टेलीविजन पर समाचारों के प्रसारण के सिलसिले में निष्पक्षता से जुड़े कई सवाल उठते रहे हैं। सुलझी हुई रिपोर्टिंग बनाम मीडिया ट्रायल से जुड़ी बहस भी उसी का हिस्सा है। अक्सर अपराध से जुड़े मामलों की खबरों की कवरेज के दौरान टेलीविजन पत्रकारों पर मीडिया ट्रायल का आरोप लगता है, जब किसी खास मामले की ज्यादा से ज्यादा कवरेज होती है, उसकी तह में, गहराई में जाने की हद से ज्यादा कोशिश होती है। सच्चाई का खुलासा करने की होड़ में आरोपियों और मामले से जुड़े लोगों की सरेआम कैमरे पर इस तरह जिरह होने लगती है जैसे अदालत में कोई मुकदमा चल रहा हो। ऐसी स्थिति में रिपोर्टर जैसे जज बन जाते हैं और खुद ही फैसला भी सुनाने लगते हैं। ये किसी भी मामले की असंयमित रिपोर्टिंग का नमूना है, जिसके तहत जिस तरह मामले से जुड़े मुद्दों की पड़ताल होती है, उसकी अदालती सुनवाई से तुलना होने लगती है और उसे ‘मीडिया ट्रायल’ की संज्ञा दे दी जाती है। ‘मीडिया ट्रायल’ का जुमला चाहे जहां से भी ईजाद हुआ हो, लेकिन इसका सीधा सा मतलब यही होता है कि मीडिया किसी मामले की इतनी पड़ताल कर रहा है और किसी को दोषी और किसी को निर्दोष साबित कर रहा है, जो पुलिस-प्रशासन और अदालतों को करना चाहिए। ऐसे में सवाल ये है कि क्या पुलिस-प्रशासन के निकम्मेपन का ये नतीजा है या फिर अदालतों की कार्रवाई सवालों के घेरे में है। एक तरह से देखें तो ऐसा नहीं कहा जा सकता। पुलिस-प्रशासन, अदालत- सभी अपने दायरे में अपने तरीके से किसी भी मामले पर कार्रवाई करते हैं- यहां सवाल पक्षपात या निष्पक्षता का नहीं है, ये एक प्रक्रिया है, जिसका पालन तमाम जांच एजेंसियां और कानूनी पक्ष करते हैं और इसमें जो भी समय लगे, उसके बाद नतीजा निकलकर सामने आता है, जो किसी के पक्ष में होता है और किसी के खिलाफ। अब नतीजा सही होता है या गलत- ये अलग चर्चा और बहस का विषय है। लेकिन किसी मामले में मीडिया, खासकर टेलीविजन की दिलचस्पी और अति-सक्रियता क्यों होती है और क्यों स्थिति ‘मीडिया ट्रायल’ के स्तर तक पहुंचती है, ये पहलू विचारणीय है। टेलीविजन समाचारों में आजकल उन जानकारियों को खबरिया नजरिए से तरजीह दी जाती है, जो आम आदमी से जुड़े हों, उसे किसी न किसी तरह प्रभावित कर रहे हों। जघन्य बलात्कार की घटनाओं या नृशंस हत्या के मामले ऐसी खबरों में सबसे पहले शुमार होते हैं, जो आम दर्शकों का ध्यान आकर्षित करते हैं। लिहाजा ऐसी खबरों को प्रमुखता देना टेलीविजन समाचार चैनलों का धर्म बन गया है। रही बात किसी खास खबर पर मंथन की, उसे लगातार जिंदा रखने की, उस पर बहस ख़ड़ी करने की- तो ये सारी बातें खबर की अपनी मेरिट पर निर्भर करती हैं, न कि किसी विद्वेषपूर्ण नजरिए से उन्हें उठाया जाता है- इसके लिए कोई उदाहरण देने की जरूरत नहीं- रोजाना टेलीविजन पर समाचार देखते हुए ये बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। अपराध के मामलों में पुलिस-प्रशासन की लापरवाही, उस पर लोगों का गुस्सा और उनकी प्रतिक्रिया और उसके बाद कथित आरोपी के पकड़े जाने या नहीं पकड़े जाने पर जनभावनाओं का सामने आना- ये सब प्रसारित होनेवाली खबरों के प्रमुख पहलू हैं। जाहिर है, किसी भी ऐसे बड़े अपराध का मामला अदालत तक पहुंचता है, तो आम दर्शकों की उसमें दिलचस्पी वाजिब है और आम लोगों की प्रतिक्रिया को दिखाना भी खबर के प्रसारण का एक हिस्सा है। खबर के प्रसारण का दूसरा हिस्सा है – पुलिस और प्रशासन की प्रतिक्रिया। सवाल ये है कि क्या खबरों की रिपोर्टिंग तथ्यों की और उन पर पुलिस और पब्लिक की प्रतिक्रिया तक सीमित रहे? और सीमित रहे भी तो कैसे रहे? जब कोई जानकारी खबर बनती है और उस पर प्रतिक्रियाएं आना चालू होती हैं, तो जैसे एक तरीके से बहस छिड़ जाती है और मुद्दे के हर पक्ष की पड़ताल होती है। ऐसे में अगर मीडिया अपराध के तथ्यों, जो आमतौर पर पुलिस की प्रेस कांफ्रेंस में पेश किए जाते हैं, की कवरेज तक सीमित रहे, तो क्या उसकी निष्पक्षता पर सवाल नहीं उठेंगे। सवाल उठते भी रहे हैं और टेलीविजन पर मरणासन्न खोजी पत्रकारिता की स्थिति के लिए इसी बात को जिम्मेदार भी माना जाता रहा है कि टेलीविजन के पत्रकार थानेदारों और पुलिस अफसरों के बयानों तक क्यों घूमते पाए जाते हैं। ऐसे में जब बात पुलिस से पब्लिक तक आती है तो और भी कई बातें निकलती हैं और खबर की कड़ियां आगे बढ़ती चली जाती है, जिसमें दर्शकों की दिलचस्पी स्वाभाविक है और दर्शकों की दिलचस्पी को भुनाना तो टेलीविजन समाचार के कारोबारी पहलू का अहम पक्ष है ही- यानी ये एक ऐसा चक्र है, जिसमें खबर से पब्लिक और कारोबार तक का हर पहलू जुड़ा हुआ है। तो जाहिर है, इस स्थिति में खबरों की खबर लेने की कोई सीमा नहीं होती और कवरेज और प्रसारण का दायरा इतना बढ़ता हुआ नजर आता है कि उसे रिपोर्टिंग से हटकर ‘मीडिया ट्रायल’ का दर्जा दे दिया जाता है। ये काफी हद तक ऐसी मुहिम की स्थिति है, जिसे कई टेलीविजन समाचार चैनल बाकायदा घोषित रूप से चलाते रहे हैं। भारत में प्रियदर्शिनी मट्टू, जेसिका लाल, नीतीश कटारा, बीजल जोशी, रुचिका गिरहोत्रा, आरुषि तलवार हत्याकांड जैसे आपराधिक मुद्दे हों, या भ्रष्टाचार से जुड़ी खबरों के मुद्दे- जिन पर टेलीविजन समाचारों की सबसे ज्यादा कवरेज हुई है और इनकी कवरेज बहस और विवादों का भी मुद्दा रही है। ये कहना सही नहीं होगा कि ऐसे तमाम मामलों को टेलीविजन पर उठाए जाने की वजह से ही इनके दोषियों को सजा हुई। आरुषि तलवार का मामला अब तक सुलझा नहीं और प्रियदर्शिनी मट्टू, जेसिका लाल, रुचिका गिरहोत्रा के मामले मीडिया में गर्म रहने के बावजूद दोषियों