Tuesday, 28 January 2014

स्त्री की आजादी का प्रश्न और यह बर्बर समय


कविता कृष्णन

महिलाएं जब आजादी की बात करती हैं तो कुछ लोग तुरंत उसे उच्छृंखलता क्यों सुन लेते हैं! महिलाओं की आजादी और उच्छृंखलता इन दोनों को एक साथ, एक-दूसरे के पर्याय के रूप में देखने की क्या जरूरत है? हाल के आंदोलन में महिलाओं ने अपनी आजादी और बराबरी की आवाज भी उठाई। न्याय की बात को सिर्फ कुछ बलात्कारियों की सजा तक न सीमित करके उन्होंने हर महिला के लिए आजादी और बराबरी के नारे को बुलंद किया। और जैसे ही उन्होंने ऐसा किया, चारों तरफ से अलग-अलग राजनीतिक तबकों, राजनीतिक नेताओं, यहां तक कि बाबाओं-गुरुओं की ओर से भी उसके खिलाफ प्रतिक्रिया सुनने में आई। उन्होंने कहा कि अगर महिलाएं लक्ष्मण रेखा पार करेंगी तो वहां उनके साथ बलात्कार होना ही है। उन सारे तबकों से ऐसा सुनना शायद आश्र्चय की बात नहीं है लेकिन हाल में एक लेख मैंने ‘प्रगतिशील’ विचारक राजकिशोर जी का भी पढ़ा, जिसमें उनके र्तकों को पढ़ कर आश्र्चय हुआ। उन्हें भी लगता है कि आजादी के नाम पर कोई वैचारिक फैशन चल पड़ा है। जहां उन्हें स्त्री की आजादी में उच्छृंखलता की आहट सुनाई देती है। कहा जा सकता है कि मैं भी उनमें से हूं जिनके बारे में उन्होंने कहा है कि वे यह पूछने पर भड़क उठती हैं और आंखे लाल-लाल करके पूछती हैं कि उच्छृंखलता की परिभाषा क्या है? इस मुद्दे पर मैं आंखे लाल करके नहीं, पर कुछ सवाल जरूर खड़े करना चाहूंगी। उन्होंने अपने लेख में सबसे पहले मेरा नाम लेते हुए मेरे एक भाषण का एक अंश उद्धृत किया है और उसके बाद अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा को उद्धृत किया है और कहा है कि मैं यानी कविता कृष्णन क्रांति की और प्रियंका चोपड़ा प्रतिक्रांति या दक्षिणपंथ की प्रतीक हैं। पहली बात जो मुझे समझ में नहीं आ रही है कि इन सब बातों में जो मूल बात है, उसे राजकिशोर जी को पकड़ने में क्या दिक्कत आ रही है। क्योंकि जो बात हम कहना चाह रहे हैं, वह प्रियंका चोपड़ा हों या मैं हूं, चाहे सड़क पर उतरी वे हजारों लड़कियां, जिन्होंने अपने हाथ से प्लेकार्ड बना-बना कर लिखा कि ‘आप हम कैसे कपड़े पहनें यह मत सिखाओ, अपने बेटों को सिखाओ कि वे बलात्कार न करें।’ मुझे लगता है कि इन सारी बातों में एक मूल बात थी कि महिला के कपड़े, उसका उठना-बैठना, अकेले चलना, उसके चाल-चलन को आधार बना कर बलात्कार को जायज न ठहराया जाये। महिलाएं बलात्कार के लिए भड़काती हैं, उत्तेजित करती हैं, इस समूची तर्क पद्धति के खिलाफ जबर्दस्त आक्रोश उन नारों में था, जो मेरी बातों में और अन्य सारी महिलाओं की बातों में भी झलका। लेकिन इससे बढ़ कर एक बात है, वह यह कि प्रियंका चोपड़ा तो एक अभिनेत्री हैं, वे एक ऐसे बाजार में अपनी जीविका अर्जित करती हैं, तमाम अन्य महिलाओं की तरह, जो बाजार महिलाओं की यौनिकता को, महिलाओं के सबआर्डिनेशन को बेचता है, उसे परोसता है। तो उस बाजार में काम करने वाली किसी महिला को दक्षिणपंथ या कि पूंजीवादी प्रतिक्रांति का प्रतिनिधि बताना, कितनी सही बात है? मैं अगर पूंजीवादी ताकतों के किसी प्रतिनिधि को खोजूंगी तो प्रियंका के बजाए नवीन जिंदल को खोजूंगी, जो दूसरे कई पूंजीपतियों की तरह खाप पंचायत के तमाम फतवों का विरोध करने की जगह उनके पक्ष में बोले। वे हरियाणा से सांसद हैं और वहां खाप पंचायतों को बनाए रखने में उनका और उनकी सरकार का भी हाथ है। हमारे