Sunday, 9 November 2014

मेरे रिमार्क 'हबीब ने थिएटर में वो काम किया जो रामायण में हनुमान ने किया था' को सर्वेश्वर ने दिनमान में छापा तो वो नाराज हो गए

इप्टा के अध्यक्ष रणबीर सिंह से दिनेश चौधरी की बातचीत 

थियेटर में आपकी भूमिका प्रमुखतः क्या है? अपने लिखे नाटकों और उनके निर्देशकों के बारे में कुछ बतायें।
-मेरी थिएटर में भूमिका प्रमुखतः क्या है, यह कहना मुश्किल है क्यों की जब मैंने थिएटर में काम करने की सोची तो मेरे सामने सवाल था थिएटर से रोटी-रोज़ी जुटाने का। उस वक्त शायद यह फैसला बेवकूफी भरा था या कोई कहे की हिम्मत भरा, मगर मेरे लिए यह दोनों ही नहीं। बस मेरी मज़बूरी थी। पहली नौकरी जो मिली वो भारतीय नाट्य संघ के कार्यवाहक मंत्री (एग्जीक्यूटिव सेक्रेटरी) की मिली। भारतीय नाट्य संघ यूनेस्को का इंडियन सेंटर था। मेरी क़िस्मत की वहां मुझे श्रीमती कमलादेवी चट्टोपाध्याय के नेतृत्व में काम करने का मौक़ा मिला। वहीँ मेरी मुलाक़ात कपिला वात्स्यायन, मृणालिनी साराभाई, प्रोफेसर एन. सी. मेहता, अल्काजी, हबीब तनवीर, इन्दर राज़दान, तरुण रॉय, नेमीचंद जैन, विश्णु प्रभाकर, जसवंत ठक्कर, शांता गांधी, अनिल बिस्वास , चार्ल्स फेब्री, शीला वत्स, कैलाश पाण्डेय जैसे महान लोगों से हुई और उनसे थिएटर के बारे में जानने-समझने का मौक़ा मिला। सारे भारत के थिएटर की जानकारी हासिल हुईय अच्छाइयाँ, बुराइयाँ, मुश्किलात, सरकार की नीयत और नीतियां, कामकाज का तरीकाय ये सब बहुत नज़दीक से देखने का मौक़ा मिला। उस वक्त मेरी भूमिका सिर्फ एक एडमिनिस्ट्रेटर की थी, जो आज मेरे काम आ रही है।
भारतीय नाट्य संघ में बड़ी-बड़ी हस्तियों के साथ थिएटर के बारे में सीखा। वहीँ इस की भी जानकारी हासिल हुई कि किस कदर ओछेपन, बदनीयती और डर्टी पॉलिटिक्स से कोई संस्था  कैसे बर्बाद की जाती है। आज भारतीय नाट्य संघ का नाम तो है मगर निशान नहीं है। जयपुर में रवीन्द्र मंच पर राजस्थान संगीत अकादमी की तरफ से ‘स्पेशल ऑफिसर ऑफ़ प्रोग्राम’ की नौकरी की। यहाँ वर्कशॉप (मोहन महर्शि के साथ जयपुर में पहला वर्कशॉप) का आयोजन, जयपुर इंटरनेशनल फेस्टिवल, मिस प्रभु के साथ शेक्सपियर के नाटकों का डायरेक्शन, प्रोफेसर भल्ला के साथ ‘मर्डर इन कैथेड्रल’ में डायरेक्शन और लाइटिंग का अनुभव हासिल हुआ। इस दौर में, डायरेक्शन किया, एक्टिंग की और ऑर्गनाइजिंग का काम किया।
यात्रिक थिएटर में रिपर्टरी कैसे चलायी जाये उस का एक्सपीरियंस हुआ। यात्रिक एक इंग्लिश प्ले करने का एमेच्योर थिएटर ग्रुप था। बाद में मार्क्स मिर्च, बैरी जॉन, कुलभूषण और मुझे अपनी तनख्वाह का इंतज़ाम थिएटर से ही करना था। हमने यह तय किया कि हम अपनी तनख्वाह नाटक कर के ही लेंगे। यात्रिक के जो एमेच्योर थिएटर थे उन्होंने हाथ खड़े कर दिए थे, यह कह कर कि हम तो अपने मन बहलाने की खातिर थिएटर में हैं। इंग्लिश के नाटक मार्क्स और बैरी डायरेक्ट करते थे और मोहन महर्षि , एम. के. रैना व चमन बग्गा वगैरह हिंदी के नाटक। हमने पाँच साल तक बग़ैर कोई ग्रांट लिए नाटक किये, डायरेक्टर्स, एक्टर्स को फीस दी और अपनी सैलरी ली। यहाँ मुझे रिपर्टरी चलने की तालीम मिली। यह कि पेशेवर थिएटर कैसे चलाया जाता है।
यात्रिक छोड़ने के बाद फ्रीलांसिंग शुरू की। मैं पहला नाटक लिख चुका था। उसका पहला परफॉरमेंस जयपुर में हुआ और बाद में दिल्ली में लिटिल थिएटर ग्रुप ने किया। नाटक का नाम था- ‘अफ़सोस हम न होंगे।’ यह नाटक बॉम्बे में  1977 में दिनेश ठाकुर ने अंक की तरफ से किया, नाम बदल कर। बदला हुआ नाम था, ‘हाय मेरा दिल।’ अभी तक इस के एक हज़ार से ज्यादा शो हो चुके है। दिल्ली में एक लोकल ग्रुप के वास्ते मैंने ‘सराय की मालकिन’ लिखा, जिसे बी.एम. शाह ने डायरेक्ट किया। यहीं से शुरू होता है मेरा सफर नाटक लिखने का। एम. के. रैना के लिए मैंने ‘ब्लड राइट्स’ का और ‘वी बॉम्बड न्यू हैवन’ का तर्जुमा किया। एम. के. रैना के कहने पर ब्रेख्त के नाटक ‘गुड वुमन ऑफ़ सेटजुआन’ का एडाप्टेशन किया, जिसे रैना ने एन.