(रायपुर में कंजरवेशन कोर फिल्म फेस्टिवल में सुदीप ठाकुर का व्याख्यान)
जंगलों को निवेश का जरिया बनाने में मीडिया की भी बड़ा भूमिका है. कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो मीडिया को भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से निवेश का फैसलिटेटर बना दिया गया है. इसकी सबसे बड़ी वजह है मीडिया समूहों में आने वाली पूंजी. पता ही नहीं चलता है कि यह कहां कहां से और कैसे आ रही है. न जाने कितने औद्योगिक समूहों के हित मीडिया से जुड़ गए हैं. नतीजतन मीडिया में जंगल की जमीन सिमटती जा रही है.
देश का कोई सर्वाधिक उपेक्षित और वंचित तबका है, तो वह आदिवासी हैं. मैं न तो यह कोई नई बात कह रहा हूं और न ही कोई रहस्योद्घाटन कर रहा हूं. यह सवाल भी न जाने कितनी बार दोहराया जा चुका है कि आखिर ऐसा क्यों है कि जिस तबके ने प्राकृतिक संसाधनों के साथ साहचर्य स्थापित किया था, उसे उनके जंगलों से ही बेदखल किया जा रहा है?
जंगल में आदिवासी : विकास की हमारी अवधारणा में हम उसे बराबरी का दर्जा क्यों नहीं देना चाहते? या फिर ऐसा क्यों हुआ है कि जितनी भी बड़ी परियोजनाएं हैं फिर वह बांध हो, बिजली संयंत्र, लोहे या कोयले की खदानें, उसका सर्वाधिक खामियाजा आदिवासियों, वनवासियों के साथ ही वन्यजीवों को भुगतना पड़ता है? ये सवाल न तो पहली बार पूछे जा रहे हैं और न आखिरी बार.
हर तीसरा छत्तीसगढ़िया : असल में यह मुद्दा इस बात से जुड़ा है कि आखिर जंगलों और आदिवासियों के साथ हमारा बर्ताव किस तरह का है. हम छत्तीसगढ़ के उदाहरणों से ही समझ सकते हैं. यहां 44 फीसदी वन क्षेत्र हैं, जिसमें से बड़ा हिस्सा रिजवर्ड और प्रोटेक्टेड फॉरेस्ट के तहत आता है. यहां लोहा, बॉक्साइट जैसे महंगे खनिज दबे हुए हैं, हीरे तक की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं. साल, सागौन, बीजा, महुआ, तेंदू जैसे पेड़ों के घने जंगल हैं. बाघ, तेंदुआ, चीतल, वनभैंसा जैसे जीव हैं और यहां की कुल आबादी का 30 फीसदी हिस्सा आदिवासी हैं. यानी हर तीन में से एक छत्तीसगढ़िया आदिवासी है!
मगर इस आदिवासी की छत्तीसगढ़ में क्या भूमिका है? नीतियां बनाने से लेकर निर्णय लेने में उसकी भूमिका कहीं दिखती नहीं है. हैरत की बात है कि जिस क्षेत्र को आदिवासी बहुल और उपेक्षित होने के कारण अलग राज्य बनाया गया, उसे अब दुनियाभर में खदानों, पावर प्लांट और इस्पात संयंत्रों और माओवादी हिंसा की वजह से जाना जाता है. माओवादियों का प्रभाव क्षेत्र बढ़ गया. मुझे ठीक-ठीक जानकारी नहीं है कि यहां पिछले 14 वर्षों में राज्य बनने के बाद कितना निवेश हो चुका है, लेकिन मेरी जानकारी में अभी 31 अगस्त 2014 से 30 सितंबर 2014 के बीच छत्तीसगढ़ से छह खदानों में 1416.4 हेक्टेयर क्षेत्र के फारेस्ट क्लियरेंस से संबंधित प्रस्ताव केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय को दिए गए हैं. इनमें बैलाडीला की खदान नंबर 13 का प्रस्ताव भी है, जहां से महज 75 किमी दूर इंद्रावती टाइगर रिजर्व है.
सरकार ने खुद माना है कि उस क्षेत्र में तेंदुआ, वनभैंसा, सांभर,भालू जैसे वन्यजीव देखे जाते हैं. सर्वोच्च अदालत तक ने टाइगर रिजर्व के आसपास खनन पर रोक लगाई है. वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के मुताबिक हर राज्य के लिए अपने हर वन्यजीव क्षेत्र में कोर और बफर जोन को अधिसूचित करना अनिवार्य है. इस अधिनियम के मुताबिक 800 से 1000 वर्ग किमी के क्षेत्र को कोर एरिया के रूप में और बाकी के क्षेत्र को बफर क्षेत्र के रूप में नोटीफाई किया जाना चाहिए.
