वाली स्थिति होगी जिससे प्राकृतिक सुन्दरता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। फलस्वरूप पहाड़ी राज्य देशी तथा विदेशी सैलानियों को आकर्षित करने में विफल होगें।
निष्कर्ष:
जलवायु परिवर्तन का प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष प्रभाव देश के कृषि, पर्यावरण, स्वास्थ्य, ऊर्जा, सामाजिक, आर्थिक, संसाधन पर्यटन, राजनैतिक तथा आंतरिक सुरक्षा एवं सामरिक क्षेत्रों पर पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप देश के कृषि उत्पादन में कमी आयेगी। खाद्यान्न उत्पादन में कमी के कारण मुद्रास्फिति बढ़ेगी परिणामस्वरुप गरीबी तथा बेरोजगारी में बढ़ोत्तरी होगी जो देश में अपराध वृद्धि का कारण बनेगी।
मुद्रास्फिति के कारण औद्योगिक उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के कारण जैव-विविधता का क्षरण होगा, सतही एवं भूमिगत जल प्रदूषित होंगे तथा बंजर भूमि क्षेत्रफल में विस्तार होगा। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप क्षयरोग, एड्स, दस्त, पेचिश, हैजा, पीलिया, खसरा, निमोनिया, मलेरिया, डेंगू ज्वर, जापानी मस्तिष्क ज्वर, काला-अजार, निद्रा रोग जैसी संक्रामक बिमारियों के प्रसार तथा बारम्बारता में वृद्धि के कारण इन बिमारियों से होने वाली मौतों में कई गुना इजाफा होगा।
जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप पड़ोसी देशों से घुसपैठ के कारण देश की आंतरिक सुरक्षा प्रभावित होगी तथा सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ेगा। भारत का उसके पड़ोसी देशों पाकिस्तान तथा चीन से तनाव बढ़ेगा जिससे युद्ध की संभावना होगी।
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(डॉ. अरविंद सिंह वनस्पति विज्ञान विषय से एम.एस-सी और पी-एच.डी. हैं। इनकी विशेषज्ञता का क्षेत्र पारिस्थितिक विज्ञान है। यह एक सक्रिय शोधकर्ता हैं और राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की शोध पत्रिकाओं में अब तक इनके चार दर्जन शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। खनन गतिविधियों से प्रभावित भूमि का पुनरूत्थान इनके शोध का प्रमुख विषय है। इसके अतिरिक्त इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मुख्य परिसर की वनस्पतियों पर भी अनुसंधान किया है। इनसे ईमेल आईडी arvindsingh_bhu@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
(scientificworld.in से साभार)
क्या है जलवायु परिवर्तन?
जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण वैश्विक तपन है जो हरित गृह प्रभाव (Green house effect) का परिणाम है। हरित गृह प्रभाव वह प्रक्रिया जिसमें पृथ्वी से टकराकर लौटने वाली सूर्य की किरणों को वातावरण में उपस्थित कुछ गैसें अवशोषित कर लेती हैं जिसके परिणामस्वरुप पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होती है। वह गैसें जो हरित गृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी हैं को हरितगृह गैस के नाम से जाना जाता है। कार्बन डाईऑक्साइड
(CO2), मीथेन (CH4), क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स (CFCs), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) तथा क्षोभमण्डलीय ओजोन
(O3) मुख्य हरित गृह गैसें हैं जो हरित गृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी हैं। विभिन्न कारणों से वातावरण में इनकी निरन्तर बढ़ती मात्रा से वैश्विक जलवायु परिवर्तन का खतरा दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है।
पृथ्वी के सतह का औसत तापमान लगभग 15 डिग्री सेल्सियस है। यह तापमान हरित गृह प्रभाव के न होने पर जो तापमान होता उससे तकरीबन 33डिग्री सेल्सियस अधिक है। हरित गृह गैसों के अभाव में पृथ्वी सतह का अधिकांश भाग -18डिग्री सेल्सियस के औसत वायु तापमान पर जमा हुआ होता। अतः हरित गृह गैसों का एक सीमा में पृथ्वी के वातावरण में उपस्थिति जीवन के उद्भव, विकास एवं निवास हेतु अनिवार्य है।
जलवायु परिवर्तन के कारण:
नगरीकरण, औद्योगीकरण, कोयले पर आधारित विद्युत तापगृह, तकनीकी तथा परिवहन क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन, कोयला खनन, मानव जीवन के रहन-सहन में परिवर्तन (विलासितापूर्ण जीवनशैली के कारण रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीश्नर तथा परफ्यूम का वृहद पैमाने पर उपयोग), धान की खेती के क्षेत्रफल में अभूतपूर्व विस्तार, शाकभक्षी पशुओं की जनसंख्या में वृद्धि, आधुनिक कृषि में रासायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग आदि कुछ ऐसे प्रमुख कारण हैं जो हरित गृह गैसों के वातावरण में उत्सर्जन के लिए उत्तरदायी हैं।
