Monday, 22 December 2014

बट, 'पीके' इज नाट भेस्ट ऑफ़ टाइम / उमेश पंत

हाल ही में आई फिल्म ऐक्शन-जैक्शन या फिर सिंघम सरीखी फिल्मों से तुलना करेंगे तो फिल्म निसंदेह अलग दर्जे़ की है। फिल्म जो सन्देश देती है वो पेशावर सरीखी घटनाओं के बाद तो एकदम ज़रुरी लगने लगता है। फिल्म धर्म के खिलाफ कट्टरपंथी सोच और आडंबरों के विरोध में खड़ी होती है वो भी इतनी साफगोई से कि इसे एक सिनेमाई दुस्साहस कहा जा सकता है। वो बात और है कि धार्मिक आडंबरों की भरपूर खिल्ली उड़ाते हुए भी पीके भगवान को एकदम नकार देने का साहस नहीं जुटा पाती। वो बीच का रास्ता अपनाती है। कि भगवान दो तरह के होते हैं। एक वो जो हमें बनाता है और दूसरा जिसे हम बनाते हैं। जिस भगवान को हम बनाते हैं उस भगवान को फिल्म पूरी तरह से धराशाई कर देती है। लेकिन जो भगवान हमें बनाता है उसका क्या ?
चलिये शुरु से शुरु करते हैं। पीके इसी भाव से शुरु होती है। एकदम नग्न। आवरणहीन। इस विशाल दुनिया के मरुस्थल में एक नंगा आदमी खड़ा है जिसे दुनिया के बारे में कुछ नहीं पता। ठीक उस मानसिक अवस्था में जैसे हम पैदा होने के ठीक बाद होते हैं। ठीक इसी बिन्दु पर फिल्म से बड़ी उम्मीदें बंध जाती हैं। एक एलियन की नज़र से इस दुनिया को देखना जिसके लिये ये दुनिया एक अनजान गोला भर है। वो नज़र जिसमें कोई पूर्वाग्रह नहीं है। जो किसी दुनियावी आडंबर को नहीं जानती। एक बच्चे की मासूम निगाहों से तरह तरह के चोले में लिपटी इस दुनिया को समझने की यात्रा की कहानी। एक उम्दा शुरुआत।
लिबास खूबसूरत है रुह नहीं
लेकिन काश लिबास की खूबसूरती में रुह तक पहुंचने की कूव्वत होती। पीके एक अच्छे शुरुआती वादे के बाद बाॅलिवुड में कई बार देखे जा चुके टिपिकल फिल्मी मसाले की चाशनी में लिपट जाती है। धरती पर आये एलियन पीके का लाॅकेट धरती पर उतरते ही चोरी हो जाता है। अब उसे वापस जाने के लिये उस लाॅकेट वाले यंत्र को तलाशना है।
इसी तलाश में उसे पता लगता है कि इस दुनिया में सर्वशक्तिमान भगवान का ही सिक्का चलता है और वही उसे वह लाॅकेट दिला सकता है। अब शुरु होती है उस भगवान की तलाश इसके बाद फिल्म और तलाश के बीच पीके (आमिर खान) की मुलाकात जग्गू (अनुष्का शर्मा) से होती है। जग्गू जो अपने प्रेमी सरफराज़ (सुशांत राजपूत) से जुदा होने के गम में बेल्जियम से भारत आ जाती है और एक न्यूज़ चैनल में नौकरी करने लगती है। अब पीके और जग्गू मिलकर स्वामी जी (सौरभ शुक्ला) की कैद से कैसे उस लाॅकेट को हासिल करते हैं, यही फिल्म की कहानी है।
न ह्यूमर नया है, न ट्रीटमेंट
इस पूरी कहानी को कहने में फिल्म जिस हास्य का प्रयोग करती है न वो नया और न ही कहानी की थीम को हम पहली बार सिनेमाई परदे पर देख रहे होते हैं। बाद तक आते आते फिल्म कमोवेश “ओह माई गाॅड“ सी ही हो जाती है। वो बात और है कि ओह माई गाॅड जो बात कहती है पीके वही बात कुछ रचनात्मक तरीके से कहने की कोशिश करती है।  कुछ मूमेन्ट्स बहुत अच्छे हैं लेकिन वो मूमेन्ट्स जिस तरह से फिल्म में संयोजित होते हैं वो कहानी के साथ रवानगी में नहीं बहते। ऐसा लगता है कि जैसे जिक्शाॅपज़ल के खांचे पहले से बने हों बस उनमें उन मूमेन्ट्स को फिट कर दिया गया हो।
साहस तो है पर अधूरा