1990 के दशक में मैंने रिपोर्टिंग के दौरान देखा था कि किस तरह केंद्र और राज्य की सरकारें बैलाडीला की 11 बी खदान एक निजी कंपनी को देने को उतावली थीं. 11 बी एशिया की सबसे उम्दा लौह अयस्क खदान है. यहां 68 फीसदी तक आयरन ओर है. तत्कालीन प्रदेश सरकार ने सिर्फ 16 करोड़ रुपये में इसकी लीज के हस्तांतरण का फैसला कर लिया था.
इस दौड़ में जो कंपनियां लगी हुई थीं उनमें तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव के बेटे की कंपनी तक शामिल थी. खैर बड़े आंदोलन और अदालती कार्रवाइयों के बाद उसका निजीकरण नहीं हो सका. बात सिर्फ निजी क्षेत्र की नहीं है, सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों ने भी खदानों का दोहन तो खूब किया है, लेकिन जंगलों और आदिवासियों को होने वाले नुक्सान की भरपाई नहीं की है. बेशक, बैलाडीला और रावघाट में सबसे उम्दा लौह अयस्क मिलता है. मगर यह किस कीमत पर और किसकी कीमत पर चाहिए?
किसका कानून : ऐसा नहीं है कि आदिवासियों के हितों को संरक्षित करने के लिए कुछ नहीं किया गया. संविधान में दर्ज पांचवी और छठी अनुसचियां, 1996 का पेसा और 2006 का वन अधिकार अधिनियम जैसे कई उपाय हैं. इसके बावजूद हालात नहीं बदले हैं. मैं दो महत्वपूर्ण कानूनों का जिक्र करना चाहूंगा. एक है 1927 का वन अधिकार कानून और दूसरा है 1894 का जमीन अधिग्रहण कानून जिन्हें बदलने में अस्सी से सौ बरस तक लग गए. अब इन दोनों कानूनों को भी बदलने की बात होने लगी है, क्योंकि इन्हें निवेश और विकास की राह में रोड़ा माना जा रहा है!
आप कहीं भी देख लीजिए विकास संबंधी जितनी भी परियोजनाएं हैं, उसके लिए आदिवासियों को ही बेदखल किया जाता है.
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कल्याण से संबंधित संसद की स्थायी समिति ने 23 अक्टूबर, 2008 को लोकसभा में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा था कि विकास के नाम पर आदिवासियों को और भुगतना न पड़े. आदिवासी मामलों से संबंधित मंत्रालय को उन जगहों का संज्ञान लेना चाहिए जहां आदिवासी विस्थापन और अपने अस्तित्व को लेकर संघर्ष कर रहे हैं.
टाइम्स ऑफ इंडिया, 15 अक्टूबर, 2012 की एक रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश के सिंगरौली क्षेत्र में कोयला खदान के विस्तार के कारण 500 सौ आदिवासियों को विस्थापित होना पड़ा है, जिनकी पहुंच वनोपज से दूर होती जा रही है. ये लोग पीढ़ियों से वहां रहते आए हैं. वहां जंगलों में बाउंड्री बना दी गई है जिससे आदिवासी वनोपज एकत्र करने नहीं जा सकते. ऐसा हर उस जगह हो रहा है, जहां नए संयंत्रों या खदानों के लिए जमीन अधिग्रहित की जा रही हैं. यानी उन जगहों पर जंगल कंपनी का हो गया है! यह नया कंपनी राज है! इस कंपनी राज के लिए किसी लाइसेंस की जरूरत नहीं है, क्योंकि लाइसेंस राज को तो खत्म कर दिया गया है. अब तो सिंगल विंडो का जमाना है. सरकारें कॉरपोरेट को खुद आमंत्रित कर रही हैं. उनके लिए लाल कालीनें बिछाई जा रही हैं.
इन्वेस्टर्स समिट की जाती हैं और उनके साथ हर वर्ष वर्ष विभिन्न राज्यों में लाखों करोड़ के एमओयू पर हस्ताक्षर किए जा रहे हैं. हैरत की बात है कि सरकारें अब खुद को इन कंपनियों का फैसलिटेटर बताने से गुरेज नहीं कर रही हैं.अब तो डिमांड, डेमोग्राफी, डिविडेंट और डेवलपमेंट की बात की जा रही है और उसे इन्वेस्टमेंट से जोड़ा जा रहा है, लेकिन कोई डिवाइड और गैप की बात नहीं कर रहा है. जंगल में यह डिवाइड बढ़ती जा रही है.