एस.डी. के लिए डायरेक्ट किया। अभी तक मैंने 25 के क़रीब नाटक लिखे हैं: हाय मेरा दिल, सराय की मालकिन, गुलफाम, पाश, अमृतजल, हैसियत, जिन को मुख देखे दुःख उपजत, सुल्तान की परेशानी, हंगामा -ए -लॉकेट, मुखौटों की ज़िन्दगी, परछाइयाँ भी  न रहेंगी, मिर्ज़ा साहिब, संध्या काले प्रभात फेरी। इब्सन के प्ले ‘जॉन गेब्रेइल’ का ट्रांसलेशन भी किया।  मुझे अभी भी इप्टा के लिये नाटक लिखने पड़ते हैं पर में ज्यादा डायरेक्ट नहीं करता। जयपुर इप्टा के संजय विद्रोही, केशव गुप्ता डायरेक्ट करते हैं। मैं उनकी मदद करता हूँ।
इसके अलावा मैं थिएटर में रिसर्च भी करता हूँ। मेरे लेखों का संग्रह पब्लिश होने की बात चल रही है। अभी तक जो किताबें मैंने लिखी हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं: ‘वाजिद अली शाह: द ट्रैजिक किंग’,  ‘ रणथम्भोर: द इम्प्रेग्नबल फोर्ट’,  ‘हिस्ट्री ऑफ़ शेखावत्स’, ‘इंद्रा सभा: अमानत्स प्ले अ क्रिटिकल असेसमेंट’, ‘थिएटर कोट्स’,  ‘हिस्ट्रिओसिटी इन द संस्कृत ड्रामा’ (प्रकाशनाधीन), ‘पारसी थिएटर’ (हिस्ट्री ऑफ़ पारसी थिएटर), मोलायर, इब्सन, पिरांदेला और ओेनिएल की जीवनी व उनके काम (हिंदी में यह प्रकाशित होना है), राजस्थानी के ‘बाँकीदास री ख्यात’ का अंग्रेजी अनुवाद, आदि-आदि। इतिहास व थियेटर पर लेखन आज भी सतत् जारी है इसलिये यह कहना मुश्किल है कि थियेटर में मेरी भूमिका क्या है।

आपका ताल्लुक राज परिवार से है, फिर जनवादी रुझान किस तरह से उत्पन्न हुआ? इस प्रश्न को इस तरह से भी लें कि रंगकर्म के क्षेत्र में आपका आगमन महज एक संयोग था या यह आपका चुनाव था।
-आप सही फरमाते हैं। मेरे पिताजी जयपुर रियासत के ठिकाना डूंण्डलोद के ठाकुर थे। मेरी माँ, महाराज प्रताप सिंह, जो जोधपुर रियासत के रीजेंट और इदर रियासत के महाराज थे, क्वीन विक्टोरिया के क़रीबी भरोसेमंद थे, उनकी दोहिती थीं। मेरा बचपन गाँवों और जोधपुर के राज महलों में ही गुजरा। बाद में मुझे मेयो कॉलेज शिक्षा के लिए भेजा गया। मेयो कॉलेज में सिर्फ राजघरानों के बच्चो को ही पढ़ाया जाता था। पूरी तरह से कोलोनियल शिक्षा दी जाती थी, पूरी तरह से अँगरेज़ बनाते थे। सपने भी अंग्रेजी में आते थे। वहां मेरी दोस्ती कई राजकुमारों के साथ हुई। रहना उन्ही के साथ था। पढाई खत्म करने के बाद अंग्रेजी कंपनी थॉमस कुक, जो उस वक्त की सबसे बड़़ी टूरिस्ट कंपनी थी, उसमे नौकरी की मगर कुछ ही महीनो के बाद रिसेशन की वजह से छोड़नी पड़ी।1950 में मैंने बॉम्बे में फिल्मो में काम करने की सोची। परिवार में सिवाय मेरी माँ के सब नाराज़ थे। मज़ाक में ही सही मगर मुझे ‘ढोली’ कह कर बुलाते थे। थिएटर का शौक़ मेयो कॉलेज में ही लग गया था। वहाँ मैंने हर अंग्रेजी और हिंदी के नाटकों में काम किया था। बॉम्बे में उस वक्त वामपंथी विचारधारा का बोलबाला था। जहाँ भी काम की तलाश में मैं जाता वहाँ वामपंथी विचार के लेखकों और शायरों की बातें सुनने को मिलती। हालांकि वे सामंती ख्यालों के बिल्कुल खिलाफ थीं मगर मुझे मालूम हुआ कि यह भी एक जीने का तरीका है। मुझे यह रास आने लगा। किताबें पढ़ने लगा। ज़िन्दगी में एक अजीबो -ग़रीब जद्दोजहद थी। चारों तरफ सामंती माहौल और में अकेला। शादी भी राजघराने में ही हुई। एक दो जगह नौकरी भी की मगर माहौल से समझौता नहीं कर पाया। 1959 में मैंने यह तय किया कि अगर काम करना है तो थिएटर में ही करना है। नौकरी की तलाश में में दिल्ली गया और वहां मुझे कमलादेवी चट्टोपाध्याय के भारतीय नाट्य संघ में काम मिल गया। इस दौरान मेरी मुलाक़ात कई प्रगतिशील कलाकारों से हुई। भारतीय नाट्य संघ में काम करने के बाद मैंने अपनी सारी ज़िन्दगी थिएटर में ही लगा दी और अब आखिरी साँस तक थिएटर में ही काम करना है। थिएटर ही मेरा बिछौना है और वही ओढ़ना है।

मुंबई में वे कौन शख्स थे, जिन्होंने आपकी सोच को सबसे ज्यादा प्रभावित किया?
