हिंदी पत्रकारिता के 187 साल पूरे होने के बाद भी उसके सामने चुनौतियों का जो पहाड़ पहले खड़ा था, वह आज भी जस का तस है। भारत में आधुनिक ढंग की पत्रकारिता की शुरुआत 18वीं शताब्दी के चौथे चरण में कोलकाता, बंबई (मुंबई) और मद्रास (चेन्नई) कहा जाता है, से शुरू हुई थी। हिंदी के पहले समाचार पत्र के रूप में ‘उदंत मार्तण्ड’ की शुरुआत 1826 में हुई थी। इस समय तक अंग्रेरजी पत्रकारिता देश के बड़े शहरों में अपना पैर जमा चुकी थी। हिंदी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी का आइना है.‘उदंत मार्तण्ड’ साप्ताहिक समाचार पत्र था। इसमें मध्य देशीय भाषा का प्रयोग होता था। इसके संपादक पंडित जुगल किशोर ने बड़ी मेहनत से इसका प्रचार-प्रसार किया, लेकिन एक साल बाद ही 1827 में इसका प्रकाशन बंद हो गया। क्योंकि उन दिनों बिना सरकारी सहायता के किसी भी समाचार पत्र को चलाना अंसभव था।
अंग्रेजों के लिए काम करने वाली कंपनी सरकार ने मिशनरी अखबारों के लिए हर तरह की सुविधाएं दे रखी थीं। हिंदी अखबार को कोई सुविधा नहीं मिली थी। यहां तक कि डाक से भेजने की सुविधा भी नहीं थी। ‘उदंत मार्तण्ड’ इसी साजिश का शिकार होकर एक साल में ही बंद हो गया। यह बात और थी कि इसके बाद हिंदी के अलावा बांगला और उर्दू में भी अखबार निकालने की शुरुआत होने लगी थी।हिंदी पत्रकारिता की असल शुरुआत 1873 में हुई, जब भारतेंन्दु ने ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ की शुरुआत की। एक साल बाद इसका नाम ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ हो गया। इसके बाद एक के बाद एक कई अखबार शुरू हुए, जो दैनिक, साप्ताहिक और मासिक थे। जानेमाने अखबारों में नागरीप्रचारिणी सभा का ‘सरस्वती’ सबसे प्रमुख अखबार था। 1873 से 1900 के बीच 300 से 350 अखबारों का प्रकाशन होने लगा था। ये सभी 15 पृष्ठों के बीच होते थे और इन्हें एक तरह से विचारपत्र कहा जाता था।
उदंत मार्तंड के बाद प्रमुख पत्र हैं :
बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846),मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तंड (1850),मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861),सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867),ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867),विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयाग दूत (1871), बुंदेलखंड अखबारर (1871), प्रेमपत्र (1872), और बोधा समाचार (1872)।
साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उन पर की जाने वाली टिप्पणियों का अपना खास महत्व था। दैनिक समाचार पत्रों के प्रति कोई खास रुझान उस समय नहीं होता था। भारतेंदु की पत्रकारिता के 25 साल हिंदी पत्रकारिता के आदर्श माने जाते हैं। उनकी टीका-टिप्पणी से अंग्रेज सरकार के अफसर तक घबराते थे। एक टिप्पणी पर घबराकर काशी के मिजस्ट्रेट ने भारतेंदु के पत्र ‘कविवचनसुध’ को शिक्षा विभाग में लेना ही बंद करा दिया था। भारतेंदु ने सिखाया कि पत्रकार को किस तरह से निर्भीक होना चाहिए।
भारतेंदु के बाद जो पत्रकार आए, वे भी उनकी शुरुआत को आगे बढ़ाते गए। इसके साथ हिंदी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकिसत होती गई। पहले के पत्र शिक्षा और धर्म प्रचार तक ही सीमित थे। समय के साथ-साथ इसमें राजनीतिक, साहित्यक और सामाजिक विषयों को भी शामिल किया जाने लगा। एक समय ऐसा भी आया जब विभिन्न वर्गों और संप्रदाय के सुधर के लिए समाचार पत्रों की शुरुआत हो गई। इसमें धर्म का प्रचार और आलोचना दोनों को ही पूरा मौका मिलने लगा। 1921 के बाद हिंदी पत्रकारिता का समसामयिक युग शुरू हुआ। इस समय तक हिंदी का प्रवेश विश्वविद्यालयों में हो चुका था। आजादी के आंदोलन में हिंदी पत्रकारिता ने अपना अहम रोल दिखाना शुरू कर दिया था।