मीडिया भी फैसलिटेटर : जंगलों को निवेश का जरिया बनाने में मीडिया की भी बड़ा भूमिका है. कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो मीडिया को भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से निवेश का फैसलिटेटर बना दिया गया है. इसकी सबसे बड़ी वजह है मीडिया समूहों में आने वाली पूंजी. पता ही नहीं चलता है कि यह कहां कहां से और कैसे आ रही है. न जाने कितने औद्योगिक समूहों के हित मीडिया से जुड़ गए हैं. नतीजतन मीडिया में जंगल की जमीन सिमटती जा रही है.
सबसे ताजा उदाहरण के तौर पर हम कोयला घोटाले से संबंधित मामले को देख सकते हैं. सर्वोच्च न्यायालय के 1993 के बाद से आवंटित किए गए 218 में से चार को छोड़कर बाकी सारे कोल ब्लाकों के आवंटन को अवैध करार देकर रद्द कर दिए जाने के फैसले से औद्योगिक जगत में हड़कंप मच गया. मीडिया ने इस खबर को इस तरह परोसा मानो कोयला ब्लाकों का आवंटन रद्द होने से अर्थव्यस्था रसातल में चली जाएगी.
विकास का पहिया थम जाएगा और न जाने क्या क्या..... कई प्रतिष्ठित पत्रों ने इसे अफसोसनाक फैसला तक करार दिया. मगर क्या वाकई मामला ऐसा ही है. हकीकत यह है कि इन 218 में से सिर्फ 42 पर ही काम शुरू हो सका है. सर्वोच्च न्यायालय ने जिन ब्लाकों को छोड़ा वे आधारभूत संरचना से जुड़ी परियोजनाएं हैं. यानी 172 कोल ब्लाकों में तो काम शुरू भी नहीं हुआ है!
इनमें कैप्टिव पॉवर प्लांट भी शामिल हैं. जाहिर है, कैप्टिव प्लांट में पैदा होने वाली बिजली इस्पात और सीमेंट जैसे संयंत्रों के लिए थी. इसका आम उपभोक्ता से कोई सीधा लेना देना नहीं है.
इस फैसले के बाद मीडिया के बड़े वर्ग की चिंता इन ब्लाकों में औद्योगिक घरानों और बैंकों के फंसे कोई छह लाख करोड़ रुपयों को लेकर दिखाई देती है. इनमें कहीं भी इन कोल ब्लाक को रद्द किए जाने से प्रभावित होने वाले कर्मचारियों और श्रमिकों की चिंता नहीं झलकती. कोई यह बताने वाला नहीं है कि आखिर कितने घरों में इन कोल ब्लाकों के रद्द होने से चूल्हे ठंडे हो गए या हो सकते हैं.
विकास और विस्थापन : विकास की यह कैसी समझ है? हम किसके विकास की और किस तरह के विकास की बात कर रहे हैं. उन लोगों की चिंता किसी को क्यों नहीं है कि इन कोल ब्लाकों के कारण कितनों का अस्तित्व ही दफन हो गया. कितने लोगों को इनके कारण विस्थापित होना पड़ रहा है.
हैरानी नहीं होनी चाहिए कि मध्य भारत के सिंगरौली के13 कोल क्षेत्रों में 11 लाख हेक्टेयर जंगल कोयला कंपनियों और सरकार के निशाने पर है. सिंगरौली को ही उदाहरण की तरह देखें तो 1952 में यहां के लोगों को रिंहद बांध से जुड़ी बिजली परियोजना के कारण विस्थापित होना पड़ा था. तब उन्हें बांध के उत्तरी हिस्से में बसाया गया. इसके बाद 1965 में उन्हें तब दोबारा विस्थापित किया गया जब नादर्न कोलफील्ड लिमिटेड ने वहां खनन शुरू किया गया. उसके बाद 1980 में उन्हें तीसरी बार तब बेदखल कर दिया गया जब नेशनल थर्म पावर कॉरपोरेशन ने वहां बिजली परियोजना पर काम शुरू किया.