हरित गृह गैसें
कार्बन डॉईऑक्साइड: हरित गृह गैसों में कार्बन डाईऑक्साइड सबसे प्रमुख गैस है जो आमतौर से जीवाश्म ईधनों के जलने से उत्सर्जित होती है। वातावरण में यह गैस 0.5 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ रही है तथा इसकी तपन क्षमता 1 है। जैव ईधनों के जलने से प्रति वर्ष 5 बिलियन टन से भी ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड का जुड़ाव वातावरण में होता है जिसमें उत्तरी तथा मध्य अमेरिका, एशिया, यूरोप तथा मध्य एशियन गणतंत्रों का योगदान 90 प्रतिशत से भी ज्यादा का होता है। पूर्व-औद्योगीकरण काल की तुलना में वायु में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर आज 31 प्रतिशत तक बढ़ गया है। चूँकि वन कार्बन डाईऑक्साइड के प्रमुख अवशोषक होते हैं अतः वन-विनाश भी इस गैस की वातावरण में निरन्तर वृद्धि का एक प्रमुख कारण है।
वातावरण में 20 प्रतिशत कार्बन डाईऑक्साइड जुड़ाव के लिए वन:विनाश जिम्मेदार है। वन-विनाश के फलस्वरूप 1850 से 1950 के बीच लगभग 120 बिलियन टन कार्बन डाईऑक्साइड का वातावरण में जुड़ाव हुआ है। पिछले 100 वर्षों में कार्बन डाईऑक्साइड की वातावरण में 20 प्रतिशत बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। वर्ष 1880 से 1890 के बीच कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा लगभग 290 पीपीएम (Parts of per million), वर्ष 1980 में इसकी मात्रा 315 पीपीएम, वर्ष 1990 में 340 पीपीएम तथा वर्ष 2000 में 400 पीपीएम तक बढ़ गई है। ऐसी संभावना है कि वर्ष 2040 तक वातावरण में इस गैस की सान्द्रता 450 पीपीएम तक बढ़ जायेगी। कार्बन डाईऑक्साइड का वैश्विक तपन वृद्धि में 55 प्रतिशत का योगदान है। औद्योगीकृत विकसित देश वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड वृद्धि के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।
मीथेन: मीथेन भी एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण हरितगृह गैस है जो 1 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से वातावरण में बढ़ रही है। मीथेन की तपन क्षमता 36 है। यह गैस कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में 20 गुना ज्यादा प्रभावी होती है। पिछले 100 वर्षों में वातावरण में मीथेन की दुगुनी वृद्धि हुई है। धान के खेत, दलदली भूमि तथा अन्य प्रकार की नमभूमियाँ मीथेन गैस के उत्सर्जन के प्रमुख स्रोत है।
एक अनुमान के अनुसार वातावरण में 20 प्रतिशत मीथेन की वृद्धि का कारण धान की खेती तथा 6 प्रतिशत कोयला खनन है। इसके अतिरिक्त, शाकभक्षी पशुओं तथा दीमकों में आंतरिक किण्वन (ईन्टरिक फरमेन्टेशन) भी मीथेन उत्सर्जन के स्रोत हैं। वर्ष 1750 की तुलना में मीथेन की मात्रा में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक मीथेन एक प्रमुख हरितगृह गैस होगी। इस गैस का वैश्विक तपन में 20 प्रतिशत का योगदान है। विकासशील देश विकसित देशों की तुलना में मीथेन उत्सर्जन के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।
क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स: क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स (Chlorofluorocarbons) रसायन भी हरितगृह प्रभाव के लिए उत्तरदायी होते हैं। क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स रसायनों का इस्तेमाल आमतौर से प्रशीतक, उत्प्रेरक तथा ठोस प्लास्टिक झाग के रुप में होता है। इस समूह के रसायन वातावरण में काफी स्थायी होते हैं और यह दो प्रकार के होते हैं- हाइड्रो फ्लोरो कार्बन तथा पर फ्लोरो कार्बन। हाइड्रो फ्लोरो कार्बन की वातावरण में वृद्धि दर 0.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष है तथा इसकी तपन क्षमता 14600 है। पर फ्लोरो कार्बन की भी वार्षिक वृद्धि दर 0.4 प्रतिशत प्रतिवर्ष है जबकि इसकी तपन क्षमता 17000 है।
हाइड्रो फ्लोरो कार्बन का वैश्विक तपन में 6 प्रतिशत का योगदान है जबकि पर फ्लोरो कार्बन का वैश्विक तपन में 12 प्रतिशत का योगदान है। औद्योगीकरण के कारण क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स की वातावरण में 25 प्रतिशत वृद्धि हुई है। अतः विकासशील देशों की तुलना में औद्योगीकृत विकसित देश क्लोरोफ्लोरोकार्बन्स के उत्सर्जन के लिए ज्यादा उत्तरदायी हैं।
