क्या भारत की 'क्षेत्रीय भाषाओं' में लिखा जाने वाला साहित्य केवल अनुवाद के सहारे ही जीवित रह पाएगा? क्या वजह है कि अवधी, भोजपुरी, पंजाबी या मराठी में लिखने वालों के अपने पाठक कम होते जा रहे हैं? क्या हिंदी इन भाषाओं को निगल रही है या फिर इसके लिए ज़िम्मेदार हैं ख़ुद पाठक। राजस्थानी लोक साहित्य में गहरी पैठ रखने वाले जानेमाने लेखक विजयदान देथा को लोग उनकी आंचलिक शैली और किस्सागोई के लिए याद करते हैं लेकिन उनके निधन पर हर तरफ एक बहस छिड़ी है कि हिंदी के अलावा दूसरी भारतीय भाषाओं के 'विजयदान देथा' क्यों और कैसे खो रहे हैं। हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक उदय प्रकाश ने किसी भाषा को क्षेत्रीय कहने पर ही सवाल उठाते हुए कहा, "सबसे पहले तो इस पर वस्तुपरक ढंग से सोचा जाए कि क्या ऐसी भी भाषा कोई होती है या हो सकती है, जिसका कोई 'क्षेत्र' ही न हो! क्या ऐसी भाषा जिसका भौगोलिक-सामाजिक आधार न हो, जो परिवारों, जनपदों, 'पिछड़े बना कर रखे गये' इलाकों में लोक-व्यवहार में न हो, बल्कि अन्य प्रक्रियाओं से विनिर्मित हो, क्या 'भाषा' सिर्फ़ वही हो सकती है?" हिन्दी के प्रमुख प्रकाशक राजकमल प्रकाशन समूह के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम इस बहस से जुड़े और उदय प्रकाश की बात को आगे ले जाते हुए कहा, ''हर भाषा की अपनी एक दुनिया होती है. 'क्षेत्र' और 'क्षेत्रीयता' के पैमाने पर हम अगर जाएंगे तो क्या हिंदी का भी एक क्षेत्र विशेष नहीं है? तब क्या दुनिया की सारी भाषाओं को वैश्विक, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय भाषा के खाके में बाँट कर देखा जाएगा?" वरिष्ठ पत्रकार और समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने हाल ही में केन्याई लेखक न्गुगी वा थ्योंगो की एक किताब का अनुवाद किया है। उन्होंने बताया कि किस तरह न्गुगी ने सामंती दमन और नव-औपनिवेशिक स्थितियों को झेला था और यही वजह है कि अंग्रेज़ी में बहुत ज़्यादा चर्चित होने के बावजूद उन्होंने अंग्रेज़ी को तिलांजलि दी और अपनी मूल भाषा गिकुयू और किस्वाहिली में लिखना शुरू कर दिया। बात केवल क्षेत्रीय भाषाओं की नहीं है। क्षेत्रीय भाषाओं को हिंदी के वर्चस्व से और हिंदी को अंग्रेज़ी के वर्चस्व से ख़तरा पैदा हो गया है। इन सबके पीछे हमारी वह मानसिकता है जिसे हम औपनिवेशिक मानसिकता कह सकते हैं। आदिवासियों की भाषा और संस्कृति के लिए काम करने वाले एके पंकज 'झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखाड़ा' से जुड़े हैं। पंकज ने आदिवासी भाषाओं की वर्तमान स्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा, "भारत में जानबूझ कर आदिवासी भाषाओं को मारने की लगातार कोशिश हो रही हैं। भाषाओं की राजनीति पर कौन बात करेगा? भाषा में जो लोग मर रहे हैं और मारे जा रहे हैं, वे यहां हो रही बहस से पूरी तरह से गायब है? संस्कृतिकरण के ज़रिए आदिवासी भाषाओं और संस्कृति पर हमले हो रहे हैं। देश के आदिवासी इलाक़े अंग्रेज़ी, हिंदी, भोजपुरी, मैथिली, बांग्ला आदि समर्थ भाषाओं के उपनिवेश बने हुए हैं और इसे बनाने वाले इन भाषाओं के बुद्धिजीवी हैं, इनके जातीय, धार्मिक राजनीतिक दल हैं। सत्यानंद निरुपम का मानना है कि सभी भाषाओं को एक तराजू में रखकर देखने की ज़रूरत नहीं है। अवधी और भोजपुरी की जो स्थिति है, उससे बिलकुल अलग है पंजाबी या मराठी का हाल। इनको हमें अलग-अलग करके देखना होगा। मराठी और पंजाबी में जो कुछ लिखा जाता