इस क्षेत्र में 1980 के वन संरक्षण अधिनिमय के लागू होने के बाद वर्ष 2011 तक इस क्षेत्र में 5872 हेक्टेयर से अधिक वन भूमि को आधिकारिक रूप से गैर वन संबंधी कामों की ओर मोड़ दिया गया. इसमें से 5760 हेक्टेयर तो संरक्षित वन क्षेत्र की जमीन थी.
सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट के एक अध्ययन के मुताबिक 2007 के बाद से 157 कोल ब्लाकों के लिए 45000 हेक्टेयर वनों का सफाया कर दिया गया.
जंगलों कटाई : सिर्फ खदानों के कारण ही जंगलों का नुक्सान नहीं हुआ है. हाल के दशकों में जंगलों की अवैध कटाई का सबसे बड़ा मामला मालिक मकबूजा प्रकरण के रूप में सामने आया था. आप सब वाकिफ होंगे कि किस तरह नेताओं, अधिकारियों और ठेकेदारों के गठजोड़ ने बस्तर में 50,000 से अधिक पेड़ काट डाले. जंगलों के नष्ट होने का चौतरफा नुकसान होता है. इसका पारिस्थितिकी और कुल मिलाकर वन्यजनजीवन पर असर पड़ता है. जंगलों में हलचल बढ़ने से आदिवासियों के साथ ही वन्यजीवों के लिए भी परेशानी खड़ी होती है. आजादी के समय 40,000 से अधिक बाघ थे जो अब डेढ़ हजार के करीब रह गई है.
आदिवासियों के कारण जंगलों का नुक्सान नहीं होता. आदिवासी तो अपनी जरूरत के मुताबिक लकड़ी और वनोपज लेता है. उसके घर में तो आप साल और सागौन के फर्नीचर नहीं पाएंगे. उसके जीवन में तो कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखता. लोहा, कोयला के अलावा लघु वनोपज के आधार पर देखें तो इस देश में सर्वाधिक संपन्न तबका तो आदिवासियों को होना चाहिए, लेकिन उनके पास आज बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं. छत्तीसगढ़ में तो हर साल तकरीबन 50,000 करोड़ रुपये का तो तेंदूपत्ता ही हो जाता है. लेकिन इसमें 45000 करोड़ के करीब निजी कंपनियों के हाथ चला जाता है.
जंगल को लेकर हमारी समझ : जंगल और वन्यजीवों को लेकर हमारी समझ किस तरह की है यह इस किस्से से पता चलता है. दुर्लभ किस्म की पहाड़ी मैना के संरक्षण का खयाल आने पर वन अधिकारियों ने कुछ पहाड़ी मैना को मेटिंग के लिए तैयार किया. कई साल हो गए कुछ नहीं हुआ. इस पर करोड़ों रुपये खर्च कर दिये गये. लेकिन आज तक अधिकारियों को यह पता ही नहीं है कि इनमें से नर कौन सी है और मादा कौन सी है.
यह बात सिर्फ सरकारी अमले तक सीमित नहीं है. तेंदुआ, सिंह और बाघ के मामले में हमारे पत्रकार साथी तक फर्क नहीं कर पाते हैं. खबरों में कभी इन्हें चीता तक बता दिया जाता है. जबकि देश में चीता को लुप्त हुए दशकों बीत चुके हैं. एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने उत्तराखंड में एक हथिनी के उग्र हो जाने और कुछ लोगों को कुचल देने पर उसे आदमखोर तक लिख दिया था.
माओवादी हिंसा : छत्तीसगढ़, झारखंड या ओडिशा जैसे राज्यों में आदिवासी माओवादियों और कॉरपोरेट के बीच पिसकर रह गए हैं. बीते दो ढाई दशकों में आर्थिक उदारीकरण और नई आर्थिक नीतियों के आने के बाद से उनकी हालत और खराब हुई है. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने माओवादियों को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था. याद नहीं पड़ता कि कभी माओवादियों ने किसी वन्यजीव का शिकार रोकने के लिए कोई फरमान जारी किया हुआ.
जंगलों, वन्यजीवों और आदिवासियों के प्रति जिस संवेदना की जरूरत है वह दिखाई नहीं देती. चाहे सरकार की बात हो, मीडिया हो या फिर आम जन. फॉरेस्ट्री का कोर्स प्राथमिक स्कूलों से क्यों नहीं शुरू किया जा सकता ताकि बच्चे प्राकृतिक संसाधनों और जंगलों की कीमत समझ सकें और जब कोई पेड़ कटे तो उन्हें खुद को दर्द महसूस हो. यह कोई बहुत मुश्किल काम भी नहीं है.