नाइट्रस ऑक्साइड: नाइट्रस ऑक्साइड गैस 0.3 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से वातावरण में बढ़ रही है तथा इसकी तपन क्षमता 140 है। जैव ईधन, जीवाश्म ईधन तथा रासायनिक खादों का कृषि में अंधाधुंध प्रयोग इसके उत्सर्जन के प्रमुख कारक हैं। मृदा में रासायनिक खादों पर सूक्ष्मजीवों की प्रतिक्रिया के फलस्वरुप नाइट्रस ऑक्साइड का निर्माण होता है तत्पश्चात् यह गैस वातावरण में उत्सर्जित होती है। वातावरण में इस गैस की वृद्धि के लिए 70 से 80 प्रतिशत तक रासायनिक खाद तथा 20 से 30 प्रतिशत तक जीवाश्म ईधन जिम्मेदार हैं। इस गैस का वैश्विक तपन में 5 प्रतिशत का योगदान है। नाइट्ªस ऑक्साइड समतापमण्डलीय ओजोन पट्टी के क्षरण के लिए भी उत्तरदायी है। ओजोन पट्टी क्षरण से भी वैश्विक तपन में वृद्धि होगी।
ओजोन: क्षोभमण्डलीय ओजोन भी एक महत्वपूर्ण हरित गृह गैस है जो वातावरण में 0.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। इस गैस की तपन क्षमता 430 है। ओजोन का निर्माण आमतौर से सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में नाइट्रोजन डाईऑक्साइड तथा हाइड्रोकार्बन्स की प्रतिक्रिया स्वरूप होता है। ओजोन गैस का वैश्विक तपन में 2 प्रतिशत का योगदान है।
वैश्विक स्तर पर हरित गृह गैसौं का उत्सर्जन:
जहाँ तक हरित गृह गैसों के उत्सर्जन का सवाल है वैश्विक स्तर पर भारत मात्र 1.2 टन प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष :हरित गृह गैसों का उत्सर्जन करता है। वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका प्रति वर्ष 20 टन से भी अधिक प्रति व्यक्ति हरित गृह गैसों का उत्सर्जन करता है। रूस 11.71 टन, जापान 9.87, यूरोपीय संघ 9.4 तथा चीन 3.6 प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष हरित गृह गैसों का उत्सर्जन करते हैं।
अतः विकासशील देशों की तुलना में विकसित देश हरित गृह गैसों का ज्यादा उत्सर्जन करते हैं जिसका खामियाजा भारत सहित दुनिया के अन्य विकासशील देशों को भुगतना होगा।
जलवायु परिवर्तन का भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर दुष्प्रभाव
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (United Nations Environment Programme (UNEP)) की 2009 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पिछले 100 वर्षों में विश्व के तापमान में 0.74 सेल्सियस की बढ़ोत्तरी हुई है। इस शताब्दी का पहला दशक (2000-2009) अब तक का सबसे उष्ण दशक रहा है। वर्ष 2010 में भारत के विभिन्न राज्यों जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश के अनेक जिलों तथा राजधानी दिल्ली में मार्च के महीने में 40 डिग्री सेल्सियस तक तापमान रिकार्ड किया गया, जबकि महाराष्ट्र राज्य के अनेक जिलों (जलगांव, नासिक, शोलापुर आदि) में अप्रैल के प्रथम सप्ताह में 43 डिग्री सेल्सियस तक तापमान रिकार्ड किया गया। हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में मार्च के महीने में औसत से 10 डिग्री सेल्सियस ज्यादा तापमान रिकार्ड किया गया जिससे पिछले 109 वर्ष पुराना रिकार्ड टूट गया।
उक्त आंकड़ों से यह साबित होता है कि हरित गृह प्रभाव के कारण जलवायु परिवर्तन का दौर आरम्भ हो चुका है। भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में जलवायु परिवर्तन के निसंदेह गंभीर परिणाम होगें। देश में जलवायु परिवर्तन के विभिन्न क्षेत्रों पर संभावित दुष्प्रभाव निम्नलिखित हैं।
पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन के कारण बंगाल की खाड़ी में जल स्तर में वृद्धि होगी जिसके परिणामस्वरुप जैव-विविधता सम्पन्न मैन्ग्रुव पारितन्त्र (Mangrove ecosystem) नष्ट हो जायेंगे। जलस्तर में वृद्धि के कारण अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह भी जल में डूब जायेंगे परिणामस्वरुप जैव-विविधता की वृहद पैमाने पर क्षति होगी क्योंकि ये द्वीप समूह जैव-विविधता सम्पन्न हैं तथा बहुत से पौधों तथा जन्तुओं की प्रजातियाँ यहां के लिए स्थानिक (वह प्रजातियाँ जो देश के किसी अन्य हिस्से में नहीं पायी जाती हैं) हैं।
सागर जल की तपन के कारण मूंगे का द्वीप लक्षद्वीप मूंगा विरंजन (Coral bleaching) का शिकार होकर नष्ट हो जायेगा। बाद में समुद्री जलस्तर बढ़ने से यह द्वीप पूरी तरह से डूबकर समाप्त हो जायेगा। वैश्विक तपन से हिमालय की वनस्पतियाँ विशेष रुप से प्रभावित होगी जिससे जैव-विविधता क्षय का खतरा बढ़ेगा।
जलवायु परिवर्तन के कारण कीटों, खरपतवारों तथा रोगाणुओं की जनसंख्या बढ़ेगी जिनके नियन्त्रण के लिए वृहद पैमाने पर रासायनिक नाशिजीवनाशकों (Pesticides) के प्रयोग के कारण पर्यावरण प्रदूषित होगा। कीटनाशकों तथा शाकनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से गैर-लक्षित उपयोगी कीट, फसलों की जंगली प्रजातियाँ तथा पौधों की अन्य उपयोगी प्रजातियाँ भी प्रभावित होंगी, जिससे जैव-विविधता का क्षरण होगा।
रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता के कारण मृदा की सूक्ष्मजीवी जैव-विविधता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इसके अतिरिक्त उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग से मृदा की संरचना नष्ट होगी जिससे मृदा क्षरण को बढ़ावा मिलेगा परिणामस्वरूप बंजर भूमि के क्षेत्रफल में इजाफा होगा। रासायनिक कीटनाशकों तथा उर्वरकों से जल प्रदूषित होगा। सतही तथा भूमिगत जल के प्रदूषण का गंभीर खतरा होगा। सुपोषण (Eutrophication) से प्रभावित नमभूमियाँ (जो जैव-विविधता की संवाहक होती हैं) स्थलीय पारितन्त्र में परिवर्तित हो जायेंगी जिससे जैव-विविधता का क्षय होगा।
जलवायु की तपन के परिणामस्वरुप वनों में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि होगी फलस्वरूप वन क्षेत्रफल में गिरावट के कारण पारिस्थितिक असंतुलन का गंभीर खतरा पैदा होगा। वनों के क्षरण के परिणामस्वरुप जैव-विविधता क्षय की दर में भी अभूतपूर्व वृद्धि होगी।
स्वास्थ्य क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में तापमान वृद्धि के कारण मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। जलवायु की उष्णता के कारण ग्रीष्म ऋतु में लू तथा गर्मी से होनेवाली मौतों में अभूतपूर्व वृद्धि होगी। जलवायु परिवर्तन के कारण देश में श्वास तथा हृदय-संबंधी बिमारियों की दर में इजाफा होगा। जलवायु की तपन के कारण उच्च रक्तचाप, मिर्गी तथा माइग्रेन जैसी बिमारियों की बारम्बारता में वृद्धि होगी साथ ही मानसिक बिमारियों जैसे अवसाद (Depression) तथा साइजोफ्रेनिया (Schizophrenia) से पड़ने वाले दौरों के बारम्बारता में भी बढ़ोत्तरी होगी।
उष्णता तथा नमी के कारण घाव के उपचार हेतु ‘प्रतिजैविक’ (Antibiotics) पर निर्भरता में वृद्धि होगी। रोगाणुओं की नई प्रजातियों के उद्भव से पुराने ‘प्रतिजैविक’ असरहीन हो जायेंगे। स्वाइन फ्लू (Swine flu) के विषाणु में उत्परिवर्तन के कारण टेमीफ्लू नामक ‘प्रतिजैविक’ अब इस बिमारी के उपचार में असरहीन साबित हो रहा है जिससे बिमारी का प्रकोप घटने के बजाय दिनोदिन बढ़ता जा रहा है। इसके अतिरिक्त संक्रामक बिमारियों जैसे दस्त, पेचिश, हैजा, क्षयरोग, आंत्रशोथ, पीलिया आदि की बारम्बारता में वृद्धि के फलस्वरुप इन बिमारियों से होने वाले मौतों में कई गुना की वृद्धि होगी। बच्चों में खसरे तथा निमोनिया के प्रकोप में वृद्धि के कारण इन बिमारियों से मृत्युदर में इजाफा होगा।
चूंकि तापमान तथा नमी बिमारी फैलाने वाले वाहकों के गुणन में सहायक होते हैं। अतः भारत में मच्छरों से फैलने वाली बिमारियों जैसे मलेरिया, फ्रील पॉव, डेंगू ज्वर, चिकनगुनिया, जापानी मस्तिष्क ज्वर तथा बेस्ट नाइल ज्वर के प्रकोप में वृद्धि होगी। पिछले कुछ वर्षों से डेंगू ज्वर, चिकनगुनिया तथा जापानी मस्तिष्क ज्वर के प्रकोप में वृद्धि दर्ज की गयी है। डेंगू ज्वर जहां उत्तर भारत के शहरी क्षेत्रों में आज प्रमुख स्वास्थ्य समस्या के रुप में उभरा है वही देश का पूर्वी उत्तर प्रदेश जापानी मस्तिष्क ज्वर का प्रमुख केन्द्र बन गया है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के 35 जिले मस्तिष्क ज्वर से प्रभावित हैं। उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त मस्तिष्क ज्वर बीमारी का प्रकोप देश के बिहार, झारखण्ड एवं असम राज्यों में भी है।
मच्छरों से फैलनेवाली बीमारियों के अतिरिक्त, अन्य वाहकों जैसे सी-सी मक्खी तथा बालू मक्खी से फैलनेवाली बिमारियाँ क्रमशः निद्रा रोग (Sleeping sickness) तथा काला-अजार (Black fever) के बारम्बारता में वृद्धि होगी। जहाँ काला-अजार असम, पश्चिम बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा, में प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है वही निद्रा रोग मुख्यतः बिहार तथा पश्चिम बंगाल की स्वास्थ्य समस्या है। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप न सिर्फ उक्त बिमारियों का प्रकोप बढ़ेगा अपितु इनका विस्तार देश के अन्य राज्यों में भी होगा।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप खाद्यान्न उत्पादन में कमी से भारत जैसे विकासशील देश में गरीबी में वृद्धि होगी। गरीबी के कारण वेश्यावृत्ति में वृद्धि होगी परिणामस्वरुप एड्स जैसी लाइलाज यौन संचारी संक्रामक बीमारी का प्रसार होगा जिससे इस घातक बिमारी के प्रकोप में बढ़ोत्तरी के कारण मृत्यु दर में कई गुना वृद्धि होगी। एक अनुमान के अनुसार देश में आज लगभग 50 लाख (5 मिलियन) से भी ज्यादा व्यक्ति इस विषाणु रोग से ग्रसित हैं। असुरक्षित यौन संबंध इस बिमारी के प्रसार का प्रमुख कारण है। एड्स के अतिरिक्त हेपेटाइटिस बी, सूजाक तथा सिफलिस जैसी यौन संचारी बिमारियों के संचार तथा प्रकोप में भी वृद्धि होगी।