- जैसे मैं पहले कह चुका हूँ कि फिल्मों में सारा माहौल ही लाल था। सब से पहले मेरी मुलाक़ात रामानंद सागर से हुई। उस वक्त उनकी लिखी फिल्म ‘बरसात’ जो राजकपूर साहब ने बनाई थी  वो मशहूर हुई और उसके साथ सागरसाहब को भी शौहरत हासिल हुई। मुझे जयपुर से महाराज हीरासिंह जी ने, जो बरिया रियासत के थे, बुलाया था क्योंकि उन्होंने ‘हीरा फिल्म्स्’ के नाम से एक फिल्म कंपनी बनाई थी और वो चाहते थे कि मैं उनके साथ काम करूँ। कहानी रामानंद सागर साहब ने लिखी थी और कास्ट वही होनी थी जो ‘बरसात’ की थी। उस में एक केरेक्टर मुझे देने की बात हुई। सागर साहब के साथ रहने से, उन से बातें करने से वामपंथी विचारधारा की कुछ बात मालूम हुई। मगर वो फिल्म नहीं बन सकी। उनकी जगह पर बी. आर. चोपड़ा साहब आए और उन्होने दो फिल्म बनाई एक थी ‘शोले’ और दूसरी थी ‘चांदनी चौक’। इस दौरान बहुत कुछ सोशलिज्म की जानकारी मिली।
यही वक्त था मेरी मुलाक़ात जनाब अख्तर-उल -इमाम से हुई। उनकी मुझ पर मेहरबानी हुई। हम दोनों की काफी बनी। यूँ कहूँ तो ग़लत नहीं होगा कि वामपंथी विचारधारा का पहला सबक अख्तर साहब ने ही पढ़ाया। उन्होंने  अपनी किताब ‘यादें’ अपने दस्तखत के साथ मुझे इनायत की जो आज तलक मेरी लाइब्रेरी को इज्ज़त फर्मा रही है। इन्हीं के साथ साहिर लुधियानवी से भी मुलाक़ात हुई। इसके बाद मेरी मुलाक़ात दीवान शरर साहब से सीसीआई क्लब में हुई। वे शांताराम साहब के लिए कहानियाँ लिखते थे। उनका असर मुझ पर काफी गहरा रहा। दीवान साहब ने ही मुझे बताया था कि रिटन वर्ड में और स्पोकन वर्ड में क्या फर्क है। यह आज नाटक लिखने में मेरी बहुत मदद करता है। मार्क्स और लेनिन के बारे में बताया करते थे। काम की खातिर में जनाब शाइद लतीफ़ साहब के पास गया। उस वक्त फिल्म आरज़ू की शूटिंग चल रही थी। न जाने क्यों मुझे वहां बहुत अपनापन और प्यार मिला। मैं बाद में बराबर जाता रहा इस उम्मीद से कि काम मिल जाये, मगर वो मक़सद बाद में नहीं रहा, अपनापन ही मुझे वहाँ ले जाता था। वहीँ मेरी मुलाक़ात इसमत आपा से हुई। वह जो हुक्म देती में बजा लाता। ‘आरज़ू’ के बनाने में कौन ऐसा था जो वामपंथी नहीं था। देर रात तक उस माहौल में रहता। उनके सामने जुबां खोलना बेअदबी थी। खामोश बैठा-बैठा उनकी बातें सुनता रहता।
अनिल बिस्वास से मेरी मुलाक़ात इसी वक्त हुई थी। वे इप्टा के मेंबर थे। इप्टा के बारे में वही बताया करते थे। जब मैं भारतीय नाट्य संघ में काम करता था तब अनिल दा दिल्ली में आये थे और वहाँ उनसे मुलाक़ात होती रहती थी। उनसे मुझे बहुत प्यार मिला। धीरे- धीरे परत-दर -परत विचार बढ़ते गए। दोस्ताना तो नहीं कह सकता मगर उनकी मुझ पर इनायत ज़रूर थी। ज़िक्र मोतीलाल साहब का भी है। मेरी नज़रों में रीयलिस्टिक एक्टिंग के वो सरताज थे। उनकी जिन्दगी शाही अंदाज से गुज़री मगर दिल उनका गरीबों का हिमायती था। उन के साथ वक्त बिता कर मैंने ज़िन्दगी के कई दस्तूर सीखे। किशोर साहू साहब से भी मिलना हुआ। अच्छी जान पहचान हुई और कई शामें उनके साथ गुजरी। अंग्रेजी और हिंदी साहित्य, थिएटर पर काफी चर्चा होती थी। उनकी मुलाक़ात भी मेरी ज़िन्दगी में काफी अहमियत रखती है।
जयराज और डेविड से मेरी मुलाक़ात सीसीआई क्लब में हुई। यह बात सही निकली कि खूब गुजरेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो ! उनके सोहबत में मॉडर्न थिंकिंग और सोशलिस्टिक सोसाइटी के बारे में बहुत कुछ समझा और थिएटर के बारे में भी। उस वक्त शेक्सपियर का ड्रामा ऑथेलो स्टेज करने की बात हुई। जयराज डायरेक्ट करने वाले थे। जयराज-ऑथेलो, बेगम पारा-डेस्मोना, डेविड-इयागो और मुझे दिया गया था रोल रोड्रिएगो का। रिहर्सल काफी हुए मगर नाटक खेला नहीं जा सका, क्योँकि वे लोग फिल्मों में व्यस्त थे। डेविड को पढ़ने का बहुत शौक था और उन्होंने मुझे कई किताबों के नाम बताये और पढ़ने को कहा। इन्ही हजरात के जेरेे-साया मेरी जिन्दगी में नया मोड़ आया।

जिस दौर का आप जिक्र कर रहे हैं उसमें सरोकार ही ज्यादा महत्वपूर्ण था, माध्यम चाहे सिनेमा हो, या नाटक या साहित्य। पर आज के थियेटर-और सिनेमा को भी- आप किस नजरिये से देखते हैं?