जंगलों को निवेश का जरिया बनाने में मीडिया की भी बड़ा भूमिका है. कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो मीडिया को भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से निवेश का फैसलिटेटर बना दिया गया है. इसकी सबसे बड़ी वजह है मीडिया समूहों में आने वाली पूंजी. पता ही नहीं चलता है कि यह कहां कहां से और कैसे आ रही है. न जाने कितने औद्योगिक समूहों के हित मीडिया से जुड़ गए हैं. नतीजतन मीडिया में जंगल की जमीन सिमटती जा रही है.
देश का कोई सर्वाधिक उपेक्षित और वंचित तबका है, तो वह आदिवासी हैं. मैं न तो यह कोई नई बात कह रहा हूं और न ही कोई रहस्योद्घाटन कर रहा हूं. यह सवाल भी न जाने कितनी बार दोहराया जा चुका है कि आखिर ऐसा क्यों है कि जिस तबके ने प्राकृतिक संसाधनों के साथ साहचर्य स्थापित किया था, उसे उनके जंगलों से ही बेदखल किया जा रहा है?
जंगल में आदिवासी : विकास की हमारी अवधारणा में हम उसे बराबरी का दर्जा क्यों नहीं देना चाहते? या फिर ऐसा क्यों हुआ है कि जितनी भी बड़ी परियोजनाएं हैं फिर वह बांध हो, बिजली संयंत्र, लोहे या कोयले की खदानें, उसका सर्वाधिक खामियाजा आदिवासियों, वनवासियों के साथ ही वन्यजीवों को भुगतना पड़ता है? ये सवाल न तो पहली बार पूछे जा रहे हैं और न आखिरी बार.
हर तीसरा छत्तीसगढ़िया : असल में यह मुद्दा इस बात से जुड़ा है कि आखिर जंगलों और आदिवासियों के साथ हमारा बर्ताव किस तरह का है. हम छत्तीसगढ़ के उदाहरणों से ही समझ सकते हैं. यहां 44 फीसदी वन क्षेत्र हैं, जिसमें से बड़ा हिस्सा रिजवर्ड और प्रोटेक्टेड फॉरेस्ट के तहत आता है. यहां लोहा, बॉक्साइट जैसे महंगे खनिज दबे हुए हैं, हीरे तक की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं. साल, सागौन, बीजा, महुआ, तेंदू जैसे पेड़ों के घने जंगल हैं. बाघ, तेंदुआ, चीतल, वनभैंसा जैसे जीव हैं और यहां की कुल आबादी का 30 फीसदी हिस्सा आदिवासी हैं. यानी हर तीन में से एक छत्तीसगढ़िया आदिवासी है!
मगर इस आदिवासी की छत्तीसगढ़ में क्या भूमिका है? नीतियां बनाने से लेकर निर्णय लेने में उसकी भूमिका कहीं दिखती नहीं है. हैरत की बात है कि जिस क्षेत्र को आदिवासी बहुल और उपेक्षित होने के कारण अलग राज्य बनाया गया, उसे अब दुनियाभर में खदानों, पावर प्लांट और इस्पात संयंत्रों और माओवादी हिंसा की वजह से जाना जाता है. माओवादियों का प्रभाव क्षेत्र बढ़ गया. मुझे ठीक-ठीक जानकारी नहीं है कि यहां पिछले 14 वर्षों में राज्य बनने के बाद कितना निवेश हो चुका है, लेकिन मेरी जानकारी में अभी 31 अगस्त 2014 से 30 सितंबर 2014 के बीच छत्तीसगढ़ से छह खदानों में 1416.4 हेक्टेयर क्षेत्र के फारेस्ट क्लियरेंस से संबंधित प्रस्ताव केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय को दिए गए हैं. इनमें बैलाडीला की खदान नंबर 13 का प्रस्ताव भी है, जहां से महज 75 किमी दूर इंद्रावती टाइगर रिजर्व है.
सरकार ने खुद माना है कि उस क्षेत्र में तेंदुआ, वनभैंसा, सांभर,भालू जैसे वन्यजीव देखे जाते हैं. सर्वोच्च अदालत तक ने टाइगर रिजर्व के आसपास खनन पर रोक लगाई है. वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के मुताबिक हर राज्य के लिए अपने हर वन्यजीव क्षेत्र में कोर और बफर जोन को अधिसूचित करना अनिवार्य है. इस अधिनियम के मुताबिक 800 से 1000 वर्ग किमी के क्षेत्र को कोर एरिया के रूप में और बाकी के क्षेत्र को बफर क्षेत्र के रूप में नोटीफाई किया जाना चाहिए.