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप खाद्यान्न में कमी के कारण देश में कुपोषण की समस्या होगी परिणामस्वरुप, रक्तअल्पता (Anemia), रतौंधी, रिकेट्स, मेरेस्मस, क्वासिरकोर, पेलाग्रा, बांझपन आदि जैसी गैर-संक्रामक बिमारियों की दर में वृद्धि होगी। कुपोषण के कारण बच्चों की मृत्यु दर में अभूतपूर्व वृद्धि होगी। कुपोषण से प्रभावित जनसंख्या संक्रामक बिमारी क्षयरोग के प्रति संवेदनशील होगी परिणामस्वरुप क्षयरोग के प्रकोप मेें अभूतपूर्व वृद्धि होगी। वर्तमान में भारत में लगभग 1.5 करोड़ क्षयरोगी हैं जो दुनिया में क्षयरोगियों की संख्या के एक तिहाई से भी ज्यादा है। प्रत्येक वर्ष 20,000 से 25,000 भारतीय क्षयरोग से पीड़ित होते हैं और इस बिमारी से 1,500 से भी ज्यादा लोगों की मृत्यु होती है।
कृषि क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप मुख्य फसलों जैसे गेहूँ (Triticum aestivum) तथा धान (Oryza sativa) के पैदावार में अभूतपूर्व कमी आयेगी। जलवायु की तपन के परिणामस्वरूप देश के वर्षा सिंचित क्षेत्रों (Rainfed areas) में मुख्य फसलों के उत्पादन में लगभग 125-130 मिलियन टन तक की कमी आयेगी।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में कीटों तथा रोगाणुओं की जनसंख्या में अभूतपूर्व वृद्धि होगी तथा साथ ही कीटों तथा रोगाणुओं की नई प्रजातियाँ भी विकसित होगी। इन कीटों तथा रोगाणुओं द्वारा फसलों पर आक्रमण के फलस्वरुप उत्पादन में गिरावट आयेगी। कीट संक्रमण के प्रति संवेदनशील कपास (Gossypium hirsutum, Gossypium arboreum तथा Gossypium barbadense) जैसी नकदी फसल पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ेगा। फसल उत्पादन में बढ़ोत्तरी हेतु कीटनाशकों पर निर्भरता बढ़ेगी।
जलवायु परिवर्तन तथा वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की वृद्धि के कारण खरपतवारों की जनसंख्या में वृद्धि होगी जिससे फसल उत्पादकता प्रभावित होगी। पौधों के पुष्पीय कुलों विशेषकर पोयेसी, साइप्रेसी, फैबेसी, यूफोर्बिएसी, एपोसायनेसी, अमरेन्थेसी, क्रैसुलेसी तथा पार्टुलैकेसी से संबद्ध खरपतवारों का प्रकोप औरों की तुलना में ज्यादा होगा। फसलों की खरपतावारों से सुरक्षा के लिए खरपतवारनाशकों अथवा शाकनाशकों पर निर्भरता में अभूतपूर्व वृद्धि होगी।
भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की वृद्धि के फलस्वरुप पौधों में कार्बन स्थिरीकरण की दर में भी वृद्धि होगी जिसके कारण मृदा से पोषक तत्वों के अवशोषण की दर में भी वृद्धि होगी परिणामस्वरुप मृदा की उर्वरा शक्ति में कमी आयेगी। मृदा की उर्वरा शक्ति को बनाये रखने के लिए रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता में अभूतपूर्व वृद्धि होगी।
जलवायु की तपन के कारण मृदा में जीवांश पदार्थो की विघटन की दर में भी वृद्धि होगी लेकिन वाष्पीकरण की दर में वृद्धि के फलस्वरुप मृदा में नमी की कमी के कारण परिणाम उल्टा भी हो सकता है। दोनों ही स्थितियों में पोषक चक्र की दर प्रभावित होगी जिससे मृदा की उर्वरा शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
जलवायु परिवर्तन का प्रत्यक्ष प्रभाव वर्षा के वितरण पर भी पड़ेगा। उत्तरी तथा मध्य भारत में कम वर्षा होगी जबकि इसके विपरीत देश के पूर्वोतर तथा दक्षिण-पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा होगी परिणामस्वरुप वर्षा जल की कमी से उत्तरी तथा मध्य भारत में लगभग सूखे जैसी स्थिति होगी जबकि देश के पूर्वोत्तर तथा दक्षिण पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा के कारण बाढ़ जैसी समस्या होगी। दोनों ही स्थितियों में फसल की पैदावार प्रभावित होगी। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में जल-जमाव तथा मृदा की लवणता जैसी समस्यायें भी पैदा होगी।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप ध्रुवीय बर्फ तथा हिमनदियों (Glaciers) के पिघलने से समुद्री जलस्तर में वृद्धि होगी जिसके कारण उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात तथा पश्चिम बंगाल राज्यों के तटीय क्षेत्र प्रभावित होंगे परिणामस्वरुप जल-जमाव, मृदा की लवणता तथा क्षारीयता जैसी समस्यायें पैदा होगी जिससे तटीय क्षेत्र बंजर भूमि में तब्दील हो जायेंगे जिसका सीधा प्रभाव फसल उत्पादन पर पड़ेगा।
