Monday, 22 December 2014

पी साईंनाथ ने बनाया गांवों का अजायबघर / रवीश कुमार

एक सुखद बदलाव ने दस्तक दी है और हम आप हैं कि आहट से बेख़बर हैं। बहुत से पत्रकार पेशे से निराश होकर कंपनियों के प्रवक्ता बन गए, नेताओं के सचिव बन गए, पार्टियों के चुनावी योजनाकार बन गए और कुछ ने रसूख का इस्तमाल कर दुकानदारी कायम कर ली। कुछ ने एनजीओ खोला तो कुछ ने सर्वे कंपनी तो कुछ ने अपना चैनल। कुछ रियल इस्सेट में भी आ गए तो कुछ चुनाव लड़ने भी चले गए। निराशा और मजबूरियों ने पत्रकारों को क्या से क्या बना दिया। इसी वक्त में जब पत्रकार से लेकर मीडिया पर निगाह रखने वाले लोग निराशा से गुज़र रहे हैं पी साईनाथ ने एक नई लकीर खींची है। वो कितनी लंबी होगी उन्हें नहीं पता, वो कब मिट जाएगी इसकी भी चिन्ता नहीं है लेकिन बस अपने हाथ में जो भी था उससे एक लकीर खींच दी है।
http://www.ruralindiaonline.org इंटरनेट के अथाह सागर में यह एक नया टापू उभरा आया है। जहां भारत के गांवों की हर एक तस्वीर को बचाकर रखने का सपना बोया गया है। पिछले बीस-तीस सालों में गांवों पर क्या कुछ गुज़री है हम जानते हैं। पेशे बदल गए हैं, बोलियां मिट गईं और बदल गईं, खान-पान सब कुछ बदला है। गांव वाले लोग बदल गए। कोई नया आया नहीं लेकिन जो था वो वहां से चला गया। पी साईंनाथ अब उस गांव को समेट लेना चाहते हैं जो हो सकता है एक दिन हमारी स्मृति से भी अचानक मिट जाए और वहां हम सौ नहीं एक सौ हज़ार स्मार्ट सिटी लहलहाते देखें। फेसबुक पर गांवों को लेकर हिन्दी की बिरादरी आए दिन उन स्मृतियों को निराकार रूप में दर्ज करते रहते हैं लेकिन साईनाथ ने रोने-धोने की स्मृतिबाज़ी से अलग हटकर एक ऐसा भंडार बनाने का बीड़ा उठाया है जो भविष्य में काम आएगा।
जब हम भारत के गावों के बारे में पढ़ेंगे और उन गांवों को गांवों में जाकर नहीं, इंटरनेट की विशाल दुनिया में ढूंढेंगे तब क्या मिलेगा। यहां वहां फैली सामग्रियों को हम कब तक ढूंढते रहेंगे। लिहाज़ा साईंनाथ ने तय किया है कि इन सबको एक साइट पर जमा किया जाए। कहानियां, स्मृतियां, रिपोतार्ज, तस्वीरें, आवाज़ और वीडियो सब। पत्रकार, कहानिकार और अन्य पेशेवर या कोई भी इसका स्वंयसेवक बन सकता है। साईंनाथ की तरफ से पत्रकारिता और अकादमी की दुनिया में एक बड़ा हस्तक्षेप हैं। कोई भी इन सामग्रियों को बिना पैसा दिये इस्तमाल कर सकता है। स्कूल कालेज के प्रोजेक्ट बना सकता है और इसे समृद्ध करने में योगदान कर सकता है। इस साइट पर आपको भारत के गांवों से जुड़ी तमाम सरकारी और महत्वपूर्ण रिपोर्ट भी मिलेगी।