है, हिंदी उसको अनुवाद के ज़रिये विस्तार देती है लेकिन अवधी और भोजपुरी जैसी बोलियां हिंदी के उत्थान के साथ सिमटती चली गई हैं। उर्दू अकादमी के उपाध्यक्ष प्रोफेसर अख़्तरुल वासे का मानना है कि भाषाएं सरकार के संरक्षण में नहीं, अपने बोलने वालों के दम पर भी ज़िंदा रहती हैं और आगे भी बढ़ती हैं। कोई भी भाषा साहित्य में वही कृति ज़िंदा रहती है जो सार्थक भी हों और जीवन से सच्चे तौर से जुड़ी हुई भी। राजस्थानी लेखक हरीराम मीणा अनुवाद का समर्थन तो करते हैं लेकिन वो इसे आलोचनात्मक दृष्टि से देखने के हिमायती हैं। उनके अनुसार, अनुवाद अपनी जगह महत्व रखता है लेकिन अनुवाद आखिर किसका? कोई भाषा अपने आप में कमज़ोर नहीं होती। उसकी अपनी एक परंपरा होती है। उसका अपना मुहावरा होता है। उसे पकड़ते हुए यदि साहित्य लिखा जाता है तो विज्जी (विजयदान देथा) जैसा साहित्य सामने आएगा। दूसरा उदहारण रसूल हमजातोव का दिया जा सकता है। मेरा दागिस्तान वैश्विक स्तर पर कितना सराहा गया। क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य की मौखिक परंपरा को भी समझने की ज़रूरत है। सत्यानंद निरुपम का कहना है कि नागार्जुन हिंदी प्रकाशन जगत के प्रिय लेखक रहे। नागार्जुन ने खुद भी पुस्तिकाएं छाप कर रेलगाड़ियों में घूम-घूम कर अपने हाथों बेचा। उनके जीवित रहते ही उनके एक पुत्र ने एक प्रकाशन संस्थान भी खोला, जहाँ से नागार्जुन की कुछ किताबें छपीं। वहां से तो बहुत ईमानदारी से किताबें बेचीं गई होंगी लेकिन क्या फ़र्क़ पड़ा? क्या आप हिंदी समाज के भीतर की जटिलताओं और कमियों को देख नहीं पा रहे हैं या जान-बूझकर नजरअंदाज कर रहे हैं? (साभार बीबीसी से)
Thursday, 14 November 2013
दूसरी भाषाओं को निगल तो नहीं रही हिंदी
क्या भारत की 'क्षेत्रीय भाषाओं' में लिखा जाने वाला साहित्य केवल अनुवाद के सहारे ही जीवित रह पाएगा? क्या वजह है कि अवधी, भोजपुरी, पंजाबी या मराठी में लिखने वालों के अपने पाठक कम होते जा रहे हैं? क्या हिंदी इन भाषाओं को निगल रही है या फिर इसके लिए ज़िम्मेदार हैं ख़ुद पाठक। राजस्थानी लोक साहित्य में गहरी पैठ रखने वाले जानेमाने लेखक विजयदान देथा को लोग उनकी आंचलिक शैली और किस्सागोई के लिए याद करते हैं लेकिन उनके निधन पर हर तरफ एक बहस छिड़ी है कि हिंदी के अलावा दूसरी भारतीय भाषाओं के 'विजयदान देथा' क्यों और कैसे खो रहे हैं। हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक उदय प्रकाश ने किसी भाषा को क्षेत्रीय कहने पर ही सवाल उठाते हुए कहा, "सबसे पहले तो इस पर वस्तुपरक ढंग से सोचा जाए कि क्या ऐसी भी भाषा कोई होती है या हो सकती है, जिसका कोई 'क्षेत्र' ही न हो! क्या ऐसी भाषा जिसका भौगोलिक-सामाजिक आधार न हो, जो परिवारों, जनपदों, 'पिछड़े बना कर रखे गये' इलाकों में लोक-व्यवहार में न हो, बल्कि अन्य प्रक्रियाओं से विनिर्मित हो, क्या 'भाषा' सिर्फ़ वही हो सकती है?" हिन्दी के प्रमुख प्रकाशक राजकमल प्रकाशन समूह के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम इस बहस से जुड़े और उदय प्रकाश की बात को आगे ले जाते हुए कहा, ''हर भाषा की अपनी एक दुनिया होती है. 