Monday, 10 February 2014

जयप्रकाश त्रिपाठी

अपने घर में अपने को ही खो देती हैं बेटियां।
मां के घर में हंसते-हंसते रो देती हैं बेटियां।

रामायण की चौपाई-सी, गीता के अनुबंध-सी,
आंगन-आंगन अक्षत-रोली बो देती हैं बेटियां।

इस चौखट से उस चौखट तक हिस्से हिस्से बंटी हुई
जो जैसा मांगे, वैसा उसको देती हैं बेटियां।

सोना-चांदी, हीरा-मोती मोल-तोल की बाते हैं,
कौन भला लौटा सकता है, जो देती हैं बेटियां।

गंगा-यमुना-सरस्वती की तरह कभी रूठती नहीं,
एक आचमन से मन सबका धो देती हैं बेटियां।



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