अब तक राजनीतिक क्षेत्र में पत्र-पत्रिकाओं की धमक बढ़ने लगी थी और ये जनमन के निर्माण में भी अपना अहम रोल निभाने लगे थे। राजनीतिक पत्रकारिता में हिंदी अखबार ‘आज’ और उसके संपादक बाबूराव विष्णु पराड़कर का सबसे प्रमुख स्थान था। इसके बाद हिंदी पत्रकारिता के विकास में तेजी आई। आजादी के बाद सरकार ने इसके विकास में अहम रोल अदा किया। धीरे-धीरे देश में तमाम तरह के अखबार और पत्रिकाओं की धूम मच गई। इनके अपने विचार होते थे। उस समय पाठकों के बलबूते पर ही इनका खर्च निकाला जाता था। सरकार ने सुविधाएं देनी शुरू कीं तो पत्रकारिता पर अपना अघोषित दबाव भी बना दिया। सरकार ने अखबारों को सुविधाएं देने के नाम पर सस्ते मूल्य पर कागज और विज्ञापन देना शुरू किया। यही वह खास मोड़ था जहां से अखबारों पर व्यवसायिकता हावी होने लगी।
1990 के दशक तक अखबारों में संस्करण कम निकलते थे. इसके बाद तो सभी अखबारों के नगर और कस्बे तक के संस्करण निकलने लगे। अब अखबार को उपभोक्ता वस्तु की तरह बेचा जाने लगा। राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण को देखें तो हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या तेजी से बढ़ी है। इसके बावजूद सुविधओं का यहां पूरी तरह अभाव है। आज भी राज्य सरकारों ने अपनी नीति बना रखी है। चंद अखबारों और उनके पत्रकारों को सरकारी सुविधाओं का लाभ दिया जाता है। बदले में यह बंदिश होती है कि वह सरकार के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते समय सावधानी बरतें। जिन पत्रकारों को सत्ता का बरदहस्त हासिल है सही मायनों में उनको ही पत्रकार माना जाता है। बाकी के लिए न सरकार के पास कोई नीति है और न अखबार मालिकों के पास।
हिंदी समाचार पत्रों और उनमें काम करने वाले पत्रकारों के लिए कई तरह के वेतनमान आए और चले गए, लेकिन हिंदी पत्रकारिता की हालत में कोई सुधार नहीं आया। अखबार का मालिक अब इसे व्यवसाय के रूप में परिवर्तित कर चुका है। सरकारी सुविधाओं का लाभ केवल समाचार पत्रों के कुछ लोगों तक ही सीमति रह गया है। मासिक, पाक्षिक और साप्ताहिक की हालत खराब है। सरकार के पास इसकी कोई नीति नहीं है। कहने के लिए केंद्र से प्रदेश सरकारों तक के पास सूचना विभाग का भारीभरकम बजट और स्टाफ है पर यह सब एक तरह की चाटुकारिता को भी बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। इसके बाद भी हिंदी पत्रकारिता प्रगति की राह पर है। आज हिंदी ने मीडिया और इंटरनेट पर भी अपना कब्जा जमा लिया है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हिंदी केवल भाषा नहीं इस देश के प्राण में बसती है।
नए युग में सरकार की उपेक्षा के बाद भी बहुत सारी पत्रिकाएं बाजार में हैं। यह प्राइवेट विज्ञापनों के भरोसे अपने को बाजार में बनाए हुए हैं। देश में अंग्रेजी का समर्थक एक बड़ा वर्ग है। जो हिंदी पत्रकारिता को नुकसान पहुंचाने के लिए अपने मीडिया प्लान में अंग्रेजी अखबारों को ही रखता है। जिसका व्यवसायिक नुकसान हिंदी पत्रकारिता को हो रहा है। आज जरूरत इस बात की है कि हिंदी पत्रकारिता नई चुनौतियों से रूबरू हो। अपनी पहचान बनाए। आने वाला समय हिंदी का है, इसमें कोई दो राय नहीं है। जरूरत इस बात की है कि इस दौर में हिंदी पत्रकारिता अपने को आगे बढ़ाने लायक माहौल बनाने का काम करे।
लेकिन 187 साल बाद भी हमारी चुनौतियां जस की तस हैं। आज हमें अंग्रेजी के साथ-साथ सरकारी पालने में पल रही हिंदी पत्रकारिता से भी मुकाबला करना पड़ रहा है। काम सरल नहीं है पर अंसभव भी कुछ नहीं है। जरूरत इस बात की है कि हम भारतेंदु के पद चिन्हों पर चलते हुए हालात का मुकाबला करें। आधुनिक युग में फैली व्यवसायिकता की चुनौती को स्वीकार करते हुए हमें आगे बढ़ना है। हिंदी पत्रकारिता की ताकत हिंदी और उसके पाठक हैं। हमें केवल अपनी बात सही तरह से उनके सामने प्रस्तुत करने भर की जरूरत है। हिंदी के पत्रकारों को हिंदी की आकांक्षाओं को विस्तार देने का काम करना है। प्रगति की चेतना के साथ समाज की निचली कतार में बैठे लोग हिंदी समाचार पत्र और पत्रिकाओं की ओर देख रहे हैं। जिस तरह से हिंदी ने चिकित्सा, टेक्नोलॉजी पर अपनी छाप छोड़ी है, उसी तरह से हिंदी के पत्रकारों को भी अपने कदम आगे बढ़ाने हैं। जिससे उस जगह को हासिल किया जा सके जिसके हम हकदार हैं।