-जिस दौर की आप बात कर रहे हैं या मैंने जिसका ज़िक्र किया वो आज़ादी के ऐन बाद का दौर है और इतिहास की नजर से देखें तो यह दौर शुरू हुआ था 1905 में। 1905 में लार्ड कर्ज़न ने बंगाल का विभाजन किया। विभाजन हमारे सियासी, सामाजिक, धार्मिक नेताओं की समझ में यह आया कि यह हिंदुस्तान के टुकड़े करने की साज़िश है। इस सोच ने ब्रिटिश हुकूमत की खिलाफत, जो चिंगारी की शक्ल में थी, उसे आग की शक्ल में बदल दिया। तमाम लेखक और खासकर के नाटककारों ने खुलकर लिखना शुरू किया। ‘कीचक-वध’ मराठी का सब से पहला नाटक था जिसने थिएटर के ज़रिये खिलाफत करना सिखाया। हिंदुस्तान की हर भाशा के थिएटर ने अपनी-अपनी तरह से समाज के सामने, अवाम के सामने, ब्रिटिश हुकूमत की नीयत की तस्वीर रखी। आजादी के बाद बदलाव आना जरूरी था। उस वक्त तक थिएटर कमोबेश ख़त्म हो चुका था। इप्टा पर भी बंदिश लागू थी। जितने भी कलाकार, शायर, लेखक थे वो सब सिनेमा में आ गये। दुश्मन गायब हो गया। उस वक्त सवाल था मुल्क को नयी दिशा देना। यही सब का मक़सद था। वह ज़माना था सोशलिज्म का। जवाहरलाल नेहरू की लीडरशिप में सोशलिज्म का ज़ोर था। सिनेमा ने भी यही दिखने की कोशिश की। पुरानी फिल्मो को देखें तो हिन्दू -मुस्लिम की दोस्ती, अमीर और गरीब में फ़र्क़, सामाजिक संस्कार, जातियों में भेद -भाव के तत्वों के साथ तमाम कलाकार, लेखक, शायर वही थे जो अपनी भाशा के थिएटर में काम किया करते थे या इप्टा के साथी थे। कहानी का अंदाज वही था, डायलाग वही तीखे और गीतों का इस्तेमाल वही था जो पारसी थिएटर और बाक़ी भाशा के थिएटर में था। चारो तरफ मक़सद यही था कि अपने मुल्क को ताक़तवर बनाएँ। सारे समाज की तमाम कुरीतियों को उसके सामने रखें ताकि वो बदल सके। लिहाज़ा उस वक्त का सिनेमा मनोरंजक होते हुए सोशिअली एंड पॉलिटिकली रिलेवेंट था।
दिनेश भाई, कभी आपने इस बात पर गौर किया है कि अंग्रेज़ों की हुकूमत के ज़माने में आज़ादी के पहले हिंदुस्तान का बहुत ही महत्वपूर्ण साहित्य जेल में लिखा गया था। तिलक ने गीता रहस्य लिखा, तो गांधीजी ने अपनी आत्मकथा लिखी। जवाहरलाल नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’, ‘लेटर्स टू डॉटर’ और मौलाना आज़ाद ने ‘ग़ुबार-ए-खातिर’ जैसी किताबें लिखी। आर.एस. पंडित ने जेल में ‘कल्हण’ संस्कृत में लिखी। राजतरंगिणी और शूद्रक के नाटक मुद्राराक्षस जेल में लिखे गये। मेरे कहने का मतलब यह है कि उस वक्त सब के दिमाग में यही बात थी कि अपने मुल्क की तरक्की हो। जहाँ कहीं भी लोग थे उनका मक़सद यही था।
यह सिलसिला क़रीब 70 के दशक तक चला। उस के बाद से फिल्मो, साहित्य में बहुत गिरावट आई।सांस्कृतिक पत्रिकाएं बंद हो गयी। थिएटर में अनुदान, ग्रांट लेने की फ़िराक़ में अजीबो-गरीब एक्सपेरिमेंट होने लगे। खासकर लोक-संस्कृति को मॉडर्न थिएटर में मिलाने लगे। न रहा मॉडर्न थिएटर और न रहा लोक। प्लेराइट की थिएटर में ज़रूरत ही नहीं रही। आज दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हिंदी बेल्ट में कोई प्लेराइट ही नहीं है। कारपोरेट जगत के हमले ने सब को पैसे बनाने में लगा दिया। मुल्क की फिक्र किसी को नहीं -न अवाम को है, न हमारे मुल्क के नेताओं को है। जो हो रहा है वो फूहड़ मनोरंजन के लिए हो रहा है। सब कुछ बिकाऊ है। नोम चोम्स्की ने कहा है की आज के दौर का सबसे बड़ा दुश्मन कैपिटलिज्म है। कारपोरेट ने सब कुछ खरीद लिया। मीडिया को, सरकार को, हथियार बनाने की मशीनों को और मुल्कों को। उन्होंने हिदायत की कि तुम अपने आप को न बिकने दोे। अफ़सोस कि यह बात अभी तक समझ में आई नहीं है। सिनेमा, थिएटर और साहित्य इस मौजूदा दौर में अपने मक़सद से बहुत दूर हो चुके हैं। जो अपने-आप को प्रगतिशील कहते हैं वो भी तरक़ीपसन्द ख्यालों से दूर हैं। मगर एक बार फिर उम्मीद बनती नज़र आती है। कुछ फिल्में, कुछ नाटक ऐसे लिखे गए हैं जो मुल्क, समाज की बेहतरी के लिए हैं। मगर उनकी तादाद बहुत कम है ओर अवाम तक पहुंचते भी नहीं। बर्नार्ड शॉ का कहना था कि थिएटर समंदर की लहरों की तरह है। उठतीं हैं, किनारे से टक्कर देती हैं फिर शांत हो कर पीछे हट जाती हैं। चलो कामरेड, इस उम्मीद में जीते रहें कि कभी तो थिएटर की लहरें सर उठा कर समाज से टक्कर लेंगी।

हर क्षेत्र में जिस गिरावट की बात आप कह रहे हैं और कारपोरेट से लड़ने का जो सवाल है, उसमें इप्टा की क्या भूमिका बनती है?