देश में जो पूंजीवादी व्यवस्था है, वह सामंती पितृसत्तात्मक व्यवस्था खत्म करने की चेष्टा बिल्कुल नहीं करती बल्कि उसको और महिलाओं के सामंती शोषण को बनाए रखने में पूरी तरह से उसकी भूमिका और हिस्सेदारी है। राजकिशोर जी ने कहा है कि आजादी और बराबरी का तो सम्मान करना चाहिए लेकिन स्त्रियां कृपा करके पूंजीवादी संस्कृति की चूनर पहन करके तो न घूमें। वे अब तक अज्ञात एक बात बताते हैं कि पूंजीवादी बाजार स्त्रियों को नग्न करता है। मैं पूछना चाहती हूं कि बाजार स्त्रियों को सिर्फ नग्न करता है क्या? क्या आइटम नंबर पेश करने वाला बाजार ही बागबान जैसी फिल्में पेश नहीं करता? जिसमें वह एक पुरानी सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को और महिलाओं को पितृसत्तात्मक समाज द्वारा तय किए गए कुछ मूल्यों को बनाए रखने के तर्क देता है, उसे बनाए रखने के पक्ष में है? क्या बाजार इस तरह के पितृसत्तात्मक मूल्यों को पेश नहीं करता है? जिस समय बाजार महिलाओं को नग्न न करता हो बल्कि ऐसे विज्ञापन, जो दिखाते हों कि अगर आप लाइफ इंश्योरेंस खरीदते हैं तो यह एक तरह से महिलाओं के माथे में सिंदूर के बराबर है, तो क्या ऐसे विज्ञापन कम महिला विरोधी हैं? वही बाजार जो आइटम नम्बर पेश करता है, क्या ढेर सारे फिल्मों-सीरियलों में महिलाओं के लिए उन्हीं सामंती मूल्यों को बनाए रखने में नहीं लगा रहता? अगर आपको बाजार सुनते सिर्फ नग्नता नजर आए और यह न नजर आए कि हमारे यहां बाजार तमाम तरह के सामंती मूल्यों को बेचता है तो फिर सवाल उठना चाहिए कि आखिर यह कैसी नजर है? राजकिशोर जी महिलाओं की कामुकता को पेश करने की बात उठाते हैं। मैं याद दिलाना चाहूंगी कि कामुकता सिर्फ नग्न महिला में नहीं होती है। बाजार उसी कामुकता के लिए महिलाओं को अलग-अलग वेश और परिधान में पेश करता है। इसलिए उसमें हम सिर्फ और सिर्फ उन आयामों की ही ओर देखें और उन्हीं की आलोचना करें लेकिन जहां पर वह सामंती-पितृसत्तात्मक मूल्यों को पेश करता है वहां पर हम उसकी आलोचना न करें तो यह बेहद नाकाफी है। मुझे इससे भी सख्त आपत्ति होती है। जब हम यह कहते हैं कि स्त्री उत्तेजना और कामुकता पैदा करने की कोशिश करती है। यह नितांत स्त्री-विरोधी बयान है। राजकिशोर जी कहते हैं कि नचैये-गवैयों को अपना धंधा करने दीजिए लेकिन दूसरी स्त्रियां उस कामुकता का पालन- पोषण क्यों कर रही हैं। ‘नचैये-गवैयों’ में जो पुरुष सत्तावादी महिला-विरोधी नजरिया और महिलाओं के प्रति अपमान भरा है, क्या वह ‘डेंटिंग-पेंटिंग’
वाली शब्दावली से अलग है? हमें पूंजीवाद और महिलाओं से उसके रिश्ते को और बेहतर ढंग से समझने की जरूरत है। महिलाओं की आजादी की बात करने का मतलब उन्हें पूंजीवादी आग में झोंक देना नहीं होता। मैं यह भी पूछना चाहती हूं कि पुरुषों के पास तो यह आजादी लंबे समय से है, जो महिलाओं को तो दी नहीं गई कि वे पैंट-शर्ट पहनें और उनको पसंद आए तो वे विदेशी ढंग की किस्म-किस्म की वेश- भूषा अपना सकें। पुरुषों को यह आजादी भी है कि वे खुली सड़क पर कहीं भी अपनी हाजत रफा कर सकते हैं, उन्हें ट्वायलट ढूंढने की भी जरूरत नहीं। उनके पास यह आजादी भी है कि वे कहीं भी खुलेआम सड़क पर अपने कपड़े खोल सकते हैं और सलमान खान जैसे तमाम एक्टर अपना सिक्स पैक वाला शरीर दिखा सकते हैं, उनके बारे में हम पूंजीवादी संस्कृति की बात या उच्छृंखलता की बात कभी नहीं करते। उन्हें देखकर उच्छृंखलता शब्द