हाल ही में आई फिल्म ऐक्शन-जैक्शन या फिर सिंघम सरीखी फिल्मों से तुलना करेंगे तो फिल्म निसंदेह अलग दर्जे़ की है। फिल्म जो सन्देश देती है वो पेशावर सरीखी घटनाओं के बाद तो एकदम ज़रुरी लगने लगता है। फिल्म धर्म के खिलाफ कट्टरपंथी सोच और आडंबरों के विरोध में खड़ी होती है वो भी इतनी साफगोई से कि इसे एक सिनेमाई दुस्साहस कहा जा सकता है। वो बात और है कि धार्मिक आडंबरों की भरपूर खिल्ली उड़ाते हुए भी पीके भगवान को एकदम नकार देने का साहस नहीं जुटा पाती। वो बीच का रास्ता अपनाती है। कि भगवान दो तरह के होते हैं। एक वो जो हमें बनाता है और दूसरा जिसे हम बनाते हैं। जिस भगवान को हम बनाते हैं उस भगवान को फिल्म पूरी तरह से धराशाई कर देती है। लेकिन जो भगवान हमें बनाता है उसका क्या ? क्या धर्म के आडंबरों के मूल में वही नहीं है ? अगर नहीं तो फिर ये फिल्म इस लिहाज से कौन सी नयी बात कह जाती है ? लेकिन दूसरे नज़रिये से देखें तो कई बातें घिसे पिटे ढ़र्रे में ही सही बार-बार भी कही जाएं तो वो लाज़मी लगती हैं। पीके इस लिहाज से एक ऐसी फिल्म है जिसे खुद तो देखना ही चाहिये अपने परिवार और दोस्तों को भी ले जा सकें तो अच्छी बात है।
कौआ, कौंडोम और ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर
फिल्म में कुछ अच्छे लमहों को याद करें तो एक दृश्य याद आ जाता है। जग्गू पीके से पूछती है कि तुम्हारे ग्रह पे लोग नंगे कैसे रहते हैं? अजीब नहीं लगता ? तो पीके बाहर देखता है। बालकनी के बाहर एक कौवा दिखाई देता है। पीके उसे देखकर कहता है कि वो देखो- उस कौए को देखकर अजीब लगता है ? वो भी तो नंगा है। या फिर एक दूसरे दृश्य में कपड़ों के रंग से धर्मों के आडंबर को दिखाना। या गांधी की तस्वीर की कीमत पर उठाये पीके के मानीखेज़ सवाल। फिल्म दरअसल यूं ही कह दी गई इन गहरे अर्थ वाली बातों से बड़ी और अलग होने की संभावना समेटती चलती है लेकिन पैसा बटोरने का भी खयाल लगातार निर्देशक के दिमाग में चलता रहता है। इसलिये फिल्म में कौन्डोम ह्यूमर भी ठूस दिया जाता है। और न जाने क्यों भाषा के ट्रांसफर के लिये पीके को केवल लड़की का हाथ ही चाहिये जो कई लड़कियों से पिटते पिटते बचने के बाद उसे आखिरकार एक वैश्यालय में मिलता है। कई सिनेमाई शौर्टकट हैं फिल्म में। मसलन स्वामी जी के परभक्त पिता जितनी आसानी से पीके की बात मानकर उनके विरोध में आ जाते हैं या फिर सरफराज़ और जग्गू के बीच जो मिसअन्डरस्टैंडिंग होती है वो भी जमती नहीं। एलियन धरती पर पहुंच गया है लेेकिन सरफराज़ और जग्गू की जि़दगी में अब तक फेसबुक या ट्विटर क्यों नहीं आया ये थोड़ा सोचने वाली बात तो है।
पीके इससे पहले इसी विषय पर आई फिल्म ‘ओह माई गाॅड’ का ओवरहाइप्ड या परिमार्जित वर्ज़न भर होने से इसलिये बच जाती है क्योंकि उसमें आमिर खान की मेहनत झलकती है। आमिर खान ने जो भूमिका निभाई है वो इतनी सरल नहीं है। फिल्म देखते हुए मुझे कुछ वक्त पहले पढ़ी एक किताब ‘द लिटिल प्रिंस’ याद आती है। उस किताब में लिटिल प्रिंस नाम का एक किरदार है जो अपने छोटे से ग्रह से दूसरे ग्रहों में एक खोज के लिये निकला है। और इस खोज में उसे ऐसी ही कई छोटी-छोटी चीज़ें ‘ग्रोन अप्स’ यानी बड़े लोगों के बारे में पता चलती हैं। उसमें ‘ग्रोन अप्स’ और जिंन्दगी को लेकर उत्सुकता भरे कई छोटे-छोटे तंज़ हैं जो लुभा जाते हैं। काश कि पीके उन गहराइयों तक पहुंच पाती जहां बिना बहुत ज्यादा कहे बहुत कुछ बयान हो जाता है। पीके कई जगह ज़रुरत से ज्यादा बोलती हुई लगती है। बाॅलिवुड में आ रही फिल्मों के चलन में फिल्म कोई नया लैंडमार्क स्थापित नहीं करती पर हां अहम सन्देश ज़रुर देती है। बाकी फिल्म की ही एक लाइन में कहें तो बहुत ज्यादा उम्मीद लेकर जाएंगे तो हासिल यही होगा -नाम मिला कुछ और शक्ल मिली कुछ और। हां इतना कहूंगा कि पीके लुल नहीं है।

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