-जी हाँ ज़रूर बनती है। इप्टा कोशिश करती है मगर कर नहीं सकती। इप्टा थिएटर के ज़रिये ही अपनी ज़िम्मेदारी निभा सकती है मगर यह सही तौर पर तब ही होगा जब इप्टा की ज्यादा से ज्यादा यूनिट के पास अपनी रिपर्टरी हो जो बराबर नाटको का प्रदर्शन कर सके। गौर से देखें तो आज ज्यादा काम इप्टा ही कर रही है। फेस्टिवल भी हो रहे हैं, वर्कशॉप भी हो रहे हैं, नाटक भी हो रहे हैं। इस सवाल का जवाब हमें देना ही होगा कि ऐसी क्या वजह है कि इप्टा अपनी पहचान बनाने में खास कामयाब नहीं हुई।
इप्टा शुरुआत में एक आंदोलन था। शायर, कलाकार, लेखक जुड़े हुए थे। वो किसी के मोहताज नहीं थे। दिल में वतन परस्ती थी, सर पर कफ़न बंधा था। नुकसान तब हुआ जब इप्टा पर हुकूमत ने पाबन्दी लगायी। पर्दा गिरा, एक बहुत लम्बा वक्फ़ा रहा। जब पर्दा उठा तो बहुत देर हो चुकी थी। मुल्क में चारों तरफ शौकिया थिएटर का बोलबाला छाया हुआ था। इप्टा भी इसी रंग में रंग गया। कलाफ़रोशों ने थिएटर को धंधा बना लिया था। अकादमियाँ अनुदान के नाम पर अफीम बाँट रही थी। थिएटर का मक़सद कम, अनुदान पाना ज्यादा। कोई भी थिएटर कारपोरेट और समाज के दुश्मनों का मुकाबला नहीं कर सकता जब तक वो सरे आम समाज में अपनी बात को बराबर न पहुँचा सके। यह काम सिर्फ एक ज़िम्मेदार रिपर्टरी कर सकती है। कभी-कभी का थिएटर  नहीं। थिएटर को पेशेवर बनाना होगा।
पुरानी इप्टा के सामने दुश्मन साफ़ दिखाई देता था। आज दुश्मन को पहचानना बहुत मुश्किल है। क्या मालूम कोई हमारे ही बीच बैठा हो। पुराने लोग जो इप्टा में हैं उन्हें नयी पीढ़ी को बराबर बताना होगा की थिएटर क्या है, उसका मक़सद क्या है, इप्टा क्या है, कारपोरेट जगत क्या है, किस तरह से वो काम करता है। इस खुले दौर में विचारधारा गायब की जाती है। ज्यादातर लोग जो इप्टा को छोड़कर गए वो इप्टा के विचार से, उसके डिसिप्लिन में बँध कर नहीं रहना चाहते  थे। उनके छोड़ने की वजह खासकर पैसे कमाने की थी। यंग बॉयज एंड गर्ल इप्टा को छोड़ते हैं रोज़गार की तलाश में, पब्लिसिटी की तलाश में। इप्टा को अपनी ज़िम्मेदारी और समाज में भूमिका निभाने के लिए सिंसियर और डिवोटेड मेंबर्स की तलाश करनी होगी, जो इप्टा को अपना समझें।
इप्टा को अपनी तरह के नाटक लिखने और लिखवाने होंगे। दूसरी भाशा में अगर नाटक हैं तो उनका अनुवाद करके खेलना होगा, ताकि इप्टा की विचारधारा का चारों तरफ फैलाव हो सके। इप्टा के फेस्टिवल होते हैं मगर उन में दूसरी इप्टा के यूनिट के ड्रामे होते हैं क्या? कुछ शहरों में इप्टा की रिपर्टरीज़ बनाना बहुत ज़रूरी है। मुद्दों को समझना होगा, नए नाटक लिखने होंगे। बराबर उनके प्रदर्शन करने होंगे। औरों को शायद 30.40 साल पुराने नाटकों की ज़रुरत हो, मगर इप्टा को नहीं है। इप्टा को वो नाटक चाहिए जो आज के समाज की बात करें, कारपोरेट जगत के जाल के खतरे से समाज को आगाह करे। इप्टा तभी अपनी सही ज़िम्मेदारी निभा सकती है। और इप्टा के लिए कोई मुश्किल नहीं है। इप्टा के पास विचारधारा है, डायरेक्टर्स हैं, कलाकार हैं, प्ले राइट्स हैं, म्यूजिक डायरेक्टर्स हैं -अगर नहीं है तो एक ज़िम्मेदार रिपर्टरी नहीं है। इप्टा को फिर से आंदोलन बनाना होगा।

इप्टा से जो नयी पीढ़ी जुड़ी है, क्या उनके लिये बतायेंगे कि वे कौन से हालात थे जिनकी वजह से इप्टा पर सरकारी प्रतिबंध लगा।
-सीपीआई और आज़ाद हिन्द की पहली सरकार के बीच आज़ादी को लेकर ही आपसी विचारों में खिलाफत पैदा हो गयी थी। में मानता हूँ कि मेरे लिए तफ्सील से कुछ कहना मुश्किल है क्योंकि मैं उस वक्त सीपीआई से या जो सियासती बदलाव आ रहे थे, उन से जुड़ा हुआ नहीं था और उतनी जानकारी अब भी नहीं है। यह रिसर्च का विशय है और मालूमात करना निहायत ज़रूरी है की भला ऐसी क्या बात हो गयी थी की पार्टी पर पाबन्दी लगानी पड़ी जब कि जवाहरलाल नेहरू खुद बड़े सोशलिस्ट थे। इतना ज़रूर कह सकता हूँ की पाबन्दी लगी थी। इप्टा उस वक्त पार्टी का एक अहम हिस्सा थी, इसलिए इप्टा पर भी पाबन्दी लगी। जब इप्टा पर पाबन्दी लगी तो सोशलिस्ट पार्टी के कुछ मेंबर्स जो जेल में थे, उस वक्त कमलादेवी चट्टोपाध्याय, अच्युत पटवर्धन और बाकि साथियों ने तय किया कि थिएटर का काम बंद नहीं होना चाहिए। उन्होंने भारतीय नाट्य संघ की स्थापना की। रूप वही था, मक़सद वही था जो इप्टा का था। हर स्टेट में एक यूनिट हो, हर स्टेट की एक समिति हो, हर तीसरे साल राश्ट्रीय चुनाव हों...वगैरह। मगर एक बहुत गहरा फ़र्क़ था। इप्टा के उस वक्त जो मेंबर थे, तकरीबन सभी पार्टी से जुड़े विचारों से कमिटेड थे और सब क्रिएटिव आर्टिस्ट थे। भारतीय नाट्य संघ ज्यादातर शौकिया था। मगर कमलादेवीजी के लीडरशिप में सारे हिंदुस्तान पर छाया हुआ था। इंटरनेशनल थिएटर इंस्टीट्यूट ;प्ज्प्द्ध यूनेस्को का मेंबर था। भारतीय नाट्य संघ ने एशियन थिएटर इंस्टीट्यूट शुरू किया जो आगे चलकर नेशनल ड्रामा स्कूल बन गया।