को सजा मिलने में हद से ज्यादा देर हुई, 84 दंगा मामलों में मीडिया की तमाम हाय-तौबा के बावजूद कड़कड़डूमा कोर्ट से सज्जन कुमार बरी हो गए- तो भला कैसे कह सकते हैं कि मीडिया के जोर के चलते, समाचार चैनलों की मुहिम के चलते पीड़ितो को इंसाफ मिला? ये सिर्फ एक सोच भर है और इंसाफ की जंग लड़नेवालों को भी लगता है कि मीडिया का उन्हें साथ मिला है, मीडिया उनका सहारा बना रहा है। गालिबन, ये दिल को बहलाने को एक अच्छा ख्याल हो सकता है, लेकिन खबरों के प्रसारण का कोई ज्यादा दबाव मामलों के फैसलों पर पड़ता हो, ऐसा कम ही लगता है। मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, और टेलीविजन उसका सबसे सशक्त माध्यम है। ऐसे में पब्लिक से जुड़ी खबरें दिखाना तो उसका दायित्व है ही, उन खबरों पर पब्लिक की सोच सामने लाना भी उसकी जिम्मेदारी है। अब पब्लिक की सोच के बारे में तो क्या कहें- जितने मुंह उतनी बातें, हर तरह की सोच सामने आ सकती है, लेकिन कोई मुद्दा गरम हो, तो उसके खिलाफ बोलनेवाले भी कम ही मिलेंगे, क्य़ोंकि कैमरे पर दिखने से पहचान जाहिर होती है और उसके बाद ऐसे लोगों का निशाना बनने का खतरा रहता है, जो मुद्दे पर उससे अलग राय रखते हों। लेकिन मीडिय़ा की आजादी ने देश के टेलीविजन समाचार चैनलों को लोगों को सार्वजनिक महत्व के मामलों पर सूचित करने औऱ अपनी राय बनाने और पेश करने का मौका जरूर दिया है और यही वजह मानी जा सकती है कि किसी खबर की कवरेज इतनी बढ़ जाती है कि उसे ‘मीडिया ट्रायल’ मान लिया जाता है। एक तरह से देखें तो ‘मीडिया ट्रायल’ एक कानूनी जुमला है, जिसका मतलब प्रसारण के जरिए न्याय दिलाने की प्रक्रिया से है। व्यावहारिक तौर पर और वैधानिक तौर पर पीड़ित को न्याय दिलाना तो मीडिय़ा पर खबर दिखाकर असंभव है, क्योंकि मुकदमे का ‘ट्रायल’ कानूनी प्रक्रिया है और किसी को दोषी ठहराना, उसे सजा देना और किसी को बरी करना अदालतों का ही काम है। लेकिन ‘मीडिया ट्रायल’ के जुमले का इस्तेमाल ‘Fair trial’ के रास्ते में बाधा मानकर किसी भी खबर के मामले में कवरेज को सीमित करने के लिए किया जा सकता है। जिन मामलों को बेहद संवेदनशील माना जाता है, उनकी कवरेज पर मीडिया को संयमित रहने की सलाह दी जाती है। अदालतों में भी कई बार मीडिय़ा के प्रवेश पर पाबंदी लग जाती है क्य़ोंकि वहां से निकलनेवाली खबरों के सीधे प्रसारण से पब्लिक या पब्लिक की नुमाइंदगी करने का दावा करनेवाले संगठनों, पार्टियों गैरसरकारी संगठनों के कार्यकर्ताओं या किसी समुदाय विशेष की भावनाएं भड़कने का अंदेशा रहता है जिसकी प्रतिक्रिया हिंसा में तब्दील होने का खतरा बना होता है। इस दौरान आरोपियों, दोषियों, गवाहों और न्यायाधीशों पर भी खतरे का अंदेशा होता है, लिहाजा समाचारों के प्रसारण में संयम की अपील की जाती है और कई बार पाबंदियां भी अदालतों की ओर से लगा दी जाती है। ‘मीडिया ट्रायल’ के दायरे में अक्सर टेलीविजन पर प्रसारित होनेवाले ऐसे इंटरव्यू भी आते हैं, जिनमें पत्रकार या एंकर मामले से संबंधित पक्षों से सवाल-जवाब करते नजर आते हैं और कई बार ऐसे कठिन सवाल होते हैं, जिनका जवाब देना सामनेवालों के लिए मुमकिन नहीं होता, या जिनका कुछ जवाब उसके पास होता ही नहीं। ऐसे में मीडिया पर परेशान करने के आरोप लगते हैं। लेकिन, ये भी समझना चाहिए कि मीडिया, खासकर टेलीविजन ऐसे इंटरव्यूज़ के जरिए आरोपी पक्ष और बचाव पक्ष को अपनी बात कहने, अपने तर्क रखने का मौका भी तो देता है, जिसके जरिए आप अदालत में न सही, एक बड़े दर्शक वर्ग के सामने अपनी सफाई पेश कर सकें, अपनी बेगुनाही के सबूत एक पैसा खर्च किए बिना पेश कर सकें। चुंकि, टेलीविजन चैनल न्यायालय नहीं हैं, ना ही टेलीविजन के इंटरव्यू में कही गई बातों का मुकदमे की सुनवाई पर कोई असर पड़ता है, लिहाजा अपनी बात रखने के अलावा इसका कोई मतलब तो है नहीं, हां एक पक्ष को आत्मसंतुष्टि जरूर मिल सकती है। दिल्ली में दिसंबर 2012 में हुए वसंत विहार गैंग रेप केस के पीड़ित लड़के का इंटरव्यू जी न्यूज़ ने प्रसारित किया, जिस पर दिल्ली पुलिस ने सवाल भी उठाए। अदालत ने उसे सबूत के तौर पर पेश करने की इजाजत भी नहीं दी। ऐसे में निकला क्या- एक बात तो ये है कि पीड़ित को खुलकर अपनी बात पब्लिक के सामने रखने का मौका मिला; दूसरी बात, पब्लिक को ऐसे जघन्य मामले के पीड़ित से रू-ब-रू होने, उसका दर्द सुनने का मौका मिला, और तीसरी बात, इंटरव्यू प्रसारित करनेवाले चैनल को टीआरपी में जो फायदा हुआ हो सो अलग। सवाल है कि अगर उस इंटरव्यू के प्रसारण को ‘मीडिया ट्रायल’ के दायरे में रखें भी तो उसका असर क्या हुआ- सिफर! मामला अदालत में है, लंबा चलेगा, फिर बड़ी अदालतों में जाएगा और फिर जो भी नतीजा हो, उसमें जो वक्त लगना है, वो लगेगा, अदालत या अभियोजन पक्ष पर किसी तरह के दबाव की कोई बात नहीं। पीड़ित का दर्द सुनकर क्या लोगों की सोच बदली- ऐसा नहीं लगता। दिल्ली में रोजाना मासूमों से बलात्कार की घटनाएं हो ही रही हैं। एक जघन्य मामले की ज्यादा कवरेज से समाज के घृणित तत्वों की सोच तो बदली नहीं। रही बात पब्लिक की प्रतिक्रिया की, तो आंदोलन का जो जोश, जज्बा शुरुआती हफ्ते-10 दिन दिखा, वो वक्त के साथ ठंडा पड़ गया। बलात्कार मामलों की विशाल कवरेज से हालात में तो कोई बदलाव नहीं आया। हां थोड़े वक्त के लिए मामले से जुड़े चंद लोगों ने खुद पर दबाव महसूस किया होगा, लेकिन वो भी अगर अनुभवी होंगे, तो उन्हें पता होगा कि मीडिया कवरेज ये एक ऐसा बुलबुला है, जिसका फूटना तो तय ही है। यही वजह है कि टेलीविजन पर किसी मुद्दे की हद से ज्यादा चर्चा होने पर भी आजकल मामले से जुड़े अधिकारी और नेता इस्तीफा नहीं देते, बल्कि ठसक के साथ मना कर देते हैं। ऐसे में ‘मीडिया ट्रायल’ का क्या मतलब? देश में मीडिया को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन संविधान की धारा 19 की उपधारा 2 के तहत प्रेस की आजादी खतरे में भी पड़ती दिखी है। सितंबर 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवई के दौरान मीडिया की अभिव्यक्ति की आजादी पर कोई रोक तो नहीं लगाई, लेकिन एक उपधारा के तहत इस पर कुछ सख्ती के संकेत जरूर दे दिए। इससे पहले भारतीय विधि आयोग ने भी मीडिया में खबरें दिखाए जाने और ‘मीडिया ट्रायल’ से जुड़ी 2006 की अपनी एक रिपोर्ट में प्रसारण और उसके असर से जुड़ी कई चिंताओं का जिक्र किया था-