अंग्रेजों के लिए काम करने वाली कंपनी सरकार ने मिशनरी अखबारों के लिए हर तरह की सुविधाएं दे रखी थीं। हिंदी अखबार को कोई सुविधा नहीं मिली थी। यहां तक कि डाक से भेजने की सुविधा भी नहीं थी। ‘उदंत मार्तण्ड’ इसी साजिश का शिकार होकर एक साल में ही बंद हो गया। यह बात और थी कि इसके बाद हिंदी के अलावा बांगला और उर्दू में भी अखबार निकालने की शुरुआत होने लगी थी।हिंदी पत्रकारिता की असल शुरुआत 1873 में हुई, जब भारतेंन्दु ने ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ की शुरुआत की। एक साल बाद इसका नाम ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ हो गया। इसके बाद एक के बाद एक कई अखबार शुरू हुए, जो दैनिक, साप्ताहिक और मासिक थे। जानेमाने अखबारों में नागरीप्रचारिणी सभा का ‘सरस्वती’ सबसे प्रमुख अखबार था। 1873 से 1900 के बीच 300 से 350 अखबारों का प्रकाशन होने लगा था। ये सभी 15 पृष्ठों के बीच होते थे और इन्हें एक तरह से विचारपत्र कहा जाता था।
उदंत मार्तंड के बाद प्रमुख पत्र हैं :
बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846),मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तंड (1850),मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861),सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867),ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867),विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयाग दूत (1871), बुंदेलखंड अखबारर (1871), प्रेमपत्र (1872), और बोधा समाचार (1872)।
साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उन पर की जाने वाली टिप्पणियों का अपना खास महत्व था। दैनिक समाचार पत्रों के प्रति कोई खास रुझान उस समय नहीं होता था। भारतेंदु की पत्रकारिता के 25 साल हिंदी पत्रकारिता के आदर्श माने जाते हैं। उनकी टीका-टिप्पणी से अंग्रेज सरकार के अफसर तक घबराते थे। एक टिप्पणी पर घबराकर काशी के मिजस्ट्रेट ने भारतेंदु के पत्र ‘कविवचनसुध’ को शिक्षा विभाग में लेना ही बंद करा दिया था। भारतेंदु ने सिखाया कि पत्रकार को किस तरह से निर्भीक होना चाहिए।
भारतेंदु के बाद जो पत्रकार आए, वे भी उनकी शुरुआत को आगे बढ़ाते गए। इसके साथ हिंदी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकिसत होती गई। पहले के पत्र शिक्षा और धर्म प्रचार तक ही सीमित थे। समय के साथ-साथ इसमें राजनीतिक, साहित्यक और सामाजिक विषयों को भी शामिल किया जाने लगा। एक समय ऐसा भी आया जब विभिन्न वर्गों और संप्रदाय के सुधर के लिए समाचार पत्रों की शुरुआत हो गई। इसमें धर्म का प्रचार और आलोचना दोनों को ही पूरा मौका मिलने लगा। 1921 के बाद हिंदी पत्रकारिता का समसामयिक युग शुरू हुआ। इस समय तक हिंदी का प्रवेश विश्वविद्यालयों में हो चुका था। आजादी के आंदोलन में हिंदी पत्रकारिता ने अपना अहम रोल दिखाना शुरू कर दिया था।
अब तक राजनीतिक क्षेत्र में पत्र-पत्रिकाओं की धमक बढ़ने लगी थी और ये जनमन के निर्माण में भी अपना अहम रोल निभाने लगे थे। राजनीतिक पत्रकारिता में हिंदी अखबार ‘आज’ और उसके संपादक बाबूराव विष्णु पराड़कर का सबसे प्रमुख स्थान था। इसके बाद हिंदी पत्रकारिता के विकास में तेजी आई। आजादी के बाद सरकार ने इसके विकास में अहम रोल अदा किया। धीरे-धीरे देश में तमाम तरह के अखबार और पत्रिकाओं की धूम मच गई। इनके अपने विचार होते थे। उस समय पाठकों के बलबूते पर ही इनका खर्च निकाला जाता था। सरकार ने सुविधाएं देनी शुरू कीं तो पत्रकारिता पर अपना अघोषित दबाव भी बना दिया। सरकार ने अखबारों को सुविधाएं देने के नाम पर सस्ते मूल्य पर कागज और विज्ञापन देना शुरू किया। यही वह खास मोड़ था जहां से अखबारों पर व्यवसायिकता हावी होने लगी।