इप्टा काफी दिनों तक बंद रही। कहीं-कहीं पर थोड़ा बहुत काम होता था। 1984.85 में आगरा  में एक कांफ्रेंस बुलाई गयी और वहां इस बात का ज़िक्र हुआ की जो कुछ भी थिएटर के नाम  पर हो रहा है उसके मुक़ाबिले में एक संस्था होनी चाहिए। क्यों न इप्टा को, जो चिंगारी की शक्ल में मौजूद थी, उसे हवा दे कर पूरे हिंदुस्तान में आग की तरह फैलाई जाये। मैं पुपल जयकार और उनके तमाम साथियों का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा कि अगर उन्होंने भारत-महोत्सव जैसा फेस्टिवल न करवाया होता तो शायद इप्टा की फिर से शुरुआत नहीं होती। आज इप्टा फिर अपने पुराने मिजाज़ में मौजूद है। सिवाय गुजरात के हर स्टेट में इस की यूनिट हैं। हज़ारों की तादाद में कलाकार जुड़े हुए हैं। इप्टा आईटीआई यूनेस्को की एसोसिएट मेंबर भी है।

आपने कारपोरेट द्वारा सबको खरीदे जाने की बात कही। इस संदर्भ में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जैसे आयोजनों को आप किस निगाह से देखते हैं?
-जब जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल शुरू हुआ था तो उसकी सूरत दूसरी थी। छोटी-छोटी सभाएं होती। वहां सुननेवाले आते। विद्वान अपनी बात कहते और सवालों का जवाब देते। बाद में इस जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को एक इवेंट मैनेजर को दे दिया गया, जिसे किसी भी भाशा के साहित्य से कोई लेना देना नहीं है। यह एक भीड़ जुटाने का तमाशा है। आज सुननेवाले कोई नहीं अपने को सजधज के दिखानेवाले हैं। एक भीड़ है जिसे दर्शक कहा जाता है। इस भीड़ को सब्जेक्ट की कोई जानकारी नहीं। लेखक को पहचानते नहीं, उसका लिखा पढ़ा नहीं। स्टेज पर कुछ लोग होते हैं, जो आपस में बेतुके सवाल-जवाब करते हैं, जिसे आज टॉक शो कहा जाता है। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल इज़ स्पॉन्सर्ड बाई फॉरेन कम्पनीज व्हिच आर ब्लैक लिस्टेड इन मेनी कन्ट्रीज। मेरी नज़रों में यह महज एक तमाशा है, साहित्य और समाज की तौहीन है। ग़ालिब के लफ़्ज़ों में -
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ
कुछ न समझे  खुद करे कोई।

जयपुर में और पूरे राजस्थान में -खासतौर पर संगीत के मामले में लोक और शास्त्रीय, दोनों परंपराओं की शानदार विरासत रही है। इन दोनों कलारूपों के बीच अंतरसंबंधों पर आप कुछ कहना चाहेंगे?
-आप सही फरमा रहे हैं। लोक और शास्त्रीय संगीत की शानदार परम्परा यहाँ रही है। हर स्टेट में, चाहे छोटी या बड़ी, राजस्थान में ही नहीं सारे हिंदुस्तान में, राज दरबार में बड़े-बड़े उस्ताद और पंडित मुलाजिम रहे हैं। इन्हीं उस्तादों, संगीतकारों, नृत्यकारो से ही हर स्टेट के राज दरबार की हैसियत का अनुमान लगाया जाता था। राजस्थान के हर स्टेट और ठिकानो में संगीतकार होते थे। जयपुर में तो बहुत बड़ा गुणीजनखाना था। इसी गुणीजन खाने के साथ एक रामप्रकाश थिएटर 1876 में बना जो उस वक्त की थिएटर कंपनी थी। हर कलाकार सरकार का मुलाज़िम था। अच्छी बड़ी तनख्वाह मिलती, बुढ़ापे में पेंशन मिलती और उनका स्वर्गवास होने के बाद उनके लड़के को नौकरी मिलती ताकि परम्परा आगे चलती रहे।
पहला हमला इस परम्परा पर तब हुआ जब अंग्रेजों की हुकूमत ने इन राजाओं को अंग्रेजी पढ़ा कर अंग्रेज बनाया। इस कदर अंग्रेजी तहजीब हावी हुई की शास्त्रीय संगीत इनके कानो को बुरा लगने लगा। शास्त्रीय संगीत के बोल और राग इनके समझ में नहीं आते थे। शास्त्रीय वादन की जगह पर हर पेलेस में पियानो ने जगह ली। बॉलरूम की धुनें और गॉड सेव द किंग बजने लगे। रही-सही परंपरा जो बची थी वो आज़ादी के बाद खत्म हो गयी। राजाओं के हाल बेहाल हुए और नए राजाओं को संगीत का शौक नहीं था। यह एक फ़िज़ूल खर्च का काम बन गया। डॉलर कमाने के लिए, विदेशी पर्यटनों को रिझाने का साधन बन गया। जितनी तबाही पर्यटन विभाग ने मचायी और किसी ने नहीं। आर्ट और कल्चर को हर तरह से बर्बाद किया। बड़े-बड़े संगीतकार राजस्थान छोड़ कर मुंबई, कोलकत्ता और दिल्ली जा बसे। अब बुलाये जाते हैं तो वो महज़ एक दिखावा है। न संगीत की जानकारी है, न महफ़िल में बैठने की तहज़ीब। दाद कहाँ दी जाये, कैसे दी जाये यह तक नहीं मालूम।