“With the coming into being of the television and cable-channels, the amount of publicity which any crime or suspect or accused gets in the media has reached alarming proportions. Innocents may be condemned for no reason or those who are guilty may not get a fair trial or may get a higher sentence after trial than they deserved. There appears to be very little restraint in the media in so far as the administration of criminal justice is concerned. We are aware that in a democratic country like ours, freedom of expression is an important right but such aright is not absolute in as much as the Constitution itself, while it grants the freedom under Article 19(1)(a), permitted the legislature to impose reasonable restriction on the right, in the interests of various matters, one of which is the fair administration of justice as protected by the Contempt of Courts Act, 1971. …..If media exercises an unrestricted or rather unregulated freedom in publishing information about a criminal case and prejudices the mind of the public and those who are to adjudicate on the guilt of the accused and if it projects a suspect or an accused as if he has already been adjudged guilty well before the trial in court, there can be serious prejudice to the accused. In fact, even if ultimately the person is acquitted after the due process in courts, such an acquittal may not help the accused to rebuild his lost image in society. If excessive publicity in the media about a suspect or an accused before trial prejudices a fair trial or results in characterizing him as a person who had indeed committed the crime, it amounts to undue interference with the “administration of justice”, calling for proceedings for contempt of court against the media. Other issues about the privacy rights of individuals or defendants may also arise. “[1]
विधि आयोग की रिपोर्ट में जाहिर चिंताएं जायज हैं, लेकिन एक बात तो तय है कि अदालत का फैसला सर्वोपरि होता है, आप भले ही उससे असहमत हों, आपको ऊपरी अदालत में अपील का हक है, लेकिन बोलने की आजादी का ये मतलब नहीं कि आप अदालत की अवमानना करें। अदालत की अवमानना अक्सर तब मानी जाती है, जब किसी घटना की खबर को स्कैंडल के तौर पर दिखाया जाए, या फिर उसकी सुनवाई और इंसाफ की प्रक्रिया में बाधा पैदा की जाए या फिर किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त कवरेज बार-बार हो। मामले की किस तरह की कवरेज हो रही है और होनी चाहिए, ये तो कानूनी धाराओं के तहत तय करना अदालत का ही काम है। लेकिन जहां तक समाचार चैनलों की बात है, तो वो तो यही कहेंगे कि वो खबर दिखा रहे हैं और अदालत की अवमानना नहीं कर रहे। वास्तव में मामला जटिल है और बड़ा कठिन है ये तय करना कि कहां अदालत की अवमानना हो रही है और कहां नहीं हो रही है- सवाल तो ऐसे फैसलों पर भी उठ सकते हैं। ऐसे तमाम मामले सामने आए हैं, जब टेलीविजन पर अदालत का फैसला आने से पहले ही मामले की अति-करवेज और आरोपियों को दोषी करार देने की कोशिश के आरोप लगे हैं। ये भी आरोप लगे हैं कि कवरेज के जरिए मीडिय़ा अदालती सुनवाई को प्रभावित करता है। लेकिन ये आरोप सिर्फ आरोप ही है, क्योंकि व्यावहारिक तौर पर आधुनिक समाज में ये संभव नहीं लगता है कि कोई संगठन या प्रसारण अदालती कार्रवाई पर दबाव बनाए या उसे प्रभावित करे। ये बात और है कि मीडिया में किसी मुद्दे की चर्चा होती है तो आम जनता और समाज के तमाम पक्ष किसी मुद्दे पर क्या सोचते हैं, ये बात सामने आती है, लेकिन इसका मामले की जांच और अदालतों के फैसले पर कोई दबाव पड़े, ये जरूरी नहीं और पड़ना भी नहीं चाहिए। लेकिन मीडिया पर मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने और तथ्यों से परे जाकर रिपोर्टिंग करने के आरोप लगते हैं और ये भी कहा जाता है कि इससे अभियोजन और न्याय प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है। विधि आयोग ने अपनी 2006 की रिपोर्ट में जो कुछ तर्क दिए थे, वो काफी मजबूत हैं, लेकिन साथ ही पुलिस, अभियोजन और प्रशासनिक प्रक्रिया पर भी सवाल खड़े करते हैं।