1990 के दशक में मैंने रिपोर्टिंग के दौरान देखा था कि किस तरह केंद्र और राज्य की सरकारें बैलाडीला की 11 बी खदान एक निजी कंपनी को देने को उतावली थीं. 11 बी एशिया की सबसे उम्दा लौह अयस्क खदान है. यहां 68 फीसदी तक आयरन ओर है. तत्कालीन प्रदेश सरकार ने सिर्फ 16 करोड़ रुपये में इसकी लीज के हस्तांतरण का फैसला कर लिया था.
इस दौड़ में जो कंपनियां लगी हुई थीं उनमें तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव के बेटे की कंपनी तक शामिल थी. खैर बड़े आंदोलन और अदालती कार्रवाइयों के बाद उसका निजीकरण नहीं हो सका. बात सिर्फ निजी क्षेत्र की नहीं है, सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों ने भी खदानों का दोहन तो खूब किया है, लेकिन जंगलों और आदिवासियों को होने वाले नुक्सान की भरपाई नहीं की है. बेशक, बैलाडीला और रावघाट में सबसे उम्दा लौह अयस्क मिलता है. मगर यह किस कीमत पर और किसकी कीमत पर चाहिए?
किसका कानून : ऐसा नहीं है कि आदिवासियों के हितों को संरक्षित करने के लिए कुछ नहीं किया गया. संविधान में दर्ज पांचवी और छठी अनुसचियां, 1996 का पेसा और 2006 का वन अधिकार अधिनियम जैसे कई उपाय हैं. इसके बावजूद हालात नहीं बदले हैं. मैं दो महत्वपूर्ण कानूनों का जिक्र करना चाहूंगा. एक है 1927 का वन अधिकार कानून और दूसरा है 1894 का जमीन अधिग्रहण कानून जिन्हें बदलने में अस्सी से सौ बरस तक लग गए. अब इन दोनों कानूनों को भी बदलने की बात होने लगी है, क्योंकि इन्हें निवेश और विकास की राह में रोड़ा माना जा रहा है!
आप कहीं भी देख लीजिए विकास संबंधी जितनी भी परियोजनाएं हैं, उसके लिए आदिवासियों को ही बेदखल किया जाता है.
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कल्याण से संबंधित संसद की स्थायी समिति ने 23 अक्टूबर, 2008 को लोकसभा में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा था कि विकास के नाम पर आदिवासियों को और भुगतना न पड़े. आदिवासी मामलों से संबंधित मंत्रालय को उन जगहों का संज्ञान लेना चाहिए जहां आदिवासी विस्थापन और अपने अस्तित्व को लेकर संघर्ष कर रहे हैं.
टाइम्स ऑफ इंडिया, 15 अक्टूबर, 2012 की एक रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश के सिंगरौली क्षेत्र में कोयला खदान के विस्तार के कारण 500 सौ आदिवासियों को विस्थापित होना पड़ा है, जिनकी पहुंच वनोपज से दूर होती जा रही है. ये लोग पीढ़ियों से वहां रहते आए हैं. वहां जंगलों में बाउंड्री बना दी गई है जिससे आदिवासी वनोपज एकत्र करने नहीं जा सकते. ऐसा हर उस जगह हो रहा है, जहां नए संयंत्रों या खदानों के लिए जमीन अधिग्रहित की जा रही हैं. यानी उन जगहों पर जंगल कंपनी का हो गया है! यह नया कंपनी राज है! इस कंपनी राज के लिए किसी लाइसेंस की जरूरत नहीं है, क्योंकि लाइसेंस राज को तो खत्म कर दिया गया है. अब तो सिंगल विंडो का जमाना है. सरकारें कॉरपोरेट को खुद आमंत्रित कर रही हैं. उनके लिए लाल कालीनें बिछाई जा रही हैं.
इन्वेस्टर्स समिट की जाती हैं और उनके साथ हर वर्ष वर्ष विभिन्न राज्यों में लाखों करोड़ के एमओयू पर हस्ताक्षर किए जा रहे हैं. हैरत की बात है कि सरकारें अब खुद को इन कंपनियों का फैसलिटेटर बताने से गुरेज नहीं कर रही हैं.अब तो डिमांड, डेमोग्राफी, डिविडेंट और डेवलपमेंट की बात की जा रही है और उसे इन्वेस्टमेंट से जोड़ा जा रहा है, लेकिन कोई डिवाइड और गैप की बात नहीं कर रहा है. जंगल में यह डिवाइड बढ़ती जा रही है.