'क्षेत्र' और 'क्षेत्रीयता' के पैमाने पर हम अगर जाएंगे तो क्या हिंदी का भी एक क्षेत्र विशेष नहीं है? तब क्या दुनिया की सारी भाषाओं को वैश्विक, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय भाषा के खाके में बाँट कर देखा जाएगा?" वरिष्ठ पत्रकार और समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने हाल ही में केन्याई लेखक न्गुगी वा थ्योंगो की एक किताब का अनुवाद किया है। उन्होंने बताया कि किस तरह न्गुगी ने सामंती दमन और नव-औपनिवेशिक स्थितियों को झेला था और यही वजह है कि अंग्रेज़ी में बहुत ज़्यादा चर्चित होने के बावजूद उन्होंने अंग्रेज़ी को तिलांजलि दी और अपनी मूल भाषा गिकुयू और किस्वाहिली में लिखना शुरू कर दिया। बात केवल क्षेत्रीय भाषाओं की नहीं है। क्षेत्रीय भाषाओं को हिंदी के वर्चस्व से और हिंदी को अंग्रेज़ी के वर्चस्व से ख़तरा पैदा हो गया है। इन सबके पीछे हमारी वह मानसिकता है जिसे हम औपनिवेशिक मानसिकता कह सकते हैं। आदिवासियों की भाषा और संस्कृति के लिए काम करने वाले एके पंकज 'झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखाड़ा' से जुड़े हैं। पंकज ने आदिवासी भाषाओं की वर्तमान स्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा, "भारत में जानबूझ कर आदिवासी भाषाओं को मारने की लगातार कोशिश हो रही हैं। भाषाओं की राजनीति पर कौन बात करेगा? भाषा में जो लोग मर रहे हैं और मारे जा रहे हैं, वे यहां हो रही बहस से पूरी तरह से गायब है? संस्कृतिकरण के ज़रिए आदिवासी भाषाओं और संस्कृति पर हमले हो रहे हैं। देश के आदिवासी इलाक़े अंग्रेज़ी, हिंदी, भोजपुरी, मैथिली, बांग्ला आदि समर्थ भाषाओं के उपनिवेश बने हुए हैं और इसे बनाने वाले इन भाषाओं के बुद्धिजीवी हैं, इनके जातीय, धार्मिक राजनीतिक दल हैं। सत्यानंद निरुपम का मानना है कि सभी भाषाओं को एक तराजू में रखकर देखने की ज़रूरत नहीं है। अवधी और भोजपुरी की जो स्थिति है, उससे बिलकुल अलग है पंजाबी या मराठी का हाल। इनको हमें अलग-अलग करके देखना होगा। मराठी और पंजाबी में जो कुछ लिखा जाता है, हिंदी उसको अनुवाद के ज़रिये विस्तार देती है लेकिन अवधी और भोजपुरी जैसी बोलियां हिंदी के उत्थान के साथ सिमटती चली गई हैं। उर्दू अकादमी के उपाध्यक्ष प्रोफेसर अख़्तरुल वासे का मानना है कि भाषाएं सरकार के संरक्षण में नहीं, अपने बोलने वालों के दम पर भी ज़िंदा रहती हैं और आगे भी बढ़ती हैं। कोई भी भाषा साहित्य में वही कृति ज़िंदा रहती है जो सार्थक भी हों और जीवन से सच्चे तौर से जुड़ी हुई भी। राजस्थानी लेखक हरीराम मीणा अनुवाद का समर्थन तो करते हैं लेकिन वो इसे आलोचनात्मक दृष्टि से देखने के हिमायती हैं। उनके अनुसार, अनुवाद अपनी जगह महत्व रखता है लेकिन अनुवाद आखिर किसका? कोई भाषा अपने आप में कमज़ोर नहीं होती। उसकी अपनी एक परंपरा होती है। उसका अपना मुहावरा होता है। उसे पकड़ते हुए यदि साहित्य लिखा जाता है तो विज्जी (विजयदान देथा) जैसा साहित्य सामने आएगा। दूसरा उदहारण रसूल हमजातोव का दिया जा सकता है। मेरा दागिस्तान वैश्विक स्तर पर कितना सराहा गया। क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य की मौखिक परंपरा को भी समझने की ज़रूरत है। सत्यानंद निरुपम का कहना है कि नागार्जुन हिंदी प्रकाशन जगत के प्रिय लेखक रहे। नागार्जुन ने खुद भी पुस्तिकाएं छाप कर रेलगाड़ियों में घूम-घूम कर अपने हाथों बेचा। उनके जीवित रहते ही उनके एक पुत्र ने एक प्रकाशन संस्थान भी खोला, जहाँ से नागार्जुन की कुछ किताबें छपीं। वहां से तो बहुत ईमानदारी से किताबें बेचीं गई होंगी लेकिन क्या फ़र्क़ पड़ा? क्या आप हिंदी समाज के भीतर की जटिलताओं और कमियों को देख नहीं पा रहे हैं या जान-बूझकर नजरअंदाज कर रहे हैं? (साभार बीबीसी से)
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