“The pressure on the police from media day by day builds up and reaches a stage where police feel compelled to say something or the other in public to protect their reputation. Sometimes when, under such pressure, police come forward with a story that they have nabbed a suspect and that he has confessed, the ‘Breaking News’ items start and few in the media appear to know that under the law, confession to police is not admissible in a criminal trial. Once the confession is published by both the police and the media, the suspect’s future is finished. When he retracts from the confession before the Magistrate, the public imagine that the person is a liar. The whole procedure of due process is thus getting distorted and confused. The media also creates other problems for witnesses. If the identity of witnesses is published, there is danger of the witnesses coming under pressure both from the accused or his associates as well as from the police. At the earliest stage, the witnesses want to retract and get out of the muddle.”[2]
मीडिया की कवरेज में खामियां हो सकती हैं, ये बात समझ में आती है, लेकिन, क्या पुलिस को उससे प्रभावित होना चाहिए, क्य़ा अदालतों पर उसका कोई असर पड़ना चाहिए? लोगों की सुरक्षा के लिए तैनात पुलिस और इंसाफ दिलाने के लिए बने न्याय के मंदिर क्या किसी ऐसे शख्स की छवि फिर से समाज में बना पाने में नाकाम रहेंगे, जिसका चरित्र हनन कथित तौर पर मीडिया ने किया हो? सरकार और प्रशासन और न्याय व्यवस्था यदि दोषी को सजा देने के लिए बने हैं, तो पीड़ित को उसका खोई हुई प्रतिष्ठा दिलाने में भी उनकी भूमिका होनी चाहिए। दरअसल आज के दौर में स्थिति बदलती नजर आ रही है और आम आदमी को मदद के लिए मीडिया का मुंह देखना पड रहा है, जिससे न तो पुलिस खुश रहती है, ना ही प्रशासन क्योंकि टेलीविजन में खबर आने पर उनकी नाकामियां ही उजागर होती हैं, तारीफ नहीं मिलती। इस मामले पर मशहूर टीवी पत्रकार आशुतोष ने अपने ब्लॉग में कुछ गलत नहीं लिखा है कि-
“मीडिया के कूदने के पहले आम नागरिक मुंह की खा चुका था। मीडिया ने उसे ताकत दी है। आम आदमी को एहसास हुआ कि अगर कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में उसकी गुहार नहीं सुनी जाती है, तब वह मीडिया के पास जा सकता है और इंसाफ पा सकता है। अब आम आदमी को इंसाफ कैसे मिलेगा? मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि मीडिया की ताकत से घबराकर ताकतवर तबकों ने मीडिया के खिलाफ मुहिम चला रखी है। आरोप यह है कि मीडिया ट्रायल अदालतों की कार्यवाही को प्रभावित कर रही है और इससे जजों पर दबाव पड़ता है। मेरा कहना है कि यह आरोप ही जजों की प्रतिबद्धता और उनकी गरिमा पर चोट करने वाला है, लेकिन क्या यह नहीं होना चाहिए कि इंसाफ के लिए किसी भी मामले की सुनवाई के समय एक ही मेधा और क्षमता के वकील हों?”[3]
ये कहना कतई सही नहीं होगा कि किसी मामले से जुड़ी खबरें दिखाने पर उस मामले से जुड़ी शख्सियतों की जरूरत से ज्यादा चर्चा होती है और उसका चरित्र हनन होता है, या उसे दोषी के रूप में पेश किया जाता है या फिर खबरों में होने की वजह से उसके मामले की सुनवाई पर असर पड़ता है, जिससे उसके मानवाधिकारों का हनन होता है। लोकतंत्र में न्यायपालिका इंसाफ करने और फैसले देने के लिए स्वतंत्र है। लिहाजा उस पर विधायिका या मीडिया के किसी दबाव या किसी तरह के असर की तो बात ही बेमानी है।
आज के दौर में ये कहना भी गलत होगा कि टेलीविजन या मीडिया ने खुद को ‘जनता की अदालत’ के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की है, क्योंकि व्यावहारिक तौर पर इसका कोई मतलब नहीं, क्योंकि इसकी कोई वैधानिकता है ही नहीं, ना ही किसी को टेलीविजन प्रसारण से डरने की जरूरत होती है, लिहाजा ये नक्सलियों, माओवादियों या खाप-पंचायतों की ‘कंगारू अदालत’ भी तो नहीं है। तो सवाल है कि ‘मीडिय़ा ट्रायल’ का जुमला क्यों बार-बार इस्तेमाल होता है , खबरों को जोर-शोर से दिखाए जाने पर किसी एक पक्ष को डर क्यों लगता है? यहां ये तो जरूर मानना होगा कि टेलीविजन के जरिए जब कोई मामला खबर के रूप में चर्चा में आता है, तो उस पर न्यूटन के गति के तीसरे नियम के समान ‘प्रत्येक क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है’। यानी खबर सनसनीखेज है, तो समाज के लोग, या कोई वर्ग सक्रिय होता है, हल्ला-हंगामा होता है, आरोपियों पर कुछ कार्रवाई होती है, वो कानून के शिकंजे में आ जाते हैं। टेलीविजन पर जिन मामलों की खबरें नहीं आती हैं, उन्हें दबाने और रफा-दफा करने की कोशिश भी होती है- ऐसा अक्सर देखने को मिलता है क्योंकि जब तक किसी विपरीत प्रतिक्रिया का डर नहीं होता, तब तक पुलिस प्रशासन अपनी मनमानी पर चलता है। दिल्ली में वसंत विहार रेप केस के बाद हुए प्रदर्शनों के दौरान संसद मार्ग थाने में एक प्रदर्शनकारी लड़की से SHO की बदसलूकी और फिर गांधीनगर रेप केस के बाद थाने में एक प्रदर्शनकारी लड़की को ACP के थप्पड़ मारने के मामलों को लें, तो खबर दिखाए जाने और बार-बार दिखाए जाने पर आरोपियों के खिलाफ कुछ तो कार्रवाई हुई। अगर ये खबरें मीडिया में न आतीं, तो शायद पुलिस और निरंकुश बर्ताव करने पर आमादा हो जाती। टेलिविजन समाचारों में जो कुछ दिखाया जाता है उसकी पुष्टि कुछ मामलों को छोड़ दें, तो हमेशा तस्वीरों, वीडियो और साउंड बाइट्स से होती है, लिहाजा, सच हमेशा पब्लिक के सामने पर्दे पर होता है और ये गुंजाइश नहीं होती कि किसी को गलत तरीके से दोषी ठहराया जा रहा है। ऐसे में लंबी सुनवाई के बाद दोषी को दोषी ठहराने की प्रक्रिया की तो कोई जरूरत ही नहीं रह जाती, जब जो कुछ घटित हुआ उसमें किसका दोष है, ये सामने दिख रहा हो। हां, ऐसे मामलों में जहां अपराध साबित करने की प्रक्रिया जटिल हो, वहां जरूर किसी पर लगे आरोपों के बारे में खबर दिखाने पर सवाल उठाए जा सकते हैं, लेकिन ये तो परम सत्य है कि चिंगारी के बगैर आग नहीं लगती, तो अगर किसी शख्स का नाम किसी मामले में सामने आ रहा है तो वो कितना पाक-साफ है, ये साबित होने का इंतजार करना ही पड़ेगा और उस प्रक्रिया के पूरा होने तक आरोपी को इल्जामात के वार झेलने ही पड़ेंगे। ऐसे मामले भी सामने आते हैं जब किसी को गलत तरीके से फंसाया गया और उसे अंत तक इंसाफ नहीं मिला, तो उसे क्यों इंसाफ नहीं मिला और कानून की तराजू पर वो क्यों दोषी साबित किया गया, इसके पीछे तो खामियां कानूनी और जांच के स्तर पर हो सकती हैं, उसके मुद्दे को उठाने में टेलीविजन समाचार चैनलों की क्या गलती?
