Friday, 31 October 2014

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और आतंकवाद / राम पुनियानी

आतंकवाद को एक भयावह घटना के साक्ष्य के रूप में देखा गया है। और खासकर आज के मौजूदा समय में। आतंकवाद क्या है, यह अपने आप में ही एक स्तर पर विवाद का विषय है और दूसरे स्तर पर आतंकवाद की परिभाषा व्यक्ति दर व्यक्ति, समूह दर समूह और देश दर देश बदलती रहती है।
कहा नहीं जा सकता कि आखिर अमेरिका स्थित आतंकवाद अनुसंधान केंद्र ने, जो कि इस विषय पर अमेरिकी थिंक टैंक (विचार-विश्लेषण समूह) है, इस मुद्दे को किस तरह से कसौटी पर कसा, लेकिन उसने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, जो कि भाजपा, विहिप, बजरंग दल आदि हिंदू संगठनों का पिता है, पर आतंकवादी संगठन का ठप्पा लगा दिया है।
संघ को विश्व के अन्य हिस्सों में बदनाम संगठनों जैसे अल कायदा, लश्कर-ए-तय्यबा, हमास आदि की श्रेणी में रखा गया है संघ की आतंकवादियों के बारे में परिभाषा और समझ को ...... नरेंद्र मोदी ने इस प्रकार व्याख्यायित किया : ‘‘सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, किंतु सारे आतंकवादी मुसलमान है।’’ ऐसा कैसे हुआ कि मुसलमानों के खिलाफ आग उगलने वाले संगठन पर खुद ऐसा ठप्पा लग गया।
ऐसा लगता है कि आतंकवाद से संबंधित प्रचलित विभिन्न परिभाषाओं में से उस एक को इस केंद्र ने आधार बनाया है, जो कि राजनीतिक लक्ष्य प्राप्ति के लिए मासूम लोगों की जान लेता है। यह कहना जरूरी नहीं है कि इस परिभाषा में सामान्यतः सरकारें शामिल नहीं हैं। पिछले दिनों कुछ देशों को आतंकवादी कहा गया है और भारतीय जनता पार्टी अमेरिका से आग्रह करती रही है कि पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित किया जाए। कुछ देशों को अमेरिका ने खुद आतंकवादी देशों की सूची में डाला हुआ है। हम राज्य की हिंसा और उसके लक्ष्यों की यहां चर्चा नहीं करेंगे, जो कि काफी जटिल मामला है। हम आतंकवाद को परिभाषित करने वालों के पक्षपात पर भी बात नहीं करेंगे। सीमित रूप में हम ‘राजनीतिक लक्ष्यों के लिए मासूम लोगों की हत्या करने’ की परिभाषा पर बात करेंगे। हम यह देखने की कोशिश करेंगे कि अमेरिका स्थित इस केंद्र का मूल्यांकन सही है या नहीं।
यहां यह समझना आवश्यक है कि आतंकवाद लक्ष्य-विशेष वाले समूहों की विचारधारा से पैदा होता है। यह समझना और भी अहम है कि वे सभी, जो उस विचारधारा और लक्ष्य को निर्मित करते हैं, जो कि हिंसा की ओर ले जाती है, आतंकवादी है या वे ही असली आतंकवादी हैं। और यदि दोष का बंटवारा किया जाए तो जो तलवार, गोलियां या ए-के-47 का इस्तेमाल करते हैं या जो डब्लू.टी.सी पर विमान जा टकराते हैं या इसी तरह की अन्य कार्यवाई करते हैं, उन्हें ज़्यादा ज़िम्मेदार माना जाना चाहिए। निश्चय ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक कभी किसी को मारने के लिए व्यक्तिगत तौर पर हथियार नहीं उठायेंगे। यहां तक कि संघ की शाखाओं में प्रशिक्षण मात्र लाठी व डंडा चलाने के लिए दिया जाता है। हां, समय से ताल मिलाते हुए संघ की संतानों, बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी ने बंदूकों का प्रशिक्षण तथा विहिप ने त्रिशूल रूपी छुरों का हजारों की संख्या में वितरण करना शुरू कर दिया है, लेकिन संघ की शाखाओं में इस पर सख्त मनाही है। लाठी चलाने के अलावा प्रशिक्षण का दूसरा हिस्सा बौद्धिक है। यह प्रशिक्षण अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहर उगलने, धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ नफरत फैलाने पर आधारित है। वह यहां तक कहता है कि हिंदुओं के इस देश में, अन्य यानी मुसलमान और ईसाई विदेशी हैं। इसके अलावा कम्युनिस्ट, मुसलमान और ईसाई हिंदू राष्ट्र के लिए आंतरिक खतरा हैं।