मीडिया भी फैसलिटेटर : जंगलों को निवेश का जरिया बनाने में मीडिया की भी बड़ा भूमिका है. कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो मीडिया को भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से निवेश का फैसलिटेटर बना दिया गया है. इसकी सबसे बड़ी वजह है मीडिया समूहों में आने वाली पूंजी. पता ही नहीं चलता है कि यह कहां कहां से और कैसे आ रही है. न जाने कितने औद्योगिक समूहों के हित मीडिया से जुड़ गए हैं. नतीजतन मीडिया में जंगल की जमीन सिमटती जा रही है.
सबसे ताजा उदाहरण के तौर पर हम कोयला घोटाले से संबंधित मामले को देख सकते हैं. सर्वोच्च न्यायालय के 1993 के बाद से आवंटित किए गए 218 में से चार को छोड़कर बाकी सारे कोल ब्लाकों के आवंटन को अवैध करार देकर रद्द कर दिए जाने के फैसले से औद्योगिक जगत में हड़कंप मच गया. मीडिया ने इस खबर को इस तरह परोसा मानो कोयला ब्लाकों का आवंटन रद्द होने से अर्थव्यस्था रसातल में चली जाएगी.
विकास का पहिया थम जाएगा और न जाने क्या क्या..... कई प्रतिष्ठित पत्रों ने इसे अफसोसनाक फैसला तक करार दिया. मगर क्या वाकई मामला ऐसा ही है. हकीकत यह है कि इन 218 में से सिर्फ 42 पर ही काम शुरू हो सका है. सर्वोच्च न्यायालय ने जिन ब्लाकों को छोड़ा वे आधारभूत संरचना से जुड़ी परियोजनाएं हैं. यानी 172 कोल ब्लाकों में तो काम शुरू भी नहीं हुआ है!
इनमें कैप्टिव पॉवर प्लांट भी शामिल हैं. जाहिर है, कैप्टिव प्लांट में पैदा होने वाली बिजली इस्पात और सीमेंट जैसे संयंत्रों के लिए थी. इसका आम उपभोक्ता से कोई सीधा लेना देना नहीं है.
इस फैसले के बाद मीडिया के बड़े वर्ग की चिंता इन ब्लाकों में औद्योगिक घरानों और बैंकों के फंसे कोई छह लाख करोड़ रुपयों को लेकर दिखाई देती है. इनमें कहीं भी इन कोल ब्लाक को रद्द किए जाने से प्रभावित होने वाले कर्मचारियों और श्रमिकों की चिंता नहीं झलकती. कोई यह बताने वाला नहीं है कि आखिर कितने घरों में इन कोल ब्लाकों के रद्द होने से चूल्हे ठंडे हो गए या हो सकते हैं.
विकास और विस्थापन : विकास की यह कैसी समझ है? हम किसके विकास की और किस तरह के विकास की बात कर रहे हैं. उन लोगों की चिंता किसी को क्यों नहीं है कि इन कोल ब्लाकों के कारण कितनों का अस्तित्व ही दफन हो गया. कितने लोगों को इनके कारण विस्थापित होना पड़ रहा है.
हैरानी नहीं होनी चाहिए कि मध्य भारत के सिंगरौली के13 कोल क्षेत्रों में 11 लाख हेक्टेयर जंगल कोयला कंपनियों और सरकार के निशाने पर है. सिंगरौली को ही उदाहरण की तरह देखें तो 1952 में यहां के लोगों को रिंहद बांध से जुड़ी बिजली परियोजना के कारण विस्थापित होना पड़ा था. तब उन्हें बांध के उत्तरी हिस्से में बसाया गया. इसके बाद 1965 में उन्हें तब दोबारा विस्थापित किया गया जब नादर्न कोलफील्ड लिमिटेड ने वहां खनन शुरू किया गया. उसके बाद 1980 में उन्हें तीसरी बार तब बेदखल कर दिया गया जब नेशनल थर्म पावर कॉरपोरेशन ने वहां बिजली परियोजना पर काम शुरू किया.
इस क्षेत्र में 1980 के वन संरक्षण अधिनिमय के लागू होने के बाद वर्ष 2011 तक इस क्षेत्र में 5872 हेक्टेयर से अधिक वन भूमि को आधिकारिक रूप से गैर वन संबंधी कामों की ओर मोड़ दिया गया. इसमें से 5760 हेक्टेयर तो संरक्षित वन क्षेत्र की जमीन थी.
सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट के एक अध्ययन के मुताबिक 2007 के बाद से 157 कोल ब्लाकों के लिए 45000 हेक्टेयर वनों का सफाया कर दिया गया.
जंगलों कटाई : सिर्फ खदानों के कारण ही जंगलों का नुक्सान नहीं हुआ है. हाल के दशकों में जंगलों की अवैध कटाई का सबसे बड़ा मामला मालिक मकबूजा प्रकरण के रूप में सामने आया था. आप सब वाकिफ होंगे कि किस तरह नेताओं, अधिकारियों और ठेकेदारों के गठजोड़ ने बस्तर में 50,000 से अधिक पेड़ काट डाले. जंगलों के नष्ट होने का चौतरफा नुकसान होता है. इसका पारिस्थितिकी और कुल मिलाकर वन्यजनजीवन पर असर पड़ता है. जंगलों में हलचल बढ़ने से आदिवासियों के साथ ही वन्यजीवों के लिए भी परेशानी खड़ी होती है. आजादी के समय 40,000 से अधिक बाघ थे जो अब डेढ़ हजार के करीब रह गई है.
आदिवासियों के कारण जंगलों का नुक्सान नहीं होता. आदिवासी तो अपनी जरूरत के मुताबिक लकड़ी और वनोपज लेता है. उसके घर में तो आप साल और सागौन के फर्नीचर नहीं पाएंगे. उसके जीवन में तो कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखता. लोहा, कोयला के अलावा लघु वनोपज के आधार पर देखें तो इस देश में सर्वाधिक संपन्न तबका तो आदिवासियों को होना चाहिए, लेकिन उनके पास आज बुनियादी सुविधाएं तक नहीं हैं. छत्तीसगढ़ में तो हर साल तकरीबन 50,000 करोड़ रुपये का तो तेंदूपत्ता ही हो जाता है. लेकिन इसमें 45000 करोड़ के करीब निजी कंपनियों के हाथ चला जाता है.
जंगल को लेकर हमारी समझ : जंगल और वन्यजीवों को लेकर हमारी समझ किस तरह की है यह इस किस्से से पता चलता है. दुर्लभ किस्म की पहाड़ी मैना के संरक्षण का खयाल आने पर वन अधिकारियों ने कुछ पहाड़ी मैना को मेटिंग के लिए तैयार किया. कई साल हो गए कुछ नहीं हुआ. इस पर करोड़ों रुपये खर्च कर दिये गये. लेकिन आज तक अधिकारियों को यह पता ही नहीं है कि इनमें से नर कौन सी है और मादा कौन सी है.
यह बात सिर्फ सरकारी अमले तक सीमित नहीं है. तेंदुआ, सिंह और बाघ के मामले में हमारे पत्रकार साथी तक फर्क नहीं कर पाते हैं. खबरों में कभी इन्हें चीता तक बता दिया जाता है. जबकि देश में चीता को लुप्त हुए दशकों बीत चुके हैं. एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने उत्तराखंड में एक हथिनी के उग्र हो जाने और कुछ लोगों को कुचल देने पर उसे आदमखोर तक लिख दिया था.
माओवादी हिंसा : छत्तीसगढ़, झारखंड या ओडिशा जैसे राज्यों में आदिवासी माओवादियों और कॉरपोरेट के बीच पिसकर रह गए हैं. बीते दो ढाई दशकों में आर्थिक उदारीकरण और नई आर्थिक नीतियों के आने के बाद से उनकी हालत और खराब हुई है. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने माओवादियों को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था. याद नहीं पड़ता कि कभी माओवादियों ने किसी वन्यजीव का शिकार रोकने के लिए कोई फरमान जारी किया हुआ.
जंगलों, वन्यजीवों और आदिवासियों के प्रति जिस संवेदना की जरूरत है वह दिखाई नहीं देती. चाहे सरकार की बात हो, मीडिया हो या फिर आम जन. फॉरेस्ट्री का कोर्स प्राथमिक स्कूलों से क्यों नहीं शुरू किया जा सकता ताकि बच्चे प्राकृतिक संसाधनों और जंगलों की कीमत समझ सकें और जब कोई पेड़ कटे तो उन्हें खुद को दर्द महसूस हो. यह कोई बहुत मुश्किल काम भी नहीं है.
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