सवाल तो मीडिया या टेलीविजन समाचार चैनलों की ओऱ से खबरों की पड़ताल पर भी उठते हैं। ये सच है कि कोई टेलीविजन पत्रकार किसी डिटेक्टिव की तरह मौके पर जाकर छानबीन और पड़ताल तो करता नहीं, ज्यादा से ज्यादा मौका ए वारदात के चश्मदीदों की बाइट जुटा लेता है या फिर पुलिस और जांच एजेंसियों के अपने सूत्रों से कुछ ऐसे दस्तावेज जुटा लेता है जिससे खबर पर कुछ और रोशनी पड़ती है और किसी पक्ष के खिलाफ या किसी के हक में सबूत सामने आने लगते हैं। ऐसे में ये सवाल उठाना कि मीडिया की ओर से मामले की पड़ताल क्यों होती है, मेरी समझ से बिल्कुल गलत है क्योंकि वास्तव में आजकल मीडिया तो खुद छानबीन करता नहीं, वो तो पहले से निकाली गई चीजों और तथ्यों को किसी न किसी तरीके से सामने लाने का काम करता है। लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका ‘Watch Dog’ की तरह मानी गई है और टेलीविजन समाचार चैनल तो आज के दौर में इस भूमिका को बिलकुल सही तरीके से निभाते दिख रहे हैं, क्योंकि कैमरे से समाज की कोई बात छिपती नहीं और सच हर रोज सामने दिखता है। लिहाजा समाज में क्या चल रहा है वो सब दिखाना तो टेलीविजन समाचार चैनलों की जिम्मेदारी है। पब्लिक के विचारों और उनकी आवाज को सामने लाना भी इसका हिस्सा है, जो कई खबरों के मामलों में इतना तेज होकर उभरता है कि उससे प्रभावित होने वाले कई पक्षों को उसके विपरीत असर का भय सताने लगता है औऱ मुझे लगता है कि यही स्थिति ‘मीडिया ट्रायल’ का एक ऐसा आवरण खड़ा करती है, जिसका हव्वा खड़ा करके मुद्दे की ज्यादा चर्चा को रोका जा सके।
बहरहाल लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर क्षेत्र के रेगुलेशन, उसके कामकाज के तौर-तरीके और उसे कानूनी दायरे में रखने की प्रक्रिया है, चाहे वो कार्यपालिका हो, विधायिका हो, न्यायपालिका या मीडिया ही क्यों न हो। ऐसे में अगर ‘मीडिया ट्रायल’ जैसा कोई संकट व्यवस्था को लगता है, तो उस पर नियंत्रण, उसकी दिशा तय करने के लिए उपाय किए जा सकते हैं, उस पर भी बहस हो सकती है और अदालत या अदालत से बाहर ये बातें हो सकती हैं और होती भी हैं कि किस तरह की खबर को दिखाने और उस पर चर्चा का क्या तरीका होना चाहिए। कभी सरकार और सूचना और प्रसारण मंत्रालय, तो कभी खुद समाचार चैनलों के प्रसारकों की संस्थाएं IBF, NBSA, BEA तो कभी खुद अदालतों की ओर से ऐसे मुद्दों पर चर्चा होती रहती है। भारतीय़ विधि आयोग ने अगस्त 2006 में अपनी 200वीं रिपोर्ट में ‘मीडिया ट्रायल’ के मुद्दे पर चर्चा करते हुए पत्रकारों को खास ट्रेनिंग दिए जाने की जरूरत भी जताई थी-
“We have also recommended that journalists need to be trained in certain aspects of law relating to freedom of speech in Art. 9(1)(a) and the restrictions which are permissible under Art. 19(2) of the Constitution, human rights, law of defamation and contempt. We have also suggested that these subjects be included in the syllabus for journalism and special diploma or degree courses on journalism and law be started.”[4]
ये बात सही है कि टेलीविजन पत्रकारों को अपराध और ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग के लिए सही तरीके से प्रशिक्षित करने की जरूरत है और और उन्हें इससे जुड़े कानूनी पहलुओं की जानकारी होनी चाहिए। संयमित रिपोर्टिंग और संयमित प्रसारण के लिए हरेक समाचार चैनल को अपने अंदरूनी नियम कायदे तय करने होंगे या फिर प्रसारक संस्थाओं से जुड़े संगठनों की ओर से इस सिलसिले में की गई पहल को कड़ाई से लागू करना होगा। लेकिन जहां तक खबरों को लंबे समय तक जिंदा रखने, उन पर पब्लिक की प्रतिक्रिया जाहिर करने जैसे मुद्दों की बात है, वहां रिपोर्टिंग को ‘मीडिया ट्रायल’ के दायरे में समेटना सही नहीं लगता। 20वीं सदी में चलन में आया ये जुमला अब काफी विस्तार ले चुका है और आम तौर पर किसी भी खबर के प्रसारण का असर दिखाने के रूप में इसे समझा जा रहा है, लेकिन इससे कोई अदालती फैसला प्रभावित हो, ऐसा नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे खुद न्यायिक प्रक्रिया पर सवाल खड़े होने लगते हैं। ऐक बात और है, वो ये कि हमारा समाज भी परिपक्व हो रहा है और टेलीविजन समाचार प्रसारण के अलावा मीडिया भी विस्तार ले रहा है। अब खबरों की ज्यादा चर्चा टेलीविजन के मुकाबले सोशल मीडिय़ा, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर हो रही है, और वहां पब्लिक ओपिनियन बनाने या उसे जोड़ने का काम ज्यादा आसानी से हो रहा है। ऐसे में टेलीविजन समाचार चैनलों पर मीडिया ट्रायल का दोष मढ़नेवालों को ये सोचना चाहिए कि आखिर कहां-कहां वो लोगों को खबरों से जुड़ने से रोक सकेंगे, कहां-कहां अभिव्यक्ति पर रोक लगेगी और कहां कहां इंसाफ के लिए सुनवाई नहीं होगी?