जलवायु परिवर्तन के कारण वाष्पीकरण तथा पौधों में वाष्पोत्सर्जन की दर में अभूतपूर्व वृद्धि होगी परिणामस्वरुप जलस्रोतों तथा मिट्टी में जल की कमी होगी। जल की कमी के कारण फसल उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। जल की कमी का धान जैसी मुख्य फसल पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ेगा। तालाबों में जल की कमी के कारण सिंघाड़ा (Trapa bispinosa) तथा मखाना (Euryale ferox) जैसी फसलों की खेती प्रभावित होगी। मीठे जल स्रोतों में जल की कमी के कारण मत्स्य पालन तथा उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव देश की फसल पद्धति पर भी पड़ेगा। उत्तर तथा मध्य भारत का ज्यादातर क्षेत्रफल दलहनी फसलों तथा मिलेट्स (मोटे अनाज वाली फसलें जैसे- ज्वार, बाजरा तथा रागी) के अधीन होगा। उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में गेहूँ के क्षेत्रफल में अभूतपूर्व गिरावट आयेगी। धान उगाने वाले देश के पूर्वोत्तर तथा दक्षिणी-पश्चिमी राज्यों में इस फसल के क्षेत्रफल में वृद्धि होगी।
जलवायु की तपन के फलस्वरुप फसलों की कुछ चुनिन्दा तापरोधी, सूखारोधी, रोगरोधी तथा कीटरोधी किस्मों की वृहद पैमाने पर खेती के कारण फसल विविधता पर प्रभाव पड़ेगा जिससे पौष्टिक देसी किस्में विलुप्त हो जायेंगी परिणामस्वरुप आनुवांशिक क्षय की प्रक्रिया में वृद्धि होगी। खरपतवारों के वर्चस्व के कारण फसलों की जंगली प्रजातियां भी विस्थापित हो जायेंगी जिससे फसल सुधार कार्यक्रम पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप हिमालय की हिमनदियों के पिघलने के कारण, गंगा, ब्रह्मपुत्र, सतलज, रावी, व्यास आदि नदियों का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा परिणामस्वरुप जल की कमी होगी जिसके कारण फसल उत्पादन पर प्रभाव पड़ेगा।
जलवायु परिवर्तन के कारण प्राकृतिक आपदाओं जैसे आंधी, समुद्री तूफान, अल निनों तथा सूखा के प्रकोप में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी के फलस्वरुप फसल उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पडेगा।
तपन के परिणामस्वरुप रोगाणुओं की जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ नयी प्रजातियों के उद्भव के कारण देश के पशुधन आबादी पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। हरे तथा सूखे चारे की कमी के कारण भी पशुधन प्रभावित होगा। पशुधन किसानों की अतिरिक्त आय के स्रोत के साथ कृषि कार्यों जैसे जुताई, दवाई में भी उपयोगी होते हैं।
सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र पर भी पड़ेगा। कृषि में कीटनाशकों, शाकनाशकों तथा रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता के कारण छोटे अथवा गरीब किसान और गरीब होगें जबकि सम्पन्न किसान भी गरीब होंगे। कृषि धंधों में हानि के परिणामस्वरुप ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन होगा जिससे शहरी क्षेत्रों में भीड़-भाड़ वाली स्थिति होगी फलस्वरुप सामाजिक ताना-बाना नष्ट होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में संयुक्त परिवार बिखरकर एकल परिवार में परिवर्तित हो जायेंगे। एड्स जैसी बिमारी के प्रकोप के कारण भी समाज के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा।
अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह में भारत की आदिम जनजातियाँ जैसे ग्रेट अण्डमानीस, सेण्टेनलीज, ओन्जे तथा जारवा (निग्रोटो समूह) निकोबारीज तथा शाम्पेन (मंगोलायड समूह) निवास करती हैं। यह आदिम जनजातियाँ यहाँ के घने वनों में रहती हैं तथा अपने भोजन की पूर्ती हेतु शिकार तथा मछली पकड़ने पर निर्भर होती हैं। समुद्र के जलस्तर में वृद्धि के कारण द्वीप समूह के डूबने से इन आदिम जनजातियों का अस्तित्व सदैव के लिए समाप्त हो जायेगा।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप समुद्री जलस्तर में बढ़ोत्तरी के कारण देश के तटीय क्षेत्रों से लगभग 10 करोड़ (100 मिलियन) लोग विस्थापित होंगे। इन विस्थापित लोगों का शहरी क्षेत्रों की तरफ पलायन होगा जिसके परिणामस्वरुप शहरी क्षेत्रों में झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि होगी। शहरी क्षेत्रों में झुग्गी-झोपड़ियों के विस्तार के कारण मूलभूत सुविधायें (बिजली, पानी आदि) प्रभावित होंगी। इसके अतिरिक्त गंदगी के साथ अपराधिक घटनाओं में भी वृद्धि होगी।
