Sunday, 19 January 2014

राघवेंद्र प्रताप सिंह



एक हँसी बाज़ारू
साँस लिए भाड़े की,
रामदीन सोच रहा
अगले पखवाड़े की।
1.
हिस्से में अपने
चिरौरी है, विनती है
रोटी एकाध मगर
बार बार गिनती है,
ज़िन्दगी फटी किताब
हो गयी पहाड़े की।
2.
घावों में कितने
पैबन्द दिए घरनी ने
छीन ली ज़ुबाँ हमसे
वक्त की कतरनी ने,
आधा ही गाँव दिखा
आँखों से माड़े की।
3.
बच्चे हैं एक पाव
दूध के उठौने पर
फटी हुई कथरी
पुआल के बिछौने पर,
घुटनों पर ठहर गयी
शीतलहर जाड़े की...
रामदीन सोच रहा
अगले पखवाड़े की ।

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