Saturday, 6 December 2014

चेहरे / जयप्रकाश त्रिपाठी

आज वे सब लोग जाने क्यों पराये लग रहे हैं
एक चेहरे पर कई चेहरे लगाये लग रहे हैं
बेबसी में क्या किसी से रोशनी की भीख मांगें
वे अंधेरी रात के बदनाम साये लग रहे हैं

कोई महापंडित हो या निपट गंवार, वामपंथी हो या दक्षिणपंथी, व्यक्ति के अंदर का ढकोसला और खोखलापन, उसे कहीं का नहीं रहने देता, मसखरा बनाकर रख देता है, उसकी विश्वास करने लायक बातें भी अविश्वसनीय लगती हैं, वह अपनी आंतरिक कुरूपताओं को व्यवहारजगत से जितना ढंकने-छिपाने के प्रयास करता है, स्वयं की जायी-सहेजी विद्रूपताएं उसका सुख-चैन तार-तार करती रहती हैं, और एक दिन जीवन बोझ-सा हो जाता है, उसे खुद समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों हो रहा है उसके साथ ? इसलिए मेरा मानना है कि दुनिया भर की दलीलें और विचार बांटने से पहले खुद बेहतर इंसान होना ज्यादा जरूरी है, बाकी सब बाद की दुनियादारी.....


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