तपन के कारण वनों में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि के परिणामस्वरूप वनों में रहने वाली जनजातियाँ विस्थापित होगीं। चूंकि जनजातियों की पहचान उनके संस्कृति, रहन-सहन तथा खान-पान से होती है अतः मुख्य जीवनधारा में आने के बाद उनमें बदलाव आयेगा जिससे उनकी पहचान स्वतः ही समाप्त हो जायेगी।
भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश में उष्णता में वृद्धि के फलस्वरुप मानव प्रजनन दर में बढ़ोत्तरी होगी जिसके कारण जनसंख्या की विकास दर में भी वृद्धि होगी। जनसंख्या की विकास दर में वृद्धि के कारण संसाधनों पर दबाव बढ़ेगा जिससे संसाधनों का क्षय होगा। जनसंख्या वृद्धि के कारण गरीबी तथा बेरोजगारी जैसी समस्याओं में अभूतपूर्व वृद्धि होगी।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप कीटों तथा रोगाणुओं की जनसंख्या में बढ़ोत्तरी के कारण फसल उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा जिससे आर्थिक तंगी या ऋण बोझ के कारण किसान आत्महत्या को मजबूर होंगे। देश के महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं तेलंगाना जैसे राज्यों में किसानों की आत्महत्या की दर में कई गुना वृद्धि होगी।
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जलवायु परिवर्तन का सीधा प्रभाव आर्थिक जगत पर पड़ेगा। फसल पैदावार में गिरावट के कारण देश की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा जिससे मुद्रास्फिति की दर बढ़ेगी। मुद्रास्फिति की दर बढ़ने के कारण गरीबी तथा भूखमरी के साथ-साथ बेरोजगारी भी बढ़ेगी। गरीबी के कारण बालश्रम तथा वेश्यावृत्ति सहित अन्य अपराधों में अभूतपूर्व वृद्धि होगी जो देश की कानून व्यवस्था के लिए गंभीर चुनौती होगी। गरीबी में वृद्धि के कारण माओवाद तथा नक्सलवाद जैसी समस्याओं में भारी वृद्धि होगी।
मुद्रास्फीति बढ़ने के कारण उद्योग जगत भी प्रभावित होगा। कृषि पर आधारित उद्योगों में उत्पादन की कमी के कारण उद्योग-धन्धे बंद हो जायेंगे परिणामस्वरुप बेरोजगारी की समस्या पैदा होगी। ग्रामीण क्षेत्रों के साथ-साथ शहरी क्षेत्रों में भी आत्महत्या की घटनाओं में अभूतपूर्व इजाफा होगा।
संसाधन क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन का देश के संसाधनों पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। वैश्विक तपन से वनों में आग लगने के कारण वन जैसे महत्वपूर्ण जैविक संसाधन नष्ट हो जायेगें। रासायनिक खादों पर निर्भरता के कारण मृदा अपरदन की दर में वृद्धि होगी जिसके फलस्वरूप मृदा जैसे महत्वपूर्ण संसाधन का क्षय होगा। जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप हिमनदियों के पिघलने के कारण हिमालय से निकलने वाली नदियों का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा फलस्वरूप जल संसाधन में अभूतपूर्व कमी होगी। शीतलन हेतु अधिक उर्जा की मांग के कारण कोयले जैसा महत्वपूर्ण खनिज संसाधन समाप्त हो जायेगा।
ऊर्जा क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव उर्जा क्षेत्र पर पड़ेगा। वातावरण में तपन के कारण शीतलन हेतु ज्यादा उर्जा की आवश्यकता होगी। ग्रीष्म ऋतु में गर्मी से बचने के लिए उर्जा खपत में अभूतपूर्व वृद्धि होगी जिससे उर्जा की समस्या पैदा होगी। तपन के परिणामस्वरुप जल स्रोतों में जल की कमी के कारण पनबिजली परियोजनाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा जिससे उर्जा उत्पादन में गिरावट आयेगी। उर्जा की कमी के कारण देश के उद्योग-धंधे, परिवहन, शोध, चिकित्सा आदि पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
राजनैतिक क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन का अप्रत्यक्ष प्रभाव देश के राजनैतिक क्षेत्र पर भी पड़ेगा। खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट के कारण गरीबी तथा भूखमरी में अभूतपूर्व वृद्धि होगी जिससे गृह युद्ध जैसे हालात होंगे। ऐसे में राजनैतिक दलों के लिए राजनीति अथवा शासन को सुचारु रुप से चलाना दुष्कर कार्य होगा। गरीबी, भूखमरी, अकाल तथा बेरोजगारी के चलते आम जनता में आक्रोश के कारण देश में राजनैतिक अव्यवस्था तथा अस्थिरता का बोलबाला होगा।
आंतरिक सुरक्षा तथा सामरिक क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन का अप्रत्यक्ष प्रभाव देश की आंतरिक सुरक्षा तथा सामरिक क्षेत्र पर भी पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर्राष्ट्रीय अंतःसरकारी दल (IPCC) के अनुसार वर्ष 2050 तक बांग्लादेश की 17 प्रतिशत भूमि और 30 प्रतिशत खाद्यान्न उत्पादन समुद्र की भेट चढ़ जायेगें। ऐसे में खाद्यान्न उत्पादन घटने तथा समुद्र जलस्तर बढ़ने के कारण पड़ोसी देश बांग्लादेश से घुसपैठ की समस्या में कई गुना वृद्धि होगी जिससे देश के पूर्वोत्तर राज्यों जैसे असम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल आदि में बांग्लादेशी घुसपैठियों का प्रभुत्व होगा। घुसपैठ की समस्या के कारण देश की आंतरिक सुरक्षा प्रभावित होगी। घुसपैठियों के प्रभुत्व के कारण पूर्वी भारत का हिस्सा कटकर अलग देश में परिवर्तित हो सकता है।