“With the coming into being of the television and cable-channels, the amount of publicity which any crime or suspect or accused gets in the media has reached alarming proportions. Innocents may be condemned for no reason or those who are guilty may not get a fair trial or may get a higher sentence after trial than they deserved. There appears to be very little restraint in the media in so far as the administration of criminal justice is concerned. We are aware that in a democratic country like ours, freedom of expression is an important right but such aright is not absolute in as much as the Constitution itself, while it grants the freedom under Article 19(1)(a), permitted the legislature to impose reasonable restriction on the right, in the interests of various matters, one of which is the fair administration of justice as protected by the Contempt of Courts Act, 1971. …..If media exercises an unrestricted or rather unregulated freedom in publishing information about a criminal case and prejudices the mind of the public and those who are to adjudicate on the guilt of the accused and if it projects a suspect or an accused as if he has already been adjudged guilty well before the trial in court, there can be serious prejudice to the accused. In fact, even if ultimately the person is acquitted after the due process in courts, such an acquittal may not help the accused to rebuild his lost image in society. If excessive publicity in the media about a suspect or an accused before trial prejudices a fair trial or results in characterizing him as a person who had indeed committed the crime, it amounts to undue interference with the “administration of justice”, calling for proceedings for contempt of court against the media. Other issues about the privacy rights of individuals or defendants may also arise. “[1]
विधि आयोग की रिपोर्ट में जाहिर चिंताएं जायज हैं, लेकिन एक बात तो तय है कि अदालत का फैसला सर्वोपरि होता है, आप भले ही उससे असहमत हों, आपको ऊपरी अदालत में अपील का हक है, लेकिन बोलने की आजादी का ये मतलब नहीं कि आप अदालत की अवमानना करें। अदालत की अवमानना अक्सर तब मानी जाती है, जब किसी घटना की खबर को स्कैंडल के तौर पर दिखाया जाए, या फिर उसकी सुनवाई और इंसाफ की प्रक्रिया में बाधा पैदा की जाए या फिर किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त कवरेज बार-बार हो। मामले की किस तरह की कवरेज हो रही है और होनी चाहिए, ये तो कानूनी धाराओं के तहत तय करना अदालत का ही काम है। लेकिन जहां तक समाचार चैनलों की बात है, तो वो तो यही कहेंगे कि वो खबर दिखा रहे हैं और अदालत की अवमानना नहीं कर रहे। वास्तव में मामला जटिल है और बड़ा कठिन है ये तय करना कि कहां अदालत की अवमानना हो रही है और कहां नहीं हो रही है- सवाल तो ऐसे फैसलों पर भी उठ सकते हैं। ऐसे तमाम मामले सामने आए हैं, जब टेलीविजन पर अदालत का फैसला आने से पहले ही मामले की अति-करवेज और आरोपियों को दोषी करार देने की कोशिश के आरोप लगे हैं। ये भी आरोप लगे हैं कि कवरेज के जरिए मीडिय़ा अदालती सुनवाई को प्रभावित करता है। लेकिन ये आरोप सिर्फ आरोप ही है, क्योंकि व्यावहारिक तौर पर आधुनिक समाज में ये संभव नहीं लगता है कि कोई संगठन या प्रसारण अदालती कार्रवाई पर दबाव बनाए या उसे प्रभावित करे। ये बात और है कि मीडिया में किसी मुद्दे की चर्चा होती है तो आम जनता और समाज के तमाम पक्ष किसी मुद्दे पर क्या सोचते हैं, ये बात सामने आती है, लेकिन इसका मामले की जांच और अदालतों के फैसले पर कोई दबाव पड़े, ये जरूरी नहीं और पड़ना भी नहीं चाहिए। लेकिन मीडिया पर मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने और तथ्यों से परे जाकर रिपोर्टिंग करने के आरोप लगते हैं और ये भी कहा जाता है कि इससे अभियोजन और न्याय प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है। विधि आयोग ने अपनी 2006 की रिपोर्ट में जो कुछ तर्क दिए थे, वो काफी मजबूत हैं, लेकिन साथ ही पुलिस, अभियोजन और प्रशासनिक प्रक्रिया पर भी सवाल खड़े करते हैं।
“The pressure on the police from media day by day builds up and reaches a stage where police feel compelled to say something or the other in public to protect their reputation. Sometimes when, under such pressure, police come forward with a story that they have nabbed a suspect and that he has confessed, the ‘Breaking News’ items start and few in the media appear to know that under the law, confession to police is not admissible in a criminal trial. Once the confession is published by both the police and the media, the suspect’s future is finished. When he retracts from the confession before the Magistrate, the public imagine that the person is a liar. The whole procedure of due process is thus getting distorted and confused. The media also creates other problems for witnesses. If the identity of witnesses is published, there is danger of the witnesses coming under pressure both from the accused or his associates as well as from the police. At the earliest stage, the witnesses want to retract and get out of the muddle.”[2]