1990 के दशक तक अखबारों में संस्करण कम निकलते थे. इसके बाद तो सभी अखबारों के नगर और कस्बे तक के संस्करण निकलने लगे। अब अखबार को उपभोक्ता वस्तु की तरह बेचा जाने लगा। राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण को देखें तो हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या तेजी से बढ़ी है। इसके बावजूद सुविधओं का यहां पूरी तरह अभाव है। आज भी राज्य सरकारों ने अपनी नीति बना रखी है। चंद अखबारों और उनके पत्रकारों को सरकारी सुविधाओं का लाभ दिया जाता है। बदले में यह बंदिश होती है कि वह सरकार के संबंध में अपने विचार व्यक्त करते समय सावधानी बरतें। जिन पत्रकारों को सत्ता का बरदहस्त हासिल है सही मायनों में उनको ही पत्रकार माना जाता है। बाकी के लिए न सरकार के पास कोई नीति है और न अखबार मालिकों के पास।
हिंदी समाचार पत्रों और उनमें काम करने वाले पत्रकारों के लिए कई तरह के वेतनमान आए और चले गए, लेकिन हिंदी पत्रकारिता की हालत में कोई सुधार नहीं आया। अखबार का मालिक अब इसे व्यवसाय के रूप में परिवर्तित कर चुका है। सरकारी सुविधाओं का लाभ केवल समाचार पत्रों के कुछ लोगों तक ही सीमति रह गया है। मासिक, पाक्षिक और साप्ताहिक की हालत खराब है। सरकार के पास इसकी कोई नीति नहीं है। कहने के लिए केंद्र से प्रदेश सरकारों तक के पास सूचना विभाग का भारीभरकम बजट और स्टाफ है पर यह सब एक तरह की चाटुकारिता को भी बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। इसके बाद भी हिंदी पत्रकारिता प्रगति की राह पर है। आज हिंदी ने मीडिया और इंटरनेट पर भी अपना कब्जा जमा लिया है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हिंदी केवल भाषा नहीं इस देश के प्राण में बसती है।
नए युग में सरकार की उपेक्षा के बाद भी बहुत सारी पत्रिकाएं बाजार में हैं। यह प्राइवेट विज्ञापनों के भरोसे अपने को बाजार में बनाए हुए हैं। देश में अंग्रेजी का समर्थक एक बड़ा वर्ग है। जो हिंदी पत्रकारिता को नुकसान पहुंचाने के लिए अपने मीडिया प्लान में अंग्रेजी अखबारों को ही रखता है। जिसका व्यवसायिक नुकसान हिंदी पत्रकारिता को हो रहा है। आज जरूरत इस बात की है कि हिंदी पत्रकारिता नई चुनौतियों से रूबरू हो। अपनी पहचान बनाए। आने वाला समय हिंदी का है, इसमें कोई दो राय नहीं है। जरूरत इस बात की है कि इस दौर में हिंदी पत्रकारिता अपने को आगे बढ़ाने लायक माहौल बनाने का काम करे।
लेकिन 187 साल बाद भी हमारी चुनौतियां जस की तस हैं। आज हमें अंग्रेजी के साथ-साथ सरकारी पालने में पल रही हिंदी पत्रकारिता से भी मुकाबला करना पड़ रहा है। काम सरल नहीं है पर अंसभव भी कुछ नहीं है। जरूरत इस बात की है कि हम भारतेंदु के पद चिन्हों पर चलते हुए हालात का मुकाबला करें। आधुनिक युग में फैली व्यवसायिकता की चुनौती को स्वीकार करते हुए हमें आगे बढ़ना है। हिंदी पत्रकारिता की ताकत हिंदी और उसके पाठक हैं। हमें केवल अपनी बात सही तरह से उनके सामने प्रस्तुत करने भर की जरूरत है। हिंदी के पत्रकारों को हिंदी की आकांक्षाओं को विस्तार देने का काम करना है। प्रगति की चेतना के साथ समाज की निचली कतार में बैठे लोग हिंदी समाचार पत्र और पत्रिकाओं की ओर देख रहे हैं। जिस तरह से हिंदी ने चिकित्सा, टेक्नोलॉजी पर अपनी छाप छोड़ी है, उसी तरह से हिंदी के पत्रकारों को भी अपने कदम आगे बढ़ाने हैं। जिससे उस जगह को हासिल किया जा सके जिसके हम हकदार हैं।
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