Tuesday, 4 November 2014

पत्रकारिता में जूते चाटने की नौबत / रवीश कुमार

फिल्म पत्रकारिता तो अब जूते चाटने की नौबत तक पहुंच गई है। टीवी में फिल्म पत्रकारिता अब प्रमोशन है। इंटरव्यू से पहले तय होता है सवाल कैसे होंगे, पर्सनल से नहीं होंगे, फिल्म के बारे में होंगे। हकीकत तो यह है कि रीलीज़ होने से पहले ऐसी कोई सुविधा भी नहीं कि एंकर फिल्म देख ले। तिस पर से चाहत ऐसी कि एंकर फिल्म के बारे में ही बात करे। और जब एंकर सवाल पूछ भी देती है तो जवाब जो मिलता है उससे पता चलता है कि दर्शकों का कितना बड़ा वर्ग मूर्ख है। एंकर पूछती है फिल्म की कहानी क्या है। निर्देशक बकता है बिल्कुल नई है। हा..हा...हा..।
और तो और फिल्म कंपनियों के पी आर एजेंट कुछ क्लिप बांटते हैं। मुफ्त। नेताओं की शराब की तरह। उस क्लिप में झांकिये और फिल्म को समझ लीजिए। आप ही बताइये कि कोई कैसे फिल्म के बारे में बात कर सकता है। लेकिन करना पड़ता है।
बात यहीं तक खत्म नहीं होती। ये पीआर एजेंट अब तो यह भी डील करने लगे हैं कि स्टार के स्टुडियो आने का किराया भी दीजिए। हर स्टुडियो में जाते हैं और कहते हैं हम आपको एक्सक्लूसिव इंटरव्यू दे रहे हैं। इंटरव्यू में होता है कूड़ा। बिपाशा आपको सलमान के साथ कैसा लगा? सलमान आपको कैसा लगा? निर्देशक से भी यही सवाल आपको कैसा लगा? बीच बीच में बिपाशा अपने बचे खुचे कपड़ों को तानती रहती है कि तन ढंका रहे। सलमान अपने बालों को झटकते रहता है। बात शुरू नहीं हुई कि फिल्म का क्लिप आ जाता है।
अब तो बकायदा हर फिल्म के हिसाब से मीडिया पार्टनर तय किये जाते हैं। सोच कर देखिये कल कोई राजनीतिक दल किसी न्यूज़ चैनल को अपना पार्टनर बना लें। कुछ चैनल तो हैं जिन्हें राजनीतिक दल ही चला रहे हैं। लेकिन फिल्म कंपनियों ने अपना कोई चैनल नहीं बनाया। वो दूसरे चैनलों को बता रहे हैं कि आप लालू यादव को गरिया सकते हैं, मायावती को गरिया सकते हैं लेकिन रणवीर को नहीं गरिया सकते। सैफ अली से तो आप वही सवाल पूछिये जिससे सैफ को गुदगुदी हो।
अब तो हिंदी के कई ब्लॉग बालीवुड पर लिख रहे हैं। अच्छा होता कि वहां इस पर बहस चलती। चवन्नी छाप हो या इंडियन बायस्कोप। ज़रूरी है कि इस तरह के एम्बेडड यानी गुलाम पत्रकारिता के बारे में लिखा जाए। जो पत्रकारिता कम है, रणनीति ज़्यादा।

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