पड़ोसी देश पाकिस्तान भी स्थितियों का फायदा उठाते हुए बांग्लादेश के माध्यम से आतंकवादियों की घुसपैठ कराकर देश के समक्ष गंभीर आंतरिक सुरक्षा का खतरा पैदा कर सकता है। इसके अतिरिक्त जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप कश्मीर घाटी के द्रास में बर्फ पिघलने से पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर घुसपैठ होगी जिससे देश के कश्मीर राज्य के साथ-साथ अन्य राज्यों में आतंकवादी गतिविधियों में अभूतपूर्व इजाफा होगा। उक्त स्थितियों में भारत तथा पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ेगा जिससे दोनों देशों के बीच युद्ध की स्थिति होगी।
जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप सियाचिन हिमनदी के पिघलने के कारण पड़ोसी देश चीन से भी सैनिकों की घुसपैठ होगी जिसके कारण भारत के भूभाग पर चीनी कब्जे का और विस्तार होगा परिणामस्वरूप दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ेगा जो अंततः युद्ध का कारण साबित हो सकता है।
पर्यटन क्षेत्र पर जलवायु परविर्तन का प्रभाव:
जलवायु परिवर्तन का भारत के पर्यटन क्षेत्र पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। गोवा जैसा महत्वपूर्ण पर्यटक राज्य समुद्र जलस्तर में वृद्धि के कारण डूबकर समाप्त हो जायेगा। इसके अतिरिक्त स्वच्छ जल की अनुपलब्धता, संक्रामक बिमारियों के प्रकोप, राजनीतिक अस्थिरता तथा आतंकवादी घटनाओं में वृद्धि के कारण भारत विदेशी पर्यटकों के भ्रमण के अनुकूल नहीं होगा। वैश्विक तपन के कारण भारत के मैदानी क्षेत्रों से पहाड़ो पर बड़े पैमाने पर पलायन होगा फलस्वरूप पहाड़ी राज्यों में भीड़-भाड़ वाली स्थिति होगी जिससे प्राकृतिक सुन्दरता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। फलस्वरूप पहाड़ी राज्य देशी तथा विदेशी सैलानियों को आकर्षित करने में विफल होगें।
निष्कर्ष:
जलवायु परिवर्तन का प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष प्रभाव देश के कृषि, पर्यावरण, स्वास्थ्य, ऊर्जा, सामाजिक, आर्थिक, संसाधन पर्यटन, राजनैतिक तथा आंतरिक सुरक्षा एवं सामरिक क्षेत्रों पर पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप देश के कृषि उत्पादन में कमी आयेगी। खाद्यान्न उत्पादन में कमी के कारण मुद्रास्फिति बढ़ेगी परिणामस्वरुप गरीबी तथा बेरोजगारी में बढ़ोत्तरी होगी जो देश में अपराध वृद्धि का कारण बनेगी।
मुद्रास्फिति के कारण औद्योगिक उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के कारण जैव-विविधता का क्षरण होगा, सतही एवं भूमिगत जल प्रदूषित होंगे तथा बंजर भूमि क्षेत्रफल में विस्तार होगा। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरुप क्षयरोग, एड्स, दस्त, पेचिश, हैजा, पीलिया, खसरा, निमोनिया, मलेरिया, डेंगू ज्वर, जापानी मस्तिष्क ज्वर, काला-अजार, निद्रा रोग जैसी संक्रामक बिमारियों के प्रसार तथा बारम्बारता में वृद्धि के कारण इन बिमारियों से होने वाली मौतों में कई गुना इजाफा होगा।
जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप पड़ोसी देशों से घुसपैठ के कारण देश की आंतरिक सुरक्षा प्रभावित होगी तथा सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ेगा। भारत का उसके पड़ोसी देशों पाकिस्तान तथा चीन से तनाव बढ़ेगा जिससे युद्ध की संभावना होगी।
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(डॉ. अरविंद सिंह वनस्पति विज्ञान विषय से एम.एस-सी और पी-एच.डी. हैं। इनकी विशेषज्ञता का क्षेत्र पारिस्थितिक विज्ञान है। यह एक सक्रिय शोधकर्ता हैं और राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की शोध पत्रिकाओं में अब तक इनके चार दर्जन शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। खनन गतिविधियों से प्रभावित भूमि का पुनरूत्थान इनके शोध का प्रमुख विषय है। इसके अतिरिक्त इन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मुख्य परिसर की वनस्पतियों पर भी अनुसंधान किया है। इनसे ईमेल आईडी arvindsingh_bhu@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
(scientificworld.in से साभार)
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