नफरत का जहर हर समुदाय के लिए बना-बनाया है। मुसलमानों की तुलना यवन सर्पों से की गयी है। प्रोफेसर बिपन चंद्रा, शाखा में प्रशिक्षण में क्या होता है, इसको सुनने का अपना अनुभव बताते हैं। रोज सुबह टहलते हुए उन्होंने शाखा में जाने वाले लड़कों को यह बतलाया जाते हुए सुना है कि मुसलमान सांप की तरह होते हैं। सपोले को मारना, सांप को मारने से आसान होता है। इस बौद्धिक अभ्यास का संदेश बिल्कुल साफ है। नफरत की यह प्रेरणा और पद्धति नाजी जर्मनी से लिए गए है।
संघ के सिद्धांतकार गोलवालकर ने इसको कुछ इस तरह से व्याख्यायित किया हैः ‘‘जर्मनों का नस्लीय गौरव आज जीवंत विषय बन गया है। देश की शुद्धता और संस्कृति को बचाए रखने के लिए जर्मनी ने सेमेटिक नस्लों-यहूदियों का, देश से सफाया कर दुनिया को स्तब्ध कर दिया है। यह राष्ट्र गौरव का चरम है। जर्मनी ने यह भी दिखला दिया है कि आधारभूत तरीके से भिन्न नस्लों का समिश्रण होकर एक होना असंभव है। हम हिंदुस्तानियों के लिए यह एक अच्छा पाठ है, जिसे हमें सीखना चाहिए और उसका फायदा उठाना चाहिए।’’
(एम.एस.गोलवलकर, वी एंड अवर नेशनहुड डिफांइड, नागपुर 1938, पृष्ठ-27)
कभी आश्चर्य होता है कि क्या वास्तव में आर.एस.एस इस पर विश्वास करता होगा। पर स्तब्ध करने वाली बात यह है कि संघ के एक वरिष्ठ सिद्धांतकार ने एक बातचीत के दौरान कहा कि अगर गांधी जैसा कद्दावर व्यक्ति ‘मुस्लिम समस्या’ को हल नहीं कर पाया तो आज के छुटभैये छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों से क्या होने वाला है! उसके अनुसार (और प्रत्यक्षतः संघ के अनुसार) इस समस्या का एक ही हल है, जो ‘अंतिम समाधान’ के रूप में जाना जाता है।  यह नफरत की विचारधारा है, जो बाल प्रशिक्षुओं के दिमाग में कूट-कूट कर डाल दी जाती है, और यही वह आधार है जिस पर सांप्रदायिक हिंसा की नींव पड़ती है। आर.एस.एस. की विचारधारा सबसे पहले जिस रूप में साकार हुई, वह थी गोडसे द्वारा गांधी की हत्या। जाहिर है कि संघ ने कभी भी इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया कि गोडसे आर.एस.एस प्रशिक्षित था और हिंदू महासभा में शामिल होने से पहले संघ का प्रचारक था। उसके भाई गोपाल गोडसे ने अपने अलग-अलग साक्षात्कारों में बार-बार कहा है कि उसने और नाथूराम ने संघ कभी नहीं छोड़ा था।
सांप्रदायिक हिंसा पर जांच आयोगों की अधिकतर रिपोर्टों (जस्टिस रेड्डी, वितयातिल, वेणुगोपाल, मदान आदि) में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आयी है कि हर हिंसक वारदात में किसी ऐसे संगठन की भूमिका रही है जो या तो संघ से संबंधित था या फिर  किसी प्रचारक द्वारा चलाया जा रहा था। रणनीति एकदम साफ है। संघ स्वयं सेवकों को प्रशिक्षित करता है जो उसके काम को किसी अन्य संगठन से जुड़कर या कोई अलग संगठन बनाकर आगे बढ़ाते रहते  हैं। इस रणनीति का फायदा यह है कि दंगों का दोष सीधा संघ पर नहीं लग सकता।
यह बात याद करने लायक है कि 1937 के चुनाव में धर्म का वास्ता देकर भी चुनाव न जीत पाने के बाद मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा ने, दूसरे-से-नफरत-करो की अपनी मुहिम तेज कर दी थी। नफरत के ये जहरीले बीज इस दौरान सक्रिय रहे और इनमें 1980 के बाद फल लगने लगे। यह दूसरे-से-नफरत-करो की विचारधारा अलग-अलग कनवेयर बैल्टों से गुजरती है और इसका आखिरी पड़ाव वहां पड़ता है जहां भोले-भाले गरीब समुदाय नफरत की विचारधारा के नशे में धुत, जो कि इच्छित परिणाम के लिए धर्म की भाषा में लपेट कर पिलाई जाती है, हथियार उठा लेते हैं।