मीडिया की कवरेज में खामियां हो सकती हैं, ये बात समझ में आती है, लेकिन, क्या पुलिस को उससे प्रभावित होना चाहिए, क्य़ा अदालतों पर उसका कोई असर पड़ना चाहिए? लोगों की सुरक्षा के लिए तैनात पुलिस और इंसाफ दिलाने के लिए बने न्याय के मंदिर क्या किसी ऐसे शख्स की छवि फिर से समाज में बना पाने में नाकाम रहेंगे, जिसका चरित्र हनन कथित तौर पर मीडिया ने किया हो? सरकार और प्रशासन और न्याय व्यवस्था यदि दोषी को सजा देने के लिए बने हैं, तो पीड़ित को उसका खोई हुई प्रतिष्ठा दिलाने में भी उनकी भूमिका होनी चाहिए। दरअसल आज के दौर में स्थिति बदलती नजर आ रही है और आम आदमी को मदद के लिए मीडिया का मुंह देखना पड रहा है, जिससे न तो पुलिस खुश रहती है, ना ही प्रशासन क्योंकि टेलीविजन में खबर आने पर उनकी नाकामियां ही उजागर होती हैं, तारीफ नहीं मिलती। इस मामले पर मशहूर टीवी पत्रकार आशुतोष ने अपने ब्लॉग में कुछ गलत नहीं लिखा है कि-
“मीडिया के कूदने के पहले आम नागरिक मुंह की खा चुका था। मीडिया ने उसे ताकत दी है। आम आदमी को एहसास हुआ कि अगर कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में उसकी गुहार नहीं सुनी जाती है, तब वह मीडिया के पास जा सकता है और इंसाफ पा सकता है। अब आम आदमी को इंसाफ कैसे मिलेगा? मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं कि मीडिया की ताकत से घबराकर ताकतवर तबकों ने मीडिया के खिलाफ मुहिम चला रखी है। आरोप यह है कि मीडिया ट्रायल अदालतों की कार्यवाही को प्रभावित कर रही है और इससे जजों पर दबाव पड़ता है। मेरा कहना है कि यह आरोप ही जजों की प्रतिबद्धता और उनकी गरिमा पर चोट करने वाला है, लेकिन क्या यह नहीं होना चाहिए कि इंसाफ के लिए किसी भी मामले की सुनवाई के समय एक ही मेधा और क्षमता के वकील हों?”[3]
ये कहना कतई सही नहीं होगा कि किसी मामले से जुड़ी खबरें दिखाने पर उस मामले से जुड़ी शख्सियतों की जरूरत से ज्यादा चर्चा होती है और उसका चरित्र हनन होता है, या उसे दोषी के रूप में पेश किया जाता है या फिर खबरों में होने की वजह से उसके मामले की सुनवाई पर असर पड़ता है, जिससे उसके मानवाधिकारों का हनन होता है। लोकतंत्र में न्यायपालिका इंसाफ करने और फैसले देने के लिए स्वतंत्र है। लिहाजा उस पर विधायिका या मीडिया के किसी दबाव या किसी तरह के असर की तो बात ही बेमानी है।
आज के दौर में ये कहना भी गलत होगा कि टेलीविजन या मीडिया ने खुद को ‘जनता की अदालत’ के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की है, क्योंकि व्यावहारिक तौर पर इसका कोई मतलब नहीं, क्योंकि इसकी कोई वैधानिकता है ही नहीं, ना ही किसी को टेलीविजन प्रसारण से डरने की जरूरत होती है, लिहाजा ये नक्सलियों, माओवादियों या खाप-पंचायतों की ‘कंगारू अदालत’ भी तो नहीं है। तो सवाल है कि ‘मीडिय़ा ट्रायल’ का जुमला क्यों बार-बार इस्तेमाल होता है , खबरों को जोर-शोर से दिखाए जाने पर किसी एक पक्ष को डर क्यों लगता है? यहां ये तो जरूर मानना होगा कि टेलीविजन के जरिए जब कोई मामला खबर के रूप में चर्चा में आता है, तो उस पर न्यूटन के गति के तीसरे नियम के समान ‘प्रत्येक क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है’। यानी खबर सनसनीखेज है, तो समाज के लोग, या कोई वर्ग सक्रिय होता है, हल्ला-हंगामा होता है, आरोपियों पर कुछ कार्रवाई होती है, वो कानून के शिकंजे में आ जाते हैं। टेलीविजन पर जिन मामलों की खबरें नहीं आती हैं, उन्हें दबाने और रफा-दफा करने की कोशिश भी होती है- ऐसा अक्सर देखने को मिलता है क्योंकि जब तक किसी विपरीत प्रतिक्रिया का डर नहीं होता, तब तक पुलिस प्रशासन अपनी मनमानी पर चलता है। दिल्ली में वसंत विहार रेप केस के बाद हुए प्रदर्शनों के दौरान संसद मार्ग थाने में एक प्रदर्शनकारी लड़की से SHO की बदसलूकी और फिर गांधीनगर रेप केस के बाद थाने में एक प्रदर्शनकारी लड़की को ACP के थप्पड़ मारने के मामलों को लें, तो खबर दिखाए जाने और बार-बार दिखाए जाने पर आरोपियों के खिलाफ कुछ तो कार्रवाई हुई। अगर ये खबरें मीडिया में न आतीं, तो शायद पुलिस और निरंकुश बर्ताव करने पर आमादा हो जाती। टेलिविजन समाचारों में जो कुछ दिखाया जाता है उसकी पुष्टि कुछ मामलों को छोड़ दें, तो हमेशा तस्वीरों, वीडियो और साउंड बाइट्स से होती है, लिहाजा, सच हमेशा पब्लिक के सामने पर्दे पर होता है और ये गुंजाइश नहीं होती कि किसी को गलत तरीके से दोषी ठहराया जा रहा है। ऐसे में लंबी सुनवाई के बाद दोषी को दोषी ठहराने की प्रक्रिया की तो कोई जरूरत ही नहीं रह जाती, जब जो कुछ घटित हुआ उसमें किसका दोष है, ये सामने दिख रहा हो। हां, ऐसे मामलों में जहां अपराध साबित करने की प्रक्रिया जटिल हो, वहां जरूर किसी पर लगे आरोपों के बारे में खबर दिखाने पर सवाल उठाए जा सकते हैं, लेकिन ये तो परम सत्य है कि चिंगारी के बगैर आग नहीं लगती, तो अगर किसी शख्स का नाम किसी मामले में सामने आ रहा है तो वो कितना पाक-साफ है, ये साबित होने का इंतजार करना ही पड़ेगा और उस प्रक्रिया के पूरा होने तक आरोपी को इल्जामात के वार झेलने ही पड़ेंगे। ऐसे मामले भी सामने आते हैं जब किसी को गलत तरीके से फंसाया गया और उसे अंत तक इंसाफ नहीं मिला, तो उसे क्यों इंसाफ नहीं मिला और कानून की तराजू पर वो क्यों दोषी साबित किया गया, इसके पीछे तो खामियां कानूनी और जांच के स्तर पर हो सकती हैं, उसके मुद्दे को उठाने में टेलीविजन समाचार चैनलों की क्या गलती?