हमारी जुबान पर शायद ही आता हो तो आखिर महिलाओं की आजादी और बराबरी के मामले में ही यह बात क्यों कही जाएगी? आज के समाज में महिलाएं आजादी से जो कुछ भी चुनती हैं, वह एक बहुत खास दायरे की, बहुत सीमित दायरे की आजादी होती है। क्योंकि हम जो भी चुनते हैं वह तमाम तरह के दबावों को झेलते हुए, जूझते हुए ही चुनते हैं। जैसे हम अगर एक रिसेप्सनिस्ट के बतौर काम करते हैं या अभिनेत्री के बतौर काम करते हैं तो हम पर एक खास तरह का दबाव होता है कि आपको एक खास तरह का ड्रेस पहन कर, खास तरह की लिपस्टिक लगाकर, खास तरह का मेकअप करके आना पड़ेगा। यह मांग हमसे जॉब मार्केट भी करती है और यह दबाव पूंजीवादी संस्कृति भी हम पर डालती है कि हम साइज जीरो बनें इत्यादि। इस दबाव को मैं कतई सही नहीं मानती। लेकिन सिर्फ यही दबाव तो है नहीं। लिपस्टिक न लगाने का, मेकअप न करने का, डेंटिंग-पेंटिंग न करने का दबाव भी तो महिलाओं पर होता है। यह सामंती समाज का, पितृसत्तात्मक समाज का दबाव है, जो महिलाओं को अपनी यौन आजादी या अन्य किस्म की भी जो आजादी है, उसे अभिव्यक्त करने के लिए आजादी नहीं देता। पूंजीवादी समाज भी नहीं देता और हमारे यहां का दकियानूस पिछड़ा समाज भी यह आजादी कतई नहीं देता। तब किसी खास तरह के मॉडर्न कपड़े पहनने को, नाचने-गाने को ही कहा जाए कि महिलाएं यह सब पूंजीवादी दबाव में कर रही हैं और हम यह न समझ पाएं कि महिलाएं ऐसा जब नहीं करती हैं, खुद को राकती हैं नाचने-गाने से, खुद को रोकती हैं जींस पहनने से, खुद को रोकती हैं पुरुष मित्र बनाने से तो यह वही बाजार है जो यह दबाव भी डालता है। क्योंकि यही बाजार है जो पिछड़े पुराने मूल्यों को भी पेश कर रहा है। इसीलिए इन तमाम तरह के दबावों को झेलते, उनसे जूझते हुए महिलाएं अपना निर्णय लेती हैं। राजकिशोर जी अपने इस लेख में गांधी जी को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक महिलाएं सुरक्षित पैदल चल सकें तभी वास्तव में स्त्रियों का सम्मान होगा, लेकिन इसमें वे जोड़ते हैं कि यह स्थिति पैदा हो सके इसके लिए आवश्यक है कि स्त्रियां पैसा कमाने के लिए या फ्रीलांस के बतौर अपने को मिठाई की तरह प्रस्तुत करने का लालच त्यागें। यहां वे उपभोक्तावाद की भी बात करते हैं। अगर हम महिलाओं को सुरक्षित देखना चाहते हैं तो सबसे पहले यह नजरिया हमें त्यागना होगा कि महिलाएं जो पैसा कमाने के लिए नाचती-गाती हैं वे अपने को मिठाई की तरह पेश कर रही हैं। या जो महिलाएं मॉडर्न कपड़े पहनती हैं या लिप्स्टिक लगाती हैं वे मिठाई की तरह खुद को पेश कर रही हैं। यह नजरिया महिलाओं की सुरक्षा को उनके पहनावे, उनके चाल-चलन से जोड़ता है, महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी महिलाओं पर खुद डालता है और कहीं न कहीं बलात्कार और यौन हिंसा को जायज ठहराता है। क्योंकि ऐसा कहने का मतलब यही हुआ कि महिला अगर खुद को मिठाई की तरह पेश कर रही है तो उस पर यौन हिंसा होनी ही है। लक्ष्मण रेखा पार करेगी तो रावण सामने खड़ा ही है। इन तरह-तरह से कहे गये वाक्यों में कोई खास अंतर नहीं है। इसलिए मुझे लगता है कि प्रगतिशील तबकों में भी अगर महिलाओं की आजादी-बराबरी की बात से कुछ दुविधा पैदा हुई है, कुछ परेशानी पैदा हुई है तो अच्छी बात है और महिलाओं को इस परेशानी को आगे और आगे बढ़ाने की जरूरत है। मैं इस परेशानी का पूरा स्वागत करूंगी।

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