हर आतंकवादी संगठन का अपना ही एक एजेंडा होता है अल कायदा को सी.आई.ए. द्वारा वाया पाकिस्तान प्रशिक्षित किया गया ताकि वह अफगानिस्तान पर समाजवादी रूस के कब्जे को उखाड़ सके। तमिलों पर सिंहलियों के प्रभुत्व की प्रतिक्रिया लिट्टे के रूप में हमारे सामने है। खालिस्तान सिख समुदाय की आर्थिक और सांस्कृतिक आधार पर गहरी असंतुष्टि की प्रतिक्रिया था। उल्फा भी जातीय समस्या को असंवेदनशील तरीके से हल करने की अभिव्यक्ति है। संघ और लीग, विभाजन के पहले, सामंतवादी तत्वों के भय की अभिव्यक्ति थे। क्योंकि उन्हें लगता था कि आधुनिक शिक्षा, औद्योगिकरण, आजादी, समानता तथा भाईचारे के मूल्य, संघर्षरत जनता की मुख्य विचारधारा बनते जा रहे हैं, उनके मूल्य और मान्यताओं के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। दूसरे, मध्यवर्ग का यही डर, अस्तित्व को लेकर चिंता, संघ की राजनीति में एक निश्चित रूप ले चुकी है। और दलितों और महिलाओं का सामने आना स्वयं के लिए सामाजिक और लैंगिक न्याय की मांग करना है। गूढ़ सामाजिक एजेंडा कुछ  भी हो, संघ के काम के तौर तरीके और प्रणाली, विहिप, बजरंग दल और दुर्गा वाहिनी जैसों को बढ़ावा देते हैं। संभवतः संघ की कार्यप्रणाली के गतिविज्ञान की इसी गहरी समझ के चलते इस अनुसंधान केंद्र ने उसे आतंकवादी संगठन बतलाया हो।
आर.एस.एस का प्रशिक्षण दुतरफा होता है। एक है शारीरिक, खेल वगैरह। दूसरा है बौद्धिक। यह जो दूसरा प्रशिक्षण है वह अपनी संतानों को प्रेरित करता है कि वे लोगों को हथियार उठाने को भड़काएं और ‘दूसरों’ यानी ‘दुश्मन’ को बेदर्दी से कत्ल करें। किसी भी हिंसा या दंगे की चीरफाड़ बहुत ही दिलचस्प और जटिल होती है। कैसे एक आम दलित, आदिवासी, खाली पेट और अनिश्चित भविष्य वाला मजदूर आर.एस.एस  के एजेंडे के सिपाही के रूप में परिवर्तित हो जाता है, यह ऐसा पेच है जिसे समाज-विज्ञानियों को समझना होगा। हो सकता है कि आर.एस.एस प्रचारक जब बैठकर धैर्यपूवर्क ‘हिंदू मूल्यों’, ‘हिंदू राष्ट’ª पर चर्चा कर रहा हो, तो आर.एस.एस विचारधारा जनसंख्या के एक हिस्से को मासूमों को मारने के लिए और हिंसा का तांडव मचाने के लिए अपनी गिरफ्त में ले रही हो। इससे संघ हिंदुओं के एक हिस्से को आर.एस.एस के साथ करने का राजनीतिक लक्ष्य तो प्राप्त होता ही है। यह उनकी सत्ता में वापसी या उसकी अपनी ताकत को और मजबूत करता है। जिस परिभाषा से हमने शुरू किया था वह थी सत्ता या राजनीतिक एजेंडा के लिए मासूमों की हत्या करना आतंकवाद है और आर.एस.एस का काम ठीक यही है।
कभी-कभार ऊपरी तौर पर उलझन पैदा कर सकता है कि जैसे ओसामा या विश्व के विभिन्न हिस्सों में एके-47 चलाने वाले आतंकवादियों के विपरीत आर.एस.एस के स्वयं सेवक चुप्पी की मूर्ति नजर आते हैं। और आर.एस.एस के अभियान का यह सबसे ज्यादा चातुर्य से भरा तथा धूर्ततापूर्ण हिस्सा है। स्वयं बिना हथियार उठाए अल्पसंख्यकों को पिटवाना तथा मरवाना और अपने लक्ष्य को पाना। हिंसा सामाजिक और मनोवैज्ञानिक चालबाजी के जरिए दूसरे लोगों के जिम्मे छोड़ दी जाती है। यूं समझिए कि एके-47 निशाना चूक सकता है किंतु आर.एस.एस द्वारा प्रचारित नफरत की विचारधारा द्वारा सक्रिय और जहर भरे गए दिमाग  कभी न कभी, कहीं न कहीं, हिंसक बनकर निकलेंगे ही, सवाल मात्रा समय का है। इस संगठन ने आतंकवादी लक्ष्यों के लिए बड़ी चालाकी से संस्कृति का एक झूठा लबादा धारण कर रखा है। यह आतंकवादी संगठन एक पत्थर से कई शिकार करता है, ये चिड़ियाएं हैं समाज के कमजोर वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय। यह ज़ाहिर है कि इस अनुसंधान केंद्र की सूची से आर.एस.एस के नाम को हटाए जाने के लिए काफी हो-हल्ला मचाया जाएगा पर भारत के अल्पसंख्यकों के बड़े हिस्से और समाज के कमजोर वर्गों के लिए आर.एस.एस की संस्कृति आतंकवाद ही है।
(‘समयांतर’से साभार)

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