सवाल तो मीडिया या टेलीविजन समाचार चैनलों की ओऱ से खबरों की पड़ताल पर भी उठते हैं। ये सच है कि कोई टेलीविजन पत्रकार किसी डिटेक्टिव की तरह मौके पर जाकर छानबीन और पड़ताल तो करता नहीं, ज्यादा से ज्यादा मौका ए वारदात के चश्मदीदों की बाइट जुटा लेता है या फिर पुलिस और जांच एजेंसियों के अपने सूत्रों से कुछ ऐसे दस्तावेज जुटा लेता है जिससे खबर पर कुछ और रोशनी पड़ती है और किसी पक्ष के खिलाफ या किसी के हक में सबूत सामने आने लगते हैं। ऐसे में ये सवाल उठाना कि मीडिया की ओर से मामले की पड़ताल क्यों होती है, मेरी समझ से बिल्कुल गलत है क्योंकि वास्तव में आजकल मीडिया तो खुद छानबीन करता नहीं, वो तो पहले से निकाली गई चीजों और तथ्यों को किसी न किसी तरीके से सामने लाने का काम करता है। लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका ‘Watch Dog’ की तरह मानी गई है और टेलीविजन समाचार चैनल तो आज के दौर में इस भूमिका को बिलकुल सही तरीके से निभाते दिख रहे हैं, क्योंकि कैमरे से समाज की कोई बात छिपती नहीं और सच हर रोज सामने दिखता है। लिहाजा समाज में क्या चल रहा है वो सब दिखाना तो टेलीविजन समाचार चैनलों की जिम्मेदारी है। पब्लिक के विचारों और उनकी आवाज को सामने लाना भी इसका हिस्सा है, जो कई खबरों के मामलों में इतना तेज होकर उभरता है कि उससे प्रभावित होने वाले कई पक्षों को उसके विपरीत असर का भय सताने लगता है औऱ मुझे लगता है कि यही स्थिति ‘मीडिया ट्रायल’ का एक ऐसा आवरण खड़ा करती है, जिसका हव्वा खड़ा करके मुद्दे की ज्यादा चर्चा को रोका जा सके।
बहरहाल लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर क्षेत्र के रेगुलेशन, उसके कामकाज के तौर-तरीके और उसे कानूनी दायरे में रखने की प्रक्रिया है, चाहे वो कार्यपालिका हो, विधायिका हो, न्यायपालिका या मीडिया ही क्यों न हो। ऐसे में अगर ‘मीडिया ट्रायल’ जैसा कोई संकट व्यवस्था को लगता है, तो उस पर नियंत्रण, उसकी दिशा तय करने के लिए उपाय किए जा सकते हैं, उस पर भी बहस हो सकती है और अदालत या अदालत से बाहर ये बातें हो सकती हैं और होती भी हैं कि किस तरह की खबर को दिखाने और उस पर चर्चा का क्या तरीका होना चाहिए। कभी सरकार और सूचना और प्रसारण मंत्रालय, तो कभी खुद समाचार चैनलों के प्रसारकों की संस्थाएं IBF, NBSA, BEA तो कभी खुद अदालतों की ओर से ऐसे मुद्दों पर चर्चा होती रहती है। भारतीय़ विधि आयोग ने अगस्त 2006 में अपनी 200वीं रिपोर्ट में ‘मीडिया ट्रायल’ के मुद्दे पर चर्चा करते हुए पत्रकारों को खास ट्रेनिंग दिए जाने की जरूरत भी जताई थी-
“We have also recommended that journalists need to be trained in certain aspects of law relating to freedom of speech in Art. 9(1)(a) and the restrictions which are permissible under Art. 19(2) of the Constitution, human rights, law of defamation and contempt. We have also suggested that these subjects be included in the syllabus for journalism and special diploma or degree courses on journalism and law be started.”[4]
ये बात सही है कि टेलीविजन पत्रकारों को अपराध और ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग के लिए सही तरीके से प्रशिक्षित करने की जरूरत है और और उन्हें इससे जुड़े कानूनी पहलुओं की जानकारी होनी चाहिए। संयमित रिपोर्टिंग और संयमित प्रसारण के लिए हरेक समाचार चैनल को अपने अंदरूनी नियम कायदे तय करने होंगे या फिर प्रसारक संस्थाओं से जुड़े संगठनों की ओर से इस सिलसिले में की गई पहल को कड़ाई से लागू करना होगा। लेकिन जहां तक खबरों को लंबे समय तक जिंदा रखने, उन पर पब्लिक की प्रतिक्रिया जाहिर करने जैसे मुद्दों की बात है, वहां रिपोर्टिंग को ‘मीडिया ट्रायल’ के दायरे में समेटना सही नहीं लगता। 20वीं सदी में चलन में आया ये जुमला अब काफी विस्तार ले चुका है और आम तौर पर किसी भी खबर के प्रसारण का असर दिखाने के रूप में इसे समझा जा रहा है, लेकिन इससे कोई अदालती फैसला प्रभावित हो, ऐसा नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे खुद न्यायिक प्रक्रिया पर सवाल खड़े होने लगते हैं। ऐक बात और है, वो ये कि हमारा समाज भी परिपक्व हो रहा है और टेलीविजन समाचार प्रसारण के अलावा मीडिया भी विस्तार ले रहा है। अब खबरों की ज्यादा चर्चा टेलीविजन के मुकाबले सोशल मीडिय़ा, सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर हो रही है, और वहां पब्लिक ओपिनियन बनाने या उसे जोड़ने का काम ज्यादा आसानी से हो रहा है। ऐसे में टेलीविजन समाचार चैनलों पर मीडिया ट्रायल का दोष मढ़नेवालों को ये सोचना चाहिए कि आखिर कहां-कहां वो लोगों को खबरों से जुड़ने से रोक सकेंगे, कहां-कहां अभिव्यक्ति पर रोक लगेगी और कहां कहां इंसाफ के लिए सुनवाई नहीं होगी?
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