पुराने जमाने में लोक संगीत, जो आदिवासी जंगल में गाते या अलग-अलग समाजों में शादी और त्यौहार में गाते-बजाते-नाचते उस में किसी भी तरह की कोई दखलअंदाजी नहीं थी। सब साथ मिलकर भाग लेते। मगर आज पर्यटन विभाग और कुछ कलाफ़रोशों ने इन आदिवासी लोक कलाकारों को खुल कर एक्सप्लॉइट किया और आज भी कर रहे हैं। अपनी तरह से उसे टूरिस्ट ओरिएंटेड बनाने में काफी कुछ बदलाव किये जाते हैं। राजस्थान में शायद सब से ज्यादा लांगौर मंगनियारों के संगीत में हुआ और हो रहा है। लांगा कबीर और मीरा के भजन गाते हैं मगर वो इस वजह से नहीं गवाए जाते की विदेशी मेहमानो की समझ में नहीं आएगा। कोई ताज्जुब नहीं की यह परम्परा बिलकुल बर्बाद हो जाये, क्यों की नयी पीढ़ी को यह भजन गाना नहीं आएगा। यही डांस के साथ हो रहा है। आज कालबेलिया डांस बहुत मशहूर है, मगर यह कालबेलिया डांस है ही नहीं। इसी तरह से घूमर, तेरताली, चारी डांस में भी काफी कुछ बदला जा रहा है। शास्त्रीय और लोक-कला और कल्चर कलाफ़रोशों के हाथों बिक चुका है। समाज के मुहाफ़िज़ों को इस बात की कोई फिक्र नहीं ,सरकार को महज़ दिखावा करना है जो बराबर करती है।

इप्टा में जो बिखराव आया क्या उसकी एक वजह बड़े कलाकारों की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षायें थी? यह सवाल इस तरह से भी किया जा सकता है कि जो काम हबीब तनवीर ने नया थियेटर बनाकर किया क्या वही काम इप्टा के जरिये संभव नहीं था।
-इप्टा में जो भी बिखराव आया था उस की वजह न तो पाबन्दी थी और न ही व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं। इप्टा कम्युनिस्ट पार्टी का एक अहम हिस्सा थी। इसी वजह से पार्टी इप्टा पर बरगद की तरह छायी हुई थी, यह क्रिएटिव आर्टिस्ट को कभी मंज़ूर नहीं होता। क्रिएटिव आर्टिस्ट को अपनी बात कहने की आजादी चाहिए, जैसा वो कहना चाहे वैसा वो कह सके। उसे हुकुम नहीं चाहिए की इस तरह से कहो। खास करके यही वजह थी कि बड़े-बड़े कलाकार, दुनिया की बड़ी- बड़ी हस्तियां इप्टा को छोड़ कर अपने अलग-अलग ग्रुप बना कर काम करने लगे। उदय शंकर, शम्भू मित्र, उत्पल दत्त, भूपेन हज़ारिका, जसवंत ठक्कर, शांता गांधी, हबीब तनवीर वगैरह ने अपने अपने थिएटर ग्रुप्स बनाये और आज़ादी से काम करने लगे। मगर उन तमाम लोगों की विचारधारा वही रही। हाँ, एक बात हो सकती है कि आज़ादी के साथ-साथ वामपंथी होने का दाग़ दिखाई ना दे ! इनकी संस्थाओं का नाम बहुत मशहूर हुआ। इन सब की विचारधारा और मक़सद वही रहा जो इप्टा का था। मगर अफ़सोस इस बात का है कि असल तरह से पेशेवर भी नहीं हो सके। कभी भी इस बात की फिक्र नहीं की कि उनके बाद आगे क्या होगा।
जिस व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की बात कर रहे हैं, वो आज के मौजूदा शौकिया थिएटर में है। इप्टा  लेफ्टिस्ट मानी जाती है। भला वो  राइटिस्ट सरकार से या फोर्ड फाउंडेशन जैसी और संस्थाओं से अनुदान कैसे ले सकती है? इप्टा में अनुशासन है, कुछ बंदिशें हैं उन  से वो निजात चाहते हैं। आपने हबीब भाई के नया थिएटर की बात की। नहीं, उस वक्त पुराने कलाकारों में से कोई नहीं कर सकता था- उस की ज़रुरत ही नहीं थी। उस वक्त हबीब भाई ने भी कभी नहीं सोचा था। उस ज़माने में लोक का इतना बोलबाला भी नहीं था। थिएटर पर साफ़ तौर से वेस्टर्न थिएटर की छाप थी। हबीब भाई पर भी शुरुआती दौर में वेस्टर्न थिएटर का ही इन्फ्लुएंस था। दिल्ली में जब हिंदुस्तानी थिएटर बना तो हबीब उस के साथ जुड़े और कई नाटकों का निर्देशन किया। जब उस पर पर्दा गिरा तो हबीब भाई को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। मैं उस दौर में उनके साथ क़रीब से जुड़ा हुआ था। उन्होंने सोवियत लैंड अखबार में नौकरी की। सिनेमा और थिएटर  की समीक्षा लिखते थे। भारतीय नाट्य संघ की पत्रिका नाट्य के लिए दिल्ली के थिएटर पर लिखते थे। दिन भर दफ्तर में काम  करने के बाद फिल्म देखना, फिर नाटक देखना, उसी वक्त उन पर लिखना और देर से घर जाना