साईंनाथ लिखते हैं कि भारत में 83 करोड़ लोग गांवों में रहते हैं और 700 से ज्यादा बोलियां बोलते हैं। स्कूलों में सिर्फ चार प्रतिशत भाषाएं ही पढ़ने के लिए उपलब्ध होती हैं। कई बोलियां मिट रही हैं। त्रिपुरा में एक बोली है सैमर जिसे अब सिर्फ सात लोग ही बोलते हैं। ऐसी ही विविधता साहित्य, संस्कृति, दंतकथाएं, कला, पेशा, उपकरणों में भी है। इन सबको बचाने के लिए ये वेबसाइट तैयार किया गया है। लेकिन आप इस साइट को लेकर भारत सरकार के किसी संस्कृति बचाओ प्रोजेक्ट से कंफ्यूज़ न हो जाएं। साईंनाथ आपकी जानकारी की दुनिया का विस्तार करना चाहते हैं। जहां आप यह देख समझ सकें कि मौजूदा आर्थिकी ने बनाने के साथ साथ क्या क्या मिटाया है। किसानों और खेती के संकट को भी इसमें शामिल किया गया है। जो बचा हुआ है और जो मिट चुका है दोनों का आर्काइव तैयार करने की योजना है। गांवों का एक जीता-जाता म्यूज़ियम। ताकि हम अपनी बर्बादियों के निशान उतनी ही आसानी से देख सकें जितनी आसानी से हमने इस गुलिस्तां को बर्बाद किया है।
The CounterMedia Trust की तरफ से इस साइट को संचालित किया जा रहा है। यह एक तरह की अनौपचारिक संस्था है जो सदस्यता शुल्क, वोलिंटियर,चंदा और व्यक्तिगत सहयोग से चलती है। इसमें कई रिपोर्टर, फिल्म मेकर, फिल्म एडिटर, फोटोग्राफ्र, डोक्यमेंटरी मेकर, टीवी, आनलाइन और प्रिंट पत्रकार सब शामिल हैं। इसके अलावा अकादमी की दुनिया से टीचर, प्रोफेसर, टेकी-प्रोफेशनल भी इसके आधार हैं। ये सब अपनी सेवाएं फ्री दे रहे हैं। मुख्यधारा की मीडिया के लिए भी अब झूठमूठ का रोने का मौका नहीं रहेगा कि उसके पास संवाददाता नहीं है। पैसे नहीं है। मीडिया को गांवों की चिन्ता नहीं है। बुनियादी बात यही है। बाकी सब बहाने हैं। लेकिन जैसा कि यह वेबसाइट पेशकश कर रही है कि कोई भी इसके कंटेंट का मुफ्त में इस्तमाल कर सकता है। इस लिहाज़ से यह एक बड़ा और स्वागतयोग्य हस्तक्षेप तो है ही।
लेकिन साईंनाथ के इस प्रयास को बहुत पैसे की भी ज़रूरत होगी। वे आप सब सामान्यजन से ही सहयोग की अपेक्षा रखते हैं। आप कुछ भी दान कर सकते हैं। अपने श्रम से लेकर पैसे तक। ताकि ल्युटियन दिल्ली की आंत में फंस गई पत्रकारिता को निकालने का एक माडल कामयाब किया जा सके। ऐसे माडल तभी कामयाब होंगे जब आप पाठक और दर्शक के रूप में सहयोग करेंगे। जैसे आप बेकार के न्यूज चैनल और अखबारों को खरीदने के लिए हर महीने हज़ार रुपये से भी ज्यादा खर्च कर देते हैं और फिर छाती कूटते रहते हैं कि कुछ बदलाव क्यों नहीं होता। क्या यही पत्रकारिता है। इस सवाल पर भी ग़ौर कीजिए कि जब अच्छे पत्रकारों के लिए जगह नहीं बची है तब उस माध्यम में आप अपनी मेहनत का पैसा क्यों खर्च करते हैं। आप अगर पार्टी के कार्यकर्ता हैं तो अलग बात है। अपनी पार्टी का जयकारा सुनते रहें या किसी और पार्टी के जयकारे की बारी का इंतज़ार कीजिए लेकिन आप इन सबसे अलग सिर्फ एक सामान्य नागरिक दर्शक हैं तो आपको पहल करनी चाहिए।
('कस्बा' से साभार)

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