यह रोज़ का काम था। उन्होंने थिएटर में कई एक्सपेरिमेंट किये। एक पेशेवर थिएटर कंपनी खोलने की भी कोशिश की मगर साथियों ने साथ नहीं दिया। रुस्तम सोहराब नाटक के रिहर्सल हुए मगर शो नहीं हो सका। दूरदर्शन की नौकरी की मगर एक दिन वहां से भी छोड़ना पड़ा क्योंकि वो लेफ्टिस्ट थे। एक वक्त ऐसा आया था कि वो टूटने लगे थे। नाचा के कलाकारों को ले कर आये। एक नाटक किया जिस में आफताब और कुसुम हैदर जैसे कलाकारों और नाचा के कलाकारों का मिलान था। कमानी थिएटर में उसका शो हुआ। एक तरफ आफताब और कुसुम हैदर जैसे उच्च घराने के सोफिस्टिकेटेड लोग और दूसरी तरफ ठेठ जंगल के-गाँवों के कलाकार। वे एक-दूसरे से दूर रहते थे। जब नाचा का कलाकार कुसुम के पास जाता तो ऐसा लगता था कि उसके पसीने की बू कुसुम को सता रही है। जब हबीब भाई ने मुझ से पूछा की नाटक कैसा लगा तो मैंने उन्हें यही बताया था। पेशेवर  कलाकारों और एमेच्योर कलाकारों का साथ नहीं हो सकता, यह हबीब को मालूम हो गया था।
हबीब जब पूरी तरह से तंग आ चुके थे तो वो अपने घर छत्तीसगढ़ गए। वहां घूम-घूम करके तीजन बाई और बाकी तरह तरह के अजीबो-ग़रीब कलाकारों को लेकर आए। दिल्ली में उन सबको स्टेज पर पेश किया। एक दिन हबीब भाई की मेरी मुलाकात बैंक में हुयी। उन्होंने मुझ से पूछा ‘‘मेरा शो तुम्हें कैसा लगा?’’ मैंने जवाब दिया ”हबीब भाई, यह तुम्हारा काम नहीं, यह सुरेश अवस्थी का काम है। इस शो में हबीब कहीं भी दिखाई नहीं देता।’’ हबीब को मेरी बात नागवार गुज़री।
एक दिन लक्ष्मीनारायणलाल, कमलेश्वर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और हम कुछ और दोस्त त्रिवेणी में कॉफ़ी हाउस में बैठे थे। हबीब के शो की ही बातें हो रही थी। मैंने मज़ाक में कह दिया कि 'हबीब ने थिएटर में वो काम किया जो रामायण में हनुमान ने किया था।' सर्वेश्वर ने मेरे रिमार्क को दिनमान में छाप दिया। मुझे कई महीनो तक हबीब की नाराज़गी झेलनी पड़ी। मगर हमारी दोस्ती की नींव इतनी गहरी थी कि एक दिन मैं और ओ.पी. कोहली उनसे मिले तो उन्होंने मुझे अपने गले से लगा लिया।
जब फोर्ड फाउंडेशन ने स्कीम की कि लोक रंगमंच को मॉडर्न थिएटर में मिलाने से भारतीय रंगमंच शक्तिशाली हो जायेगा तो मैं उस वक्त राजस्थान संगीत नाटक अकादमी का वर्किंग प्रेसीडेंट था (ऐसा लगता है कि मेरी क़िस्मत में वर्किंग प्रेसीडेंट होना ही लिखा है!)। मैं इस स्कीम के सख्त खिलाफ था। कई आर्टिकल्स भी लिखे। मगर हबीब भाई ने फोर्ड फाउंडेशन से रिपर्टरी चलाने के लिए ग्रांट ले ली। हम दोनों में शिकवा -शिकायत भी हुयी। कई औरों ने भी ली। कुछ ने लोक से उस की ताम-झाम ली, संगीत लिया और बिलावजह उसे अपने नाटकों में इस्तेमाल किया। कुछ ने उन्हीं के पास जाकर काम किया। यूँ कहूँ तो ठीक होगा की उन्हें एक्सप्लॉइट ही किया। हबीब भाई ही एक ऐसे शख्स थे, जिन्होंने अपने अनुभव, अपने टैलेंट को काम में लिया और नाचा के कलाकारों से ही अपनी रिपर्टरी बनायी और उन्हीं के साथ काम किया। हबीब ने ऐसे कलाकारों को साथ लिया जिन्हें टीवी और फिल्मों में जाने की कोई तमन्ना नहीं थी। वो ईमानदारी और वफादारी से थिएटर के थे और हबीब ने भी उनके साथ अपनापन, ईमानदारी और वफादारी निभायी। ऐसा करना औरों के बस की बात नहीं थी। सारी दुनिया में नाम कमाया। यह दूसरे नहीं कर सके। कई लोगों ने फोर्ड फाउंडेशन की ग्रांट ली थी। कइयों का ईमान गया, कइयों की विचारधारा। क्या बात थी कि सिर्फ हबीब भाई ने अपना थिएटर बनाया, विचारधारा को भी नहीं छोड़ा। यह काम और क्यों नहीं कर सके। हबीब ने किसी और नाटककार का नाटक नहीं खेला, उसने कहानी का भी नाटक नहीं किया। हबीब मुक़म्मिल तौर पर थिएटर आर्टिस्ट थे। वो नाटककार थे, वो डायरेक्टर थे, वो एक्टर थे, वो शायर थे, वो ग़रीबों के मसीहा थे, वो एक सच्चे इंसान थे। हबीब भाई में अगर कोई कमज़ोरी थी तो वो हिसाब -किताब, एकाउंट्स करने की। मगर बाद में जब सर पर आन पड़ी तो वो भी सीख लिया था। जो काम हबीब भाई ने किया वो मुश्किल काम था मगर वही कर सकते थे और कोई नहीं। हो भी सकता है कि ज़माने में कभी कोई आए जो कर सके मगर अभी कोई नहीं है। इप्टा न पहले कर सकती थी और न आज कर सकती है। जो वो कर सकती है अगर उसे खूबसूरती से कर ले तो बहुत है।
(भड़ास4मीडिया से साभार)

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